Tuesday 19 January 2010

मेरी समझ से इस देश में छूआछूत की भावना इस तरह फैली होगी ??

आज भारत के परंपरागत नियमों को संदेहास्‍पद दृष्टि से देखने वाले अक्‍सर जाति प्रथा के विरोध में या खासकर छूआछूत के विरोध में हल्‍ला किया करते हैं। पर लोगों ने कभी चिंतन मनन करने की कोशिश नहीं की कि छूआछूत की भावना अपने देश में क्‍यूं आयी होगी। मैं स्‍पष्‍टत: कहना चाहूंगी कि मेरे गांव में हर जाति , हर धर्म के लोग बडे प्रेम से रहते हैं । छोटी से छोटी जाति भी एकजुट होकर किसी बात के विरोध में अनशन कर सकती है कि वो किसी कर्मकांड में इस जाति के लोगों का काम नहीं करेगी , तो बडी बडी जाति के लोगों के पसीने छूट जाते हैं। 

यदि ये मान्‍यता कहीं पर मुझे नहीं मिलती है , तो इसका जबाबदेह मैं विदेशी आक्रमण के दौरान हमारी सामाजिक स्थिति को छिनन भिन्‍न करने  की उनकी कोशिश को ही मानती हूं। स्‍वस्‍थ ग्रामीण पृष्‍ठभूमि में अपने जीवन का अधिकांश समय व्‍यतीत करने के कारण मैने स्‍पष्‍टत: परंपरागत नियमों के गुण दोषों पर ध्‍यान दिया है। समय समय पर आनेवाले हमारे हर पर्व त्‍यौहार मे अपने शरीर की क्‍या , घर द्वार, आंगन गोशाले से लेकर सारे बरतनों तक की विशेष तौर पर सफाई के नियम से यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि हमारे पूर्वज सफाई पसंद थे। उन्‍हें अच्‍छी तरह मालूम था कि अच्‍छे स्‍वास्‍थ्‍य और सुखी होने के लिए स्‍वच्‍छता पहली शर्त है।

प्रतिदिन के रूटीन में भी साफ सफाई का विशेष ध्‍यान था , प्रतिदिन अपने घर, द्वार , आंगन , गोशाले की सफाई जहां अपने पर्यावरण को स्‍वस्‍थ जीवन जीने के लायक बनाती थी , वहीं सुबह सवेरे  शौच ,  दतुअन , स्‍नान किया जाना और बिना नहाए धोए न तो रसोई बनाना और न खाना भी स्‍वस्‍थ परंपरा ही थी। किसी किटाणु के संक्रमण का भय प्राचीन काल में इतना था कि लोग रसोई में जूत्‍ते पहनकर नहीं जाया करते थे। यहां तक कि शौच से आने के बाद कपडे बदलकर रसोई में जाया जाता था।

 काफी समय तक किसी गंभीर बीमारी का अचूक इलाज विकसित नहीं किया गया होगा , जिसके कारण वैसे बीमारी से ग्रस्‍त रोगियों को भी अपने परिवार से अलग रखा जाता था , यहां तक कि कुत्‍ते के काटने पर भी उसे काफी दिनों तक अलग रखा जाता था , यहां तक कि कई रोगियों के लिए अलग बरतनों का प्रयोग होता था, जो कि अनेक स्‍थानों पर अभी भी चलता है। चेचक निकलने की स्थिति में भी रोगी को एक अलग कमरे में रखकर उसकी भरपूर सेवा सुश्रुसा की जाती थी। ये सब नियम रोगों को फैलने से बचाने के लिए थे।

आज मेडिकल साइंस के विकसित होने पर पढे लिखे लोगों को इन नियमों की कोई आवश्‍यकता नहीं दिखती , पर मुझे ऐसा नहीं लगता , क्‍यूंकि भारत की बहुत बडी आबादी अभी भी एलोपैथी के इलाज में असमर्थ है और वैसी जगहों पर साफ सफाई बनाए रखकर बहुत सारी बीमारियों से बचा जा सकता है। जो एलोपैथी के हर संभव इलाज की सामर्थ्‍य रखते हैं , उनके लिए भी इन नियमों के पालन की आवश्‍यकता है , क्‍यूंकि एलोपैथी की दवाओं का अधिक प्रयोग जहां एक बीमारी को ठीक करता है , वहीं कई नई बीमारियां जन्‍म लेती है, जो पूर्ण तौर पर लोगों के स्‍वास्‍थ्‍य का नुकसान करने में समर्थ है। आखिर बीमारियों को फैलने से बचाने के लिए ही तो बाजार में विभिन्‍न प्रकार के मास्‍क बिक रहे हैं , जो आज के पेशेवरों द्वारा इस्‍तेमाल किए जाते हैं। जहां ये इस्‍तेमाल नहीं किए जाते हैं , वहां कई क्षेत्र में काम कर रहे लोगों को किसी खास प्रकार के बीमारी से ग्रस्‍त देखा जाता है।

लेकिन पुराने किसी भी पेशे में लगे व्‍यक्ति के लिए किसी प्रकार की ऐसी सुविधा नहीं रही होगी। ऐसे लोग खुद भी काम करने के बाद साफ सुथरे होकर ही परिवार के सम्‍मुख आते रहे होंगे , ताकि परिवार में भी बीमारी न फैले। हमारे यहां बच्‍चों को जन्‍म देने के समय मदद के लिए जो दाइयां आती थी , वो न सिर्फ उसमें मदद करती थी , प्रसवोपरांत शरीर को पुन: पुरानी स्थिति में लाने के लिए भी उसके पास कई उपाय थे , उसके द्वारा की जाने वाली शरीर की मालिश और अन्‍य उपायों से महिलाएं काफी राहत महसूस करती थी। 

जब तक महिलाएं सौर गृह में होती , उनसे आराम से सेवा सुश्रुसा करवाती, पर सौर गृह से निकलने के बाद स्‍नान से पहले ही इन दाइयों से तेल लगवाना होता था । ऐसा इसलिए क्‍यूंकि वे कई घरों में इस प्रकार का काम करती थी , जिसके कारण प्रसूता को इन्‍फेक्‍शन का भय बना रहता था।  पर जब धीरे धीरे जाति के आधार पर पूरे परिवार के लिए वो काम निश्चित हुआ होगा , तो लोग उनसे परहेज बनाने लगे होंगे , जो धीरे धीरे छूआछूत जैसी सामाजिक रूढि में बदल गया होगा।

15 comments:

महेन्द्र मिश्र said...

विचारणीय आलेख पर मेरी समझ से वर्ण व्यवस्था के बनते ही छुआछूत की बीमारी शुरू हो गई होगी आभार.

Randhir Singh Suman said...

nice

shikha varshney said...

100% sehmat hoon aapki baat se.

रंजू भाटिया said...

सही में शायद इसी तरह से कुछ हुआ होगा ...

Satyendra Kumar said...

ये विचार केवल हाथी के पैर का वर्णन कर रहे है । जो एकदिशीय है ।

Safat Alam Taimi said...

सफाई का हमारे पूर्वजों ने खयाल किया और हमें भी करना चाहिय,पर छुआछूत में तो दूसरी जातियों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता था
यहाँ तक कि यदि किसी नीची जाति के व्यक्ति ने किसी ऊँची जाती के खान पान को छु दिया तो उसकी जन के लाले per जाते थे.
यह तो मानवता नहीं

संगीता पुरी said...

सफत आलम तैमी जी,
जो बातें आप कर रहे हैं .. वे बाद में लोगों के गुमराह होने के बाद हुआ
.. यदि आपके कहे अनुसार ही प्राचीन काल में व्‍यवस्‍था थी .. तो फिर
विभिन्‍न जातियों के मध्‍य 'फूल' या 'सखा' बनाने की पद्धति प्राचीन भारत
में क्‍यूं थी .. इसका कोई जबाब है आपके पास ??

http://khatrisamaj.blogspot.com/2009/12/blog-post_28.html

प्रवीण said...

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पर जब धीरे धीरे जाति के आधार पर पूरे परिवार के लिए वो काम निश्चित हुआ होगा , तो धीरे धीरे विभिन्‍न पेशों में लगे व्‍यक्ति को किसी बीमारी से ग्रस्‍त होने का भय जाता रहा होगा। इसी कारण लोग उन्‍होने स्‍वच्‍छता से रहना बंद कर दिया होगा , जिसके कारण लोग उनसे परहेज बनाने लगे होंगे , जो धीरे धीरे छूआछूत जैसी सामाजिक रूढि में बदल गया होगा।

आदरणीय संगीता जी,

यह क्या लिख रही हैं आप, एक तो हमारे दलित जातिवाद और छुआछूत की खाई से आज तक उबर नहीं पा रहे और आप उन पर स्वच्छता से रहना बंद कर देने का इल्जाम और लगाये दे रही हैं...एक बड़ा विवाद पैदा हो सकता है यहाँ...

आप ने देखा है क्या ऐसा कभी...आर्थिक रुप से जीवन स्तर में भले ही अंतर रहता हो...परंतु एक से आर्थिक स्तर का जीवन यापन करती ग्रामीण आबादी में मैंने साफ-सफाई के स्तर पर कोई अंतर नहीं देखा कभी...

छुआछूत की भावना सिर्फ झूठे और निराधार स्वयं को श्रेष्ठ समझने के जातीय दंभ, जिसे धर्म तथा धर्मग्रंथों द्वारा और पुष्ट किया गया तथा शारीरिक श्रम को हेय समझने की पुरानी भारतीय कमजोरी की देन है...इसे किसी और कारण की उपज बताना सचाई से मुँह मोड़ना है...

संगीता पुरी said...

प्रवीण शाह जी,
आप छोटी सी बात का बतंगड बना रहे हैं .. जो काम हम प्रतिदिन करते है .. उसे बिल्‍कुल सामान्‍य ढंग से देखते हैं .. एक नर्स जितने अच्‍छे भाव से रोगियों को छूती है .. सामान्‍य लोग नहीं छू सकते .. मेरे मन मे शूद्रों और दलितो के लिए बहुत अच्‍छी भावनाएं हैं .. मेरे इस लेख में देखें ..

http://khatrisamaj.blogspot.com/2009/12/blog-post_12.html

डॉ महेश सिन्हा said...

शिक्षा और धन की कमी ने यह दीवार खड़ी की .

हमारे देश में भी पश्चिम की नकल करके सलग्न बाथरूम का प्रचलन हो गया . अब पश्चिम ही इससे दूर हट रहा है क्योंकि अस्वछ स्थान का शयन कक्ष के इतना पास होना हानिकारक है .

sandeep sharma said...

nice post

संगीता पुरी said...

प्रवीण शाह जी,

आप ने देखा है क्या ऐसा कभी...आर्थिक रुप से जीवन स्तर में भले ही अंतर रहता हो...परंतु एक से आर्थिक स्तर का जीवन यापन करती ग्रामीण आबादी में मैंने साफ-सफाई के स्तर पर कोई अंतर नहीं देखा कभी...

शूद्रों और दलितों को उनके काम के लिए आवश्‍यक पैसे न देकर उन्‍हें आर्थिक स्‍तर पर मजबूत रहने कहां दिया गया .. इसके कारण उनपर काम का दबाब बढा .. उसमें स्‍तर में गिरावट आना तो आवश्‍यक था।

Unknown said...

बिलकुल सही कहा आपने. क्योंकि वैदिक जीवन शैली में वर्ण व्यस्था जन्मजात न होके कर्म के अनुसार थी . सो वर्ण व्यस्था के कारण छूआछूत नहीं शुरू हुई होगी . आपके विचारों से सहमत हूँ. मैं तो यह मानता हूँ की उस समय सारे नियमों के पीछे वैज्ञानिक कारण थे.

Vinashaay sharma said...

अगर छुआछुत को सफाई के उद्देअश्य से देखा जाये तो अच्छा है,और कुरिति के हिसाब से बूरा,विचारौत्तेजक लेख ।

Vinashaay sharma said...

अगर छुआछुत को सफाई के उद्देअश्य से देखा जाये तो अच्छा है,और कुरिति के हिसाब से बूरा,विचारौत्तेजक लेख ।