Tuesday 5 January 2010

हमें अपने देश के परंपरागत ज्ञान को सुरक्षित रखने का प्रयास करना होगा !!

आज विज्ञान का जितने व्‍यापक अर्थ में प्रयोग किया जाता है , उतना व्‍यापक अर्थ लेते हुए तो कम से कम इस शब्‍द को नहीं रचा गया था। 'विज्ञान' शब्‍द 'वि + ज्ञान' से बना था , जिसका अर्थ विशेष ज्ञान होता है। पूरी दुनिया के एक एक कण का भिन्‍न भिन्‍न स्‍वभाव है और सबका एक दूसरे से किसी  न किसी प्रकार का संबंध है। यही कारण है कि प्रकृति में रहस्‍य ही रहस्‍य भरे पडे हैं। जिस क्षेत्र से भी व्‍यक्तियों का समूह जुडा ,चाहे वो पशुपालन हो या कृषि कार्य , घर मकान का निर्माण हो या जलाशय का , यातायात हो या संचार , रसोई का क्षेत्र हो या चिकित्‍सा का , किसी भी क्षेत्र में प्रकृति के नियमों की मदद लेने की उसे आवश्‍यकता अवश्‍य पडी। प्रकृति के विशेषताओं की चर्चा करनेवाला खास नियमों का समूह ही विज्ञान कहलाया और इस विज्ञान की हर शाखा के विशेषज्ञ हमारे समाज में मौजूद थे। हमारा परंपरागत ज्ञान उसी पर आधारित है , जिसके बल बूते हमारी अभी तक की स्‍वस्‍थ परंपरागत जीवनशैली बनी हुई है ।

जैसे जैसे प्रकृति के रहस्‍यों का खुलासा होता गया , वैसे वैसे विज्ञान का भी विकास होता गया। क्रमिक विकास प्रकृति का नियम है , हजारो साल से इसी ढंग से विज्ञान का विकास हो रहा है। क्रमिक विकास में प्रकृति का नुकसान भी नहीं होता और हम इससे जुडे भी रह जाते हैं, पर इसमें प्रकृति के विपरीत चलने की शक्ति हमारे पास नहीं होती है। इधर हाल के वर्षों में तेजी से हुए विज्ञान का चहुंमुखी विकास न हो पाने से समस्‍याएं बढती जा रही हैं। मनुष्‍य की गल्‍ती के फलस्‍वरूप प्राकृतिक संपत्तियों का बडी मात्रा में नुकसान हुआ है और दिन प्रतिदिन स्थिति और बिगडती जा रही है। चाहे आज के वैज्ञानिक  इस विज्ञान के पक्ष में लाख दलीलें दें , पांच प्रतिशत लोगों को सुख सुविधा देने के लिए 95 प्रतिशत लोगों को कष्‍ट पहुंचाता विज्ञान का यह रूप सर्वमान्‍य नहीं हो सकता। हमें विज्ञान को इस ढंग से विकसित करने की आवश्‍यकता है ताकि अधिक से अधिक लोगों को लाभ पहुंच सके।

प्राचीन काल में हमारे देश में परंपरागत ज्ञान का आधार बहुत ही सटीक था, एक क्षेत्र का विकास दूसरे सभी क्षेत्रों से संतुलन बनाकर होता था। पर अचानक पाश्‍चात्‍य के प्रभाव ने परंपरागत ज्ञान को बेकार समझा और आज भी हम उसे महत्‍व नहीं दे रहे हैं। इस कारण हमारे परंपरागत ज्ञान को धरोहर के रूप में संभाले रखने वाले व्‍यक्ति आज उपेक्षित जीवन जीने को विवश है , आज उनके विशेष ज्ञान का कोई मूल्‍य नही रह गया है। भारतवर्ष में वर्षों से परंपरागत ज्ञान को विदेशियों द्वारा नुकसान पहुंचाया जाता रहा है। किसी भी प्रकार के परंपरागत ज्ञान को जाननेवालों की अंतिम पीढी ही अब जीवित रह सके हैं , इसलिए उन जानकारियों को सुरक्षित रखने का प्रयास किया जाना चाहिए , जबकि 100 - 200 वर्ष पूर्व के विज्ञान के जानकार की तुलना आज के विकसित वैज्ञानिकों से करते हुए उन्‍हें कमजोर देखकर हम अक्‍सर उनके ज्ञान का उपहास उडाते हैं।

किसी भी क्षेत्र के विशेषज्ञ की तुलना हमें सामान्‍य व्‍यक्ति से करनी चाहिए।यदि सामान्‍य व्‍यक्ति की तुलना में उसका अनुमान , उसकी गणना , उसका निर्णय अधिक सटीक होता है तो हमें यह मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि वह उस क्षेत्र का विशेषज्ञ है। जिस दिन हम ऐसा मान लेंगे , हमारे चारों ओर परंपरागत ज्ञान के जानकार दिखाई देंगे , जिनके अनुभव से हम काफी लाभ उठा सकते हैं और आज की जीवनशैली से कोसों दूर खास जीवनशैली के सहारे अपने जीवन को खुशमय बना सकते हैं। यदि अभी भी नहीं चेते तो बहुत देर हो जाएगी और हम हमेशा के लिए अपने परंपरागत ज्ञान को खो देंगे।




10 comments:

Udan Tashtari said...

सार्थक बात कही, आपसे सहमत हूँ.


’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’

-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.

नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'

कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.

-सादर,
समीर लाल ’समीर’

डॉ. मनोज मिश्र said...

सही कह रहीं हैं.

Arvind Mishra said...

बात आपकी बड़े मार्के की है -जरा सर्च कीजिये
TKDL

हास्यफुहार said...

बिलकुल सहीबात।

Randhir Singh Suman said...

nice

Kusum Thakur said...

बहुत सही बात कही है आपने , आभार !

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामना !!

Vinashaay sharma said...

बिलकुल सहमत हूँ आपसे,परापंरा ज्ञान से चहुँमुखी विकास होगा ।

निर्मला कपिला said...

बिलकुल सही बात धन्यवाद्

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

विल्कुल सही है जी!
उत्कर्षों के उच्च शिखर पर चढ़ते जाओ।
पथ आलोकित है, आगे को बढ़ते जाओ।।

Pankaj Oudhia said...

डा. अरविन्द सही बता रहे है पर टी के दी एल में समाहित ज्ञान दस्तावेजीकरण की बाट जोह रहे पारंपरिक ज्ञान के आगे सागर में एक बूंद के समान है| बड़े पैमाने पर प्रयास करने होंगे|