Monday 25 January 2010

महंगाई के बारे में इतना शोर है .. कहां है महंगाई ??

विवाह के बाद अपने को वैज्ञानिक दृष्टिकोण का माननेवाले मेरे ससुराल वाले बात बात पर मेरे ज्‍योतिषिय ज्ञान की परीक्षा लेते और मेरे पोथी पत्रे तक फेक डालने की धमकी दिया करते थे। उस वक्‍त मैं उनपर हंस ही सकती थी , क्‍यूंकि जहां तक वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सवाल है , इस पूरी दुनिया में मैं अपने पिताजी से आगे किसी को भी नहीं पाती। खैर , दो वर्ष के अंदर ही मैने सबको सोंचने को मजबूर कर दिया था कि ग्रहों का प्रभाव पृथ्‍वी पर पडता है। इसके बाद मेरे अध्‍ययन और चिंतन में कोई रूकावट नहीं आ सकी थी। जबसे मैं संयुक्‍त परिवार से अलग अपने बच्‍चों के साथ बोकारो में हूं , इनके द्वारा घर के बाहर के हर कार्य से दूर रखे जाने से मुझे अध्‍ययन मनन के लिए पर्याप्‍त समय मिल जाता है। इस कारण मैं कभी बाजार जाती नहीं , आटे दाल के भाव का कुछ भी पता नहीं , पर कुछ दिनों से चारो ओर से हो रहे महंगाई के शोर ने इस बात का अहसास अवश्‍य दिया कि महंगाई बढ गयी है।

पिछले पंद्रह दिनों के दौरान हुई भागदौड और रेल के सफर से लगी ठंढ से कल इनकी तबियत कुछ बिगड गयी थी, ये नाश्‍ते में कुछ भी लेना नहीं चाह रहे थे , सो बहुत दिनों बाद मुझे बाजार निकलने का मौका मिला। मैने इनके लिए रसगुल्‍ले लाने को मिष्‍टान्‍न भंडार का रूख किया। दूध और शक्‍कर की कीमतों की वृद्धि से सारी मिठाइयां महंगी हो गयी हैं , पर बाजार में खरीदने वालों के भीड की कोई कमी नहीं। आराम से लोग मिठाइयां खरीद रहे थे , मानो बढते मूल्‍य से उनके बजट पर कोई असर नहीं पडा हो। मैने भी दस रसगुल्‍ले के ऑर्डर दिए और दुकानदार की ओर पचास का नोट बढाया । थोडी देर में मुझे रसगुल्‍ले भी मिल गए और साठ रूपए वापस भी। ये क्‍या लोग कहते हैं , महंगाई बढ गयी , मुझे तो रसगुल्‍ले खरीदने के बदले में दस रूपए भी मिल रहे थे । मैने जब प्रश्‍नवाचक निगाह से दुकानदार की ओर देखा , तो उसने पूछा ' आपने पचास के नोट दिए थे या सौ के' मैने कहा 'पचास के' तब उसे अपनी भूल का अहसास हुआ और उसने मुझसे पचास रूपए वापस लिए।

मिठाई लेकर घर आयी , तो ये सो चुके थे, इनको आज आराम ही करने दिया जाए , सोंचकर मैने झोला उठाया और सब्‍जी लेने भी चल पडी। मैने कई तरह की सब्‍जी ली , मुझे कहीं भी बहुत महंगाई नहीं दिखी। शायद अभी कुछ कम महंगी हो या मात्रा में कमी की वजह से मुझे महसूस नहीं हुई हो। एक जगह पत्‍ते गोभी का ढेर दिखा, अपने छोटे परिवार की आवश्‍यकता भर एक छोटा सा पत्‍तागोभी उठाकर मैने दुकानदार से उसका वजन करने को कहा और बगल में हरे मटर खरीदने लगी। हरे मटर का मूल्‍य चुकाने के बाद मैने पत्‍तागोभी उठाया और दुकानदार की ओर भी दस के नोट बढाए , उसने तुरंत मुझे आठ रूपए वापस कर दिए। मैने समझ लिया कि मिष्‍टान्‍न भंडार वाले दुकानदार की तरह ही ये भी मुझे अधिक पैसे लौटा रहा है। किसी गरीब को मेरी वजह से घाटा न हो जाए , यह सोंचते हुए मैने उससे पत्‍तागोभी का भाव और वजन पूछा। पर उसके जबाब ने तो मुझे चौंका ही दिया 'दो रूपए में आप कितनी ठगी जा सकती हैं' । मैने अपनी सफाई में कुछ कहना ही शुरू किया था कि वह दुबारा बोल पडा 'ठगे जाने की चिंता नहीं है आपको तो क्‍यूं इतना हिसाब किताब कर रही हैं' अब उसके मुहं लगकर अपनी ओर भीड का ध्‍यानाकर्षण करना मुझे अच्‍छा नहीं लगा , मुझे संतोष हो गया कि उसे घाटा नहीं हुआ है और मैं वापस घर लौट गयी।




2 comments:

Arshad Ali said...

Sabse pahle ye jankar jayda khushi hui ki aap BOKARO me hayn.

Kai dinon se aapka naam blog ki duniya me dekhta aaya
hun aur aapki tippani bhi mujh garib ki jholi me padi hay..

Aapse mai bilkul sahmat rahunga yadi
mujhe bhi koi jayda paisa lauta de to.

Nahi to mahngai maar chuki hay achchhe achchhe logon ko.

Satyendra Kumar said...

shaayad शायद आप लोगो के लिये ही कहा गया है - जाके पैर न फटे ........, वो क्या जाने ........॥