इस दुनिया में आने के बाद हमारी इच्छा हो या न हो , हम अपने काल , स्थान और परिस्थिति के अनुसार स्वयमेव काम करने को बाध्य होते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं , अपने काल , स्थान और परिस्थिति के अनुरूप ही हमें फल प्राप्त करने की लालसा भी होती है। पर हमेशा अपने मन के अनुरूप ही प्राप्ति नहीं हो पाती , जीवन का कोई पक्ष बहुत मनोनुकूल होता है , तो कोई पक्ष हमें समझौता करने को मजबूर भी करता रहता है। पर यही जीवन है , इसे मानते हुए , जीवन के लंबे अंतराल में कभी थोडा अधिक , तो कभी थोडा कम पाकर भी हम अपने जीवन से लगभग संतुष्ट ही रहते हैं। यदि संतुष्ट न भी हों , तो आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु इतनी भागदौड करनी पडती है और हमारे पास समय की इतनी कमी होती है कि तनाव झेलने का प्रश्न ही नहीं उपस्थित होता।
पर समय समय पर छोटी बडी अच्छी या बुरी घटनाएं आ आकर कभी हमारा उत्साह बढाती है , तो कभी हमें अपने कर्तब्यों के प्रति सचेत भी करती है। यदि हमें सर्दी जुकाम हो , तो इसका अर्थ यह है कि प्रकृति के द्वारा अगली बार ठंड से बचने के लिए हमें आगाह किया जाता है। इसी प्रकार पेट की गडबडी हो तो हम संयम से खाने पीने की सीख लेते हैं। ऐसी घटनाओं में कभी भी अनर्थ नहीं हुआ करता। पर इस दुनिया के लाखों लोगों में से कभी कभी किसी एक के साथ कोई बडी सुख भरी या कोई दुखभरी घटना घट जाया करती है , जो सिर्फ उसके लिए ही नहीं , पूरे समाज और देश तक के लिए आनंददायक या कष्टकर हो जाती है। प्रकृति में ये घटनाएं सामूहिक रूप से हमारा उत्साह बढाने या हमें सावधान करने के लिए होती रहती है। कहीं ठीक से पालन पोषण होने से किसी का बच्चा 'बडा आदमी' बन जाता है तो कहीं ठीक से न होने से किसी का बच्चा 'चोर डाकू' भी बन जाता है। कहीं पर रिश्तो की मजबूती हमारे जीवन को स्वर्ग बनाने में सक्षम है तो कहीं ढंग से रिश्तो को नहीं निभाए जाने से पति पत्नी के मध्य तलाक तक की नौबत आती है। कहीं ढंग से काम न करने से किसी प्रकार की दुर्घटना होती है , तो कहीं सही देखभाल न होने से किसी की मौत। यदि सामूहिक तौर पर देखा जाए एक लाख से भी अधिक लोगों में से किसी एक व्यक्ति के साथ हुई इस प्रकार की घटना से बाकी 99,999 से भी अधिक लोग सावधानी से जीना सीख जाते हैं।
पर सावधान बने रहने की इस सीख को भयावह रूप में देखकर हम अक्सर अपने तनाव को बढा लेते हैं। प्रकृति में अति दुखद घटनाओं की संख्या बहुत ही विरल होती है। ऐसी समस्याएं अक्सर नहीं आती, कभी कभार ही लोगों को इस प्रकार की समस्या में जीना पडता है। पर प्रकृति के इस नियम को हम बिल्कुल नहीं समझ पाते। सबसे पहले तो अपने धन , पद और आत्मविश्वास में हम किसी प्रकार की अनहोनी की संभावना को ही नकार देते हैं। प्रकृति के महत्व को ही स्वीकार नहीं करते और जब कोई छोटी समस्या भी आए तो उसे छोटे रूप में स्वीकार ही नहीं कर पाते। मामूली बातों को भी वे भयावह रूप में देखने लगते हैं। जैसे किसी अच्छे स्कूल या कॉलेज में बच्चे का दाखिला न हो सका , तो हमें बच्चे का पूरा जीवन व्यर्थ नजर आने लगता है। बच्चे को कहीं थोडी सी चोट लग गयी हो तो भयावह कल्पना करते हुए हमारा मन घबराने लगता है , बेटे का पढाई में मन नहीं लग रहा तो भविष्य में उसके रोजी रोटी की समस्या दिखने लगती है। बच्ची का विवाह नहीं हो रहा हो , तो उसके जीवनभर अविवाहित बने रहने की चिंता सताने लगती है। लेकिन ऐसा नहीं होता , देश , काल और परिस्थिति के अनुसार सभी के काम होने ही हैं , इसलिए अपने परिवार के कर्तब्यों का पालन करते हुए इसकी छोटी छोटी चिंता को छोड हमें अपने कर्तब्यों के द्वारा देश और समाज को मजबूत बनाने के प्रयास करने चाहिए।
अपने अनुभव में मैंने पाया है कि चिंता में घिरे अधिकांश लोग सिर्फ शक या संदेह में अपना समय बर्वाद करते हैं। इस दुनिया में सारे लोगों का काम एक साथ होना संभव नहीं , यह जानते हुए भी लोग बेवजह चिंता करते हैं। हमारे धर्मग्रंथ 'गीता' का सार यही है कि हमारा सिर्फ कर्म पर अधिकार है , फल पर नहीं। इसका अर्थ यही है कि फल की प्राप्ति में देर सवेर संभव है। इस बात को समझते हुए हम कर्तब्य के पथ पर अविराम यात्रा करते रहें , तो 2010 ही क्या , उसके बाद भी आनेवाला हर वर्ष हमारे लिए मंगलमय होगा। मैं कामना करती हूं कि आनेवाले वर्ष आपके लिए हर प्रकार की सुख और सफलता लेकर आए !!
सकारात्मक का मतलब क्या होता है, सकारात्मक और नकारात्मक सोच क्या है, सकारात्मक सोच कैसे बनाये, सकारात्मक सोच के फायदे क्या हैं, सकारात्मक सोच के उपाय क्या कर सकते हैं, खुद को, दिमाग को पॉजिटिव कैसे रखें - कुल मिलाकर इस ब्लॉग में पॉजिटिव थिंकिंग टिप्स यानि सकारात्मक सोच पर निबंध और सकारात्मक दृष्टिकोण मिलेगा आपको !
Thursday 31 December 2009
Tuesday 29 December 2009
अंधकार युग से निकलकर भारत के युवाओं का स्वर्णयुग में प्रवेश
आज आप किसी भी मध्यमवर्गीय परिवार में पहुंच जाएं , उसके युवा पुत्र या पुत्री मल्टीनेशनल कंपनी में लाखों के पैकेज वाली नौकरी कर रहे हैं , कितने की तो विदेशों से ऐसी आवाजाही है मानों भारत घर है और विदेश आंगन। उच्च वर्गीय लोगों के लिए ही विदेशों की यात्रा होती है ,यह संशय मध्यम वर्गीय परिवारों में मिट चुका है और अनेक माता-पिता भी अपने बच्चों के कारण विदेश यात्रा का आनंद ले चुके हैं। इसी प्रकार प्रत्येक परिवार का किशोर वर्ग , चाहे वो बेटा हो या बिटिया , बडे या छोटे किसी न किसी संस्था से इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की पढाई कर रहे है और आनेवाले समय में उसके लिए भी नौकरी की पूरी संभावना दिख रही है। जो विद्यार्थी जीवन में बिल्कुल सामान्य स्तर के थे , उनके कैरियर की मजबूती भी देखकर आश्चर्य होता है। महंगे पढाई करवा पाना किसी अभिभावक के लिए कठिन हो , तो बैंक भी कर्ज देने को तैयार होती है और किशोरों की पढाई में कोई बाधा नहीं आने देती। प्राइवेटाइजेशन के इस युग में तकनीकी ज्ञान रखनेवालों लाखों विद्यार्थियों के रोजगार की व्यवस्था से आज के युवा वर्ग की स्थिति स्वर्णिम दिख रही है। वे पूरी मेहनत करना पसंद करते हैं , पर अपने जीवन में थोडा भी समझौता करना नहीं चाहते , उनकी पसंद सिर्फ ब्रांडेड सामान हैं, रईसी का जीवन है। इसका भविष्य पर क्या प्रभाव पडेगा , यह तो देखने वाली बात होगी , पर यदि 20 वी सदी के अंत से इसकी तुलना की जाए तो 21 सदी के आरंभ में आया यह परिवर्तन सामान्य नहीं माना जा सकता।
यदि हम पीछे मुडकर देखें , तो1990 तक यत्र तत्र सरकारी नौकरियों में जगह खाली हुआ करती थी , भ्रष्टाचार भी एक सीमा के अंदर था , प्रतिभासंपन्न युवाओं को कहीं न कहीं नौकरी मिल जाया करती थी। अपने स्तर के अनुरूप सरकारी सेवा में सीमित तनख्वाह में रहते हुए भी जहां युवा वर्ग निराश नहीं था, वहीं अभिभावक भी प्रतिभा के अनुरूप अपने संतान की स्थिति को देखकर संतुष्ट रहा करते थे। पर 1990 के बाद सरकारी संस्थाओं में भी छंटनी का दौर शुरू हुआ , जब पुराने कर्मचारियों को नौकरी से निकाला जा रहा हो , तो नए लोगों को रखने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता ? 2000 के दशक में कहीं कोई रिक्त पद नहीं , यदि कहीं से दो चार पदों पर नियुक्ति की कोई संभावना भी दिखी तो पद या पैसे वालों को उसपर कब्जा करने में देर नहीं होती थी। एक से एक मेधावी बच्चे , जिन्होने 1990 से 2000 के मध्य अपनी पढाई समाप्त की , एक ऐसे अंधकार युग में अपने कैरियर चुनने को विवश हुए , जहां विकल्प के नाम पर अपने परंपरागत व्यवसाय या फिर समय काटने के लिए कोई प्राइवेट नौकरी करनी थी। कोई अमीर अभिभावक पैसे खर्च कर अपने बेटों को इंजीनियरिंग या मेडिकल की प्राइवेट डिग्री दिलवा भी देता था , तो नौकरी के बाजार में उसकी कोई इज्जत नहीं थी। वह नाम के लिए ही डॉक्टर या इंजीनियर हो जाता था और पूरे जीवन कोई व्यसाय के सहारे ही चलाने को बाध्य होते थे। बिना तकनीकी ज्ञान के अपने काम और अनुभव के सहारे कोई अपना कैरियर बनाने में सक्षम हुए , तो कोई अपनी रूचि न होने के बावजूद किसी व्यवसाय में लगकर अपनी जीवन नैया को खींचने को समझौता करने को तैयार हुए। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि उस दशक में सभी युवा भाग्य भरोसे जीने को बाध्य हुए । मात्र दस वर्ष में हुए इस परिवर्तन को देखते हुए ही मैं अक्सर कहा करती हूं कि युवा वर्ग ने अंधकार युग से निकलकर स्वर्णिम युग में प्रवेश किया है !!
यदि हम पीछे मुडकर देखें , तो1990 तक यत्र तत्र सरकारी नौकरियों में जगह खाली हुआ करती थी , भ्रष्टाचार भी एक सीमा के अंदर था , प्रतिभासंपन्न युवाओं को कहीं न कहीं नौकरी मिल जाया करती थी। अपने स्तर के अनुरूप सरकारी सेवा में सीमित तनख्वाह में रहते हुए भी जहां युवा वर्ग निराश नहीं था, वहीं अभिभावक भी प्रतिभा के अनुरूप अपने संतान की स्थिति को देखकर संतुष्ट रहा करते थे। पर 1990 के बाद सरकारी संस्थाओं में भी छंटनी का दौर शुरू हुआ , जब पुराने कर्मचारियों को नौकरी से निकाला जा रहा हो , तो नए लोगों को रखने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता ? 2000 के दशक में कहीं कोई रिक्त पद नहीं , यदि कहीं से दो चार पदों पर नियुक्ति की कोई संभावना भी दिखी तो पद या पैसे वालों को उसपर कब्जा करने में देर नहीं होती थी। एक से एक मेधावी बच्चे , जिन्होने 1990 से 2000 के मध्य अपनी पढाई समाप्त की , एक ऐसे अंधकार युग में अपने कैरियर चुनने को विवश हुए , जहां विकल्प के नाम पर अपने परंपरागत व्यवसाय या फिर समय काटने के लिए कोई प्राइवेट नौकरी करनी थी। कोई अमीर अभिभावक पैसे खर्च कर अपने बेटों को इंजीनियरिंग या मेडिकल की प्राइवेट डिग्री दिलवा भी देता था , तो नौकरी के बाजार में उसकी कोई इज्जत नहीं थी। वह नाम के लिए ही डॉक्टर या इंजीनियर हो जाता था और पूरे जीवन कोई व्यसाय के सहारे ही चलाने को बाध्य होते थे। बिना तकनीकी ज्ञान के अपने काम और अनुभव के सहारे कोई अपना कैरियर बनाने में सक्षम हुए , तो कोई अपनी रूचि न होने के बावजूद किसी व्यवसाय में लगकर अपनी जीवन नैया को खींचने को समझौता करने को तैयार हुए। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि उस दशक में सभी युवा भाग्य भरोसे जीने को बाध्य हुए । मात्र दस वर्ष में हुए इस परिवर्तन को देखते हुए ही मैं अक्सर कहा करती हूं कि युवा वर्ग ने अंधकार युग से निकलकर स्वर्णिम युग में प्रवेश किया है !!
Friday 25 December 2009
समाज में लिंग परीक्षण कर कन्या भ्रूण की हत्या की गलत परंपरा का फल भुगतना होगा हमें !!
ज्योतिष जैसे विषय से मेरे संबंधित होने के कारण मेरे समक्ष परेशान लोगों की भीड लगनी ही है। तब मुझे महसूस होता है कि इस दुनिया में समस्याओं की कमी नहीं , सारे लोग किसी न किसी प्रकार के दुख से परेशान हैं। इसमें वैसे अभिभावकों की संख्या भी कम नहीं , जो अपने पुत्र या पुत्रियों के विवाह के लिए कई कई वर्षों से परेशान हैं। प्रतिवर्ष मेरे पास आनेवाले परेशान अभिभावकों को मदद करने के क्रम में एक दो विवाह मेरे द्वारा भी हो जाया करते हैं। पर इधर कुछ वर्षों से मैं महसूस कर रही हूं कि हमारे पास आनेवाले परेशान अभिभावकों में बेटियों के माता पिता कम हैं और बेटों के अधिक। इससे स्पष्ट है कि वर की तुलना में विवाह के लिए वधूओं की संख्या कम है।
कन्या भ्रूण हत्या के फलस्वरूप भविष्य में इस प्रकार की स्थिति के बनने की आशंका तो सबों को है , पर इसके इतनी जल्दी उपस्थित हो जाने से मुझे बडी चिंता हो रही है। आज विवाह के लिए जो भी वर और कन्या तैयार दिख रहे हैं , उनका जन्म 1975 से 1985 के मध्य का माना जा सकता है। उस समय शायद भ्रूण हत्या को तो कानूनी मान्यता मिल गयी थी , पर इतनी जल्दी गर्भ में लिंग परीक्षण होने की विधि विकसित नहीं हुई थी कि परीक्षण करने के बाद उसकी हत्या की जा सके। उस वक्त भ्रूण हत्या के द्वारा अनचाही संतान को ही दुनिया में आने से रोका जाता था। पर इससे भी लिंग असंतुलन हो ही गया , वो इस कारण कि जिस दंपत्ति के दो या तीन बेटे हो गए , उन्होने तीसरे या चौथे संतान को ही आने से रोक दिया , जबकि जिस दंपत्ति की दो या तीन बेटियां थी , उन्होने लडके को जन्म देने के लिए चौथे या पांचवे संतान का भी इंतजार किया। इससे कन्याओं की संख्या मामूली घटी और इसका ही प्रभाव हम आज पा रहे हैं ।
तीसरी संतान न होने देना कोई गुनाह नहीं था , पर जब इसका इतनी छोटी सी बात का इतना भयावह प्रभाव सामने नजर आ रहा है , तो मात्र 15 वर्षों के बाद समाज में लिंग परीक्षण कर कन्या भ्रूण की हत्या की जो गलत परंपरा शुरू हुई है , उसका असर भी मात्र 15 वर्षों में क्या होगा , ये चिंता करने वाली बात है। पर अभी तक समाज को कुछ भी अनुभव नहीं हो रहा , अभी भी निरंतर कन्याओं की भ्रूण हत्या हो रही है और बालिकाओं की संख्या में कमी होती जा रही है। सारे अस्पताल तो सेवा के अपने धर्म को भूलकर पैसे कमाने की एक बडी कंपनी बन चुके हैं। स्वयंसेवी संस्थाएं बेकार रह गयी है। सरकारी कार्यक्रम फाइलों की शोभा बढा रहे हैं। यदि कन्या भ्रूण हत्या के विरोध में कडे कानून भी बनें तो भी कोई उपाय नहीं दिखता है। आवश्यकता है लोगों में स्वयं की जागरूकता के आने की। तभी आनेवाले दिनों में कन्या की संख्या को बढाया जा सकता है , अन्यथा बहुत ही भयावह स्थिति के उपस्थित होने की आशंका दिख रही है, और जब ये समय आएगा , हमारे सम्मुख कोई उपाय नहीं होगा।
कन्या भ्रूण हत्या के फलस्वरूप भविष्य में इस प्रकार की स्थिति के बनने की आशंका तो सबों को है , पर इसके इतनी जल्दी उपस्थित हो जाने से मुझे बडी चिंता हो रही है। आज विवाह के लिए जो भी वर और कन्या तैयार दिख रहे हैं , उनका जन्म 1975 से 1985 के मध्य का माना जा सकता है। उस समय शायद भ्रूण हत्या को तो कानूनी मान्यता मिल गयी थी , पर इतनी जल्दी गर्भ में लिंग परीक्षण होने की विधि विकसित नहीं हुई थी कि परीक्षण करने के बाद उसकी हत्या की जा सके। उस वक्त भ्रूण हत्या के द्वारा अनचाही संतान को ही दुनिया में आने से रोका जाता था। पर इससे भी लिंग असंतुलन हो ही गया , वो इस कारण कि जिस दंपत्ति के दो या तीन बेटे हो गए , उन्होने तीसरे या चौथे संतान को ही आने से रोक दिया , जबकि जिस दंपत्ति की दो या तीन बेटियां थी , उन्होने लडके को जन्म देने के लिए चौथे या पांचवे संतान का भी इंतजार किया। इससे कन्याओं की संख्या मामूली घटी और इसका ही प्रभाव हम आज पा रहे हैं ।
तीसरी संतान न होने देना कोई गुनाह नहीं था , पर जब इसका इतनी छोटी सी बात का इतना भयावह प्रभाव सामने नजर आ रहा है , तो मात्र 15 वर्षों के बाद समाज में लिंग परीक्षण कर कन्या भ्रूण की हत्या की जो गलत परंपरा शुरू हुई है , उसका असर भी मात्र 15 वर्षों में क्या होगा , ये चिंता करने वाली बात है। पर अभी तक समाज को कुछ भी अनुभव नहीं हो रहा , अभी भी निरंतर कन्याओं की भ्रूण हत्या हो रही है और बालिकाओं की संख्या में कमी होती जा रही है। सारे अस्पताल तो सेवा के अपने धर्म को भूलकर पैसे कमाने की एक बडी कंपनी बन चुके हैं। स्वयंसेवी संस्थाएं बेकार रह गयी है। सरकारी कार्यक्रम फाइलों की शोभा बढा रहे हैं। यदि कन्या भ्रूण हत्या के विरोध में कडे कानून भी बनें तो भी कोई उपाय नहीं दिखता है। आवश्यकता है लोगों में स्वयं की जागरूकता के आने की। तभी आनेवाले दिनों में कन्या की संख्या को बढाया जा सकता है , अन्यथा बहुत ही भयावह स्थिति के उपस्थित होने की आशंका दिख रही है, और जब ये समय आएगा , हमारे सम्मुख कोई उपाय नहीं होगा।
विद्यार्थी अधिक से अधिक फॉर्म भरे और अपने लिए कोई न कोई सीट सुरक्षित रखने की कोशिश करें!!
मनुष्य के शारीरिक मानसिक विकास की चर्चा करने के क्रम में एक 'टीन एजर' बात अवश्य आ जाती है। यह शब्द 13 से 19 वर्ष तक के किशोरों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। शारीरिक विकास के मामले में यह उम्र तो विशेष है ही , मानसिक संतुलन बनाए रखने में भी इस उम्र की बडी भूमिका होती है। इसी उम्र में जब कोई बच्चे सा काम करे , तो तुरंत फटकार मिलती है कि वे अब बच्चे नहीं रहे और जब बडे जैसा व्यवहार करते करने जा रहे होते , उन्हें टोका जाता है कि वे अभी बच्चे हैं।यदि अभिभावक समझदार हों और उनके साथ उनका दोस्ताना व्यवहार हो , तो भी इस समय बच्चों का व्यवहार सचमुच अजीब सा हो जाता है। कभी कभी तो अपनी पढाई लिखाई सबकुछ भूलकर वे ऐसी संगति में आ जाते हैं , बुरी आदतें अपना लेते हैं कि बच्चों को देखकर भी ताज्जुब हो सकता है।
एक मनोचिकित्सक उम्र के इस दौर को किसी भी प्रभाव से जोड सकता है। पर सिर्फ शारीरिक और मानसिक परिवर्तन की दौर से गुजरने के कारण ही किशोरों का16 से 20 वर्ष की उम्र तक यह व्यवहार अपनी चरम सीमा पर नहीं होता , हमारा अध्ययन इस बात की पुष्टि करता है कि इस वक्त शनि के खास ज्योतिषीय प्रभाव के कारण जातक के समक्ष एक अलग प्रकार की परिस्थिति उपस्थित होती है। यदि आप अपनी जन्मतिथि में 16 और 20 वर्ष जोड दें , तो बहुत कम ही लोग ऐसे होंगे , जो ऐसा नहीं पाएंगे कि कोई गल्ती न करने के बावजूद इन चार वर्षों के मध्य का कोई ढाई वर्ष खासकर 17 वां , 18 वां या 19 वां वर्ष आपने किसी खास तरह की गडबड परिस्थिति में गुजारे हैं। लगातार किसी परीक्षा में मन मुताबिक परिणाम न आना , शारीरिक अस्वस्थता का बने रहना या पिता या माता से किसी विचारों का विरोध जैसी कुछ बातों के निरंतर बने रहने के कारण अधिकांश जगहों पर शनि के प्रभाव की पुष्टि इस तरह हो जाएगी।
जो बच्चे पढाई लिखाई के क्षेत्र में नहीं हैं , उनसे कोई बडा अपराध इन्हीं दिनों में हो जाता है , जिसके कारण उनका पूरा जीवन बेकार हो जाता है। इसके अलावे आज के बच्चों और अभिभावकों की पढाई लिखाई के प्रति मानसिकता के कारण विद्यार्थियों के लिए यह उम्र तो और भी कष्टकर हो गया है। इसी उम्र के दौरान के कोई तीन वर्ष दसवीं , ग्यारहवी और बारहवीं की पढाई के साथ ही साथ किसी अच्छे कॉलेज में नामांकण कराने के भी होते हैं , इसलिए उनका दबाब भी बहुत अधिक होता है। वैसे तो हर कॉलेज में सीट कम होने के कारण किशोरों के समक्ष मनोनुकूल परिणाम की संभावना कम ही रहती है और अधिकांश को समझौता करते हुए ही अपनी पढाई को आगे ले जाना होता है। पर इस दौरान कुछ छात्र ऐसे होते हैं , जिनको बहुत बडा समझौता करना पडता है। हमेशा से अच्छे अच्छे स्कूलों और विभिन्न कोचिंग सेंटरों में टॉपर रहे किशोरों को अपनी आशा के विपरीत छोटे छोटे कॉलेजों मे दाखिला लेने को विवश होना पडता है।
व्यवहारिक कारण से ऐसा क्यूं होता है , इसे मैं परिभाषित नहीं कर सकती। लाखों की संख्या में परीक्षा दे रहे विद्यार्थियों में से किस अव्यवस्था के कारण ऐसे परिणाम आ जाते हैं , प्रतियोगिता की परीक्षाओं में पारदर्शिता न होने के कारण कह पाना मुश्किल है ।अब पहले वाली बात तो रही नहीं ,पिछले वर्ष छत्तीसगढ के मेडिकल इंटरेंस की परीक्षा में टॉप करने वाले विद्यार्थी ने परीक्षा ही नहीं दी थी , पिछले वर्ष ही होहल्ले के कारण झारखंड इंजीनियरिंग की परीक्षा का परिणाम भी दुबारा निकालना पडा, इन सब बातों को देखते हुए कुछ प्रतिशत खामियों से इंकार नहीं किया जा सकता। सामान्य बच्चे थोडी कमी बेशी के साथ आगे बढ भी जाएं , पर बहुत ही परेशान हालत में अधिकांश प्रतिभा संपन्न किशोरों को ही दंश झेलते हुए मैने अपने पास आते देखा है।
अभी फिर से सभी कॉलेजों के लिए इंटरेंस की परीक्षाओं के फॉर्म भरे जा रहे हैं। अपने अनुभव के आधार पर मेरा विद्यार्थियों से अनुरोध है कि वे अधिक से अधिक जगहों पर फॉर्म भरे और अपने लिए कोई न कोई सीट सुरक्षित रखने का प्रयास करें। कौन सी परीक्षा देते वक्त आपकी मन:स्थिति कैसी रहेगी और परीक्षा अच्छी हो जाने के बाद भी कौन सा परिणाम कितना अच्छा या बुरा होगा , इसकी कोई गारंटी नहीं होती। यदि आप सामान्य विद्यार्थी हैं , तो आप कुछ निश्चिंत रह भी सकते हैं , पर असाधारण प्रतिभा है आपमें तो आपको और सतर्क रहने की आवश्यकता है। अधिक से अधिक फॉर्म भरें और कहीं भी दाखिला लेकर अपनी पढाई पूरी करें। प्रतिभा किसी का मुहंताज नहीं होती , समय आने पर अपनी प्रतिभा से आप अपनी जगह बना ही लेंगे , समय एक जैसा नहीं होता , आशा है मेरे संकेत को आप समझ चुके होंगे।
रिजल्ट होने के बाद विकल्पों का चुनाव करते वक्त भी किशोरों को बहुत सावधानी रखनी चाहिए , जिसकी जानकारी देते हुए मैं एक पोस्ट परीक्षा परिणामों के बाद लिखूंगी !!
एक मनोचिकित्सक उम्र के इस दौर को किसी भी प्रभाव से जोड सकता है। पर सिर्फ शारीरिक और मानसिक परिवर्तन की दौर से गुजरने के कारण ही किशोरों का16 से 20 वर्ष की उम्र तक यह व्यवहार अपनी चरम सीमा पर नहीं होता , हमारा अध्ययन इस बात की पुष्टि करता है कि इस वक्त शनि के खास ज्योतिषीय प्रभाव के कारण जातक के समक्ष एक अलग प्रकार की परिस्थिति उपस्थित होती है। यदि आप अपनी जन्मतिथि में 16 और 20 वर्ष जोड दें , तो बहुत कम ही लोग ऐसे होंगे , जो ऐसा नहीं पाएंगे कि कोई गल्ती न करने के बावजूद इन चार वर्षों के मध्य का कोई ढाई वर्ष खासकर 17 वां , 18 वां या 19 वां वर्ष आपने किसी खास तरह की गडबड परिस्थिति में गुजारे हैं। लगातार किसी परीक्षा में मन मुताबिक परिणाम न आना , शारीरिक अस्वस्थता का बने रहना या पिता या माता से किसी विचारों का विरोध जैसी कुछ बातों के निरंतर बने रहने के कारण अधिकांश जगहों पर शनि के प्रभाव की पुष्टि इस तरह हो जाएगी।
जो बच्चे पढाई लिखाई के क्षेत्र में नहीं हैं , उनसे कोई बडा अपराध इन्हीं दिनों में हो जाता है , जिसके कारण उनका पूरा जीवन बेकार हो जाता है। इसके अलावे आज के बच्चों और अभिभावकों की पढाई लिखाई के प्रति मानसिकता के कारण विद्यार्थियों के लिए यह उम्र तो और भी कष्टकर हो गया है। इसी उम्र के दौरान के कोई तीन वर्ष दसवीं , ग्यारहवी और बारहवीं की पढाई के साथ ही साथ किसी अच्छे कॉलेज में नामांकण कराने के भी होते हैं , इसलिए उनका दबाब भी बहुत अधिक होता है। वैसे तो हर कॉलेज में सीट कम होने के कारण किशोरों के समक्ष मनोनुकूल परिणाम की संभावना कम ही रहती है और अधिकांश को समझौता करते हुए ही अपनी पढाई को आगे ले जाना होता है। पर इस दौरान कुछ छात्र ऐसे होते हैं , जिनको बहुत बडा समझौता करना पडता है। हमेशा से अच्छे अच्छे स्कूलों और विभिन्न कोचिंग सेंटरों में टॉपर रहे किशोरों को अपनी आशा के विपरीत छोटे छोटे कॉलेजों मे दाखिला लेने को विवश होना पडता है।
व्यवहारिक कारण से ऐसा क्यूं होता है , इसे मैं परिभाषित नहीं कर सकती। लाखों की संख्या में परीक्षा दे रहे विद्यार्थियों में से किस अव्यवस्था के कारण ऐसे परिणाम आ जाते हैं , प्रतियोगिता की परीक्षाओं में पारदर्शिता न होने के कारण कह पाना मुश्किल है ।अब पहले वाली बात तो रही नहीं ,पिछले वर्ष छत्तीसगढ के मेडिकल इंटरेंस की परीक्षा में टॉप करने वाले विद्यार्थी ने परीक्षा ही नहीं दी थी , पिछले वर्ष ही होहल्ले के कारण झारखंड इंजीनियरिंग की परीक्षा का परिणाम भी दुबारा निकालना पडा, इन सब बातों को देखते हुए कुछ प्रतिशत खामियों से इंकार नहीं किया जा सकता। सामान्य बच्चे थोडी कमी बेशी के साथ आगे बढ भी जाएं , पर बहुत ही परेशान हालत में अधिकांश प्रतिभा संपन्न किशोरों को ही दंश झेलते हुए मैने अपने पास आते देखा है।
अभी फिर से सभी कॉलेजों के लिए इंटरेंस की परीक्षाओं के फॉर्म भरे जा रहे हैं। अपने अनुभव के आधार पर मेरा विद्यार्थियों से अनुरोध है कि वे अधिक से अधिक जगहों पर फॉर्म भरे और अपने लिए कोई न कोई सीट सुरक्षित रखने का प्रयास करें। कौन सी परीक्षा देते वक्त आपकी मन:स्थिति कैसी रहेगी और परीक्षा अच्छी हो जाने के बाद भी कौन सा परिणाम कितना अच्छा या बुरा होगा , इसकी कोई गारंटी नहीं होती। यदि आप सामान्य विद्यार्थी हैं , तो आप कुछ निश्चिंत रह भी सकते हैं , पर असाधारण प्रतिभा है आपमें तो आपको और सतर्क रहने की आवश्यकता है। अधिक से अधिक फॉर्म भरें और कहीं भी दाखिला लेकर अपनी पढाई पूरी करें। प्रतिभा किसी का मुहंताज नहीं होती , समय आने पर अपनी प्रतिभा से आप अपनी जगह बना ही लेंगे , समय एक जैसा नहीं होता , आशा है मेरे संकेत को आप समझ चुके होंगे।
रिजल्ट होने के बाद विकल्पों का चुनाव करते वक्त भी किशोरों को बहुत सावधानी रखनी चाहिए , जिसकी जानकारी देते हुए मैं एक पोस्ट परीक्षा परिणामों के बाद लिखूंगी !!
Thursday 24 December 2009
लोकतंत्र मूर्खों का ही शासन तो है .. चुनाव परिणाम से अचंभा कैसा ??
कुछ दिनों से झारखंड में सारे नेता , उनके भाई बंधु और चुनाव के बहाने कुछ कमाई कर लेने वाले लोग विधान सभा चुनाव की गहमा गहमी में जितना व्यस्त थे , बुद्धि जीवी वर्ग उतना ही चिंतन में उलझे थे। झारखंड को समृद्ध समझते हुए बिहार से अलग करने के बाद इतने दिनों की शासन व्यवस्था में इस प्रदेश में आम जन तो समृद्ध नहीं हो सके थे , इस कारण उनकी चिंता जायज थी। कम से कम चुनाव परिणाम तो उनके पक्ष में आना ही नहीं चाहिए था , जिनकी बदौलत राज्य की स्थिति इतनी खराब हुई थी। हालांकि विकल्प का खास अभाव सारे देश में मौजूद है , तो झारखंड में कोई सशक्त विकल्प की संभावना का कोई सवाल ही नहीं , फिर भी चुनाव परिणाम को देखकर कुछ अचंभा हो ही जाता है।
वैसे यदि पूरी कहानी समझ में आए , तो अचंभे वाली कोई बात नहीं है। यूं भी लोकतंत्र को मूर्खों का शासन ही कहा गया है। जिस देश में जनता मूर्ख हो उस देश में तो खासकर लोकतंत्र मूर्खों का ही शासन बन जाता है। अधिकांश अनपढ और राजनीति से बेखबर रहनेवाले लोग भला मतदान का महत्व क्या समझेंगे ? विभिन्न समाजसेवियों का काम राजनीतिक सही ढंग से जनता को आगाह कर जनता के मध्य राजनीतिक चेतना को बनाए रखना होता था , पर न तो सच्चे समाजसेवी रह गए हैं और न ही प्रचारक । हमलोग भी सामाजिक या राजनीतिक रूप से कोई जबाबदेही न लेकर सिर्फ कलम चलाना जानते हैं । विभिन्न एन जी ओ भी अपने मुख्य उद्देश्य से कोसों दूर है। चुनाव के वक्त नेता और उसके प्रचारक घूम घूम कर उन्हें गुमराह करते हैं और जिस राजनीतिक पार्टी का मार्केटिंग जितना अच्छा होता है , वे उतने वोट प्राप्त कर लेते हैं।
अभी भी झारखंड में अधिक आबादी गरीबों और अशिक्षितों की ही है। मैने दो चार मुहल्ले में मतदान के बारे में जानकारी लेने की कोशिश की। कहीं भी कोई मुद्दा नहीं मिला , जिन्होने आकर मीठी मीठी बातें की , दुख सुख में साथ निभाने का वादा भर किया , कुछ नोट हाथ में दिए , पूरे मुहल्ले के वोट उसी को मिल गए। बिना जाने बूझे कि वो जिसे वोट दे रहे हैं , वो कौन है , किस चरित्र का है , किस पार्टी का है और उनके लिए क्या करेगा ? उनके मुहल्ले में न तो पढाई लिखाई की कोई व्यवस्था है और न ही कोई किसी प्रकार का ज्ञान देनेवाला है , बेचारे आराम से पैसों के बदले वोट गिरा आते हैं। जहां दस रूपए प्राप्त करने के लिए उन्हें एक घंटे की जी तोड मेहनत करनी पडती हो , वहां एक वोट गिराने में मुफ्त के एक समय खाने का प्रबंध भी हो जाए तो कम तो नहीं । इसके साथ मुहल्ले के एक दो लागों को कुछ काम के लिए भी पैसे मिल जाते हैं , गरीबों को और क्या चाहिए ,
जय लोकतंत्र !!
वैसे यदि पूरी कहानी समझ में आए , तो अचंभे वाली कोई बात नहीं है। यूं भी लोकतंत्र को मूर्खों का शासन ही कहा गया है। जिस देश में जनता मूर्ख हो उस देश में तो खासकर लोकतंत्र मूर्खों का ही शासन बन जाता है। अधिकांश अनपढ और राजनीति से बेखबर रहनेवाले लोग भला मतदान का महत्व क्या समझेंगे ? विभिन्न समाजसेवियों का काम राजनीतिक सही ढंग से जनता को आगाह कर जनता के मध्य राजनीतिक चेतना को बनाए रखना होता था , पर न तो सच्चे समाजसेवी रह गए हैं और न ही प्रचारक । हमलोग भी सामाजिक या राजनीतिक रूप से कोई जबाबदेही न लेकर सिर्फ कलम चलाना जानते हैं । विभिन्न एन जी ओ भी अपने मुख्य उद्देश्य से कोसों दूर है। चुनाव के वक्त नेता और उसके प्रचारक घूम घूम कर उन्हें गुमराह करते हैं और जिस राजनीतिक पार्टी का मार्केटिंग जितना अच्छा होता है , वे उतने वोट प्राप्त कर लेते हैं।
अभी भी झारखंड में अधिक आबादी गरीबों और अशिक्षितों की ही है। मैने दो चार मुहल्ले में मतदान के बारे में जानकारी लेने की कोशिश की। कहीं भी कोई मुद्दा नहीं मिला , जिन्होने आकर मीठी मीठी बातें की , दुख सुख में साथ निभाने का वादा भर किया , कुछ नोट हाथ में दिए , पूरे मुहल्ले के वोट उसी को मिल गए। बिना जाने बूझे कि वो जिसे वोट दे रहे हैं , वो कौन है , किस चरित्र का है , किस पार्टी का है और उनके लिए क्या करेगा ? उनके मुहल्ले में न तो पढाई लिखाई की कोई व्यवस्था है और न ही कोई किसी प्रकार का ज्ञान देनेवाला है , बेचारे आराम से पैसों के बदले वोट गिरा आते हैं। जहां दस रूपए प्राप्त करने के लिए उन्हें एक घंटे की जी तोड मेहनत करनी पडती हो , वहां एक वोट गिराने में मुफ्त के एक समय खाने का प्रबंध भी हो जाए तो कम तो नहीं । इसके साथ मुहल्ले के एक दो लागों को कुछ काम के लिए भी पैसे मिल जाते हैं , गरीबों को और क्या चाहिए ,
जय लोकतंत्र !!
क्या कंप्यूटर और इंटरनेट के जानकार मेरी कुछ मदद कर सकते हैं ??
'ज्योतिष' विषय पर लिखे जा रहे मेरे इस ब्लॉग पर ज्योतिष के अलावे भी बहुत सामग्रियां पोस्ट की जा चुकी हैं , जो मिल जुलकर खिचडी हो गयी हैं।चूंकि उस समय मेरा और कोई दूसरा ब्लॉग नहीं था, मेरी मजबूरी थी कि मैने सारे आलेखों को यहीं पोस्ट कर दिया। पर अब मैने अपना एक और ब्लॉग बना लिया है , इसमें मौजूद ज्योतिष से इतर आलेखों को नए ब्लॉग पर टिप्पणियों सहित ले जाना चाहती हूं। क्या यह संभव हो सकता है , कृपया कंप्यूटर और इंटरनेट के जानकार इसकी जानकारी देने का कष्ट करें।
Tuesday 22 December 2009
नई पीढी करोडों को एक एक सिक्के देती हुई अपने लिए करोड की व्यवस्था नहीं कर सकती ??
इस पृथ्वी पर मनुष्य का अवतरण भी तो अन्य जीवों की तरह ही हुआ होगा , जहां प्रकृति ने सभी पशु पक्षियों को सिर्फ अपनी आवश्यकता को पूरा करने के लिए आवश्यक दिमाग प्रदान किया है , वहीं मनुष्य को ऐसी विलक्षण मस्तिष्क भेंट की है, जिसके कारण वह प्रकृति में मौजूद सारे रहस्यों को समझने और उनका सहारा लेकर अपने जीवन को सहज बनाने में प्रयासरत रहा। एक एक पशु पक्षी के कमजोरियों का पता कर उन्हें वश में करने और उनकी मजबूती से अपने जीवन को मजबूत बनाने का क्रम निरंतर चलता रहा। हजारों वर्षों के नियमित अध्ययन और मनन का परिणाम है हमारी ये जीवन शैली , जिसपर आज हम नाज करते हैं। प्राचीन भारत में कला और विज्ञान तथा गणित के हर क्षेत्र का इतना विकास हमारे पूर्वजों की महत्वाकांक्षाओं का ही परिणाम है ।
अन्य जीव जंतुओं की तरह ही आदिम मानव रहे हमारे पूर्वजों का क्रमश: सभ्य होते हुए इतने संगठित होकर जीवन यापन करने को देखते हुए एक बात तो साबित होती है कि मनुष्य स्वभावत: बहुत ही महत्वाकांक्षी होता है। वह अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं रहना चाहता और अपने को , अपने समाज को बेहतर बनाने के लिए प्रयास जारी रखता है। वैसे अलग अलग व्यक्ति उम्र के अलग अलग भाग में और जीवन के अलग अलग पक्ष को लेकर महत्वाकांक्षी होते हैं। व्यक्ति के महत्वाकांक्षा के जन्म लेने के पीछे भी कोई बडी वजह होती है। यदि सबकुछ कमजोर होते हुए भी सामान्य ढंग से चलता रहे , तो व्यक्ति महत्वाकांक्षी नहीं बन पाते हैं , पर किसी भी क्षेत्र में असामान्य परिस्थितियों के उपस्थित होने से जीवन बुरे ढंग से प्रभावित होता है , तो व्यक्ति उस संदर्भ में महत्वाकांक्षी बन जाता है। व्यक्ति उस खामी को समाप्त कर सबके जीवन को आसान बनाने की कोशिश में जुट जाता है।
इस प्रकार आजतक महत्वाकांक्षी व्यक्ति समाज के लिए वरदान बनकर सामने आते रहे हैं , पर आज अन्य शब्दों के साथ ही साथ महत्वाकांक्षा की भी परिभाषा बदल गयी है। आज का महत्वाकांक्षी व्यक्ति बहुत स्वार्थी होता जा रहा है , जो समाज के लिए घातक है। प्राचीन काल में प्रकृति के असीमित संसाधनों की रक्षा करते हुए और अतिरिक्त सामग्रियों का प्रयोग करते हुए , सभी जीव जंतुओं की रक्षा करते हुए और उसके गुणों से फायदा उठाते हुए और संपूर्ण मानव जाति के कल्याण की कामना से महत्वाकांक्षी व्यक्ति कार्यक्रम बनाते थे। हालांकि मध्ययुग में विदेशियों के आक्रमण के फलस्वरूप उनके शासन काल के दौरान हमारा संपूर्ण ज्ञान , हमारी संपूर्ण व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गयी , पर आजादी के समय महत्वाकांक्षी व्यक्तियों ने पुन: अपने स्वार्थों का त्याग कर , जीवन हथेली पर रखते हुए , मौत को आगोश में लेते हुए देश को आजादी दिलाने में बडी भूमिका निभायी।
संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि हमारी महत्वाकांक्षा ऐसी होनी चाहिए , जिससे प्रकृति की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए , इसके सारे जीव जंतुओं का कल्याण करते हुए मनुष्य के जीवन को अधिक से अधिक सुख सुविधा संपन्न बनाए , महत्वाकांक्षा ऐसी कभी नहीं होनी चाहिए , जो प्रकृति को तहस नहस करते हुए , सारे जीव जंतुओं का विनाश करते हुए अपनी मानव जाति के हित तक की चिंता न करते हुए सिर्फ अपने जीवन को अधिक सुख सुविधा संपन्न बनाएं । पर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज महत्वाकांक्षा का यही रूप देखने को मिल रहा है , पढाई भी इसी की हो रही है , करोडों लोगों की जेब से एक एक सिक्के निकालकर अपने लिए एक करोड बना लेने की शिक्षा तक आज नई पीढी को दी जा रही है , जबकि उन्हें यह शिक्षा दिए जाने की आवश्यकता है कि कि वे करोडों के जेब में एक एक सिक्के डालते हुए अपने लिए करोड की व्यवस्था भी कर सकें।
अन्य जीव जंतुओं की तरह ही आदिम मानव रहे हमारे पूर्वजों का क्रमश: सभ्य होते हुए इतने संगठित होकर जीवन यापन करने को देखते हुए एक बात तो साबित होती है कि मनुष्य स्वभावत: बहुत ही महत्वाकांक्षी होता है। वह अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं रहना चाहता और अपने को , अपने समाज को बेहतर बनाने के लिए प्रयास जारी रखता है। वैसे अलग अलग व्यक्ति उम्र के अलग अलग भाग में और जीवन के अलग अलग पक्ष को लेकर महत्वाकांक्षी होते हैं। व्यक्ति के महत्वाकांक्षा के जन्म लेने के पीछे भी कोई बडी वजह होती है। यदि सबकुछ कमजोर होते हुए भी सामान्य ढंग से चलता रहे , तो व्यक्ति महत्वाकांक्षी नहीं बन पाते हैं , पर किसी भी क्षेत्र में असामान्य परिस्थितियों के उपस्थित होने से जीवन बुरे ढंग से प्रभावित होता है , तो व्यक्ति उस संदर्भ में महत्वाकांक्षी बन जाता है। व्यक्ति उस खामी को समाप्त कर सबके जीवन को आसान बनाने की कोशिश में जुट जाता है।
इस प्रकार आजतक महत्वाकांक्षी व्यक्ति समाज के लिए वरदान बनकर सामने आते रहे हैं , पर आज अन्य शब्दों के साथ ही साथ महत्वाकांक्षा की भी परिभाषा बदल गयी है। आज का महत्वाकांक्षी व्यक्ति बहुत स्वार्थी होता जा रहा है , जो समाज के लिए घातक है। प्राचीन काल में प्रकृति के असीमित संसाधनों की रक्षा करते हुए और अतिरिक्त सामग्रियों का प्रयोग करते हुए , सभी जीव जंतुओं की रक्षा करते हुए और उसके गुणों से फायदा उठाते हुए और संपूर्ण मानव जाति के कल्याण की कामना से महत्वाकांक्षी व्यक्ति कार्यक्रम बनाते थे। हालांकि मध्ययुग में विदेशियों के आक्रमण के फलस्वरूप उनके शासन काल के दौरान हमारा संपूर्ण ज्ञान , हमारी संपूर्ण व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गयी , पर आजादी के समय महत्वाकांक्षी व्यक्तियों ने पुन: अपने स्वार्थों का त्याग कर , जीवन हथेली पर रखते हुए , मौत को आगोश में लेते हुए देश को आजादी दिलाने में बडी भूमिका निभायी।
संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि हमारी महत्वाकांक्षा ऐसी होनी चाहिए , जिससे प्रकृति की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए , इसके सारे जीव जंतुओं का कल्याण करते हुए मनुष्य के जीवन को अधिक से अधिक सुख सुविधा संपन्न बनाए , महत्वाकांक्षा ऐसी कभी नहीं होनी चाहिए , जो प्रकृति को तहस नहस करते हुए , सारे जीव जंतुओं का विनाश करते हुए अपनी मानव जाति के हित तक की चिंता न करते हुए सिर्फ अपने जीवन को अधिक सुख सुविधा संपन्न बनाएं । पर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज महत्वाकांक्षा का यही रूप देखने को मिल रहा है , पढाई भी इसी की हो रही है , करोडों लोगों की जेब से एक एक सिक्के निकालकर अपने लिए एक करोड बना लेने की शिक्षा तक आज नई पीढी को दी जा रही है , जबकि उन्हें यह शिक्षा दिए जाने की आवश्यकता है कि कि वे करोडों के जेब में एक एक सिक्के डालते हुए अपने लिए करोड की व्यवस्था भी कर सकें।
पूरे एक महीने मिला मुझे अपने गुरू का सान्निध्य : धन्य धन्य हो गयी मैं !!
भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही पिता का विशेष महत्व है। वाल्मीकि(रामायण, अयोध्या काण्ड) में कहा गया है ...
सात महीने की उम्र में पेट के बल चलती हुई साफ सुथरे घर में एक सरसों के दाने पर मेरी न सिर्फ दृष्टि ही गयी थी , उसे मैंने अपनी उंगलियों से पकड भी लिया था। डेढ वर्ष की उम्र में पलंग से अपने पैरों को नीचे कर तुतलाते हुए 'दिल' 'दिल' कहकर स्वयं के गिर जाने की उन्हें धमकी दिया करती थी। तीन वर्ष की उम्र में मैने हिंदी अक्षरों को पहचानना शुरू कर दिया था और 'फ' 'ल' 'फल' , 'च' 'ल' 'चल' पढना शुरू कर दिया था। चार वर्ष की उम्र में न सिर्फ 'ताली ताली तू तू तलती , दो हल डाली डाली फिरती' जैसी तुतलाती जुबान से 'कोयल रानी' की पूरी कविता सुनाया करती थी , वरन् 'छोटी चिडियां' नाम की कहानी को कंठस्थ कर लिया था और एक एक अर्द्धविराम , पूर्ण विराम पर जरूरत के अनुसार ठहराव के साथ लोगों को सुनाया करती थी। एक मां के लिए ये सब यादें स्वाभाविक है , पर पहली बार अपने पिता को मैने अपने जीवन की इतनी बातें याद रखते देखा है। मेरे मानसिक विकास पर कितनी पैनी निगाह थी उनकी ??
अध्यापन के अतिरिक्त भी मेरे पीछे उन्होने जितनी मेहनत की , अन्य भाई बहनों पर कभी उतना ध्यान नहीं दिया। अपने मामाजी के यहां से ग्रेज्युएशन करने के बाद मुझे बी एड कर लेने की सलाह दी गयी , पर मैने अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की पढाई करने का फैसला किया। मेरे परिवार में पहले किसी बहन ने गांव के स्कूल से मैट्रिक करने से अधिक पढाई नहीं की थी। पहली बार मेरे दादा जी और दादी जी मुझे हॉस्टल में डालने को तैयार नहीं थे। सो मैने एडमिशन लेकर घर में ही एम ए की पढाई करने का निश्चय किया। घर में ही दो वर्षों तक तैयारी की और फार्म भी भर लिया। एक एक पेपर की परीक्षा हर पांचवें दिन होनी थी। प्रत्येक परीक्षा से एक दिन पहले दोपहर के बाद वे मेरे साथ रांची के लिए निकलते , रातभर वहां कहीं ठहरते , सुबह परीक्षा देने के बाद अपने गांव वापस लौटते। यहां तक कि मैं चार घंटे परीक्षा भवन में होती , तो शहर में कई रिश्तेदार होने के बाद भी वे कहीं न जाते। उतनी देर भी वे गेट के बाहर ही टहलते रहते , इस भय से कि कहीं लडकों ने वॉक आउट किया तो ये कहां जाएगी। अन्य भाई बहनों पर इतना ध्यान देते मैने उन्हें कभी नहीं देखा।
अध्ययन मनन में विश्वास रखने वाले पिता जी का पद या अर्थोपार्जन के लिए पढाई लिखाई करने पर विश्वास नहीं था और यही कारण है कि सिर्फ अध्ययन मनन नहीं , वरन् मौलिक चिंतन में मेरे लगे होने से वे अपनी परंपरा को जीवित देखकर मुझसे खुश बने रहें। वैसे तो ज्ञान का खजाना ही है उनके पास , जब भी मिलना होता है , उनकी उपस्थिति में सिर्फ कुछ न कुछ जानने और सीखने में ही मेरा ध्यान लगा होता है।
न तो धर्मचरणं किंचिदस्ति महत्तरम्।
यथा पितरि शुश्रूषा तस्य वा वचनक्रिपा॥
(यानि पिता की सेवा अथवा उनकी आज्ञा का पालन करने से बढ़कर कोई धर्माचरण नहीं है।)
दूसरी ओर यहां गुरू की महिमा भी कम नहीं आंकी गयी है ...
यथा पितरि शुश्रूषा तस्य वा वचनक्रिपा॥
(यानि पिता की सेवा अथवा उनकी आज्ञा का पालन करने से बढ़कर कोई धर्माचरण नहीं है।)
दूसरी ओर यहां गुरू की महिमा भी कम नहीं आंकी गयी है ...
गुरू गोविन्द दोऊ खडे काके लागूं पायं।
बलिहारी गुरू आपनो गोविंद दियों बताए।।
यानि गुरू के पद को ईश्वर के बराबर महत्व दिया गया है।
जब पिता और गुरू दोनों का अलग अलग इतना महत्व हो , उनकी तुलना बडे बडे धर्म और ईश्वर से की जाती हो और जब पिता ही किसी के गुरू बन जाएं, तो उसका स्थान स्वयमेव सबसे ऊंचा हो जाता है। इस दृष्टि से मेरे पिता श्री विद्या सागर महथा जी मेरे लिए ईश्वर से कम नहीं। मेरा रोम रोम उनका ऋणी माना जा सकता है, पर समाज की ऐसी व्यवस्था में मात्र पुत्री होने के कारण मैं इस कर्ज को किसी तरह नहीं उतार सकती। इसके अतिरिक्त ज्योतिष के क्षेत्र में किए गए उनके अध्ययन के कारण उनके चरित्र के सैकडों पहलुओं में से किसी एक का भी चित्रण ब्लॉग जगत में मौजूद बहुतों को नहीं पच पाएगा और मैं इस पवित्र पोस्ट को विवादास्पद नहीं बनाना चाहती। इसलिए चाहते हुए भी एक शिष्य के रूप में उनकी प्रतिभा, उनके संयमित जीवन, उनके सीख और उनके ज्ञान की चर्चा यहां नहीं करना चाहूंगी। समय आने पर सबके गुण अवगुण सामने आ ही जाते हैं। पर इतना अवश्य कहना चाहूंगी कि छह माह की उम्र में हुए चेचक से इनका स्वास्थ्य इतना बुरा हो गया था , इनके शरीर को इतना कष्ट था कि इनकी मुक्ति के लिए मेरी दादी जी इन्हें खुशी से बारंबार देवी मां को सौंपती थी कि वे इसे ले जाएं। पर देवी मां ने दादी जी की बात न मानकर हमारा बडा कल्याण किया, क्यूंकि इन्होने प्रकृति के एक बडे रहस्य को उजागर किया है , जिसे मैं 2011 के शुरूआत में दुनिया के सामने रखूंगी।
पूरे एक महीने के झारखंड प्रवास के बाद पिताजी वापस कल लौट गए , इस दौरान अधिकांश समय उन्होने बोकारो में ही व्यतीत किया , कहीं भी जाते , दो चार दिनों में पुन: मेरे यहां वापस हो जाते। विवाह के बाद मायके जाने पर ही कभी मुझे इतने दिनों तक साथ रहने का मौका मिला हो , पर इस बार मेरे घर पर उन्होने इतना समय दिया , वो मेरे जीवन में पहली बार हुआ। अपनी छह संतान में जितना स्नेह उन्होने मुझे दिया है , शायद ही किसी को मिला हो। मुझे तो यह देखकर ताज्जुब होता है कि सांसारिक सफलता की ओर कम ध्यान रहने के बावजूद बचपन से अभी तक की मेरी एक एक बात उन्हें याद रहती है। सात महीने की उम्र में पेट के बल चलती हुई साफ सुथरे घर में एक सरसों के दाने पर मेरी न सिर्फ दृष्टि ही गयी थी , उसे मैंने अपनी उंगलियों से पकड भी लिया था। डेढ वर्ष की उम्र में पलंग से अपने पैरों को नीचे कर तुतलाते हुए 'दिल' 'दिल' कहकर स्वयं के गिर जाने की उन्हें धमकी दिया करती थी। तीन वर्ष की उम्र में मैने हिंदी अक्षरों को पहचानना शुरू कर दिया था और 'फ' 'ल' 'फल' , 'च' 'ल' 'चल' पढना शुरू कर दिया था। चार वर्ष की उम्र में न सिर्फ 'ताली ताली तू तू तलती , दो हल डाली डाली फिरती' जैसी तुतलाती जुबान से 'कोयल रानी' की पूरी कविता सुनाया करती थी , वरन् 'छोटी चिडियां' नाम की कहानी को कंठस्थ कर लिया था और एक एक अर्द्धविराम , पूर्ण विराम पर जरूरत के अनुसार ठहराव के साथ लोगों को सुनाया करती थी। एक मां के लिए ये सब यादें स्वाभाविक है , पर पहली बार अपने पिता को मैने अपने जीवन की इतनी बातें याद रखते देखा है। मेरे मानसिक विकास पर कितनी पैनी निगाह थी उनकी ??
अध्यापन के अतिरिक्त भी मेरे पीछे उन्होने जितनी मेहनत की , अन्य भाई बहनों पर कभी उतना ध्यान नहीं दिया। अपने मामाजी के यहां से ग्रेज्युएशन करने के बाद मुझे बी एड कर लेने की सलाह दी गयी , पर मैने अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की पढाई करने का फैसला किया। मेरे परिवार में पहले किसी बहन ने गांव के स्कूल से मैट्रिक करने से अधिक पढाई नहीं की थी। पहली बार मेरे दादा जी और दादी जी मुझे हॉस्टल में डालने को तैयार नहीं थे। सो मैने एडमिशन लेकर घर में ही एम ए की पढाई करने का निश्चय किया। घर में ही दो वर्षों तक तैयारी की और फार्म भी भर लिया। एक एक पेपर की परीक्षा हर पांचवें दिन होनी थी। प्रत्येक परीक्षा से एक दिन पहले दोपहर के बाद वे मेरे साथ रांची के लिए निकलते , रातभर वहां कहीं ठहरते , सुबह परीक्षा देने के बाद अपने गांव वापस लौटते। यहां तक कि मैं चार घंटे परीक्षा भवन में होती , तो शहर में कई रिश्तेदार होने के बाद भी वे कहीं न जाते। उतनी देर भी वे गेट के बाहर ही टहलते रहते , इस भय से कि कहीं लडकों ने वॉक आउट किया तो ये कहां जाएगी। अन्य भाई बहनों पर इतना ध्यान देते मैने उन्हें कभी नहीं देखा।
अध्ययन मनन में विश्वास रखने वाले पिता जी का पद या अर्थोपार्जन के लिए पढाई लिखाई करने पर विश्वास नहीं था और यही कारण है कि सिर्फ अध्ययन मनन नहीं , वरन् मौलिक चिंतन में मेरे लगे होने से वे अपनी परंपरा को जीवित देखकर मुझसे खुश बने रहें। वैसे तो ज्ञान का खजाना ही है उनके पास , जब भी मिलना होता है , उनकी उपस्थिति में सिर्फ कुछ न कुछ जानने और सीखने में ही मेरा ध्यान लगा होता है।
ज्योतिष के बारे में तो उनसे चर्चा होनी ही थी , पर इस बार ज्योतिष के अलावे ब्लॉग जगत के बारे में भी बहुत बातें हुईं। मेरे आलेखों को पढकर, मेरे विचारों को समझकर और भविष्य के मेरे कार्यक्रमों को सुनकर काफी खुश और संतुष्ट होकर उन्होने यहां से विदाई ली। इस दुनिया से वे काफी निराश है , जो आर्थिक और सामाजिक उपलब्धियों को ही महत्व देते हें और किसी ज्ञान पिपासु , कलाकार और मेहनतकशों को भी बेकार समझते हैं। वे एक बेहतर दुनिया का स्वप्न देखते हैं , पर सैद्धांतिक रूप से मजबूत होने के बावजूद अत्यधिक भावुकता होने तथा व्यवहारिकता की कमी से अपने सपने को पूरा नहीं कर पाते। वे मुझमें बडी उम्मीद देखते हैं , शायद मैं उनका सपना पूरा कर सकूं। 70 वर्ष की उम्र पार कर चुके पापा जी अभी पूर्ण रूप से स्वस्थ है और अभी भी दिन रात चिंतन में लगे हैं। मैं उनके स्वस्थ और दीर्घजीवी होने की कामना करती हूं !!
Sunday 20 December 2009
एक ही दिन विज्ञान और ज्योतिष में दिलचस्पी रखने वाले दो लोग कैसे जन्म ले सकते हैं ??
भिन्न भिन्न वर्षों में भी किसी खास तिथि को जन्मलेने वालों की कुंडली में सूर्य की स्थिति बिल्कुल उसी स्थान पर होती है। इस एकमात्र सूर्य की स्थिति को ध्यान में रखते हुए ग्रंथों में जातक के फलाफल के बारे में बहुत कुछ लिखा मिलता है , जिसकी चर्चा ज्योतिषी बहुत दावे से किया करते हैं। इस आधार पर , चाहे वो ज्योतिषी हो या न्यूमरोलोजिस्ट और वे जिस भी विधा से भविष्यवाणी किया करते हों , यह पोस्ट उनकी विधा को विवादास्पद अवश्य बना रही है , जिसमें अलग अलग वर्षों में ही सही ,अरविंद मिश्रा जी के और मेरे एक ही दिन जन्म लेने की सूचना सारे ब्लॉग जगत को दी गयी है। पाठकों की जिज्ञासा स्वाभाविक है कि एक ही दिन विज्ञान और ज्योतिष जैसे विरोधाभासी विषय में जुनून से हद तक की दिलचस्पी रखने वाले यानि भिन्न भिन्न स्वभाव के दो लोग कैसे जन्म ले सकते हैं ?
मनुष्य मूलत: बहुत ही स्वार्थी होता है और किसी ऐसी व्यवस्था को पसंद नहीं करता , जिससे उसे अधिक समझौता करना पडे। इस कारण वह अपने जैसे स्वभाव के लोगों से मित्रता , संबंध और रिश्ते रखना चाहता है। कभी कभी वह इतना समर्थ होता है या उसके संयोग इतना काम करते हैं कि वह ऐसा करने में सफल हो जाता है , पर यदि शत प्रतिशत मामलों में यही प्रवृत्ति रहे , तो कुछ ही दिनों में विचारों के आधार पर ही तरह तरह के गुट बनेंगे , पारस्परिक मित्रता से लेकर , विवाह शादी तक अपने ही गुटों में होंगी और उसमें आनेवाली अगली पीढी भी उन्हीं विचारों को पसंद करेगी। इस हालत में विचारों से विरोध रखनेवाले बिल्कुल गैर हो जाएंगे और अधिक शक्तिमान की मनमानी चलेगी। पर प्रकृति हमेशा एक औसत व्यवस्था में सबों को ले जाने की प्रवृत्ति रखती है , ताकि हर प्रकार के लोगों का एक दूसरों के विचारों से जोर शोर से टकराव हो और परिणामत: एक समन्वयवादी विचारधारा का जन्म हो, जिसके बल पर आगे का युग और प्रगतिशील बन सके। एक ही दिन में दो भिन्न विचारों वाले व्यक्ति का जन्म प्रकृति की ऐसी ही व्यवस्था में से एक हो सकती है।
यदि एक ज्योतिषी की हैसियत से इस प्रश्न का जबाब दिया जाए तो यह बात कही जा सकती है कि विभिन्न कुंडलियों में सूर्य अलग अलग भाव का स्वामी होता है , इस कारण अलग अलग लग्न के अनुसार जातक पर सूर्य के प्रभाव का संदर्भ बदल जाता है , इस कारण आवश्यक नहीं कि दोनो का सूर्य एक हो तो दोनो के अध्ययन का विषय भी एक ही हो। सूर्य किसी के अध्ययन को प्रभावित कर सकता है , तो किसी के पद प्रतिष्ठा के माहौल को और किसी के घर गृहस्थी को। इसलिए इसके एक जैसे फल नहीं दिखाई पड सकते हैं। यदि ऐसा भी मान लिया जाए कि एक ही तिथि को जन्म लेनेवाले दो व्यक्ति एक ही लग्न के हों और सूर्य का प्रभाव दोनो के अध्ययन के विषय पर ही पडता हो , तो यह आवश्यक है कि दोनो में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और ऐसी रूचियां रहेंगी। ऐसी स्थिति में एक के विज्ञान के विषयों और एक के ज्योतिष पढने की संभावना तभी बन सकती है , जब ज्योतिष को भी विज्ञान का ही एक विषय मान लिया जाए।
पर अभी ज्योतिष को विज्ञान मानने में बडी बडी बाधाएं हैं । और इस कारण पाठकों के मन में यह भ्रांति है कि ज्योतिष को पढनेवाले अंधविश्वासी ही हैं , तभी मन में ऐसे प्रश्न जन्म लेते हैं। भले ही ज्योतिष इस स्थिति में नहीं पहुंच सका है कि इसे पूर्ण विज्ञान मान लिया जाए , पर वैज्ञानिक रूचि रखनेवाले जातक भी इसमें हमेशा से रहे हैं। इसमें से अंधविश्वासों को ढूंढ ढूंढकर अलग करने और इसके वैज्ञानिक पक्ष को इकट्ठे करने का काम करते जाया जाए , तो ज्योतिष को विज्ञान में बदलते देर नहीं लगेगी। पापा जी के 40 वर्षों के नियमित रिसर्च के बाद मैं भी इसी दिशा में प्रयासरत हूं और बहुत जल्द समाज के समक्ष ज्योतिष को विज्ञान के रूप में मान्यता दिलवाना मेरा लक्ष्य हैं। अरविंद मिश्रा जी ने नियंता के इस संकेत को स्वीकार कर लिया है कि विज्ञान और ज्योतिष का सहिष्णु साहचर्य रहे , आप सभी भी स्वीकार करेंगे , ऐसा मुझे विश्वास है।
मनुष्य मूलत: बहुत ही स्वार्थी होता है और किसी ऐसी व्यवस्था को पसंद नहीं करता , जिससे उसे अधिक समझौता करना पडे। इस कारण वह अपने जैसे स्वभाव के लोगों से मित्रता , संबंध और रिश्ते रखना चाहता है। कभी कभी वह इतना समर्थ होता है या उसके संयोग इतना काम करते हैं कि वह ऐसा करने में सफल हो जाता है , पर यदि शत प्रतिशत मामलों में यही प्रवृत्ति रहे , तो कुछ ही दिनों में विचारों के आधार पर ही तरह तरह के गुट बनेंगे , पारस्परिक मित्रता से लेकर , विवाह शादी तक अपने ही गुटों में होंगी और उसमें आनेवाली अगली पीढी भी उन्हीं विचारों को पसंद करेगी। इस हालत में विचारों से विरोध रखनेवाले बिल्कुल गैर हो जाएंगे और अधिक शक्तिमान की मनमानी चलेगी। पर प्रकृति हमेशा एक औसत व्यवस्था में सबों को ले जाने की प्रवृत्ति रखती है , ताकि हर प्रकार के लोगों का एक दूसरों के विचारों से जोर शोर से टकराव हो और परिणामत: एक समन्वयवादी विचारधारा का जन्म हो, जिसके बल पर आगे का युग और प्रगतिशील बन सके। एक ही दिन में दो भिन्न विचारों वाले व्यक्ति का जन्म प्रकृति की ऐसी ही व्यवस्था में से एक हो सकती है।
यदि एक ज्योतिषी की हैसियत से इस प्रश्न का जबाब दिया जाए तो यह बात कही जा सकती है कि विभिन्न कुंडलियों में सूर्य अलग अलग भाव का स्वामी होता है , इस कारण अलग अलग लग्न के अनुसार जातक पर सूर्य के प्रभाव का संदर्भ बदल जाता है , इस कारण आवश्यक नहीं कि दोनो का सूर्य एक हो तो दोनो के अध्ययन का विषय भी एक ही हो। सूर्य किसी के अध्ययन को प्रभावित कर सकता है , तो किसी के पद प्रतिष्ठा के माहौल को और किसी के घर गृहस्थी को। इसलिए इसके एक जैसे फल नहीं दिखाई पड सकते हैं। यदि ऐसा भी मान लिया जाए कि एक ही तिथि को जन्म लेनेवाले दो व्यक्ति एक ही लग्न के हों और सूर्य का प्रभाव दोनो के अध्ययन के विषय पर ही पडता हो , तो यह आवश्यक है कि दोनो में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और ऐसी रूचियां रहेंगी। ऐसी स्थिति में एक के विज्ञान के विषयों और एक के ज्योतिष पढने की संभावना तभी बन सकती है , जब ज्योतिष को भी विज्ञान का ही एक विषय मान लिया जाए।
पर अभी ज्योतिष को विज्ञान मानने में बडी बडी बाधाएं हैं । और इस कारण पाठकों के मन में यह भ्रांति है कि ज्योतिष को पढनेवाले अंधविश्वासी ही हैं , तभी मन में ऐसे प्रश्न जन्म लेते हैं। भले ही ज्योतिष इस स्थिति में नहीं पहुंच सका है कि इसे पूर्ण विज्ञान मान लिया जाए , पर वैज्ञानिक रूचि रखनेवाले जातक भी इसमें हमेशा से रहे हैं। इसमें से अंधविश्वासों को ढूंढ ढूंढकर अलग करने और इसके वैज्ञानिक पक्ष को इकट्ठे करने का काम करते जाया जाए , तो ज्योतिष को विज्ञान में बदलते देर नहीं लगेगी। पापा जी के 40 वर्षों के नियमित रिसर्च के बाद मैं भी इसी दिशा में प्रयासरत हूं और बहुत जल्द समाज के समक्ष ज्योतिष को विज्ञान के रूप में मान्यता दिलवाना मेरा लक्ष्य हैं। अरविंद मिश्रा जी ने नियंता के इस संकेत को स्वीकार कर लिया है कि विज्ञान और ज्योतिष का सहिष्णु साहचर्य रहे , आप सभी भी स्वीकार करेंगे , ऐसा मुझे विश्वास है।
Saturday 19 December 2009
क्या सिर्फ टी वी , फ्रिज , वाशिंग मशीन , कार और ए सी ही सुख का अहसास करा सकते हैं ??
आज सरकारी विद्यालयों और महाविद्यालयों में अच्छी पढाई न होने से समाज के मध्यम वर्ग की जीवनशैली पर बहुत ही बुरा असर पड रहा है। चार वर्ष के अपने बच्चे का नामांकण किसी अच्छे विद्यालय में लिखाने के लिए हम परेशान रहते हैं , क्यूंकि उसके बाद 12 वीं तक की उसकी पढाई का सारा तनाव समाप्त हो जाता है। यदि उस बच्चे का उस विद्यालय के के जी या नर्सरी में नाम नहीं लिखा सका तो बाद में उस विद्यालय में नाम लिखाना मुश्किल है। जिनकी सिर्फ खेलने कूदने की उम्र होती है , उनका कई कई कि मी दूर के उस विद्यालय में नामांकण से अभिभावक भले ही निश्चिंत हो जाते हों , पर उस दिन से बच्चों का बचपन ही समाप्त हो जाता है। विद्यालय के अंदर पढाई का वातावरण अच्छा भी हो , पर वहां आने और जाने में बच्चों को जो व्यर्थ का समय लगता है , उससे उनके खाने पीने पर अच्छा खासा असर पडता है। यहीं से उसके शारिरीक तौर पर कमजोरी की शुरूआत हो जाती है। देश में सबसे पहले ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि पांचवी कक्षा तक की पढाई के लिए हर बच्चे के अपने मुहल्ले में ही व्यवस्था हो और पांचवीं के बाद ही मुहल्ले के बाहर जाना पडे । दस वर्ष तक के बच्चों को मामूली पढाई के लिए इतनी दूर भेजा जाना क्या उचित है ??
बारहवीं के बाद बच्चे कॉलेज की पढाई के लिए परिवार से कितने दूर चले जाएंगे , वे खुद भी नहीं जानते। देश में हर क्षेत्र और हर विषय में कॉलेजों का रैंकिंग हैं। प्रतिभा के अनुसार बच्चों के नामांकण होते हैं । अच्छे कॉलेजों से पढाई करने के बाद बच्चों का कैरियर अपेक्षाकृत अधिक उज्जवल दिखता है , इसलिए उसमें पढाने के लिए बच्चे मां बाप से दूर देश के किसी कोने में चले जाते हैं। कम प्रतिभावाले बच्चे को भी जुगाड लगाकर या ऊंची फी के साथ दूर दराज के कॉलेजों में नामांकण करा दिया जाता है। हम सभी जानते हैं कि किशोरावस्था और युवावस्था के मध्य के इस समयांतराल में बच्चों को परिवार या सच्चे गुरू के साथ की आवश्यकता होती है , पर ऐसे समय में अकेलापन कभी कभी उन्हें गुमराह कर देता है और जीवनभर उन्हें भटकने से नहीं बचा पाता। वास्तव में सरकार की यह जिम्मेदारी होनी चाहिए कि हर जिले में हर क्षेत्र और हर विषय के हर स्तर के कॉलेज हों और प्रतिभा के अनुसार उनका अपने जिले के कॉलेजों में ही नाम लिखा जाए , ताकि वे सप्ताहांत या माहांत में परिवार से मिलकर अपने सुख दुख शेयर कर सकें। पर ऐसा नहीं होने से क्या हमारे किशोरों को भटकने को बाध्य नहीं किया जा रहा ??
हमारी पूरी कॉलोनी में 60 प्रतिशत किराएदार परिवार ऐसे होंगे , जिनके पति नौकरी में तीन तीन वर्षों में स्थानांतरण का दर्द खुद झेलते हुए अपने पढाई लिखाई कर रहे बच्चों को कोई तकलीफ नहीं देना चाहते और बोकारो के अच्छे विद्यालय में अपने बच्चों का नामांकण करवाकर पत्नी को बच्चों की देखभाल के लिए साथ छोड देते हैं। झारखंड में रांची और जमशेदपुर में भी बहुत मांएं बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढाने के लिए अकेले रहने को विवश हैं। जबतक बच्चे बारहवीं से नहीं निकलते , पूरा परिवार पर्व त्यौहारों में भी मुश्किल से साथ रह पाता है। अनियमित रूटीन से पति के स्वास्थ्य पर असर पडता है , पति की अनुपस्थिति में पत्नी पर पडी जिम्मेदारी भी कम नहीं होती । घर में पापा के न होने से बच्चें की उच्छृंखलता भी बढती है। वास्तव में सरकार की यह जिम्मेदारी होनी चाहिए कि अपने कर्मचारियों का जहां स्थानांतरण करवाए , वहां उसके बच्चों के लिए पढाई की सुविधा हो। इसके अभाव में क्या कोई परिवार सही जीवन जी पा रहा है ??
परिवार का एक एक सदस्य बिखरा रहे , हर उम्र के हर व्यक्ति कष्ट में हों तो हमारी समझ में यह नहीं आता कि हम सुखी कैसे हैं ? क्या सिर्फ टी वी , फ्रिज , वाशिंग मशीन , कार , ए सी ही सुख का अहसास करा सकते हैं ??
परिवार का एक एक सदस्य बिखरा रहे , हर उम्र के हर व्यक्ति कष्ट में हों तो हमारी समझ में यह नहीं आता कि हम सुखी कैसे हैं ? क्या सिर्फ टी वी , फ्रिज , वाशिंग मशीन , कार , ए सी ही सुख का अहसास करा सकते हैं ??
इस खास जन्मदिन पर कुछ पुरानी यादें .....
चाहे सुखभरी हों या दुखभरी , बचपन की यादें कभी हमारा पीछा नहीं छोडती। खासकर जब भी कोई विशेष मौका आता है , पुरानी यादें अवश्य ताजी हो जाती हैं। जिस संयुक्त परिवार में मेरा जन्म हुआ, उसमें उस समय दादा जी , दादी जी के अलावे उनके पांच बेटों के साथ साथ दो बेटों का परिवार भी था, दो चाचाजी उस समय अविवाहित ही थे। पर मेरे बडे होने तक दो और के विवाह हो गए थे और कुछ नौकरों चाकरों को लेकर 35 लोगों का परिवार था। पांच बेटे में इकलौती प्यारी बिटिया से दूर होना दादा जी और दादी जी के लिए बहुत कठिन था , सो उनका विवाह भी गांव में ही किया गया था। पर्व, त्यौहार या जन्मदिन वगैरह किसी कार्यक्रम में अपने पांच बच्चों सहित बुआ और फूफा जी की उपस्थिति हमारे यहां अनिवार्य थी , जिसके कारण बिना किसी को निमंत्रित किए हमलोगों की संख्या 45 तक पहुंच जाती थी।
हमारे घर में हिन्दी पत्रक से ही बच्चे-बडे सबका जन्मदिन मनाया जाता था। उस समय केक काटने की तो कोई प्रथा ही नहीं थी, नए कपडे भी नहीं बनते थे। सिर्फ खीर पूडी या अन्य कोई पकवान बनता , भगवान जी को भोग लगाया जाता और सारे लोग मिलजुलकर खुशी खुशी खाते पीते। हर महीने में दो तीन लोगों के जन्मदिन तो निकलने ही थे। कम से कम 3-4 किलो चावल के खीर के लिए 15 किलो से अधिक ही दूध की व्यवस्था होती , पीत्तल की एक खास बडी सी कडाही को निकाला जाता , खीर बनते ही दादी जी 40 से अधिक कटोरे में उसे ठंडा होने को रखती , फिर उसमें से एक कटोरे के खीर का बच्चे द्वारा भगवान जी को भोग लगाया जाता। कई अन्य व्यंजन बनते , उसके बाद खाना पीना शुरू किया जाता।
पर 1963 के दिसंबर में एक बडी समस्या उपस्थित हो गयी थी। 27 नवम्बर 1954 को पौष शुक्ल पक्ष की द्वितीया को जन्म लेनेवाले छोटे चाचा जी का जन्मदिन मनाने के लिए तिथि निश्चित करने की समस्या खडी हो गयी थी। ऐसा इसलिए क्यूंकि उस वर्ष के पंचांग में 15 दिनों का मार्गशीर्ष और पंद्रह दिनों का पौष ही था। आखिरकार 18 दिसम्बर को पौष महीने की शुक्ल पक्ष की तिथि को देखते हुए उनका जन्मदिन मनाने का निश्चय किया गया। रात 11 बजे तक घर में उत्सवी वातावरण में व्यस्त रही मम्मी की 11 बजे के बाद तबियत खराब हो गयी और वे 19 दिसंबर की सुबह मेरे जन्म के बाद ही सामान्य हो सकी। इस तरह हिन्दी पंचांग के अनुसार मेरा जन्म ऐसे पौष महीने के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि में हुआ है , जो एक ही पक्ष का यानि 15 दिनों का ही था। सौरवर्ष के साथ चंद्र वर्ष का तालमेल करने के क्रम में बहुत वर्षों बाद ही पंचांग में इस तरह का समायोजन किया जाता है।
यूं तो परिवार में हर महीने कई जन्मदिन मनाए जाते थे , पर ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि एक जन्मदिन के दूसरे ही दिन दूसरा जन्मदिन हो , जैसा कि दूसरे वर्ष मेरे पहले जन्मदिन में आया,चाचा जी के जन्मदिन के बाद दूसरे ही दिन मेरा। लगातार एक जैसा कार्यक्रम तो निराश करता है , पहले वर्ष तो सबने विधि अनुसार ही किया , पर दूसरे वर्ष से मेरे जन्मदिन में भगवान जी को मिठाई का भोग लगने लगा , मुझे चाचाजी के जन्मदिन का बचा खीर चखाया जाता रहा और अन्य लोगों के लिए अलग पकवान की व्यवस्था की जाने लगी। जब मैं बडी हुई तो मैने अपना जन्मदिन अन्य लोगों से भिन्न तरीके से मनता पाया , तब मुझे सारी बाते बतायी गयी । मुझे मीठा अधिक पसंद भी नहीं , इसलिए कभी भी खीर बनाने की जिद नहीं की और अपेक्षाकृत कम मीठे पुए से ही खुश होती रही।
पर विवाह के बाद आजतक मेरा जन्मदिन अंग्रेजी तिथि के अनुसार ही मनाया जाता रहा। वर्ष 2009 का मेरा यह जन्मदिन इसलिए बहुत ही खास हो गया है , क्यूंकि जहां आज एक ओर दिसम्बर की 19 तारीख है , वहीं दूसरी ओर पौष महीने के शुक्ल पक्ष की तृतीया भी , यानि इस जन्मदिन मे सूर्य के साथ साथ चंद्रमा की स्थिति भी उसी जगह है , जहां मेरे जनम के समय थी। इसके अलावे इस जन्मदिन पर मेरे खुश रहने का एक और भी वजह है कि बहुत दिनों बाद मेरे यहां जन्मदिन पर पापा जी की उपस्थिति का संयोग भी इसी बार बना है। इसलिए बचपन की यादें और ताजी हो गयी हैं। मेरे जन्मदिन में बनाए जानेवाले हमारे क्षेत्र के परंपरागत व्यंजनों में से दो का मजा आप भी लें .....
1. पुआ .. एक कप सुगंधित महीन चावल को आधा भीगने के बाद छानकर एक कप खौलते दूध मे डालकर व खौलाकर आधे घंटे छोड दें। उसके बाद उसे पीसकर उसमें स्वादानुसार शक्कर , कटी हुई गरी , किशमिश , इलायची वगैरह डालकर बिल्कुल गाढे घोल को ही रिफाइंड में तलें , स्वादिष्ट चावल के पुए तैयार मिलेंगे। दूध और शक्कर कुछ कम ही डालें , नहीं तो घोल रिफाइंड में ही रह जाएगा।
2. धुसका .. दो कप चावल और एक कप चने के दाल को अच्छी तरह भीगने दें , फिर उसे पीसते वक्त उसमें थोडी प्याज , हरी मिर्च और अदरक डालें , पुए की अपेक्षा थोडे ढीले घोल में नमक , धनिया तथा जीरा का पाउडर डालकर उसे रिफाइंड में तले , यह नमकीन पुआ हमारे यहां 'धुसका' कहा जाता है , जिसे देशी चने के गरमागरम छोले के साथ खाएं !!
दो तीन दिनों से मुझे निरंतर जन्मदिन की बधाई और शुभकामनाएं मिल रही हैं, सबों को बहुत बहुत धन्यवाद। उम्मीद रखती हूं , आप सबो का स्नेह इसी प्रकार बना रहेगा !!
हमारे घर में हिन्दी पत्रक से ही बच्चे-बडे सबका जन्मदिन मनाया जाता था। उस समय केक काटने की तो कोई प्रथा ही नहीं थी, नए कपडे भी नहीं बनते थे। सिर्फ खीर पूडी या अन्य कोई पकवान बनता , भगवान जी को भोग लगाया जाता और सारे लोग मिलजुलकर खुशी खुशी खाते पीते। हर महीने में दो तीन लोगों के जन्मदिन तो निकलने ही थे। कम से कम 3-4 किलो चावल के खीर के लिए 15 किलो से अधिक ही दूध की व्यवस्था होती , पीत्तल की एक खास बडी सी कडाही को निकाला जाता , खीर बनते ही दादी जी 40 से अधिक कटोरे में उसे ठंडा होने को रखती , फिर उसमें से एक कटोरे के खीर का बच्चे द्वारा भगवान जी को भोग लगाया जाता। कई अन्य व्यंजन बनते , उसके बाद खाना पीना शुरू किया जाता।
पर 1963 के दिसंबर में एक बडी समस्या उपस्थित हो गयी थी। 27 नवम्बर 1954 को पौष शुक्ल पक्ष की द्वितीया को जन्म लेनेवाले छोटे चाचा जी का जन्मदिन मनाने के लिए तिथि निश्चित करने की समस्या खडी हो गयी थी। ऐसा इसलिए क्यूंकि उस वर्ष के पंचांग में 15 दिनों का मार्गशीर्ष और पंद्रह दिनों का पौष ही था। आखिरकार 18 दिसम्बर को पौष महीने की शुक्ल पक्ष की तिथि को देखते हुए उनका जन्मदिन मनाने का निश्चय किया गया। रात 11 बजे तक घर में उत्सवी वातावरण में व्यस्त रही मम्मी की 11 बजे के बाद तबियत खराब हो गयी और वे 19 दिसंबर की सुबह मेरे जन्म के बाद ही सामान्य हो सकी। इस तरह हिन्दी पंचांग के अनुसार मेरा जन्म ऐसे पौष महीने के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि में हुआ है , जो एक ही पक्ष का यानि 15 दिनों का ही था। सौरवर्ष के साथ चंद्र वर्ष का तालमेल करने के क्रम में बहुत वर्षों बाद ही पंचांग में इस तरह का समायोजन किया जाता है।
यूं तो परिवार में हर महीने कई जन्मदिन मनाए जाते थे , पर ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि एक जन्मदिन के दूसरे ही दिन दूसरा जन्मदिन हो , जैसा कि दूसरे वर्ष मेरे पहले जन्मदिन में आया,चाचा जी के जन्मदिन के बाद दूसरे ही दिन मेरा। लगातार एक जैसा कार्यक्रम तो निराश करता है , पहले वर्ष तो सबने विधि अनुसार ही किया , पर दूसरे वर्ष से मेरे जन्मदिन में भगवान जी को मिठाई का भोग लगने लगा , मुझे चाचाजी के जन्मदिन का बचा खीर चखाया जाता रहा और अन्य लोगों के लिए अलग पकवान की व्यवस्था की जाने लगी। जब मैं बडी हुई तो मैने अपना जन्मदिन अन्य लोगों से भिन्न तरीके से मनता पाया , तब मुझे सारी बाते बतायी गयी । मुझे मीठा अधिक पसंद भी नहीं , इसलिए कभी भी खीर बनाने की जिद नहीं की और अपेक्षाकृत कम मीठे पुए से ही खुश होती रही।
पर विवाह के बाद आजतक मेरा जन्मदिन अंग्रेजी तिथि के अनुसार ही मनाया जाता रहा। वर्ष 2009 का मेरा यह जन्मदिन इसलिए बहुत ही खास हो गया है , क्यूंकि जहां आज एक ओर दिसम्बर की 19 तारीख है , वहीं दूसरी ओर पौष महीने के शुक्ल पक्ष की तृतीया भी , यानि इस जन्मदिन मे सूर्य के साथ साथ चंद्रमा की स्थिति भी उसी जगह है , जहां मेरे जनम के समय थी। इसके अलावे इस जन्मदिन पर मेरे खुश रहने का एक और भी वजह है कि बहुत दिनों बाद मेरे यहां जन्मदिन पर पापा जी की उपस्थिति का संयोग भी इसी बार बना है। इसलिए बचपन की यादें और ताजी हो गयी हैं। मेरे जन्मदिन में बनाए जानेवाले हमारे क्षेत्र के परंपरागत व्यंजनों में से दो का मजा आप भी लें .....
1. पुआ .. एक कप सुगंधित महीन चावल को आधा भीगने के बाद छानकर एक कप खौलते दूध मे डालकर व खौलाकर आधे घंटे छोड दें। उसके बाद उसे पीसकर उसमें स्वादानुसार शक्कर , कटी हुई गरी , किशमिश , इलायची वगैरह डालकर बिल्कुल गाढे घोल को ही रिफाइंड में तलें , स्वादिष्ट चावल के पुए तैयार मिलेंगे। दूध और शक्कर कुछ कम ही डालें , नहीं तो घोल रिफाइंड में ही रह जाएगा।
2. धुसका .. दो कप चावल और एक कप चने के दाल को अच्छी तरह भीगने दें , फिर उसे पीसते वक्त उसमें थोडी प्याज , हरी मिर्च और अदरक डालें , पुए की अपेक्षा थोडे ढीले घोल में नमक , धनिया तथा जीरा का पाउडर डालकर उसे रिफाइंड में तले , यह नमकीन पुआ हमारे यहां 'धुसका' कहा जाता है , जिसे देशी चने के गरमागरम छोले के साथ खाएं !!
दो तीन दिनों से मुझे निरंतर जन्मदिन की बधाई और शुभकामनाएं मिल रही हैं, सबों को बहुत बहुत धन्यवाद। उम्मीद रखती हूं , आप सबो का स्नेह इसी प्रकार बना रहेगा !!
Friday 18 December 2009
ये रही मेरी 250 वीं पोस्ट .. आप सभी पाठकों का बहुत बहुत शुक्रिया !!
यदि आप अभी मेरी प्रोफाइल खोलकर देखे , तो आपको 'गत्यात्मक ज्योतिष' में कुल 279 पोस्ट दिखाई पडेंगे , पर सही समय या संपादन के अभाव में सारी पोस्टें प्राकशित नहीं की जा सकी है और आज मै इसमें 250वां आलेख ही पोस्ट कर रही हूं। इसलिए मेरे इस ब्लॉग में कुल प्रविष्टियां 250 ही दिखाई पडेंगी। इसके अलावे अन्य जगहों पर लिखी गयी सारी पोस्टों को सम्मिलित कर दिया जाए , तो मेरे आलेखों की संख्या बहुत ऊपर चली जाएगी। वर्डप्रेस के अपने पुराने ब्लॉग पर मैं सौ से ऊपर पोस्ट लिख चुकी हूं, 'फलित ज्योतिष : सच या झूठ' में मैं दो पोस्ट लिख चुकी , साहित्य शिल्पी में पांच कहानियां छप चुकी , नुक्कड में दस पोस्ट कर चुकी , मां पर दो आलेख पोस्ट किए । इसके अलावे मोल तोल डॉट इन पर पिछले नवम्बर से हर सप्ताह एक आलेख पोस्ट कर रही हूं। इस उपलब्धि पर मुझे खुद आश्चर्य हो रहा है।
बचपन से ही पढाई लिखाई और अन्य मामलों में हर बात को गहराई में जाकर देखने की आदत से मैं अनुभव तो रखती थी , पर उन्हें कलम की सहायता से पन्नों में सटीक अभिव्यक्ति दे सकती हूं , इसपर मुझे खुद ही विश्वास नहीं था। यही कारण था कि 1990 के आसपास हमारे कॉलोनी के 'हिन्दी साहित्य परिषद' की 25वीं सालगिरह पर प्रकाशित हो रहे स्मारिका में मुझसे एक रचना मांगी गयी , तो मैं 'ना' तो नहीं कर सकी थी , पर इस फिराक में थी कि पापाजी के ढेरो रचनाओं में से , जो कि यूं ही कबाड की तरह पडी हुई हैं , एक अपने नाम से प्रकाशित कर दूं। पर मुझे इतना समय ही नहीं दिया गया कि मैं उन्हें मंगवा सकती और दबाब में कुछ लिखने बैठ गयी। कुछ दिन पूर्व मेरे पति के हाथ में ज्योतिष की एक पत्रिका , जो वे मेरे लिए ला रहे थे , को देखकर एक व्यक्ति ने उनसे कुछ प्रश्न पूछे थे , उन्हीं का जबाब देने में मैने एक आलेख 'फलित ज्योतिष : सांकेतिक विज्ञान' लिखकर उन्हें सौंप दिया , इस तरह मेरी पहली रचना उसी स्मारिका में छप सकी।
इस तरह मेरी जन्मकुंडली में चौथे भाव में स्थित स्वक्षेत्री बृहस्पति ने दूसरे की लिखी रचना का श्रेय मुझे न देकर मुझे एक पाप से भी बचा लिया था। भले ही मांगे जाने पर मेरे पिताजी अपनी रचना मुझे सहर्ष सौंप देते , पर आज मुझे महसूस होता है कि कोई भी रचनाकार या तो अपने व्यवसाय या फिर मजबूरी के कारण ही रचना का श्रेय किसी और को देता है। माता पिता बच्चों के लिए तन, मन और धन ही नहीं , जीवन भी समर्पित कर देते हैं , ऐसी घटना इतिहास में मिल जाएगी , पर कहीं भी ऐसा पढने को नहीं मिला कि अपनी कृति को किसी ने अपनी संतान के नाम कर दिया। इससे यह भी स्पष्ट है कि किसी की रचना को चुराकर अपने नाम से प्रकाशित करना एक जुर्म ही है , यदि किसी के विचारों का प्रचार प्रसार करना है तो लेखक को सहयोग की जा सकती है , पर कभी भी रचना के मालिक बनने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए।
इस रचना के बाद ही अपने भावों को अभिव्यक्ति देने की मेरी हिम्मत बढ गयी थी। मैने कई ज्योतिषीय पत्रिकाओं , खासकर 'बाबाजी' के लिए लिखना शुरू कर दिया था , पापाजी द्वारा प्रदान किए गए ज्योतिषीय ज्ञान के कारण विषयवस्तु की प्रचुरता से लेखों को तैयार करने में भले ही मुझे कामयाबी मिलती गयी और इसी कारण उन्हें प्रकाशित भी कर दिया जाता रहा , पर उस वक्त का लेखन भाषा की दृष्टि से आज भी मुझे काफी कमजोर दिखता है। फिर भी यह भाग्य की ही बात रही कि सिर्फ फोन पर हुए बातचीत के बाद ही बाबाजी में प्रकाशित किए गए आलेखों के संकलन के रूप में तैयार मुझ जैसी नई और अनुभवहीन लेखिका की पुस्तक को छापने के लिए दिल्ली का एक प्रकाशन 'अजय बुक सर्विस' तैयार हो गया और इस तरह मेरी पहली पुस्तक न सिर्फ बाजार में आ गयी, बल्कि डेढ वर्ष के अंदर बाजार में धडाधड उसकी प्रतियां भी बिकी और तुरंत इसका दूसरा संस्करण भी प्रकाशित करवाना पडा।
यहां तक की यात्रा में मैने सिर्फ ज्योतिष पर ही लिखा। हिन्दी ब्लॉग जगत में आने के बाद भी काफी दिनों तक मैं ज्योतिष पर ही लिखती रही , क्यूंकि मुझे विश्वास ही नहीं था कि मैं किसी अन्य विषय पर भी कुछ लिख सकती हूं। पर धीरे धीरे अंधविश्वास को दूर करने वाली कुछ घटनाओं , कई संस्मरण , मनोविज्ञान , धर्म आदि के मामलों में दखल देते हुए हर मामले पर कुछ न कुछ लिखने का प्रयास करती जा रही हूं। आप पाठकों की स्नेह भरी प्रतिक्रियाओं ने मुझे हर विषय पर कलम चलाने की शक्ति दी है और इसके लिए आपका जितना भी आभार व्यक्त करूं कम ही होगा। आगे भी आप सबों का स्नेह इसी प्रकार बना रहेगा , ऐसी आशा और विश्वास के साथ यह पोस्ट समाप्त करती हूं।
Wednesday 16 December 2009
आज टेलीविजन का सार्थक उपयोग क्यूं नहीं हो रहा है !!
जब मैं बालपन में थी , रेडियो पर गाने बजते देखकर आश्चर्यित होती थी । फिर कुछ दिनों में इस बात पर ध्यान गया कि रेडियो में लोग अपनी अपनी रूचि के अनुसार गाने सुनते हैं। पहले तो मैं समझती थी कि हमारा रेडियो पुराना है और पडोस के भैया का नया, इसलिए अपने घर में मेरे पापाजी , मम्मी और चाचा वगैरह पुराने गाने सुना करते हैं और वो लोग नए , पर एक दिन आश्चर्य मुझे इस बात से हुआ कि मेरे ही रेडियो में भैया अपने पसंदीदा गीत सुन रहे थे। तब पापाजी ने ही मुझे जानकारी दी कि रेडियो के विभिन्न चैनलों से हर प्रकार के गीतों और कार्यक्रमों का प्रसारण होता रहता है और जिसकी जैसी पसंद और आवश्यकता हो उसके अनुरूप गीत या कार्यक्रम सुन सकता है।
इसके बाद चौथी या पांचवीं कक्षा में एक पाठ में टेलीविजन के बारे में जानकारी मिली , रेडियो में जो कुछ भी हम सुन सकते हैं , टेलीविजन में देखा जा सकता है। यानि गीत , संगीत , समाचार या अन्य मनोरंजक कार्यक्रमों का आस्वादन कामों के साथ साथ आंख भी कर पाएंगा । इस पाठ को समझाते हुए पापाजी बतलाते कि टेलीविजन के आने के बाद हर प्रकार के ज्ञान विज्ञान का तेजी से प्रचार प्रसार होगा , बहुत सी सामाजिक समस्याएं समाप्त हो जाएंगी। वैज्ञानिकों के द्वारा किए गए इस प्रकार के शोध को सुनकर मेरे आश्चर्य की सीमा न थी।
कल्पना के लोक में उमडते घुमडते मन को पहली बार 1984 में टी वी देखने का मौका मिला। उस वर्ष पहली बार स्वतंत्रता दिवस , गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम के साथ ही इंदिरा गांधी की अंत्येष्टि तक को देखने का मौका मिला , जिसके कारण इस बडी वैज्ञानिक उपलब्धि के प्रति मैं नतमस्तक थी और भविष्य में समाज को बदल पाने में टी वी के सशक्त रोल होने की कल्पना को बल मिल चुका था।
आज समय और बदल गया है। हर घर में टेलीवीजन हैं , रेडियो की तरह ही इसमें भी चैनलों की कतार खडी हो गयी है , रिमोट से ही चैनल को बदल पाने की सुविधा हो गयी है , पर किसी चैनल में ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं , जो हमारी आशा के अनुरूप हो। समाचार चैनल राष्ट्र और समाज के मुख्य मुद्दे से दूर छोटे छोटे सनसनीखेज खबरों में अपना और दर्शकों का समय जाया करते हैं। मनोरंजक चैनल स्वस्थ मनोरंजन से दूर पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों के विघटन के कार्यक्रमों तथा अश्लील और फूहड दृश्यों में उलझे हैं। इसी प्रकार धार्मिक चैनल आध्यात्म और धर्म को सही एंग से परिभाषित करने को छोडकर अंधविश्वास फैलाने में व्यस्त हैं।
ऐसी स्थिति में हम सोचने को मजबूर है कि क्या इसी उद्देश्य के लिए हमारे वैज्ञानिकों की इतनी बडी उपलब्धि को घर घर पहुंचाया गया था ।
Monday 14 December 2009
मेरी पुरानी डायरी में ये चंद लाइने लिखी मिली .. पता नहीं मैं सही हूं या गलत ??
छह वर्ष पूर्व की मेरी पुरानी डायरी में ये चंद पंक्तियां मिली , जो अपनी बिना किसी गल्ती के , दूसरों के षडयंत्र के कारण अपने जीवन में चार महीनें तक उपस्थित हुए बुरी परिस्थिति से घिरी शायद खुद को संतोष देते हुए लिखी थी , आप भी पढें ..........
- किसी निर्दोष की एक बूंद आंसू का भी समय आने पर बडा फल चुकाना पडता है , यदि वह फूटफूटकर रो दे , तो आप अपनी पूरी जिंदगी ही तबाह समझो।
- यदि लक्ष्य अच्छा हो तो उसे प्राप्त करने हेतु खडे लोगों में प्रतिस्पर्धा होती हैं , पर लक्ष्य बुरा हो तो उसे प्राप्त करने हेतु खडे लोगों में कुछ दिनों तक अचानक बडी मित्रता देखने को मिलेगी।
- झूठ बोलना तो पाप है , पर किसी को सुख पहुंचाने के लिए बोले गए पाप में पुण्य भी शामिल होता है , किसी को कष्ट पहुंचाने के लिए बोला गया झूठ तो पाप को दुगुणा कर देता है , जिससे मुक्ति पाना शायद किसी के लिए संभव नहीं।
- यदि आप दुश्मनी के चश्में को पहने हों, तो दुश्मन का दुश्मन आपको बहुत बडा मित्र दिखाई देता है , पर यदि आप इस चश्में को उतार दो तो ऐसा महसूस हो सकता है कि वह मित्र बनने के लायक भी नहीं ।
- यदि कोई व्यक्ति आपको दूसरों की कमजोरी सुना रहा हो , तो आप समझ जाएं कि वह आपकी कमजोरी भी दूसरों को सुनाएगा। इसके विपरीत यदि वह दूसरों की कमजोरी को आपके सामने ढंक रहा हो , तो समझ लें कि वह दूसरों के समक्ष आपकी कमियों को भी उजागर नहीं करेगा।
- आप बडे बुजुर्गों से ढंग से बात भी न कर सकें , तो आपके समान कुसंस्कारी कोई नहीं , आप अपने धन , पद या डिग्री की शान न बधारें , ये औरों के लिए किसी काम का नहीं होता।
- अधिकांश समय यह अवश्य होता है कि जिसका साथ समाज दे रहा हो ,वो सही है , पर कभी कभी ये भी होता है कि जिसका साथ समाज नहीं दे रहा हो , वो सही है , क्यूंकि अंधेरे को छंटने में थोडी देर हो जाती है।
Sunday 13 December 2009
ये ब्लॉगर की समस्या है , ब्लॉग की , नेट की या फिर मेरे कंप्यूटर की ??
कुछ दिनों से मैं एक विचित्र समस्या से जूझ रही हूं , कुछ ब्लॉग्स तो ठीक से खुल जाते हैं , पर कुछ को खोलने से एक पॉपअप बॉक्स खुलता है , जिसमें किसी प्रकार का एरर दिखाई देता है और किसी भी स्थिति में ब्लॉग नहीं खुलता। कई दिनों से कितने ब्लॉग इसी समस्या के कारण नहीं पढ पा रही हूं , इसका समाधान कैसे होगा , कृपया कोई बताने की कृपा करें। इस तरह खुल रहे हैं ये ब्लॉग्स ....
Saturday 5 December 2009
उसके पास हिन्दी ब्लॉग जगत से जुडी पुस्तक होती तो मै अवश्य खरीदती !!
मेरा मायका बोकारो जिले में ही है , इसलिए आसपास ही लगभग सारे रिश्तेदार हैं , हमेशा कहीं न कहीं से न सिर्फ निमंत्रण मिलता है , हमारी उपस्थिति की उम्मीद भी की जाती है, सो हर जगह रस्म अदायगी के लिए भी मुझे ही जाना होता है। अकेले टैक्सी में भी जाना मुझे बोरिंग लगता है , बोकारो का स्टेशन भी शहर से 8 कि मी की दूरी पर है , इसलिए स्टेशन जाना , क्यू में खडे होकर टिकट लेना और ट्रेन पकडना भी कठिनाई भरा ही है , जबकि सुबह फोन करके किसी बस वाले से एक सीट रखवा लिया जाए , तो आराम से घर से निकलकर टहलते हुए अधिकतम 300 मीटर के अंदर स्थित बस स्टैण्ड में जाकर आज के आरामदेह बसों में बैठ जाने पर तीन चार घंटे में गंतब्य पर पहुंचना काफी आसान है। इसलिए मुझे झारखंड के अंदर 150 से 200 कि मी के अंदर तक के इस सफर के लिए टैक्सी या ट्रेन से अधिक सुविधाजनक बस ही लगता है।
एक कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए पिछले महीने जाकर बस पर बैठी ही थी कि ढेर सारी पुस्तके हाथ में लिए एक किशोर पुस्तक विक्रेता मेरी ओर बढा। मेरे नजदीक आकर उसने अपने दाहिने हाथ में रखी एक पुस्तक आगे बढायी और मुझसे कहा 'इसे ले लीजिए .. इसमें मेहंदी की डिजाइने हैं' जबतक मैने 'ना' में सर हिलाया , तबतक मेरी त्वचा से वह मेरी उम्र का सही अंदाजा लगा चुका था। वह क्षणभर भी देरी किए बिना विभिन्न देवताओं की आरती की पुस्तक निकालकर मुझे दिखाने लगा। ट्रेन में पत्र पत्रिकाएं पढी भी जा सकती हैं , पर बस के हिलने डुलने में आंख्ा कहां स्थिर रह पाता है , मुझे विवाह में भी जाना था , पुस्तके लेकर क्या करती , मैने मना कर दिया। पर उस किशोर पुस्तक विक्रेता के मनोविज्ञान समझने की कला ने मुझे खासा आकर्षित किया। इतनी कम उम्र में भी उसे पता है कि किस उम्र में किस तरह के लोगों को किस तरह की पुस्तकें चाहिए।
बस चल चुकी थी और हमेशा की तरह मैं चिंतन में मग्न थी। उम्र बढने या परिस्थितियां बदलने के साथ साथ सोंच कितनी बदल जाती है। पत्र पत्रिकाएं या हल्की फुल्की पुस्तकें पढने में मेरी सदा से रूचि रही है , पिताजी के एक मित्र ने पत्र पत्रिकाओं की दुकान खोली थी। पिताजी जब भी बाजार जाते और तीन चार पत्रिकाएं ले आते थे , दूसरे या तीसरे दिन जाकर पुरानी पत्रिकाओं को वापस करते और नई पत्रिकाएं ले आते थे। हम सभी भाई बहन अपनी अपनी रूचि के अनुसार एक एक पत्रिका लेकर बैठ जाते। कोई खेल से संबंधित तो कोई बाल पत्रिका तो कोई साहित्यिक। कुछ दिनों तक तो साहित्य की पुस्तकों में से कहानी , कविताएं पढना मुझे अच्छा लगा , पर उसके बाद धीरे धीरे मेरी रूचि सिलाई-बुनाई-कढाई की ओर चली गयी । फिर तो सीधा महिलाओं की पत्रिकाओं में से नए फैशन के कपडे या बुनाई के नए नए पैटर्न देखती और सलाई या क्रोशिए में मेरे हाथ तबतक चलते , जबतक वो पैटर्न उतर नहीं जाते।
पर ग्रेज्युएशन की पढाई करते वक्त कैरियर के प्रति गंभीर होने लगी , तब प्रतियोगिता के लिए आनेवाले पत्र पत्रिकाओं में मेरी रूचि बढने लगी, फिर तो कुछ वर्ष खूब हिसाब किताब किए , जीके , आई क्यू और अंकगणितीय योग्यता को मजबूत बनाने की कोशिश की , पर फिर नौकरी करनेवाली कई महिलाओं की घर गृहस्थी को अव्यवस्थित देखकर मेरी नौकरी करने की इच्छा ही समाप्त हो गयी। कैरियर के लिए कॉलेज की प्रोफेसर के अलावे अपने लिए कोई और विकल्प नहीं दिखा और दूसरी नौकरी के लिए मैने कोशिश ही नहीं की। व्याख्याता बनने के लिए उस समय सिर्फ मास्टर डिग्री लेनी आवश्यक थी , सो ले ली । प्राइवेट कॉलेजों के ऑफर भी आए तो बच्चों की जबाबदेही के कारण टालमटोल कर दिया और सरकारी कॉलेजों में तो आजतक इसकी न तो वेकेंसी निकली और न मैं व्याख्याता बन सकी। जो भी हो, उसके बाद प्रतियोगिता के लिए भी पढाई लिखाई तो बंद हो ही गया।
विवाह के बाद ससुराल पहुंची , तो वहां के संयुक्त परिवार में अच्छे खाने पीने की प्रशंसा करने वालों की बडी संख्या को देखते हुए परिवार के लिए नई नई रेसिपी बनाने में ही कुछ दिनों तक व्यस्त रही , इस समय पत्र पत्रिकाओं में मुख्य रूप से विभिन्न प्रकार की रेसिपी को पढना ही मुख्य लक्ष्य बना रहा। पर दो चार वर्षो में ही मेरी महत्वाकांक्षी मन और दिमाग में मेरे जीवन को व्यर्थ होते देख 'कुछ' करने की ओर मेरा ध्यान आकर्षित किया। जब भी मैके आती , बच्चों को घरवालों के भरोसे छोडकर पिताजी के साथ ज्योतिष सीखते और उसमें लम्बी लम्बी सार्थक बहस करते हुए मैने इसे ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया । इसके बाद मेरे घर में ज्योतिष की पत्रिकाएं आने लगी और मेरा ध्यान उसके लिए नए नए आलेख लिखने में लगा रहा । दो तीन वर्षों में ही उन आलेखों को संकलित करते हुए 'अजय बुक सर्विस' ने एक पुस्तक ही प्रकाशित कर डाली।
पुस्तक के प्रकाशन के बाद दो तीन वर्ष बच्चों को सही दिशा देने की कोशिश में फिर इधर उधर से ध्यान हट गया, क्यूंकि मेरे विचार से उनके बेहतर मनोवैज्ञानिक और शैक्षणिक विकास पर ध्यान देना आवश्यक था। लेकिन जब दो तीन वर्षों में बच्चों ने अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारियां स्वयं पर ले ली , तो फुर्सत मिलते ही ज्योतिष के इस नए सिद्धांत को कंप्यूटराइज करने का विचार मन में आया। कंप्यूटर प्रोफेशनलों से बात करने पर उन्हें यह प्रोग्राम बनाना कुछ कठिन लगा, तो मैने खुद ही कंप्यूटर के प्रोग्रामिंग सीखने का फैसला किया। संस्थान में दाखिला लेने के बाद मैं कंप्यूटर की पत्रिकाओं में भी रूचि लेने लगी थी और तबतक इसके सिद्धांतो को समझती रही , जबतक अपना सॉफ्टवेयर कंप्लीट न हो पाया। ये सब तैयारियां मैं एक लक्ष्य को लेकर कर रही थी , पर उस लक्ष्य के लिए घर से दूर निकल पाने में अभी भी समय बाकी था। एक तो ग्रहों के अनुसार भी मैं अपने अनुकूल समय का इंतजार कर रही थी , ताकि इस लक्ष्य को प्राप्त करने में बडी बाधा न आए, दूसरे बच्चों के भी बारहवीं पास कर घर से निकलने देने तक उनपर एक निगाह बनाए रखने की इच्छा से मैने अपने कार्यक्रमों को कुछ दिनों तक टाल दिया।
उसके बाद के दो तीन वर्ष शेयर बाजार पर ग्रहों के प्रभाव के अध्ययन करने में गुजरे। इस दौरान नियमित तौर पर इससे जुडे समाचारों को देखना और पढना जारी रहा। 'दलाल स्ट्रीट' भी मेरे पास आती रही। फिर भी समय कुछ अधिक था मेरे पास , कंप्यूटर की जानकारी मुझे थी ही , बचे दो तीन वर्षों के समय को बेवजह बर्वाद न होने देने के लिए मैं हिन्दी ब्लागिंग से जुड गयी और तत्काल इसके माध्यम से ही अपनी 'गत्यात्मक ज्योतिष' के बारे में पाठकों को जानकारी देने का काम शुरू किया। एक वर्ष वर्डप्रेस पर लिखा , फिर मैं ब्लॉगस्पॉट पर लिखने लगी। यह एक अलग तरह की दुनिया है , जहां लेखक और पाठक के रिश्ते बढते हुए धीरे धीरे बहुत आत्मीय हो जाते हैं। औरों की तरह मैं भी इससे गंभीरता से जुडती चली गयी और आज इसके अलावे हर कार्य गौण है। अब आगे की जीवनयात्रा में रूचि किस दिशा जाएगी , यह तो समय ही बताएगा , पर आज तो यही स्थिति है कि यदि उस पुस्तक विक्रेता किशोर के हाथ में हिन्दी ब्लागिंग से जुडी दस पुस्तकें भी होती , तो मैं सबको खरीद लेती ।
एक कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए पिछले महीने जाकर बस पर बैठी ही थी कि ढेर सारी पुस्तके हाथ में लिए एक किशोर पुस्तक विक्रेता मेरी ओर बढा। मेरे नजदीक आकर उसने अपने दाहिने हाथ में रखी एक पुस्तक आगे बढायी और मुझसे कहा 'इसे ले लीजिए .. इसमें मेहंदी की डिजाइने हैं' जबतक मैने 'ना' में सर हिलाया , तबतक मेरी त्वचा से वह मेरी उम्र का सही अंदाजा लगा चुका था। वह क्षणभर भी देरी किए बिना विभिन्न देवताओं की आरती की पुस्तक निकालकर मुझे दिखाने लगा। ट्रेन में पत्र पत्रिकाएं पढी भी जा सकती हैं , पर बस के हिलने डुलने में आंख्ा कहां स्थिर रह पाता है , मुझे विवाह में भी जाना था , पुस्तके लेकर क्या करती , मैने मना कर दिया। पर उस किशोर पुस्तक विक्रेता के मनोविज्ञान समझने की कला ने मुझे खासा आकर्षित किया। इतनी कम उम्र में भी उसे पता है कि किस उम्र में किस तरह के लोगों को किस तरह की पुस्तकें चाहिए।
बस चल चुकी थी और हमेशा की तरह मैं चिंतन में मग्न थी। उम्र बढने या परिस्थितियां बदलने के साथ साथ सोंच कितनी बदल जाती है। पत्र पत्रिकाएं या हल्की फुल्की पुस्तकें पढने में मेरी सदा से रूचि रही है , पिताजी के एक मित्र ने पत्र पत्रिकाओं की दुकान खोली थी। पिताजी जब भी बाजार जाते और तीन चार पत्रिकाएं ले आते थे , दूसरे या तीसरे दिन जाकर पुरानी पत्रिकाओं को वापस करते और नई पत्रिकाएं ले आते थे। हम सभी भाई बहन अपनी अपनी रूचि के अनुसार एक एक पत्रिका लेकर बैठ जाते। कोई खेल से संबंधित तो कोई बाल पत्रिका तो कोई साहित्यिक। कुछ दिनों तक तो साहित्य की पुस्तकों में से कहानी , कविताएं पढना मुझे अच्छा लगा , पर उसके बाद धीरे धीरे मेरी रूचि सिलाई-बुनाई-कढाई की ओर चली गयी । फिर तो सीधा महिलाओं की पत्रिकाओं में से नए फैशन के कपडे या बुनाई के नए नए पैटर्न देखती और सलाई या क्रोशिए में मेरे हाथ तबतक चलते , जबतक वो पैटर्न उतर नहीं जाते।
पर ग्रेज्युएशन की पढाई करते वक्त कैरियर के प्रति गंभीर होने लगी , तब प्रतियोगिता के लिए आनेवाले पत्र पत्रिकाओं में मेरी रूचि बढने लगी, फिर तो कुछ वर्ष खूब हिसाब किताब किए , जीके , आई क्यू और अंकगणितीय योग्यता को मजबूत बनाने की कोशिश की , पर फिर नौकरी करनेवाली कई महिलाओं की घर गृहस्थी को अव्यवस्थित देखकर मेरी नौकरी करने की इच्छा ही समाप्त हो गयी। कैरियर के लिए कॉलेज की प्रोफेसर के अलावे अपने लिए कोई और विकल्प नहीं दिखा और दूसरी नौकरी के लिए मैने कोशिश ही नहीं की। व्याख्याता बनने के लिए उस समय सिर्फ मास्टर डिग्री लेनी आवश्यक थी , सो ले ली । प्राइवेट कॉलेजों के ऑफर भी आए तो बच्चों की जबाबदेही के कारण टालमटोल कर दिया और सरकारी कॉलेजों में तो आजतक इसकी न तो वेकेंसी निकली और न मैं व्याख्याता बन सकी। जो भी हो, उसके बाद प्रतियोगिता के लिए भी पढाई लिखाई तो बंद हो ही गया।
विवाह के बाद ससुराल पहुंची , तो वहां के संयुक्त परिवार में अच्छे खाने पीने की प्रशंसा करने वालों की बडी संख्या को देखते हुए परिवार के लिए नई नई रेसिपी बनाने में ही कुछ दिनों तक व्यस्त रही , इस समय पत्र पत्रिकाओं में मुख्य रूप से विभिन्न प्रकार की रेसिपी को पढना ही मुख्य लक्ष्य बना रहा। पर दो चार वर्षो में ही मेरी महत्वाकांक्षी मन और दिमाग में मेरे जीवन को व्यर्थ होते देख 'कुछ' करने की ओर मेरा ध्यान आकर्षित किया। जब भी मैके आती , बच्चों को घरवालों के भरोसे छोडकर पिताजी के साथ ज्योतिष सीखते और उसमें लम्बी लम्बी सार्थक बहस करते हुए मैने इसे ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया । इसके बाद मेरे घर में ज्योतिष की पत्रिकाएं आने लगी और मेरा ध्यान उसके लिए नए नए आलेख लिखने में लगा रहा । दो तीन वर्षों में ही उन आलेखों को संकलित करते हुए 'अजय बुक सर्विस' ने एक पुस्तक ही प्रकाशित कर डाली।
पुस्तक के प्रकाशन के बाद दो तीन वर्ष बच्चों को सही दिशा देने की कोशिश में फिर इधर उधर से ध्यान हट गया, क्यूंकि मेरे विचार से उनके बेहतर मनोवैज्ञानिक और शैक्षणिक विकास पर ध्यान देना आवश्यक था। लेकिन जब दो तीन वर्षों में बच्चों ने अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारियां स्वयं पर ले ली , तो फुर्सत मिलते ही ज्योतिष के इस नए सिद्धांत को कंप्यूटराइज करने का विचार मन में आया। कंप्यूटर प्रोफेशनलों से बात करने पर उन्हें यह प्रोग्राम बनाना कुछ कठिन लगा, तो मैने खुद ही कंप्यूटर के प्रोग्रामिंग सीखने का फैसला किया। संस्थान में दाखिला लेने के बाद मैं कंप्यूटर की पत्रिकाओं में भी रूचि लेने लगी थी और तबतक इसके सिद्धांतो को समझती रही , जबतक अपना सॉफ्टवेयर कंप्लीट न हो पाया। ये सब तैयारियां मैं एक लक्ष्य को लेकर कर रही थी , पर उस लक्ष्य के लिए घर से दूर निकल पाने में अभी भी समय बाकी था। एक तो ग्रहों के अनुसार भी मैं अपने अनुकूल समय का इंतजार कर रही थी , ताकि इस लक्ष्य को प्राप्त करने में बडी बाधा न आए, दूसरे बच्चों के भी बारहवीं पास कर घर से निकलने देने तक उनपर एक निगाह बनाए रखने की इच्छा से मैने अपने कार्यक्रमों को कुछ दिनों तक टाल दिया।
उसके बाद के दो तीन वर्ष शेयर बाजार पर ग्रहों के प्रभाव के अध्ययन करने में गुजरे। इस दौरान नियमित तौर पर इससे जुडे समाचारों को देखना और पढना जारी रहा। 'दलाल स्ट्रीट' भी मेरे पास आती रही। फिर भी समय कुछ अधिक था मेरे पास , कंप्यूटर की जानकारी मुझे थी ही , बचे दो तीन वर्षों के समय को बेवजह बर्वाद न होने देने के लिए मैं हिन्दी ब्लागिंग से जुड गयी और तत्काल इसके माध्यम से ही अपनी 'गत्यात्मक ज्योतिष' के बारे में पाठकों को जानकारी देने का काम शुरू किया। एक वर्ष वर्डप्रेस पर लिखा , फिर मैं ब्लॉगस्पॉट पर लिखने लगी। यह एक अलग तरह की दुनिया है , जहां लेखक और पाठक के रिश्ते बढते हुए धीरे धीरे बहुत आत्मीय हो जाते हैं। औरों की तरह मैं भी इससे गंभीरता से जुडती चली गयी और आज इसके अलावे हर कार्य गौण है। अब आगे की जीवनयात्रा में रूचि किस दिशा जाएगी , यह तो समय ही बताएगा , पर आज तो यही स्थिति है कि यदि उस पुस्तक विक्रेता किशोर के हाथ में हिन्दी ब्लागिंग से जुडी दस पुस्तकें भी होती , तो मैं सबको खरीद लेती ।
Wednesday 2 December 2009
ये रहा मेरा पहला प्रयोग .. यह त्रिवेणी ही है या कुछ और ??
अपने ब्लॉग के लिए इतने लंबे लंबे आलेख और 'साहित्य शिल्पी' में लंबी लंबी कहानियां लिखकर प्रकाशित करते हुए मैं अपना जितना समय जाया करती हूं , उससे कम पाठकों का भी नहीं होता , जबकि कुछ ब्लागर एक छोटी सी त्रिवेणी लिखकर अपना संदेश पाठकों तक पहुंचाकर प्रशंसा भरी ढेर सारी टिप्पणियां प्राप्त कर लेते हैं। ब्लॉग जगत में इतने दिनों में डॉ अनुराग जी के ढेर सारी त्रिवेणियॉं पढने के बाद यत्र तत्र प्रकाशित कुछ अन्य त्रिवेणियों को भी समझने की कोशिश करती रही । इस प्रकार मुझे अभिव्यक्ति की एक नई शैली की जानकारी मिली, किसी भी तरह का प्रयोग करने में मैं पीछे नहीं रहा करती , ये रहा मेरा पहला प्रयोग। ये भी पता नहीं कि यह त्रिवेणी है या कुछ और ... इसलिए आप सबों की आलोचनाओं के लिए तैयार हूं .....
धुंधला आईना, चेहरे की सारी कमियों को छुपा देता है ,
अखबार के गीले टुकडे से इसे चमकाने की जल्दबाजी क्यूं,
थोडी देर ही सही, भ्रम में रहकर खुश तो हो लें !!
धुंधला आईना, चेहरे की सारी कमियों को छुपा देता है ,
अखबार के गीले टुकडे से इसे चमकाने की जल्दबाजी क्यूं,
थोडी देर ही सही, भ्रम में रहकर खुश तो हो लें !!
Saturday 21 November 2009
ऐसे 42 या उससे भी अधिक राष्ट्रीय प्रतीक हो सकते हैं ... जिनपर हम गर्व कर सकते है !!
हम सभी जानते हैं कि भारत की राष्ट्रीय पहचान के 12 प्रतीक भारतीय पहचान और विरासत का मूलभूत हिस्सा हैं। विश्व भर में बसे विविध पृष्ठभूमियों के भारतीय इन राष्ट्रीय प्रतीकों पर गर्व करते हैं क्योंकि वे प्रत्येक भारतीय के हृदय में गौरव और देश भक्ति की भावना का संचार करते हैं, जो निम्न हैं ......
राष्ट्रीय ध्वज ... तिरंगा
राष्ट्रीय पक्षी ... मोर
राष्ट्रीय पुष्प ... कमल
राष्ट्र–गान ... जन गन मन
राष्ट्रीय नदी ... गंगा
राष्ट्रीय फल ... आम
राजकीय प्रतीक ... अशोक चक्र
राष्ट्रीय पंचांग .... शक संवत
राष्ट्रीय पशु ... बाघ
राष्ट्रीय गीत ... वंदे मातरम
राष्ट्रीय खेल ... हॉकी
राष्ट्रीय पेड़ ... अंजीर
कल पंकज सुबीर जी ने अपनी पोस्टमें लिखा है कि सीहोर के शिक्षा विभाग के द्वारा 55 वीं राष्ट्रीय शालेय क्रीड़ा प्रतियोगिता 2009 के समापन पर प्रकाशित स्मारिका में , जिसकी अध्यक्ष सीहोर की अपर कलेक्टर हैं तथा जिसके कोर ग्रुप में जिला शिक्षा अधिकारी, तीन प्राचार्य, डीपीसी, तथा दो संयुक्त संचालक शिक्षा के अलावे संपादक के एक प्राचार्य तथा मार्गदर्शक संयुक्त कलेक्टर के होने के बावजूद इसके 13 वें पृष्ठ पर 23 राष्ट्रीय प्रतीकों के नाम दिए गए हैं ......
राष्ट्रीय खेल – हाकी
राष्ट्रीय भाषा- हिन्दी
राष्ट्रीय वाक्य- सत्यमेव जयते
राष्ट्रीय ग्रंथ- गीता ( ये भी आज ही पता चला )
राष्ट्रीय मंत्र- ओम ( ये कब बना )
राष्ट्र पिता - महात्मा गांधी
राष्ट्रीय धर्म - धर्म निरपेक्ष ( अच्छा तो फिर गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ क्यों बनाया )
राष्ट्रीय मुद्रा – रुपया
राष्ट्रीय पुरुस्कार - भारत रत्न ( ऐसा क्या )
राष्ट्रीय फल –आम
राष्ट्रीय वृक्ष- बरगद
राष्ट्रीय मिठाई- जलेबी( वाह क्या ढूंढ के निकाला है )
राष्ट्रीय पर्व - 15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्टूबर
राष्ट्रीय नदी- गंगा
राष्ट्रीय लिपि- देवनागरी ( ये भी आज ही पता चला )
राष्ट्रीय चक्र ध्वज – तिरंगा
राष्ट्रीय गान – जन गण मन
राष्ट्रीय गीत - वंदे मातरम
राष्ट्रीय पशु- बाघ
राष्ट्रीय पक्षी – मोर
राष्ट्रीय पुष्प- कमल का फूल
राष्ट्रीय केलेण्डर -शक संवत
राष्ट्रीय जलचर - गंगा की डालफिन
इनमें असली राजकीय प्रतीक अशोक चक्र और राष्ट्रीय पेड अंजीर ही गायब हैं , इन्हें जोड दिया जाए तो कुल प्रतीक 25 हो जाते हैं । इसके अलावे मेरे पास एक पत्रिका है , जिसमें 32 प्रतीकों की चर्चा है ........
राष्ट्रीय गीत ... जन गण मन अधिनायक जय हे !
राष्ट्रीय ध्वज ... विजयी विश्व तिरंगा प्यारा ,
राष्ट्रीय ध्येय ... हर व्यक्ति का स्वराज ,
राष्ट्रीय निष्ठा ... 'सत्यमेव जयते' ,
राष्ट्रीय साधना ... अहिंसा परमो धर्म ,
राष्ट्रीय धर्म ... सर्व धर्म समभाव ,
राष्ट्रीय वनचर ... प्रियदर्शी वनराज सिंह ,
राष्ट्रीय पक्षी ... सुमनोहर प्यारा मयूर ,
राष्ट्रीय फल ... सुमधुर सुरभित आम ,
राष्ट्रीय चिन्ह ... नवयुग प्रवर्तक अशोक चक्र ,
राष्ट्रीय पुष्प ... कमल ,
राष्ट्रीय नदी ... गंगा ,
राष्ट्रीय पंचांग .... शक संवत ,
राष्ट्रीय गीत ... वंदे मातरम ,
राष्ट्रीय खेल ... हॉकी ,
राष्ट्रीय पेड़ ... अंजीर ,
राष्ट्रीयता .. वसुधैव कुटुम्बकम्,
हमारे राष्ट्र देवता ... योगेश्वर विवश्वान सूर्यदेव ,
हमारा राष्ट्रीय संकल्प ... जनसेवार्थ 'जीवेत शरद: शतम्' ,
हमारी राष्ट्रीय अभिलाषा ... सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ,
हमारा राष्ट्रीय मंत्र ... मानव संरक्षण मानव मात्र का स्वयं सिद्ध अधिकार हो।
हमारी राष्ट्रीय भूमिका ... सर्वभौम प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य ,
हमारी राष्ट्रीय नीति ... जीवन के शाश्वत मूल्यों पर अधारित पंचशील ,
हमारी राष्ट्रीय भावना ... मन मन मंदिर , घर घर गुरूकुल , गांव गांव गोकुल ,
हमारा राष्ट्रीय भजन ... वैष्णव जन तो तेने कहिए , पीर परायी जाणे रे ,
हमारी राष्ट्रीय सेवा ... स्वदेशी , स्वावलंबी , स्वयंसेवी ,
हमारी राष्ट्रीय भाषा ... हिन्दी
हमारी राष्ट्रीय लिपि ... देवनागरी ,
हमारा राष्ट्रीय गणवेश ... खादी ,
हमारा राष्ट्रीय जीवनाधार ... कृषि , गोसंवर्धन , उन्नत उद्योग और बुनियादी शिक्षा ,
हमारी राष्ट्रमाता ... स्वर्गादपि गरीयसी जन्मभूमि भारत माता ,
हमारे राष्ट्रीय पिता ... सत्य अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी ,
हमारे राष्ट्र का उज्जवल भविष्य ... हमारे होनहार प्यारे बालक ,
हमारे राष्ट्र निर्माता ... नवयुवक
हमारा राष्ट्रीय नारा ... जय जवान ! जय किसान ! जय विज्ञान ! जय हिन्द ! जय जगत !
राष्ट्रीय जयनाद ... स्वतंत्र भारत की जय ! प्रजाजनों की जय !
हमारी राष्ट्रीय धारणा ... जनतंत्रम् विजयते ,
हमारी राष्ट्रीय वंदना ... वंदे मातरम् ! वंदे मातरम् ! वंदे मातरम् !
इस पत्रिका के संपादकों पर दोषारोपण इसलिए नहीं किया जा सकता , क्यूंकि उन्होने इन्हें प्रतीक न कहकर 'अपने राष्ट्र को जानिए' शीर्षक के अंतर्गत इसे रखा है। अब इसमें यदि राष्ट्रीय शालेय क्रीड़ा प्रतियोगिता 2009 के समापन पर प्रकाशित की गई अपनी स्मारिका में प्रकाशित इन अतिरिक्त प्रतीकों को भी जोड दिया जाए ......
राष्ट्रीय वृक्ष .. बरगद ,
राष्ट्रीय ग्रंथ- गीता ,
राष्ट्रीय मंत्र- ओउम् ,
राष्ट्रीय धर्म - धर्म निरपेक्ष ,
राष्ट्रीय मुद्रा – रुपया ,
राष्ट्रीय पुरस्कार - भारत रत्न ,
राष्ट्रीय वृक्ष- बरगद ,
राष्ट्रीय मिठाई- जलेबी ,
राष्ट्रीय पर्व - 15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्टूबर ,
राष्ट्रीय जलचर - गंगा की डालफिन ,
तो कुल मिलाकर 42 ऐसे राष्ट्रीय प्रतीक हो जाएंगे , जिनपर हम गर्व कर सकते है , गर्व करने में हर्ज ही क्या है ??
राष्ट्रीय ध्वज ... तिरंगा
राष्ट्रीय पक्षी ... मोर
राष्ट्रीय पुष्प ... कमल
राष्ट्र–गान ... जन गन मन
राष्ट्रीय नदी ... गंगा
राष्ट्रीय फल ... आम
राजकीय प्रतीक ... अशोक चक्र
राष्ट्रीय पंचांग .... शक संवत
राष्ट्रीय पशु ... बाघ
राष्ट्रीय गीत ... वंदे मातरम
राष्ट्रीय खेल ... हॉकी
राष्ट्रीय पेड़ ... अंजीर
कल पंकज सुबीर जी ने अपनी पोस्टमें लिखा है कि सीहोर के शिक्षा विभाग के द्वारा 55 वीं राष्ट्रीय शालेय क्रीड़ा प्रतियोगिता 2009 के समापन पर प्रकाशित स्मारिका में , जिसकी अध्यक्ष सीहोर की अपर कलेक्टर हैं तथा जिसके कोर ग्रुप में जिला शिक्षा अधिकारी, तीन प्राचार्य, डीपीसी, तथा दो संयुक्त संचालक शिक्षा के अलावे संपादक के एक प्राचार्य तथा मार्गदर्शक संयुक्त कलेक्टर के होने के बावजूद इसके 13 वें पृष्ठ पर 23 राष्ट्रीय प्रतीकों के नाम दिए गए हैं ......
राष्ट्रीय खेल – हाकी
राष्ट्रीय भाषा- हिन्दी
राष्ट्रीय वाक्य- सत्यमेव जयते
राष्ट्रीय ग्रंथ- गीता ( ये भी आज ही पता चला )
राष्ट्रीय मंत्र- ओम ( ये कब बना )
राष्ट्र पिता - महात्मा गांधी
राष्ट्रीय धर्म - धर्म निरपेक्ष ( अच्छा तो फिर गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ क्यों बनाया )
राष्ट्रीय मुद्रा – रुपया
राष्ट्रीय पुरुस्कार - भारत रत्न ( ऐसा क्या )
राष्ट्रीय फल –आम
राष्ट्रीय वृक्ष- बरगद
राष्ट्रीय मिठाई- जलेबी( वाह क्या ढूंढ के निकाला है )
राष्ट्रीय पर्व - 15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्टूबर
राष्ट्रीय नदी- गंगा
राष्ट्रीय लिपि- देवनागरी ( ये भी आज ही पता चला )
राष्ट्रीय चक्र ध्वज – तिरंगा
राष्ट्रीय गान – जन गण मन
राष्ट्रीय गीत - वंदे मातरम
राष्ट्रीय पशु- बाघ
राष्ट्रीय पक्षी – मोर
राष्ट्रीय पुष्प- कमल का फूल
राष्ट्रीय केलेण्डर -शक संवत
राष्ट्रीय जलचर - गंगा की डालफिन
इनमें असली राजकीय प्रतीक अशोक चक्र और राष्ट्रीय पेड अंजीर ही गायब हैं , इन्हें जोड दिया जाए तो कुल प्रतीक 25 हो जाते हैं । इसके अलावे मेरे पास एक पत्रिका है , जिसमें 32 प्रतीकों की चर्चा है ........
राष्ट्रीय गीत ... जन गण मन अधिनायक जय हे !
राष्ट्रीय ध्वज ... विजयी विश्व तिरंगा प्यारा ,
राष्ट्रीय ध्येय ... हर व्यक्ति का स्वराज ,
राष्ट्रीय निष्ठा ... 'सत्यमेव जयते' ,
राष्ट्रीय साधना ... अहिंसा परमो धर्म ,
राष्ट्रीय धर्म ... सर्व धर्म समभाव ,
राष्ट्रीय वनचर ... प्रियदर्शी वनराज सिंह ,
राष्ट्रीय पक्षी ... सुमनोहर प्यारा मयूर ,
राष्ट्रीय फल ... सुमधुर सुरभित आम ,
राष्ट्रीय चिन्ह ... नवयुग प्रवर्तक अशोक चक्र ,
राष्ट्रीय पुष्प ... कमल ,
राष्ट्रीय नदी ... गंगा ,
राष्ट्रीय पंचांग .... शक संवत ,
राष्ट्रीय गीत ... वंदे मातरम ,
राष्ट्रीय खेल ... हॉकी ,
राष्ट्रीय पेड़ ... अंजीर ,
राष्ट्रीयता .. वसुधैव कुटुम्बकम्,
हमारे राष्ट्र देवता ... योगेश्वर विवश्वान सूर्यदेव ,
हमारा राष्ट्रीय संकल्प ... जनसेवार्थ 'जीवेत शरद: शतम्' ,
हमारी राष्ट्रीय अभिलाषा ... सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ,
हमारा राष्ट्रीय मंत्र ... मानव संरक्षण मानव मात्र का स्वयं सिद्ध अधिकार हो।
हमारी राष्ट्रीय भूमिका ... सर्वभौम प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य ,
हमारी राष्ट्रीय नीति ... जीवन के शाश्वत मूल्यों पर अधारित पंचशील ,
हमारी राष्ट्रीय भावना ... मन मन मंदिर , घर घर गुरूकुल , गांव गांव गोकुल ,
हमारा राष्ट्रीय भजन ... वैष्णव जन तो तेने कहिए , पीर परायी जाणे रे ,
हमारी राष्ट्रीय सेवा ... स्वदेशी , स्वावलंबी , स्वयंसेवी ,
हमारी राष्ट्रीय भाषा ... हिन्दी
हमारी राष्ट्रीय लिपि ... देवनागरी ,
हमारा राष्ट्रीय गणवेश ... खादी ,
हमारा राष्ट्रीय जीवनाधार ... कृषि , गोसंवर्धन , उन्नत उद्योग और बुनियादी शिक्षा ,
हमारी राष्ट्रमाता ... स्वर्गादपि गरीयसी जन्मभूमि भारत माता ,
हमारे राष्ट्रीय पिता ... सत्य अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी ,
हमारे राष्ट्र का उज्जवल भविष्य ... हमारे होनहार प्यारे बालक ,
हमारे राष्ट्र निर्माता ... नवयुवक
हमारा राष्ट्रीय नारा ... जय जवान ! जय किसान ! जय विज्ञान ! जय हिन्द ! जय जगत !
राष्ट्रीय जयनाद ... स्वतंत्र भारत की जय ! प्रजाजनों की जय !
हमारी राष्ट्रीय धारणा ... जनतंत्रम् विजयते ,
हमारी राष्ट्रीय वंदना ... वंदे मातरम् ! वंदे मातरम् ! वंदे मातरम् !
इस पत्रिका के संपादकों पर दोषारोपण इसलिए नहीं किया जा सकता , क्यूंकि उन्होने इन्हें प्रतीक न कहकर 'अपने राष्ट्र को जानिए' शीर्षक के अंतर्गत इसे रखा है। अब इसमें यदि राष्ट्रीय शालेय क्रीड़ा प्रतियोगिता 2009 के समापन पर प्रकाशित की गई अपनी स्मारिका में प्रकाशित इन अतिरिक्त प्रतीकों को भी जोड दिया जाए ......
राष्ट्रीय वृक्ष .. बरगद ,
राष्ट्रीय ग्रंथ- गीता ,
राष्ट्रीय मंत्र- ओउम् ,
राष्ट्रीय धर्म - धर्म निरपेक्ष ,
राष्ट्रीय मुद्रा – रुपया ,
राष्ट्रीय पुरस्कार - भारत रत्न ,
राष्ट्रीय वृक्ष- बरगद ,
राष्ट्रीय मिठाई- जलेबी ,
राष्ट्रीय पर्व - 15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्टूबर ,
राष्ट्रीय जलचर - गंगा की डालफिन ,
तो कुल मिलाकर 42 ऐसे राष्ट्रीय प्रतीक हो जाएंगे , जिनपर हम गर्व कर सकते है , गर्व करने में हर्ज ही क्या है ??
Tuesday 17 November 2009
....... और इस तरह राजा को भी विश्वास हो गया कि भूत होते हैं !!
एक गांव में दो गरीब पति पत्नी रहा करते थे , किसी तरह दो जून का रूखा सूखा खाना जुटा पाते। पर्व त्यौहारों में भी पकवान बना पाना मुश्किल होता। अगल बगल के घरों से कभी कुछ मिल जाता तो खाकर संतोष कर लेते थे। पर एक दिन किसी के घर से मिले पुए को खाकर उनका लालच काफी बढ गया, इसलिए उन्होने घर पर ही पुए बनाने की सोंची। सामग्री की व्यवस्था में कई दिनों तक दोनो ने पूरी ताकत झोंकी , तब जाकर पुए के लिए चावल , दूध और घी जुटा पाए। पत्नी पुए बनाने की तैयारी में जुट गयी।
तभी पति को कोई काम याद आ गया और वह उस सिलसिले में घर से निकल पडा। पर थोडी दूर जाने के बाद ही उसे अपनी गल्ती का अहसास हुआ , अभी घर से निकलने की क्या जरूरत थी ? घर पर होता तो चखने के बहाने ही एक दो पुए अधिक मिल जाते। यह सोंचते ही वह काम छोडकर वापस घर लौटा, घर पहुंचा तो दूर से ही पत्नी पुए बनाती मिली। उसके मन में पत्नी के लालच की परीक्षा लेने की बात आ गयी , इसलिए वह दूर से ही छुपकर अपनी पत्नी की गतिविधियों पर नजर डालने लगा।
उतनी सामग्री से पत्नी ने बडे बडे पांच पुए बनाए , बनाते वक्त एक भी पुए नहीं खाया , देखकर उसे ताज्जुब हुआ। फिर धीरे से वहां से निकलकर वह पत्नी के सामने आया। पत्नी ने खाना निकाला , सामने चार ही पुए थे , दो उसे दिया और दो खुद खाने बैठ गयी। उसे शंका होनी ही थी , कमरे में चारों ओर देखते हुए उसने कुछ अनुमान लगाया।
फिर उठकर छुपाए हुए पांचवे पुए को निकालकर पूछा 'यह क्या है ?'
पत्नी ने कहा 'वह आखिरी पुआ है , इसमें कंकड वगैरह होते हैं और इसलिए घर के मर्द इसे नहीं खाते'
पति ने कहा 'ठीक है तुम ही इसे खाओ , पर अपनी थाली में से एक पुआ मुझे दे दो'
'यह कैसे हो सकता है , उस कंकड वाले पुए के बदले तुम्हे अच्छा पुआ दे दूं'
कोई मानने को तैयार नहीं , बढते बढते बात बहुत बढ गयी , कौन तीन खाए और कौन दो । अंत में पति ने फैसला किया कि दोनो में से जो पहले बोलगा , पहले खाएगा , पहले उठेगा या पहले सोने जाएगा , उसकी हार होगी और उसे दो पुए खाने को मिलेंगे , जबकि जीतनेवाले को तीन। इस फैसले पर दोनो राजी हो गए। इसके बाद मिनट बीतते गए , फिर घंटे और फिर पूरी रात बीत गयी , दोनो में से हारने को कोई तैयार नहीं। सुबह काफी देर तक उनका दरवाजा नहीं खुला , तो पडोसियों को संदेह हुआ। उनलोगों ने दरवाजे को जोर जोर से पीटा , पर दरवाजा नहीं खुला । किसी अनहोनी की आशंका से पडोसी भयभीत हुए , छप्पर फाडकर घर के अंदर घुसे। देखा कि दोनो पति पत्नी दीवार के सहारे बैठे मु्द्रा में थाली में रखे पुए पर टकटकी लगाए हुए हैं।
सबने समझ लिया कि ये पुआ जहरीला था , जिसे खाने से दोनो पति पत्नी की मौत हो गयी है। पूरे गांव में कोहराम मच गया , सब इनकी अंतिम विदाई की तैयारी करने लगे। औरत को सती मानते हुए सारे गांववाले दर्शन को पहुंचने लगे। एक ही साथ दोनो की चिता बनायी गयी , दोनो को उसपर रखकर श्मशान पहुंचा दिया गया। पांच रिश्तेदार आगे बढे , अब आग लगाने की बारी भी आ गयी थी। पति ने सोंचा कि एक पुए के लालच में मौत को गले लगाना बेवकूफी ही होगी। वह बोल उठा 'चलो , अब उठो भी , तुम तीन खाओ , मैं ही दो खाउंगा' उन्हें उठते देखकर सबने सोंचा कि इनके दाह संस्कार में देर हो गयी है , इसलिए ये भूत बन गए। यह सुनते ही जिसके हाथ में आग थी और उसके चार साथी सिर पर पैर रखकर भागे। उन्होने सोंचा कि भूत उन पांचों को खाने के बारे में ही बात कर रहे थे , जो उनके क्रिया कर्म में आगे आगे हैं। गांववाले भी पीछे पीछे भागे।
उनके पीछे पीछे पति पत्नी गांव में जाकर सब बातें समझाना चाहते थे , पर गांववाले दूर से ही भूत समझकर उन्हें ढेला पत्थर मारकर भगा देते। उनके भूत बनने की कहानी पूरे राज्य में फैल गयी। धीरे धीरे राजा के कानों तक भी पहुंची। राजा को भूत प्रेत की कहानियों पर विश्वास नहीं था, इसलिए उसे अपनी आंखों से सत्य देखने की इच्छा हुई। उसने अपना घोडा निकाला और श्मशान की ओर दौडा दी। श्मशान से कुछ पहले ही उन्होने एक खूंटी गाडकर अपने घोडे को बांध दिया और पैदल ही आगे बढे। अभी श्मशान पहुंचे भी नहीं थे कि सचमुच पति पत्नी को अपनी ओर आते पाया। राजा को आते देख वे उनसे गांव में रहने देने की प्रार्थना के लिए आगे बढे जा रहे थे।
पर उन्हें देखकर राजा उल्टा भागा। वो अपने कदम जितने तेज करता , दोनो उतनी ही तेजी से उसकी ओर आते । उनकी गति देखकर राजा की सारी शक्ति जबाब दे रही थी। घबडाकर उन्होने घोडे को खोला भी नहीं और उसपर बैठकर घोडे को दौडा दिया। घोडा भागा जा रहा था और साथ ही साथ उखडा हुआ खूंटा राजा के पैरों से टकरा टकराकर उसे चोटिल करता जा रहा था , जिसे वे भूत की चोट समझ रहे थे। वे घोडे को जितना ही तेज दौडाते , खूंटा उतनी ही तेजी से उनके पैरों पर वार करता। अब ऐसी हालत में राजा को भला कैसे विश्वास न हो कि भूत नहीं होते।
तभी पति को कोई काम याद आ गया और वह उस सिलसिले में घर से निकल पडा। पर थोडी दूर जाने के बाद ही उसे अपनी गल्ती का अहसास हुआ , अभी घर से निकलने की क्या जरूरत थी ? घर पर होता तो चखने के बहाने ही एक दो पुए अधिक मिल जाते। यह सोंचते ही वह काम छोडकर वापस घर लौटा, घर पहुंचा तो दूर से ही पत्नी पुए बनाती मिली। उसके मन में पत्नी के लालच की परीक्षा लेने की बात आ गयी , इसलिए वह दूर से ही छुपकर अपनी पत्नी की गतिविधियों पर नजर डालने लगा।
उतनी सामग्री से पत्नी ने बडे बडे पांच पुए बनाए , बनाते वक्त एक भी पुए नहीं खाया , देखकर उसे ताज्जुब हुआ। फिर धीरे से वहां से निकलकर वह पत्नी के सामने आया। पत्नी ने खाना निकाला , सामने चार ही पुए थे , दो उसे दिया और दो खुद खाने बैठ गयी। उसे शंका होनी ही थी , कमरे में चारों ओर देखते हुए उसने कुछ अनुमान लगाया।
फिर उठकर छुपाए हुए पांचवे पुए को निकालकर पूछा 'यह क्या है ?'
पत्नी ने कहा 'वह आखिरी पुआ है , इसमें कंकड वगैरह होते हैं और इसलिए घर के मर्द इसे नहीं खाते'
पति ने कहा 'ठीक है तुम ही इसे खाओ , पर अपनी थाली में से एक पुआ मुझे दे दो'
'यह कैसे हो सकता है , उस कंकड वाले पुए के बदले तुम्हे अच्छा पुआ दे दूं'
कोई मानने को तैयार नहीं , बढते बढते बात बहुत बढ गयी , कौन तीन खाए और कौन दो । अंत में पति ने फैसला किया कि दोनो में से जो पहले बोलगा , पहले खाएगा , पहले उठेगा या पहले सोने जाएगा , उसकी हार होगी और उसे दो पुए खाने को मिलेंगे , जबकि जीतनेवाले को तीन। इस फैसले पर दोनो राजी हो गए। इसके बाद मिनट बीतते गए , फिर घंटे और फिर पूरी रात बीत गयी , दोनो में से हारने को कोई तैयार नहीं। सुबह काफी देर तक उनका दरवाजा नहीं खुला , तो पडोसियों को संदेह हुआ। उनलोगों ने दरवाजे को जोर जोर से पीटा , पर दरवाजा नहीं खुला । किसी अनहोनी की आशंका से पडोसी भयभीत हुए , छप्पर फाडकर घर के अंदर घुसे। देखा कि दोनो पति पत्नी दीवार के सहारे बैठे मु्द्रा में थाली में रखे पुए पर टकटकी लगाए हुए हैं।
सबने समझ लिया कि ये पुआ जहरीला था , जिसे खाने से दोनो पति पत्नी की मौत हो गयी है। पूरे गांव में कोहराम मच गया , सब इनकी अंतिम विदाई की तैयारी करने लगे। औरत को सती मानते हुए सारे गांववाले दर्शन को पहुंचने लगे। एक ही साथ दोनो की चिता बनायी गयी , दोनो को उसपर रखकर श्मशान पहुंचा दिया गया। पांच रिश्तेदार आगे बढे , अब आग लगाने की बारी भी आ गयी थी। पति ने सोंचा कि एक पुए के लालच में मौत को गले लगाना बेवकूफी ही होगी। वह बोल उठा 'चलो , अब उठो भी , तुम तीन खाओ , मैं ही दो खाउंगा' उन्हें उठते देखकर सबने सोंचा कि इनके दाह संस्कार में देर हो गयी है , इसलिए ये भूत बन गए। यह सुनते ही जिसके हाथ में आग थी और उसके चार साथी सिर पर पैर रखकर भागे। उन्होने सोंचा कि भूत उन पांचों को खाने के बारे में ही बात कर रहे थे , जो उनके क्रिया कर्म में आगे आगे हैं। गांववाले भी पीछे पीछे भागे।
उनके पीछे पीछे पति पत्नी गांव में जाकर सब बातें समझाना चाहते थे , पर गांववाले दूर से ही भूत समझकर उन्हें ढेला पत्थर मारकर भगा देते। उनके भूत बनने की कहानी पूरे राज्य में फैल गयी। धीरे धीरे राजा के कानों तक भी पहुंची। राजा को भूत प्रेत की कहानियों पर विश्वास नहीं था, इसलिए उसे अपनी आंखों से सत्य देखने की इच्छा हुई। उसने अपना घोडा निकाला और श्मशान की ओर दौडा दी। श्मशान से कुछ पहले ही उन्होने एक खूंटी गाडकर अपने घोडे को बांध दिया और पैदल ही आगे बढे। अभी श्मशान पहुंचे भी नहीं थे कि सचमुच पति पत्नी को अपनी ओर आते पाया। राजा को आते देख वे उनसे गांव में रहने देने की प्रार्थना के लिए आगे बढे जा रहे थे।
पर उन्हें देखकर राजा उल्टा भागा। वो अपने कदम जितने तेज करता , दोनो उतनी ही तेजी से उसकी ओर आते । उनकी गति देखकर राजा की सारी शक्ति जबाब दे रही थी। घबडाकर उन्होने घोडे को खोला भी नहीं और उसपर बैठकर घोडे को दौडा दिया। घोडा भागा जा रहा था और साथ ही साथ उखडा हुआ खूंटा राजा के पैरों से टकरा टकराकर उसे चोटिल करता जा रहा था , जिसे वे भूत की चोट समझ रहे थे। वे घोडे को जितना ही तेज दौडाते , खूंटा उतनी ही तेजी से उनके पैरों पर वार करता। अब ऐसी हालत में राजा को भला कैसे विश्वास न हो कि भूत नहीं होते।
Monday 26 October 2009
क्या रेमिंगटन कीबोर्ड पर टाइपिंग करने में आपको परेशानी होती है ??
अपने कंप्यूटर में Baraha IMEया Hindi Indic IME.को लोड करने और हिन्दी सक्रियकरने के बाद मुख्य समस्या हिन्दी में टाइपकरने की आती है। इस समस्या का कोई समाधान न दिखने से अधिकांश लोगों को फोनेटिक कीबोर्ड का सहारा लेना पडता है , जिसके द्वारा रोमण में ही लिखने से उसे हिन्दी में कन्वर्ट किया जा सकता है। लेकिन आप यदि डायरेक्ट हिन्दी में ही लिखना चाहते हों , तो आपको रेमिंगटन कीबोर्ड पर टाइपिंग कर सकते हैं। अंग्रेजी कैरेक्टरों को देखकर हिन्दी में टाइपिंग करना बहुत ही आसान है। चाहे जो भी कारण हो , एक महीने के अंदर मैं जितनी आसानी से हिन्दी टाइपिंग करने लगी , शायद अंग्रेजी में संभव नहीं थी।
पर उसी दूसरी लाइन की शिफ्ट के साथ हिन्दी में टाइपिंग की जाए तो ये सारे टाइप होते हैं .....
फ ॅ म् त् ज् ल् न् प् व् च् क्ष् द्व ) (WITH SHIFT)
तीसरी पंक्ति में सामान्य तौर पर ये सारे टाइप होते हैं ......
a s d f g h j k l ; ‘ (NORMAL)
जबकि उस तीसरी पंक्ति में हिन्दी में टाइपिंग की जाए तो ये सारे टाइप होते हैं .....
ं े क ि ह ी र ा स य श् (NORMAL)
अब यदि इसी तीसरी पंक्ति को शिफ्ट के साथ टाइपिंग की जाए तो ये सारे टाइप होते हैं .....
A S D F G H J K L : “ (WITH SHIFT)
पर उसी तीसरी पंक्ति को शिफ्ट के साथ हिन्दी में टाइपिंग की जाए तो ये सारे टाइप होते हैं .....
ा ै क् थ् ळ भ् श्र ज्ञ स् रू ष् (WITH SHIFT)
अंतिम पंक्ति में सामान्य तौर पर ये सारे टाइप होते हैं .....
z x c v b n m , . / (NORMAL)
यदि कीबोर्ड की इस अंतिम पंक्ति की हिन्दी में टाइपिंग की जाए तो ये सारे टाइप होते हैं .....
्र ग ब अ इ द उ ए ण् ध् (NORMAL)
शिफ्ट के साथ कीबोर्ड की पहली पंक्ति में सामान्य तौर पर ये सारे टाइप होते हैं ......
Z X C V B N M < > ? (WITH SHIFT)
पर उसी तीसरी पंक्ति को शिफ्ट के साथ हिन्दी में टाइपिंग की जाए तो ये सारे टाइप होते हैं .....
र् ग् ब् ट ठ छ ड ढ झ घ् (WITH SHIFT)
हिन्दी में मुख्य शब्दों की टाइपिंग के लिए मैने ये कई शब्दों को याद रखा ....
मई , तर , जट , लवाई , न्यू , पाई , वओ ,चप , फक्यू , कडी , हजी ,रजे ,सएल , गक्स ,बसी , अटवी , इठबी ,दछन , डउम
इन शब्दों को याद कर लेने से शुरूआती दौर में बार बार कागज देखने से बचा जा सकता है। आधा या पूरा जो भी 'म' टाइप करना हो, मई मतलब 'E' बटन, इसी तरह पूरा या आधा 'त' के लिए 'R' बटन पूरा या आधा 'ज' के लिए 'T' बटन। इसी तरह 'अ' या 'ट' टाइप करना हो , तो 'V' तथा 'इ' और 'ठ' टाइप करना हो , तो 'B' बटन का सहारा लिया जा सकता है। ऐसा करने से बहुत आसानी हो जाती है। ा का बटन , ु और ू , ि और ी तथा े और ै के बटन की स्थिति इतनी अच्छी जगह पर है कि इन्हें याद रख लेना तो बहुत आसान है ही। अब इतने बटनों को जानने के बाद टाइपिंग के दौरान कभी कभार ही नए शब्द आएंगे , जिसके लिए आप उपरोक्त कागज की एक प्रिंट बनाकर रखें रहें। दो चार दिनों के प्रैक्टिस से सारे बटन का आइडिया होना ही है। देखा रेमिंगटन में टाइपिंग कितनी आसान हो गयी ।
कीबोर्ड की पहली पंक्ति में सामान्य तौर पर ये सारे टाइप होते हैं ......
` 1 2 3 4 5 6 7 8 9 0 - = (NORMAL)
यदि कीबोर्ड की इस पहली पंक्ति की हिन्दी में टाइपिंग की जाए तो ये सारे टाइप होते हैं
़ 1 2 3 4 5 6 7 8 9 0 ; ृ (NORMAL)
शिफ्ट के साथ कीबोर्ड की पहली पंक्ति में सामान्य तौर पर ये सारे टाइप होते हैं ......
~ ! @ # $ % ^ & * ( ) _ + (WITH SHIFT)
यदि शिफ्ट के साथ कीबोर्ड की इस पहली पंक्ति की हिन्दी में टाइपिंग की जाए तो ये सारे टाइप होते हैं .....
द्य । / : * - ‘ ‘ द्ध त्र ऋ . ् (WITH SHIFT)
उसके नीचे यानि दूसरी पंक्ति में सामान्य तौर पर ये सारे टाइप किए जाते हैं ......
q w e r t y u I o p [ ] \ (NORMAL)
जबकि दूसरी पंक्ति में हिन्दी में टाइपिंग की जाए तो ये सारे टाइप होते हैं .....
ु ू म त ज ल न प व च ख् , (NORMAL)
पर यदि उसी दूसरी लाइन की शिफ्ट के साथ टाइपिंग की जाए तो ये सारे टाइप होते हैं ....
Q W E R T Y U I O P { } (WITH SHIFT)
पर उसी दूसरी लाइन की शिफ्ट के साथ हिन्दी में टाइपिंग की जाए तो ये सारे टाइप होते हैं .....
फ ॅ म् त् ज् ल् न् प् व् च् क्ष् द्व ) (WITH SHIFT)
तीसरी पंक्ति में सामान्य तौर पर ये सारे टाइप होते हैं ......
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जबकि उस तीसरी पंक्ति में हिन्दी में टाइपिंग की जाए तो ये सारे टाइप होते हैं .....
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अब यदि इसी तीसरी पंक्ति को शिफ्ट के साथ टाइपिंग की जाए तो ये सारे टाइप होते हैं .....
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पर उसी तीसरी पंक्ति को शिफ्ट के साथ हिन्दी में टाइपिंग की जाए तो ये सारे टाइप होते हैं .....
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अंतिम पंक्ति में सामान्य तौर पर ये सारे टाइप होते हैं .....
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यदि कीबोर्ड की इस अंतिम पंक्ति की हिन्दी में टाइपिंग की जाए तो ये सारे टाइप होते हैं .....
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शिफ्ट के साथ कीबोर्ड की पहली पंक्ति में सामान्य तौर पर ये सारे टाइप होते हैं ......
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पर उसी तीसरी पंक्ति को शिफ्ट के साथ हिन्दी में टाइपिंग की जाए तो ये सारे टाइप होते हैं .....
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हिन्दी में मुख्य शब्दों की टाइपिंग के लिए मैने ये कई शब्दों को याद रखा ....
मई , तर , जट , लवाई , न्यू , पाई , वओ ,चप , फक्यू , कडी , हजी ,रजे ,सएल , गक्स ,बसी , अटवी , इठबी ,दछन , डउम
इन शब्दों को याद कर लेने से शुरूआती दौर में बार बार कागज देखने से बचा जा सकता है। आधा या पूरा जो भी 'म' टाइप करना हो, मई मतलब 'E' बटन, इसी तरह पूरा या आधा 'त' के लिए 'R' बटन पूरा या आधा 'ज' के लिए 'T' बटन। इसी तरह 'अ' या 'ट' टाइप करना हो , तो 'V' तथा 'इ' और 'ठ' टाइप करना हो , तो 'B' बटन का सहारा लिया जा सकता है। ऐसा करने से बहुत आसानी हो जाती है। ा का बटन , ु और ू , ि और ी तथा े और ै के बटन की स्थिति इतनी अच्छी जगह पर है कि इन्हें याद रख लेना तो बहुत आसान है ही। अब इतने बटनों को जानने के बाद टाइपिंग के दौरान कभी कभार ही नए शब्द आएंगे , जिसके लिए आप उपरोक्त कागज की एक प्रिंट बनाकर रखें रहें। दो चार दिनों के प्रैक्टिस से सारे बटन का आइडिया होना ही है। देखा रेमिंगटन में टाइपिंग कितनी आसान हो गयी ।
Sunday 18 October 2009
भूतों के भय से ही जुडा एक किस्सा और भी सुनिए !!
संभवत: यह घटना 1981 के आस पास की है। कलकत्ते में रहनेवाले हमारे एक दूर के रिश्तेदार पहली बार हमारे गांव के अपने एक नजदीकी रिश्तेदार के घर पर आए। पर वहां उनका मन नहीं लगता था , रिश्तेदार अपने व्यवसाय में व्यस्त रहते और उनकी पत्नी अपने छोटे छोटे बच्चों में। वे वहां किससे और कितनी देर बातें करतें , उनके यहां जाने में जानबूझकर देर करते थे और हमारे यहां बैठकर बातें करते रहते थे । बडे गप्पी थे वो , अक्सर वे हमारे घर पहुंच जाते थे और घंटे दो घंटे गपशप करने के बाद खाना खाकर ही लौटते थे।
एक दिन शाम को पहुंचे , तो इधर उधर की बात होते होते भूत प्रेत पर जाकर रूक गयी , भूत प्रेत का नाम सुनते ही उन्होने अपनी शौर्यगाथाएं सुनानी शुरू की। फलाने जगह में भूत के भय से जाने से लोग डरते हैं , मैं वहां रातभर रहा , फलाने जगह पर ये किया , वो किया और हम सभी उनके हिम्मत के आगे नतमस्तक थे। मेरी मम्मी ने एक दो बार रात्रि के समय इस तरह की बातें न करने की याद भी दिलायी , पर वो नहीं माने ‘नहीं , चाचीजी , भूत प्रेत कुछ होता ही नहीं है , वैसे ही मन का वहम् है ये’ और न जाने कहां कहां के ऐसे वैसे किस्से सुनाते ही रहे।
उस दिन खाते पीते कुछ अधिक ही देर हो गयी थी , रात के ग्यारह बज गए थे , गांव में काफी सन्नाटा हो जाता है। उस घर के छत से आवाज दे देकर बच्चे बार बार बुला रहे थे । सामने के रास्ते से जाने से कई मोड पड जाने से उनका घर हमारे घर से कुछ दूर पड जाता था , पर खेत से होकर एक शार्टकट रास्ता था । हमलोग अक्सर उसी रास्ते से जाते आते थे , उन्होने भी उस दिन उसी रास्ते से जाने का निश्चय किया। पीछे के दरवाजे से उन्हें भेजकर हमलोग दरवाजा बंद करके अंदर अपने अपने कामों में लग गए। अचानक मेरी छोटी बहन के दिमाग में क्या आया , छत पर जाकर देखने लगी कि वे उनके घर पहुंचे या नहीं ? अंधेरा काफी था , मेरी बहन को कुछ भी दिखाई नहीं दिया , वह छत से लौटने वाली ही थी कि उसे महसूस हुआ कि कोई दौडकर हमारे बगान में आया और सामने नीम के पेड के नीचे छुप गया।
मेरी बहन ने पूछा ‘कौन है ?‘
उनकी आवाज आयी ‘मैं हूं’
‘आप चाचाजी के यहां गए नहीं ?’
‘खेत में कुएं के पास कोई बैठा हुआ है’
गांव में रात के अंधेरे में चोरों का ही आतंक रहता है , उनकी इस बात को सुनकर हमलोगों को चोर के होने का ही अंदेशा हुआ , जल्दी जल्दी पिछवाडे का दरवाजा खोला गया। पूछने पर उन्होने हमारे अंदेशे को गलत बताते हुए कहा कि वह आदमी नहीं , भूत प्रेत जैसा कुछ है , क्यूंकि कुएं के पास उसकी दो लाल लाल आंखे चमक रही हैं। तब जाकर हमलोगों को ध्यान आया कि कुएं के पास खेत में पानी पटानेवाला डीजल पंप रखा है और उसमें ही दो लाल बत्तियां जलती हैं। जब उन्हें यह बात बताया गया तो उन्होने एकदम से झेंपकर कहा ‘ओह ! हम तो उससे डर खा गए’ । बेचारे कर भी क्या सकते थे , इस डर खाने की कहानी ने तुरंत बखानी गई उनकी निडरता की कहानियों के पोल को खोल दिया था। फिर थोडी ही देर बाद वे चले गए , और हमारे घर के माहौल की तो पूछिए मत , हमलोगों को तो बस हंसने का एक बहाना मिल गया था।
एक दिन शाम को पहुंचे , तो इधर उधर की बात होते होते भूत प्रेत पर जाकर रूक गयी , भूत प्रेत का नाम सुनते ही उन्होने अपनी शौर्यगाथाएं सुनानी शुरू की। फलाने जगह में भूत के भय से जाने से लोग डरते हैं , मैं वहां रातभर रहा , फलाने जगह पर ये किया , वो किया और हम सभी उनके हिम्मत के आगे नतमस्तक थे। मेरी मम्मी ने एक दो बार रात्रि के समय इस तरह की बातें न करने की याद भी दिलायी , पर वो नहीं माने ‘नहीं , चाचीजी , भूत प्रेत कुछ होता ही नहीं है , वैसे ही मन का वहम् है ये’ और न जाने कहां कहां के ऐसे वैसे किस्से सुनाते ही रहे।
उस दिन खाते पीते कुछ अधिक ही देर हो गयी थी , रात के ग्यारह बज गए थे , गांव में काफी सन्नाटा हो जाता है। उस घर के छत से आवाज दे देकर बच्चे बार बार बुला रहे थे । सामने के रास्ते से जाने से कई मोड पड जाने से उनका घर हमारे घर से कुछ दूर पड जाता था , पर खेत से होकर एक शार्टकट रास्ता था । हमलोग अक्सर उसी रास्ते से जाते आते थे , उन्होने भी उस दिन उसी रास्ते से जाने का निश्चय किया। पीछे के दरवाजे से उन्हें भेजकर हमलोग दरवाजा बंद करके अंदर अपने अपने कामों में लग गए। अचानक मेरी छोटी बहन के दिमाग में क्या आया , छत पर जाकर देखने लगी कि वे उनके घर पहुंचे या नहीं ? अंधेरा काफी था , मेरी बहन को कुछ भी दिखाई नहीं दिया , वह छत से लौटने वाली ही थी कि उसे महसूस हुआ कि कोई दौडकर हमारे बगान में आया और सामने नीम के पेड के नीचे छुप गया।
मेरी बहन ने पूछा ‘कौन है ?‘
उनकी आवाज आयी ‘मैं हूं’
‘आप चाचाजी के यहां गए नहीं ?’
‘खेत में कुएं के पास कोई बैठा हुआ है’
गांव में रात के अंधेरे में चोरों का ही आतंक रहता है , उनकी इस बात को सुनकर हमलोगों को चोर के होने का ही अंदेशा हुआ , जल्दी जल्दी पिछवाडे का दरवाजा खोला गया। पूछने पर उन्होने हमारे अंदेशे को गलत बताते हुए कहा कि वह आदमी नहीं , भूत प्रेत जैसा कुछ है , क्यूंकि कुएं के पास उसकी दो लाल लाल आंखे चमक रही हैं। तब जाकर हमलोगों को ध्यान आया कि कुएं के पास खेत में पानी पटानेवाला डीजल पंप रखा है और उसमें ही दो लाल बत्तियां जलती हैं। जब उन्हें यह बात बताया गया तो उन्होने एकदम से झेंपकर कहा ‘ओह ! हम तो उससे डर खा गए’ । बेचारे कर भी क्या सकते थे , इस डर खाने की कहानी ने तुरंत बखानी गई उनकी निडरता की कहानियों के पोल को खोल दिया था। फिर थोडी ही देर बाद वे चले गए , और हमारे घर के माहौल की तो पूछिए मत , हमलोगों को तो बस हंसने का एक बहाना मिल गया था।
Friday 16 October 2009
दीपावली की रात घर में पकवान और मिष्टान्न न रखें .... घर में दरिद्दर वास करता है ??
प्राचीन काल से ही अपने धन-संपत्ति , गुण-ज्ञान और बुद्धि-विवेक के बेहतर उपयोग के कारण कुछ चुने हुए लोगों के पास ही संसाधनों की उपस्थिति को स्वीकार करना हमारी विवशता रही है। लेकिन सामाजिक तौर पर बेहतर व्यवस्था उसे कही जा सकती है , जो कई प्रकार के बहानों से इन साधन संपन्न लोगों के पास से साधनों को साधनहीनों के पास पहुंचा दे। इससे जहां एक ओर निर्बलों को सहारा मिलता है , तो दूसरी ओर मानसिक श्रम करनेवाले या कला के लिए समर्पित लोगों को भी रोजी रोटी की समस्या से निजात मिलती है , जो भविष्य में उनके विकास के लिए आवश्यक है।
समाज में विभिन्न प्रकार के रीति रिवाज या कर्मकांड इसी प्रकार का प्रयास माना जा सकता है। विभिन्न प्रकार के त्यौहारों को मनाने के क्रम में हमें समाज के हर स्तर और हर प्रकार के काम करनेवाले लोगों के सहयोग की जरूरत पड जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी उनका ऐसा महत्व है कि उनके बिना हमारा कोई यज्ञ संपन्न हो ही नहीं सकता। प्राचीन काल में बडे बडे गृहस्थों के घरों में जमा अनाज का समाज के हर वर्ग के लोगों का हिस्सा होता था , जो बिना किसी हिसाब किताब के उनके द्वारा किए गए सलाना मेहनत के एवज में उन्हें दिए जाने निश्चित थे।
दीपावली तो लक्ष्मी जी जैसी समृद्ध देवी के पूजन का त्यौहार है। भला उनकी पूजा में कैसी कंजूसी ? हमारे समाज में दीपावली के दिन नाना प्रकार के पकवान बनाने , फलों मिठाइयों के भोग लगाने , खाने पीने और खुशियां मनाने की परंपरा रही है। समृद्धों के लिए यह जितनी ही खुशी लानेवाला त्यौहार है , असमर्थों के लिए उतना ही कष्टकर। दीए तो किसी प्रकार जला ही लें , अपने सामर्थ्यानुसार सामग्री जुटाकर पूजा पाठ कर वह प्रसाद भले ही ग्रहण कर लें , पर नाना भोग जुटा पाना उनके लिए संभव नहीं। दूसरी ओर समर्थों के घर इतना पकवान बचा है कि बासी होने के बाद उसे बंटवाना पडेगा।
बासी होने के बाद क्यूं , दीपावली के त्यौहार के दिन ही इस अंतर को पाटने के लिए हम आप शायद कुछ व्यवस्था नहीं कर सकते हैं , पर हमारे दार्शनिक चिंतक पूर्वजों ने व्यवस्था कर ली थी। हमारे क्षेत्र में यह मिथक है कि दीपावली की रात्रि 12 बजे के बाद दरिद्दर घूमा करता है और जिसके यहां पकवान बचे हों , उसके यहां वास कर जाता है। इस डर से लोग जल्दी जल्दी खुद रात्रि का भोजन निपटाकर बचा सारा खाना और मिष्टान्न गरीबों के महल्ले में भेज देते हैं। भले ही यह मिथक एक अंधविश्वास है , पर इसके सकारात्मक प्रभाव को देखकर इसे गलत तो नहीं माना जा सकता। हमारे अधकचरे ज्ञान से , जो सामाजिक व्यवस्था और पर्यावरण का नुकसान कर रहा है , ऐसा अंधविश्वास लाखगुणा अच्छा है। सभी पाठकों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं !!
समाज में विभिन्न प्रकार के रीति रिवाज या कर्मकांड इसी प्रकार का प्रयास माना जा सकता है। विभिन्न प्रकार के त्यौहारों को मनाने के क्रम में हमें समाज के हर स्तर और हर प्रकार के काम करनेवाले लोगों के सहयोग की जरूरत पड जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी उनका ऐसा महत्व है कि उनके बिना हमारा कोई यज्ञ संपन्न हो ही नहीं सकता। प्राचीन काल में बडे बडे गृहस्थों के घरों में जमा अनाज का समाज के हर वर्ग के लोगों का हिस्सा होता था , जो बिना किसी हिसाब किताब के उनके द्वारा किए गए सलाना मेहनत के एवज में उन्हें दिए जाने निश्चित थे।
दीपावली तो लक्ष्मी जी जैसी समृद्ध देवी के पूजन का त्यौहार है। भला उनकी पूजा में कैसी कंजूसी ? हमारे समाज में दीपावली के दिन नाना प्रकार के पकवान बनाने , फलों मिठाइयों के भोग लगाने , खाने पीने और खुशियां मनाने की परंपरा रही है। समृद्धों के लिए यह जितनी ही खुशी लानेवाला त्यौहार है , असमर्थों के लिए उतना ही कष्टकर। दीए तो किसी प्रकार जला ही लें , अपने सामर्थ्यानुसार सामग्री जुटाकर पूजा पाठ कर वह प्रसाद भले ही ग्रहण कर लें , पर नाना भोग जुटा पाना उनके लिए संभव नहीं। दूसरी ओर समर्थों के घर इतना पकवान बचा है कि बासी होने के बाद उसे बंटवाना पडेगा।
बासी होने के बाद क्यूं , दीपावली के त्यौहार के दिन ही इस अंतर को पाटने के लिए हम आप शायद कुछ व्यवस्था नहीं कर सकते हैं , पर हमारे दार्शनिक चिंतक पूर्वजों ने व्यवस्था कर ली थी। हमारे क्षेत्र में यह मिथक है कि दीपावली की रात्रि 12 बजे के बाद दरिद्दर घूमा करता है और जिसके यहां पकवान बचे हों , उसके यहां वास कर जाता है। इस डर से लोग जल्दी जल्दी खुद रात्रि का भोजन निपटाकर बचा सारा खाना और मिष्टान्न गरीबों के महल्ले में भेज देते हैं। भले ही यह मिथक एक अंधविश्वास है , पर इसके सकारात्मक प्रभाव को देखकर इसे गलत तो नहीं माना जा सकता। हमारे अधकचरे ज्ञान से , जो सामाजिक व्यवस्था और पर्यावरण का नुकसान कर रहा है , ऐसा अंधविश्वास लाखगुणा अच्छा है। सभी पाठकों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं !!
Monday 14 September 2009
आज आपलोग मेरे दोनो बेटों से मिलिए !!
पिछले वर्ष मेरे जन्मदिन पर बडे बेटे ने मेरे लिए अंग्रजी में एकपोएट्रीलिखी थी , जो मैने अपने ब्लाग पर प्रकाशित कर तो दिया था , पर बेटे से एक वादा भी करवाया था कि वह मुझे अगले वर्ष हिन्दी में कविता लिखकर देगा। मात्र 10 दिनों के भीतर ही जब 30 दिसम्बर 2008 को जब उसके जन्मदिन पर मैं उससे मिली , तो उसने अपना वादा निभाते हुए यह कविता ‘तेरा संग है मां तो’ मुझे भेंट किया , जो मैं आपके लिए पेश कर रही हूं।
तेरा संग है , मां , तो जीवन में रंग है ,
आंखो में ललक है ,दिल में उमंग है ।
आसमान को छूती जिंदगी मेरी पतंग है ,
क्यूंकि बनके डोर हर उंचाई पर , तू मेरे संग है।
तेरा संग है , मां , तो जीवन खुशहाल है,
सब कुछ सुलझा सा ,न अवशिष्ट सवाल है।
जीवन बिल्कुल सरल है , तुम्हारा ही कमाल है,
क्यूंकि तुम्हारी दिखाई राह पे , अविराम मेरी चाल है।
तेरा संग है , मां , तो जीवन सितार है,
खुशियों की लगी , जीवन में कतार है
तू है तो सिर्फ जीत है , ना कभी हार है,
क्यूंकि पास मेरे , उज्जवल रास्ते की भरमार है।
तेरा संग है , मां , तो जीवन में बहार है,
तेरा आशीष मुझपर , बहुत बडा उपकार है।
छोटा पर अनमोल , मेरा यह उपहार है,
क्यूंकि तेरे लिए इसमें, भरपूर प्यार और सत्कार है।
कंप्यूटर इंजीनियरिंग की पढाई कर रहा बडा विज्ञान में अधिक रूचि रखने के बावजूद हर विषय को गंभीरतापूर्वक पढना पसंद करता है। वह जितना ही पढाकू है , अभी स्कूलिंग कर रहा छोटा उतना ही शैतान , इसके बावजूद हर परीक्षा में नंबर लाने में वह बडे को पीछे छोड देता है। सामान्य ज्ञान को बढाने के लिए अपने भैया की संगति ही काफी है , अधिक पढने की क्या जरूरत ? पढाई और लंबाई को छोड दिया जाए , क्यूंकि दोनो छह फीट के आसपास लंबे और अपनी अपनी कक्षा में अच्छा स्थान रखते हैं , तो शक्ल सूरत से लेकर विचारों तक में बचपन से ही दोनो बिल्कुल भिन्न हैं। यहां तक कि जहां बडे के जन्म के बाद बधाइयों के आदान प्रदान से आनंददायक और खुशनुमा शाम लोगों को याद रहेगा , वहीं छोटे ने अपनी नाइट ड्यूटी के कर्तब्यों को समाप्त कर सोने जा रही डाक्टर और नर्सों के समक्ष अपने आगमन की आहट देकर जो तनावपूर्ण माहौल बनाया , उसे भी कोई भूल नहीं सकता। उसके अर्द्धरात्रि में जन्म होने के बाद भी सब दवा और खून के इंतजाम में रातभर भटकते रहे , सुबह मेरे होश में आने के बाद ही तनाव समाप्त हो सका।;
बडे के सांवले सलोने रूप को देखते हुए लोग उसे 'कृष्ण कन्हैया' कहा करते , तो छोटे के भूरे बाल और गोरा रंग सबको 'रसियन बच्चा' पुकारने को मजबूर करता। पालन पोषण में भी दोनो के व्यवहार की भिन्नता को मैने स्पष्ट देखा है , बिल्कुल बचपन से ही बडा सुबक सुबक कर और छोटा चिल्ला चिल्लाकर रोया करता था। बडा जितना ही सहनशील है , छोटा उतना ही गुस्सैल। बडे को सादा खाना पसंद है , तो छोटे को चटपटा । इसके अतिरिक्त बडा परंपरावादी और छोटा आधुनिक विचारों को पसंद करनेवाला है। आज की परिस्थिति को देखते हुए बडा राजनीतिक स्थिति में सुधार और लोकतंत्र की स्थापना के साथ देश के क्रमिक विकास की बातें करता है तो छोटे के अनुसार देश को एक देशभक्त तानाशाह की जरूरत है , जो दोचार वर्षों के अंदर देश की स्थिति को सुधार सकता है। एक जैसे वातावरण में पालन पोषण होने के बावजूद दोनो के विचारों की भिन्नता देखकर मैं तो अवाक हूं । अभी दो चार दिन पहले छोटा एक शैतानी करते हुए पकडा गया , जिसे मैं आपके सम्मुख रख रही हूं ....
तेरा संग है , मां , तो जीवन में रंग है ,
आंखो में ललक है ,दिल में उमंग है ।
आसमान को छूती जिंदगी मेरी पतंग है ,
क्यूंकि बनके डोर हर उंचाई पर , तू मेरे संग है।
तेरा संग है , मां , तो जीवन खुशहाल है,
सब कुछ सुलझा सा ,न अवशिष्ट सवाल है।
जीवन बिल्कुल सरल है , तुम्हारा ही कमाल है,
क्यूंकि तुम्हारी दिखाई राह पे , अविराम मेरी चाल है।
तेरा संग है , मां , तो जीवन सितार है,
खुशियों की लगी , जीवन में कतार है
तू है तो सिर्फ जीत है , ना कभी हार है,
क्यूंकि पास मेरे , उज्जवल रास्ते की भरमार है।
तेरा संग है , मां , तो जीवन में बहार है,
तेरा आशीष मुझपर , बहुत बडा उपकार है।
छोटा पर अनमोल , मेरा यह उपहार है,
क्यूंकि तेरे लिए इसमें, भरपूर प्यार और सत्कार है।
कंप्यूटर इंजीनियरिंग की पढाई कर रहा बडा विज्ञान में अधिक रूचि रखने के बावजूद हर विषय को गंभीरतापूर्वक पढना पसंद करता है। वह जितना ही पढाकू है , अभी स्कूलिंग कर रहा छोटा उतना ही शैतान , इसके बावजूद हर परीक्षा में नंबर लाने में वह बडे को पीछे छोड देता है। सामान्य ज्ञान को बढाने के लिए अपने भैया की संगति ही काफी है , अधिक पढने की क्या जरूरत ? पढाई और लंबाई को छोड दिया जाए , क्यूंकि दोनो छह फीट के आसपास लंबे और अपनी अपनी कक्षा में अच्छा स्थान रखते हैं , तो शक्ल सूरत से लेकर विचारों तक में बचपन से ही दोनो बिल्कुल भिन्न हैं। यहां तक कि जहां बडे के जन्म के बाद बधाइयों के आदान प्रदान से आनंददायक और खुशनुमा शाम लोगों को याद रहेगा , वहीं छोटे ने अपनी नाइट ड्यूटी के कर्तब्यों को समाप्त कर सोने जा रही डाक्टर और नर्सों के समक्ष अपने आगमन की आहट देकर जो तनावपूर्ण माहौल बनाया , उसे भी कोई भूल नहीं सकता। उसके अर्द्धरात्रि में जन्म होने के बाद भी सब दवा और खून के इंतजाम में रातभर भटकते रहे , सुबह मेरे होश में आने के बाद ही तनाव समाप्त हो सका।;
बडे के सांवले सलोने रूप को देखते हुए लोग उसे 'कृष्ण कन्हैया' कहा करते , तो छोटे के भूरे बाल और गोरा रंग सबको 'रसियन बच्चा' पुकारने को मजबूर करता। पालन पोषण में भी दोनो के व्यवहार की भिन्नता को मैने स्पष्ट देखा है , बिल्कुल बचपन से ही बडा सुबक सुबक कर और छोटा चिल्ला चिल्लाकर रोया करता था। बडा जितना ही सहनशील है , छोटा उतना ही गुस्सैल। बडे को सादा खाना पसंद है , तो छोटे को चटपटा । इसके अतिरिक्त बडा परंपरावादी और छोटा आधुनिक विचारों को पसंद करनेवाला है। आज की परिस्थिति को देखते हुए बडा राजनीतिक स्थिति में सुधार और लोकतंत्र की स्थापना के साथ देश के क्रमिक विकास की बातें करता है तो छोटे के अनुसार देश को एक देशभक्त तानाशाह की जरूरत है , जो दोचार वर्षों के अंदर देश की स्थिति को सुधार सकता है। एक जैसे वातावरण में पालन पोषण होने के बावजूद दोनो के विचारों की भिन्नता देखकर मैं तो अवाक हूं । अभी दो चार दिन पहले छोटा एक शैतानी करते हुए पकडा गया , जिसे मैं आपके सम्मुख रख रही हूं ....
आज हिन्दी दिवस के मौके पर केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) से मेरा प्रश्न
जब मेरा बडा पुत्र आठवीं पास करने के बाद नवीं कक्षा में गया , उसने हमारे सामने हिन्दी छोडकर संस्कृत पढने की अपनी इच्छा जाहिर की। हमारे कारण पूछने पर उसने बताया कि बोर्ड की परीक्षा में हिन्दी में उतने नंबर नहीं आ सकते , जितने कि संस्कृत में आएंगे। जहां सभी बच्चे संस्कृत के कारण परीक्षाफल में अधिक प्रतिशत ला रहे हों और सभी विद्यालयों में ग्यारहवी में प्रवेश के लिए बोर्ड के नंबर ही देखे जाते हों , इसलिए उसकी बात को न मानना उसकी पढाई के साथ खिलवाड करना होता। हमलोगों ने उसे हिन्दी छोडकर संस्कृत पढने की सलाह दी । दसवीं के बोर्ड में अन्य विषयों के साथ उसे अंग्रेजी और संस्कृत पढनी पडी। पुन: छोटे बेटे के लिए हमें हिन्दी को छोडने का ही निर्णय लेना पडा।
ऐसा इसलिए नहीं कि हिन्दी रोचक विषय नहीं है , वरन् इसलिए कि हिन्दी में नंबर नहीं लाए जा सकते । अब भाषा तो भाषा होती है , हिन्दी हो या अंग्रेजी , गुजराती हो या बंगाली। सबमें कोर्स तो एक जैसे होने चाहिए , नंबर एक जैसे आने चाहिए। इस बात की ओर मेरा ध्यान काफी दिनों से था कि केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड को हिन्दी के पाठ्यक्रम में सुधार लाना चाहिए , जब बोर्ड की परीक्षाओं में संस्कृत में 100 में 100 लाया जा सकता है , अंग्रेजी में 100 में 100 लाया जा सकता है , तो फिर हिन्दी में 100 में 100 क्यूं नहीं लाया जा सकता ? लाया जा सकता है तो फिर अंग्रेजी या संस्कृत की तुलना में हिन्दी का परिणाम खराब क्यूं होता है ? पर जब यह आलेख लिख रही हूं ,दसवीं बोर्ड की परीक्षाएं ही समाप्त कर दी गयी हैं , इसलिए इस बात का अब कोई औचित्य नहीं।
वैसे अंग्रेजी से मेरी कोई दुश्मनी नहीं , वर्तमान समय के वैश्वीकरण को देखते हुए यह अवश्य कहा जा सकता है कि अंग्रेजी की पढाई करना या करवाना कोई अपराध नहीं , अंग्रेजी की जानकारी से हमारे सामने ज्ञान का भंडार खुला होता है , हर क्षेत्र में कैरियर में आगे बढने में सुविधा होती है । मैं मानती हूं कि हर व्यक्ति को समय के अनुसार ही काम करना चाहिए , सिर्फ आदर्शो पर चलकर अपना नुकसान करने से कोई फायदा नहीं । पर जब हम खुद इतने मजबूत हो चुके हों कि दूसरी भाषा पर आश्रिति समाप्त हो जाए तो हमें अपनी भाषा की उन्नति के लिए काम करना ही चाहिए , सिर्फ हिन्दी दिवस मना लेने से कुछ भी नहीं होनेवाला।
पर इस दिशा में आनेवाली पीढी को सही ढंग से तैयार न कर पाने में मुझे केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई)का भी कम दोष दिखाई नहीं देता। हिन्दुस्तान की अपनी भाषा हिन्दी को भी 12वीं कक्षा तक अनिवार्य विषय के रूप में न पढाया जाना मुझे तो सही नहीं लगता है। आज के सभी बच्चे 12वीं कक्षा तक विज्ञान , कला या कामर्स विषय के साथ अंग्रेजी की पढाई तो करते हैं , पर यदि अधिक रूचि न हो तो अपनी मातृभाषा को वह सिर्फ आठवीं तक या अधिकतम दसवीं तक ही पढ पाते हैं । आज हिन्दी दिवस के मौके पर केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) से मेरा प्रश्न यही है कि क्या हिन्दी उनकी उपेक्षा का शिकार नहीं हो रही ? क्या हिन्दीभाषी प्रदेशों के बच्चों को 12वीं तक हिन्दी के एक अनिवार्य पेपर नहीं होने चाहिए ? क्या अन्य भाषाओं के विद्यार्थियों को भी अपनी मातृभाषा के अलावे हिन्दी नहीं पढाया जाना चाहिए ?
ऐसा इसलिए नहीं कि हिन्दी रोचक विषय नहीं है , वरन् इसलिए कि हिन्दी में नंबर नहीं लाए जा सकते । अब भाषा तो भाषा होती है , हिन्दी हो या अंग्रेजी , गुजराती हो या बंगाली। सबमें कोर्स तो एक जैसे होने चाहिए , नंबर एक जैसे आने चाहिए। इस बात की ओर मेरा ध्यान काफी दिनों से था कि केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड को हिन्दी के पाठ्यक्रम में सुधार लाना चाहिए , जब बोर्ड की परीक्षाओं में संस्कृत में 100 में 100 लाया जा सकता है , अंग्रेजी में 100 में 100 लाया जा सकता है , तो फिर हिन्दी में 100 में 100 क्यूं नहीं लाया जा सकता ? लाया जा सकता है तो फिर अंग्रेजी या संस्कृत की तुलना में हिन्दी का परिणाम खराब क्यूं होता है ? पर जब यह आलेख लिख रही हूं ,दसवीं बोर्ड की परीक्षाएं ही समाप्त कर दी गयी हैं , इसलिए इस बात का अब कोई औचित्य नहीं।
वैसे अंग्रेजी से मेरी कोई दुश्मनी नहीं , वर्तमान समय के वैश्वीकरण को देखते हुए यह अवश्य कहा जा सकता है कि अंग्रेजी की पढाई करना या करवाना कोई अपराध नहीं , अंग्रेजी की जानकारी से हमारे सामने ज्ञान का भंडार खुला होता है , हर क्षेत्र में कैरियर में आगे बढने में सुविधा होती है । मैं मानती हूं कि हर व्यक्ति को समय के अनुसार ही काम करना चाहिए , सिर्फ आदर्शो पर चलकर अपना नुकसान करने से कोई फायदा नहीं । पर जब हम खुद इतने मजबूत हो चुके हों कि दूसरी भाषा पर आश्रिति समाप्त हो जाए तो हमें अपनी भाषा की उन्नति के लिए काम करना ही चाहिए , सिर्फ हिन्दी दिवस मना लेने से कुछ भी नहीं होनेवाला।
पर इस दिशा में आनेवाली पीढी को सही ढंग से तैयार न कर पाने में मुझे केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई)का भी कम दोष दिखाई नहीं देता। हिन्दुस्तान की अपनी भाषा हिन्दी को भी 12वीं कक्षा तक अनिवार्य विषय के रूप में न पढाया जाना मुझे तो सही नहीं लगता है। आज के सभी बच्चे 12वीं कक्षा तक विज्ञान , कला या कामर्स विषय के साथ अंग्रेजी की पढाई तो करते हैं , पर यदि अधिक रूचि न हो तो अपनी मातृभाषा को वह सिर्फ आठवीं तक या अधिकतम दसवीं तक ही पढ पाते हैं । आज हिन्दी दिवस के मौके पर केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) से मेरा प्रश्न यही है कि क्या हिन्दी उनकी उपेक्षा का शिकार नहीं हो रही ? क्या हिन्दीभाषी प्रदेशों के बच्चों को 12वीं तक हिन्दी के एक अनिवार्य पेपर नहीं होने चाहिए ? क्या अन्य भाषाओं के विद्यार्थियों को भी अपनी मातृभाषा के अलावे हिन्दी नहीं पढाया जाना चाहिए ?
Tuesday 14 April 2009
कैमरे भी मेरे साथ सौतेला व्यवहार करते हैं
आज चंद्रशेखर हाडा जी ने अपने ब्लागमें मेरी कैरीकेचर बनायी। अजय कु झा जी ने बिल्कुल सही कहा , उनकी तूलिका का जवाब नहीं , बहुत अच्छी फोटो उतार लेते हें वे। अन्य लोगों को भी यह अच्छी लगी , बहुत बहुत धन्यवाद उनका । पर घूमते घामते श्यामल सुमन जी भी वहां पहुंचे , कैरीकेचर तो उन्हे अच्छी लगी ,पर वे शायद चेहरे पर वो भाव ढूंढ रहे थे , जो रांची ब्लागर मीट में उन्होने मेरे चेहरे पर देखा था। इसलिए थोडी निराशा तो स्वाभाविक ही थी। पर हाडा जी की क्या गलती ? उन्हें मेरे प्रोफाइल में जो फोटो मिली , उसी के भाव को तो वे उतार सकेंगे। अपने प्रोफाइल में ऐसी फोटो लगाने का इल्जाम आप मुझपर भी न लगाए तो अच्छा रहेगा , क्योंकि मैं तो हमेशा से परेशान हूं , कैमरे के इस सौतेले व्यवहार से।
जब मैट्रिक या इंटर के फार्म भरने के लिए पहली बार पासपोर्ट साइज का फोटो लेकर घर लौटी तो भाई ने उसे देखते ही मेरा मजाक बना दिया ‘ये तुम्हारी फोटो है या स्नेहलता दीदी की’ स्नेहलता दीदी हमारी टीचर थी , जिनका चेहरा काफी चौडा और भारी था। मेरा स्नेहलता दीदी जैसा फोटो निकालने का सारा इल्जाम गांव के स्टूडियो , उसके कैमरे और फोटोग्राफर पर ही लगा , मैं तो बच गयी। लेकिन बीए और एमए के समय शहर के स्टूडियो के द्वारा भी मेरा फोटो अच्छा नहीं आ सका तो इल्जाम मेरे खुद के चेहरे पर लगना ही था, यह बिल्कुल भी फोटोजनिक नहीं। जब रिश्ते के लिए फोटो भेजने की बारी आयी तो घरवाले परेशान, एक तो बेटी खूबसूरत नहीं , उपर से जितनी हो , उतना भी फोटो मे दिखाई न पडे , उनका परेशान होना स्वाभाविक था। रामगढ , रांची , हजारीबाग और धनबाद हर जगह के स्टूडियो में फोटो खिंचवायी गयी , पर कोई फायदा नहीं , कोई भी फोटो रिश्ते के लिए भेजने लायक नहीं था। तब घरवाले बिना फोटो के ही रिश्ते के लिए गए और सीधा मुझे देख लेने का ही निमंत्रण दे डाला। खैर, बिना फोटो के ही किसी तरह शादी हो गयी। इसलिए मेरे यहां कभी आए तो शादी का एलबम दिखाने की जिद न करें तो अच्छा रहेगा। वैसे फोटो अच्छी न आने का एक फायदा यह है कि बाजार में कितने भी अच्छे कैमरे क्यों न मिल रहे हों , लेने को जी नहीं ललचता और पैसे बच जाते हैं।
इसलिए अपने ब्लागर प्रोफाइल में फोटो डालने में भी मैं डेढ वर्षों से आनाकानी ही कर रही थी , पर बच्चों के जिद पर मैने डाल दिया। पर शायद मेरी फोटो मुझसे काफी अलग थी , तभी तो रांची ब्लाग मीट में मुझे देखकर सब चौंके । और किसी ने तो पहले कुछ नहीं कहा , पर शैलेश भारतवासी जी अपने को बिल्कुल नहीं रोक पाए। उन्होने तुरंत सवाल दाग ही दिया ‘आपने अपनी प्रोफाइल में वैसी फोटो क्यों लगा रखी है’ , अब मैं उन्हें क्या समझाती कि अभी तक के सारे कैमरे मेरे साथ सौतेला व्यवहार ही कर रहे हैं , मेरी चुप्पी पर उन्होने तो यही समझा होगा कि जानबूझकर लोगों द्वारा परेशान न किए जाने के भय से इन्होने अपनी उम्र से बडी लगनेवाली फोटो लगा रखी है। बाद में धीरे धीरे पारूल जी या अन्य लोगों ने भी बताया कि मेरी फोटो मुझसे बिल्कुल अलग है। फिर मेरी एक मित्र ने प्रोफाइल से मेरी फोटो हटवा ही दी थी , पर उस दिन रचना जी के कहने पर मैने पुन: उसे डाल दिया। एक मित्र का कहना है कि मैं जब तक ब्लागवाणी से अपनी फोटो न हटा लूं , वह मेरा ब्लाग नहीं पढेगी। पर मैने न तो ब्लागवाणी में अपनी फोटो डाली है और न हटाने के बारे में जानकारी है । अब वह मेरी पोस्ट न भी पढे तो मैं क्या कर सकती हूं। मुझे तो अभी भी सिर्फ इंतजार है , शायद भविष्य में कोई कैमरा आए , जो मेरे चेहरे की चमक और आत्मविश्वास को दिखाते हुए मेरी फोटो ले सके ।
जब मैट्रिक या इंटर के फार्म भरने के लिए पहली बार पासपोर्ट साइज का फोटो लेकर घर लौटी तो भाई ने उसे देखते ही मेरा मजाक बना दिया ‘ये तुम्हारी फोटो है या स्नेहलता दीदी की’ स्नेहलता दीदी हमारी टीचर थी , जिनका चेहरा काफी चौडा और भारी था। मेरा स्नेहलता दीदी जैसा फोटो निकालने का सारा इल्जाम गांव के स्टूडियो , उसके कैमरे और फोटोग्राफर पर ही लगा , मैं तो बच गयी। लेकिन बीए और एमए के समय शहर के स्टूडियो के द्वारा भी मेरा फोटो अच्छा नहीं आ सका तो इल्जाम मेरे खुद के चेहरे पर लगना ही था, यह बिल्कुल भी फोटोजनिक नहीं। जब रिश्ते के लिए फोटो भेजने की बारी आयी तो घरवाले परेशान, एक तो बेटी खूबसूरत नहीं , उपर से जितनी हो , उतना भी फोटो मे दिखाई न पडे , उनका परेशान होना स्वाभाविक था। रामगढ , रांची , हजारीबाग और धनबाद हर जगह के स्टूडियो में फोटो खिंचवायी गयी , पर कोई फायदा नहीं , कोई भी फोटो रिश्ते के लिए भेजने लायक नहीं था। तब घरवाले बिना फोटो के ही रिश्ते के लिए गए और सीधा मुझे देख लेने का ही निमंत्रण दे डाला। खैर, बिना फोटो के ही किसी तरह शादी हो गयी। इसलिए मेरे यहां कभी आए तो शादी का एलबम दिखाने की जिद न करें तो अच्छा रहेगा। वैसे फोटो अच्छी न आने का एक फायदा यह है कि बाजार में कितने भी अच्छे कैमरे क्यों न मिल रहे हों , लेने को जी नहीं ललचता और पैसे बच जाते हैं।
इसलिए अपने ब्लागर प्रोफाइल में फोटो डालने में भी मैं डेढ वर्षों से आनाकानी ही कर रही थी , पर बच्चों के जिद पर मैने डाल दिया। पर शायद मेरी फोटो मुझसे काफी अलग थी , तभी तो रांची ब्लाग मीट में मुझे देखकर सब चौंके । और किसी ने तो पहले कुछ नहीं कहा , पर शैलेश भारतवासी जी अपने को बिल्कुल नहीं रोक पाए। उन्होने तुरंत सवाल दाग ही दिया ‘आपने अपनी प्रोफाइल में वैसी फोटो क्यों लगा रखी है’ , अब मैं उन्हें क्या समझाती कि अभी तक के सारे कैमरे मेरे साथ सौतेला व्यवहार ही कर रहे हैं , मेरी चुप्पी पर उन्होने तो यही समझा होगा कि जानबूझकर लोगों द्वारा परेशान न किए जाने के भय से इन्होने अपनी उम्र से बडी लगनेवाली फोटो लगा रखी है। बाद में धीरे धीरे पारूल जी या अन्य लोगों ने भी बताया कि मेरी फोटो मुझसे बिल्कुल अलग है। फिर मेरी एक मित्र ने प्रोफाइल से मेरी फोटो हटवा ही दी थी , पर उस दिन रचना जी के कहने पर मैने पुन: उसे डाल दिया। एक मित्र का कहना है कि मैं जब तक ब्लागवाणी से अपनी फोटो न हटा लूं , वह मेरा ब्लाग नहीं पढेगी। पर मैने न तो ब्लागवाणी में अपनी फोटो डाली है और न हटाने के बारे में जानकारी है । अब वह मेरी पोस्ट न भी पढे तो मैं क्या कर सकती हूं। मुझे तो अभी भी सिर्फ इंतजार है , शायद भविष्य में कोई कैमरा आए , जो मेरे चेहरे की चमक और आत्मविश्वास को दिखाते हुए मेरी फोटो ले सके ।
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कैरीकेचर,
चंद्रशेखरहाडाजी,
ब्लॉग जगत,
श्यामलसुमनजी,
संस्मरण
Saturday 28 March 2009
आइए , थोडा ही सही , मातृ ऋण को चुकता करने की कोशिश तो करें
कल की नीरज नाम के उक्त व्यक्ति की टिप्पणी से बनी मेरी परेशानी को दूर करने में और हौसला बढाने में आप सब पाठकों का जो सहयोग मिला , उसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद। आइए , आज ज्योतिष की चर्चा न कर एक खास मुद्दे पर चर्चा करें। इतनी बडी जनसंख्या का बोझ उठाती , भोजन , वस्त्र , आवास जैसी मूल आवश्यकताओं के साथ ही साथ अन्य हर प्रकार की जरूरत को पूरा करती धरती माता के अहसान को याद करें। आजतक धरती माता हमारी सारी जरूरत इसलिए पूरी कर पा रही है , क्योंकि वह समर्थ है। पर सोंचकर देखें , उस दिन के बारे में , जब यह असमर्थ हो जाए , जिस दिशा में जाने की सिर्फ शुरूआत ही नहीं हुई , बहुत दूर तक का सफर तय किया जा चुका है। अपनी आंचल और गर्भ में हमारे लिए हर सुख सुविधा को समेटे हरी भरी धरती माता खूबसूरत रूप ही आज खोता जा रहा है।
बीसवीं सदी के अंधाधुंध जनसंख्या वृद्धि की आवश्यकताओं को पूरी करने के क्रम में हो या विकास की अंधी दौड के लालच में , कल कारखानों की संख्या के बढने से पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पडना स्वाभाविक है। पृथ्वी के बढते हुए तापमान से हिम पिघलते जा रहे हें , जलस्तर नीचे आता जा रहा है , समुद्र तल बढता जा रहा है। साधनों के अंधाधुंध दोहन से धरती माता की सुंदरता तो समाप्त हुई ही है , उसके सामर्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड रहा है और माता ही जब सामर्थ्यहीन हो जाए तो उसे मजबूरीवश ही सही , उसे बच्चों को रोता बिलखता छोडना ही होगा। हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि वह दिन कितना भयावह होगा।
आजतक हमने अपनी पृथ्वी मां को कुछ दिया नहीं है , देना भी नहीं था , सिर्फ इसे नष्ट भ्रष्ट होने से बचाए रखना था , वो भी नहीं कर पाए हमलोग। कल से ही रचना जी और अरविंद मिश्रा जी ने कई ब्लोगों के माध्यम से ‘धरती प्रहर’ में अपना वोट धरती के पक्ष में देने की अपील की है। वैसे अभी तक इस दिशा में किया जानेवाला प्रयास काफी कम है और हमें मालूम है कि इससे पूरी सदी में बिगाडे गए पर्यावरण को बनाने में सफलता नहीं मिलेगी। फिर भी आइए , थोडा ही सही , मातृऋण को चुकता करने की दिशा में कम से कम प्रयास तो किया जाए। आज धरती माता के पक्ष में मतदान करने के लिए साढे आठ बजे से साढे नौ बजे तक अपने घर के बिजली के मेन स्विच को ही आफ कर दें और एक घंटे बिना बिजली के बिताकर धरती माता के प्रति अपनी कृतज्ञता जाहिर करें।
बीसवीं सदी के अंधाधुंध जनसंख्या वृद्धि की आवश्यकताओं को पूरी करने के क्रम में हो या विकास की अंधी दौड के लालच में , कल कारखानों की संख्या के बढने से पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पडना स्वाभाविक है। पृथ्वी के बढते हुए तापमान से हिम पिघलते जा रहे हें , जलस्तर नीचे आता जा रहा है , समुद्र तल बढता जा रहा है। साधनों के अंधाधुंध दोहन से धरती माता की सुंदरता तो समाप्त हुई ही है , उसके सामर्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड रहा है और माता ही जब सामर्थ्यहीन हो जाए तो उसे मजबूरीवश ही सही , उसे बच्चों को रोता बिलखता छोडना ही होगा। हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि वह दिन कितना भयावह होगा।
आजतक हमने अपनी पृथ्वी मां को कुछ दिया नहीं है , देना भी नहीं था , सिर्फ इसे नष्ट भ्रष्ट होने से बचाए रखना था , वो भी नहीं कर पाए हमलोग। कल से ही रचना जी और अरविंद मिश्रा जी ने कई ब्लोगों के माध्यम से ‘धरती प्रहर’ में अपना वोट धरती के पक्ष में देने की अपील की है। वैसे अभी तक इस दिशा में किया जानेवाला प्रयास काफी कम है और हमें मालूम है कि इससे पूरी सदी में बिगाडे गए पर्यावरण को बनाने में सफलता नहीं मिलेगी। फिर भी आइए , थोडा ही सही , मातृऋण को चुकता करने की दिशा में कम से कम प्रयास तो किया जाए। आज धरती माता के पक्ष में मतदान करने के लिए साढे आठ बजे से साढे नौ बजे तक अपने घर के बिजली के मेन स्विच को ही आफ कर दें और एक घंटे बिना बिजली के बिताकर धरती माता के प्रति अपनी कृतज्ञता जाहिर करें।
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