बचपन से ही पढाई लिखाई और अन्य मामलों में हर बात को गहराई में जाकर देखने की आदत से मैं अनुभव तो रखती थी , पर उन्हें कलम की सहायता से पन्नों में सटीक अभिव्यक्ति दे सकती हूं , इसपर मुझे खुद ही विश्वास नहीं था। यही कारण था कि 1990 के आसपास हमारे कॉलोनी के 'हिन्दी साहित्य परिषद' की 25वीं सालगिरह पर प्रकाशित हो रहे स्मारिका में मुझसे एक रचना मांगी गयी , तो मैं 'ना' तो नहीं कर सकी थी , पर इस फिराक में थी कि पापाजी के ढेरो रचनाओं में से , जो कि यूं ही कबाड की तरह पडी हुई हैं , एक अपने नाम से प्रकाशित कर दूं। पर मुझे इतना समय ही नहीं दिया गया कि मैं उन्हें मंगवा सकती और दबाब में कुछ लिखने बैठ गयी। कुछ दिन पूर्व मेरे पति के हाथ में ज्योतिष की एक पत्रिका , जो वे मेरे लिए ला रहे थे , को देखकर एक व्यक्ति ने उनसे कुछ प्रश्न पूछे थे , उन्हीं का जबाब देने में मैने एक आलेख 'फलित ज्योतिष : सांकेतिक विज्ञान' लिखकर उन्हें सौंप दिया , इस तरह मेरी पहली रचना उसी स्मारिका में छप सकी।
इस तरह मेरी जन्मकुंडली में चौथे भाव में स्थित स्वक्षेत्री बृहस्पति ने दूसरे की लिखी रचना का श्रेय मुझे न देकर मुझे एक पाप से भी बचा लिया था। भले ही मांगे जाने पर मेरे पिताजी अपनी रचना मुझे सहर्ष सौंप देते , पर आज मुझे महसूस होता है कि कोई भी रचनाकार या तो अपने व्यवसाय या फिर मजबूरी के कारण ही रचना का श्रेय किसी और को देता है। माता पिता बच्चों के लिए तन, मन और धन ही नहीं , जीवन भी समर्पित कर देते हैं , ऐसी घटना इतिहास में मिल जाएगी , पर कहीं भी ऐसा पढने को नहीं मिला कि अपनी कृति को किसी ने अपनी संतान के नाम कर दिया। इससे यह भी स्पष्ट है कि किसी की रचना को चुराकर अपने नाम से प्रकाशित करना एक जुर्म ही है , यदि किसी के विचारों का प्रचार प्रसार करना है तो लेखक को सहयोग की जा सकती है , पर कभी भी रचना के मालिक बनने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए।
इस रचना के बाद ही अपने भावों को अभिव्यक्ति देने की मेरी हिम्मत बढ गयी थी। मैने कई ज्योतिषीय पत्रिकाओं , खासकर 'बाबाजी' के लिए लिखना शुरू कर दिया था , पापाजी द्वारा प्रदान किए गए ज्योतिषीय ज्ञान के कारण विषयवस्तु की प्रचुरता से लेखों को तैयार करने में भले ही मुझे कामयाबी मिलती गयी और इसी कारण उन्हें प्रकाशित भी कर दिया जाता रहा , पर उस वक्त का लेखन भाषा की दृष्टि से आज भी मुझे काफी कमजोर दिखता है। फिर भी यह भाग्य की ही बात रही कि सिर्फ फोन पर हुए बातचीत के बाद ही बाबाजी में प्रकाशित किए गए आलेखों के संकलन के रूप में तैयार मुझ जैसी नई और अनुभवहीन लेखिका की पुस्तक को छापने के लिए दिल्ली का एक प्रकाशन 'अजय बुक सर्विस' तैयार हो गया और इस तरह मेरी पहली पुस्तक न सिर्फ बाजार में आ गयी, बल्कि डेढ वर्ष के अंदर बाजार में धडाधड उसकी प्रतियां भी बिकी और तुरंत इसका दूसरा संस्करण भी प्रकाशित करवाना पडा।
यहां तक की यात्रा में मैने सिर्फ ज्योतिष पर ही लिखा। हिन्दी ब्लॉग जगत में आने के बाद भी काफी दिनों तक मैं ज्योतिष पर ही लिखती रही , क्यूंकि मुझे विश्वास ही नहीं था कि मैं किसी अन्य विषय पर भी कुछ लिख सकती हूं। पर धीरे धीरे अंधविश्वास को दूर करने वाली कुछ घटनाओं , कई संस्मरण , मनोविज्ञान , धर्म आदि के मामलों में दखल देते हुए हर मामले पर कुछ न कुछ लिखने का प्रयास करती जा रही हूं। आप पाठकों की स्नेह भरी प्रतिक्रियाओं ने मुझे हर विषय पर कलम चलाने की शक्ति दी है और इसके लिए आपका जितना भी आभार व्यक्त करूं कम ही होगा। आगे भी आप सबों का स्नेह इसी प्रकार बना रहेगा , ऐसी आशा और विश्वास के साथ यह पोस्ट समाप्त करती हूं।