Wednesday 31 March 2010

क्‍या लालू , बालू और कालू की मजेदार कहानी आपको याद है ??

 stories in hindi
क्‍या लालू , बालू और कालू की मजेदार कहानी आपको याद है ??

अचानक बचपन में किसी पत्रिका में पढी एक मजेदार कहानी की आज मुझे याद आ गयी। किसी गांव में तीन भाई रहा करते थे .. लालू , बालू और कालू । लालू और बालू खेतों में काम करते , जबकि कालू का काम उस गांव के दारोगा जी के लिए खाना बनाना होता था। खेतों की फसल और कालू की तनख्‍वाह से तीनो भाइयों का जीवनयापन खुशी खुशी हो रहा था। पर कुछ ही दिनों बाद लालू और बालू को अहसास हुआ कि उन्‍हें खेत में बहुत अधिक मेहनत करनी पडती है और लालू सिर्फ दो समय का खाना बनाकर अच्‍छा अच्‍छा खाना खाकर आराम का जीवन जी रहा है। इस बात का अहसास होते ही दोनो भाई कालू से झगडा करने लगे। 


कालू ने बहुत देर तक उन्‍हे समझाने की कोशिश की कि दारोगा जी का खाना बनाना बहुत आसान काम नहीं है , वे दोनो नहीं कर सकते। पर दोनो भाई इसे समझने को तैयार ही नहीं थे। दोनो भाइयों के विरोध को देखते हुए कालू ने उन्‍हें शांत करने के लिए दो चार दिनों तक उन्‍हें दारोगा जी के यहां खाना बनाने के लिए भेजने का निश्‍चय किया। दूसरे ही दिन लालू को इस कार्य के लिए भेजा गया , लालू थाने के अहाते में बने दारोगा जी के निवास पर पहुंचा। दारोगा जी ने उसका परिचय पूछा। उसने बताया कि वह कालू का भाई लालू है और उनका खाना बनाने के लिए यहां आया है।

दो दिन पहले गांव से लौटे दारोगा जी अपने चाचाजी की मृत्‍यु के क्रियाकर्म में अपना सर मुंडवा चुके थे और लॉन में बैठे पेपर पढ रहे थे। लालू की निगाह जब उनके सर पर पडी , तो वह जोर जोर से हंसने लगा। दारोगा जी ने उससे हंसने का कारण पूछा तो उसने बताया कि आपका सर तकला है , उसमें बिल्‍कुल भी बाल नहीं है , यदि किन्‍ही कारणों से आपका सर कट जाए तो उसे ढोया कैसे जाएगा ?

'तुम्‍हें बात करने की बिल्‍कुल भी तमीज नहीं , तुम्‍हें यहां किसने भेजा ?' अपने चाचाजी की मृत्‍यु से दुखी दारोगा जी को यह बात बिल्‍कुल पसंद नहीं आयी और नाराज होकर उन्‍होने लालू को थाने में बंद कर दिया। शाम को खेत से लौटने के बाद बालू और कालू काफी देर तक लालू का इंतजार करते रहें । जब वह नहीं आया तो शाम के अंधेरे में ही कालू उसे ढंढने थाने की ओर चला। वहां जाकर गुस्‍से से भरे दारोगा जी से सारी बातें मालूम हुई। उसने दारोगा जी से कहा ' क्‍या बताऊं दारोगा जी , इसको थोडी भी अकल नहीं , इसे माफ कर दीजिए , अरे इतना तो दिमाग लगाना ही चाहिए था कि यदि आपका सर कट भी जाए , तो मुंह तो खुला होगा न , उसमें डंडा डालकर उससे आपके सर को उठाते हुए आराम से कहीं भी ले जाया जा सकता है। 

दारोगा जी का गुस्‍सा और बढना ही था। उन्‍होने नाराज होकर बालू को भी थाने में बंद कर दिया। दोनो भाइयों का इंतजार करते हुए जब कालू थक गया , तो देर रात वह भी दारोगा जी के यहां पहुंचा। दारोगा जी ने उसका स्‍वागत किया और कहा कि तुमने किन बेवकूफ भाइयों को मेरे यहां भेज दिया था। उसके बाद उसे पूरी कहानी सुनायी। 'क्‍या कहूं सर, मैं तो इतने दिनों से इन्‍हें झेल रहा था, यह सोंचकर उन्‍हें यहां भेजा कि आप इनकी दो दिनों में अवश्‍य छुट्टी कर देंगे , तब मैं काम पर लग ही जाऊंगा, पर ये तो एक घंटे भी नहीं टिक सकें।' 

'सर ये इतने बेवकूफ हैं , इन्‍हें इतना भी नहीं पता कि यदि किसी तरह आपका सर कट ही जाए , तो एक कान से धागा डालकर दूसरे कान से निकालकर आराम से आपके सर को ढुलकाते हुए ले जाया जा सकता है।'

उसके बाद कालू का भी क्‍या हाल हुआ होगा , इसका अनुमान आप लगा ही सकते हैं !!


Sunday 28 March 2010

कैसा हो कलियुग का धर्म ??

प्रत्‍येक माता पिता अपने बच्‍चों को शिक्षा देते हैं , ताकि उसके व्‍यक्तित्‍व का उत्‍तम विकास हो सके और किसी भी गडबड से गडबड परिस्थिति में वह खुद को संभाल सके। पूरे समाज के बच्‍चों के समुचित व्‍यक्तित्‍व निर्माण के लिए जो अच्‍छी शिक्षा दे, वो गुरू हो जाता है। इसी प्रकार सारी मानव जाति के कल्‍याण के लिए बनायी गयी शिक्षा धर्म और उसे देनेवाले धर्म गुरू हो जाते हैं। इस शिक्षा का मुख्‍य उद्देश्‍य ज्ञान की प्राप्ति होनी चाहिए, जिसका आज गंभीर तौर पर अभाव है। सिर्फ गणित और विज्ञान को पढकर शिक्षा तो प्राप्‍त की जा सकती है , पर इससे व्‍यवहारिक ज्ञान नहीं प्राप्‍त किया जा सकता। माता पिता , गुरू या धर्मगुरू को शिक्षा देने से पूर्व आज के समाज को ध्‍यान में रखना अति आवश्‍यक है , तभी उसकी शिक्षा का सही महत्‍व होता है। प्राचीन काल में समाज के या जन जन के कल्‍याण के लिए प्रत्‍येक नागरिक को कर्तब्‍यों की डोर से बांधा गया था , जिसके पालन के लिए उन्‍हें ईश्‍वर का भय दिखाया गया था।

ग्रहों के प्रभाव की सटीक जानकारी के क्रम में एक बात तो स्‍पष्‍ट हो गयी है कि इस दुनिया में कोई भी काम किसी के चाहने या मेहनत करने मात्र से नहीं होता, वरन् एक स्‍पष्‍ट नियम से होता है, जिसे किसी भी समय प्रमाणित किया जा सकता है। इसलिए एक परम पिता परमेश्‍वर की संभावना से तो मैं इंकार नहीं कर सकती , भले ही यह हो सकता है कि हमारे अपने पिता , राष्‍ट्रपति या प्रधानमंत्री की तरह वो भी किसी नियम से चलने को मजबूर हों। इसलिए चाहते हुए भी त्‍वरित ढंग से किसी को बुरे कर्मों की सजा और किसी को अच्‍छे कर्मों का इनाम दे पाने में मजबूर हो , इसलिए उन्‍हें सर्वशक्तिमान रूप में नहीं देख पाने से हम उनके प्रति अक्‍सर भ्रम में होते हैं ।

मैने हिंदू धर्म में जन्‍म लिया है , पर किसी भी धार्मिक नियमों को मानने की मुझे कोई मजबूरी नहीं है। मेरी अंतरात्‍मा साथ दे , तो मैं पूजा करूं , यदि न दे , पूजा न करूं। जिस देवी देवता को पूजने की इच्‍छा हो , पूजूं , जिसका मजाक उडाने का मन हो , मजाक उडाऊं । गंगा में जाकर छठ का व्रत करूं , टब में जल भरवाकर या फिर एक कठौती में , मेरी मर्जी या देश , काल परिस्थिति पर निर्भर करता है। अलग से एक आयोजन रखकर बच्‍चे का मुंडन जनेऊ करवाऊं या किसी के विवाह में या फिर उसके खुद के विवाह में , पूरा बाल मुंडवाऊं या फिर एक लट ही काटूं , सब हमारी अपनी मर्जी। मरने के बाद शरीर के हर अंग को दान करने के लिए उसके काट छांट करवाऊं या फिर दाह संस्‍कार , वो भी अपनी आवश्‍यकता और रूचि के अनुसार। जंगलों की अधिकता हो तो लकडियों से अंतिम संस्‍कार हो सकता है , यदि कमी हो तो विद्युत शवगृहों में भी। जैसा देश , वैसा भेष बनाने की सुविधा हमें हमारा धर्म देता है, जैसा वास्‍तव में धर्म को होना चाहिए।

सिर्फ ग्रंथों को पढने लिखने से ही ज्ञान नहीं आता , गंभीर चिंतन मनन औरसमस्‍त चर अचर के प्रति प्रेम से इसमें निखार आता है। काफी दिनों से मैने ईश्‍वर और धर्म के बारे में मैने बहुत चिंतन मनन किया है , इसलिए इस बारे में कुछ अधिक लिखने की इच्‍छा अवश्‍य थी , पर वो कभी बाद में , अभी मैं वर्षों पहले अपनी डायरी में लिखी चंद लाइनों को पोस्‍ट कर रही हूं .........

कंप्‍यूटर युग का मानव है तू  , धर्मग्रंथों से इतना मत डर।
मानव जाति के विकास हेतु , धर्म का स्‍वयं निर्माण कर।।
माना वैदिककालीन विद्या है, उपयोगी होगी उस युग में।
इसका अर्थ कदापि नहीं कि ये पूजी जाए हर युग में।।

उन ऋषि मुनियों की तुलना में , क्‍या कम है तेरा दिमाग।
गंभीर चिंतन करो, तो मिटा सकोगे समाज की हर दाग ।।
धर्म कहता है , लालच मत कर, तरक्‍की होगी भला कैसे ?
महत्‍वाकांक्षा के बिना मंजिल निश्चित होगी नहीं जैसे ।।

अतिथि और असहायों की सेवा कर , धर्म बताता है।
आज इसी विश्‍वास का , बुरा फल ही देखा जाता है।।
टोने टोटके, व्रत जाप , कर्मकांड , धर्म के तत्‍व नहीं।
सच्‍ची प्रार्थना के आगे, किसी का कोई महत्‍व नहीं।।

कलियुग का सबसे बडा धर्म है , करते रहो प्रयोग ।
अपने तन मन धन संपत्ति का , करो उत्‍तम उपयोग।।
पीछे झांककर कभी न देखों , पीछे ही मत रह जाओ।
आगे बढते रहो हरदम, और सबको राह दिखाओ।।

Sunday 21 March 2010

छोटी छोटी बात में भी मौलिक सोंच के सहारे कोई व्‍यक्ति आगे बढ सकता है !!

पिछले दिनों सहारा इंडिया की विभिन्‍न प्रकार के बचत स्‍कीमों के लिए काम कर रहे एक एजेंट के बारे में जानकारी मिली। रोजी रोटी की समस्‍या से निजात पाने के लिए वह इसका एजेंट तो बन गया , पर यहां भी राह आसान न थी। पांच दस रूपए व्‍यर्थ में बर्वाद करनेवाले और कभी दस पंद्रह हजार रूपए की जरूरत पर महाजनों के यहों बडी ब्‍याज दर पर पैसे लेने वाले छोटे छोटे लोगों को वह गांव गांव , मुहल्‍ले मुहल्‍ले जाकर बचत के बारे में समझाता फिर रहा था। शहर से लेकर गांव तक की यात्रा में सब , खासकर महिलाएं उनकी बातों से प्रभावित होती , लोग प्रतिदिन पैसे जमा करना भी शुरू कर देते , पर महीने के अंत में जबतक एजेंट उनके पास पहुंचता , बचाए धन का कुछ हिस्‍सा खर्च हो जाया करता था। इससे जहां एक एक पैसे जमा करने वाले लोगों को भी तकलीफ होती ही थी , एजेंट का भी सारा मेहनत व्‍यर्थ हो रहा था। आखिर कुछ कमीशन न बचे , तो वो अपनी रोजी रोटी की समस्‍या कैसे हल कर सकता था ?

पर छोटी छोटी बात में भी मौलिक सोंच के सहारे कोई व्‍यक्ति आगे बढ सकता है , कुछ दिनों के चिंतन मनन के बाद उसने एक हल निकाल ही लिया। वह एक बढई के यहां गया, उसने सौ दो सौ बक्‍से बनवाए, सभी बक्‍सों के ऊपर रूपए डालने के लिए एक लंबा छिद्र करवाया। बाजार से छोटे छोटे सौ दो सौ ताले खरीदे, सभी बक्‍सों में ताला लगाया । सबको उठाया और गांव से लेकर शहर तक पैसे जमा करने के उत्‍सुक लोगों में से प्रत्‍येक के घर में एक एक बक्‍से रख दिए और सभी चाबियों में उस महिला या पुरूष का नाम लिखकर अपने बैग में रख लिया। ऐसी स्थिति में पुरूष या महिला द्वारा उस बक्‍से में पैसे तो डाले सकते थे , पर किसी मुसीबत में भी उसे नहीं निकाला जा सकता था और महीने भर किसी दूसरे विकल्‍प के सहारे ही काम चलाने को बाध्‍य होना पडता था।इस तरह सारी समस्‍या हल हो चुकी थी , महीने के अंत में वह उस बक्‍से को खोलकर जरूरत भर पैसे निकाल लेता और पुन: ताला बंद कर उसे वहीं छोड दिया करता था। जहां लोगों के पैसे बच रहे थे, वहीं उसकी रोजी रोटी की समस्‍या भी हल हो चुकी थी। इस सोंच को आप क्‍या कहेंगे ??

Friday 12 March 2010

कैसा रहा 22 वर्षों का मेरा वैवाहिक जीवन ??

हमारे विवाह के समय के माहौल के बारे में कल ही आपको काफी जानकारी मिल चुकी , 1988 के 12 मार्च को हमारे विवाह के बाद 13 मार्च से शुरू हुई इस यात्रा के आज 22 वर्ष पूरे होने को हैं। इस अंतराल में हम दोनो पति पत्‍नी या हमारे दोनो बेटों के स्‍वास्‍थ्‍य या अन्‍य मामले में बिल्‍कुल सहज सुखद वातावरण बने होने के बावजूद विवाह के उपरांत के 10 वर्षों तक संयुक्‍त परिवार की कई तरह की समस्‍याओं और 12 वर्षों से बच्‍चों की बेहतर पढाई लिखाई के चक्‍कर में हम दोनो एक दूसरे को बहुत कम समय दे सके। यहां तक कि आरंभ के कई वर्षों तक विवाह की वर्षगांठ तक में भी हमलोग साथ साथ नहीं रह पाएं। पहले वर्ष ससुर जी का कलकत्‍ते में ऑपरेशन हो रहा था तो दूसरे , तीसरे वर्ष में भी ठीक इसी दिन कोई न कोई समस्‍या आती जाती रही। इसलिए आजतक फिर कभी भी इस दिन को सेलीब्रेट करने का कोई प्रोग्राम नहीं बनाया।

पर ईश्‍वर की दया है कि दूरी बने होने के बावजूद अभी तक आपसी समझ में थोडी भी कमी नहीं आयी। दूसरों के प्रति पापाजी का जो व्‍यवहार यानि पापाजी का जो रूप मैने बचपन से देखा , उनके जिन विचारों का मुझपर अधिक प्रभाव पडा , लगभग वही इनके व्‍यक्तित्‍व में भी देखने को मिला , इसलिए कभी भी मुझे सामंजस्‍य करने में कठिनाई नहीं आयी । यही कारण रहा होगा कि मेरे व्‍यवहार से इन्‍हें भी कभी कोई तकलीफ नहीं पहुंची। हम बडों को सम्‍मान देते हुए संयुक्‍त परिवार के सभी सदस्‍यों की जरूरतों का ख्‍याल करते हुए एक दूसरे के विचारों और भावनाओं की कद्र करते आए हैं। पर मेरे सबसे बडे आलोचक भी यही है और इसे सकारात्‍मक तौर पर लने से इसका मुझे बहुत अधिक फायदा मिला है।

विज्ञान के विद्यार्थी होने के कारण इन्‍हें पहले ज्‍योतिष पर बिल्‍कुल विश्‍वास नहीं था , पर तुरंत बाद हमारे वैज्ञानिक दृष्टिकोण को समझने के बाद इसमें रूचि लेने लगे । वैसे तो घर के अंदर की सारी जबाबदेही के साथ बच्‍चों की पढाई लिखाई से संबंधित मामलों को भी मैं खुद संभालती आयी हूं , पर मुझे अध्‍ययन मनन का पूरा समय मिल पाए, इसलिए बाहर की अधिकांश जिम्‍मेदारियां वे खुद ही संभालते आए हैं । परिवार के मामलों में निर्णय लेने में व्‍यावहारिक ज्ञान की इनमें कमी नहीं , पर ज्‍योतिष की जानकारी के कारण मेरी राय अब उनसे कम मायने नहीं रखने लगी है।

और हमारी नोक झोंक , वह बस घर के साफ सफाई के मुद्दे पर हो जाती रही है , पर यदि आप समझ रहे हों कि घर को साफ सुथरा बनाए रखने की मेरी कोशिश में वो बाधा डालते होंगे , तो आप गलतफहमी में हैं , दरअसल घर को साफ सुथरा बनाए रखने में ये महिलाओं से कई कदम आगे हैं। पिछले बारह वर्षों से बच्‍चों की पढाई के लिए हमलोगों को बोकारो स्‍टील सिटी में छोडकर खुद अकेले ही निवास कर रहे हैं , कभी इनके निवास स्‍थान पर जाकर तो देखिए , आपको 'बिन घरनी घर भूत का डेरा' कहावत को एक सिरे से नकारना पडेगा।

पर मेरी रूटीन में घर की सफाई का कुछ काम दिन भर में एक बार , कुछ सप्‍ताह भर में एक बार , कुछ महीने में एक बार और कुछ वर्ष में एक बार का होता है , अब 23वें घंटे , 6ठे दिन या 29वें दिन या 364वें दिन घर को अस्‍त व्‍यस्‍त देखकर ये नाराज हो जाएं या मुझे भला बुरा भी कह जाएं तो इसमें मेरी क्‍या गलती ? इसलिए मैने इनके दस से पंद्रह मिनट की इस नाराजगी या गुस्‍से की न तो कभी परवाह की और न ही आज तक अपने को सुधारा। 'जिसे जितना दिमाग है , वह उतना ही सोंचेगा , करेगा या कहेगा। तुम्‍हारा जितना दिमाग है , तुम उतना सोंचो , करो और कहो। दूसरों से अपेक्षा न रखो , तो कभी तकलीफ नहीं होगी। तबतक तनाव न लो, जबतक तुम्‍हें अपने स्‍वभाव के विपरीत काम करने को मजबूर न कर दिया जाए' मुझे संयुक्‍त परिवार में समायोजन के योग्‍य बनाने में इन्‍हीं का दिया यह उपदेश कारगर था , जिसपर अमल करते हुए गडबड से गडबड परिस्थिति में मैं बिल्‍कुल सामान्‍य रह पाती हूं , जिसका पालन ये खुद नहीं कर पाते।


विवाह के 22 वर्षों बाद बोकारो स्‍टील सिटी में दोनो बेटों की पढाई के समाप्‍त होने के बाद ईश्‍वर ने फिर से मुझे एक नए मोड पर खडा कर दिया है , जहां से आगे की यात्रा करने में हमें एक बार फिर से कोई बडा निर्णय लेना है , हमारे निर्णय से आगे की जीवन यात्रा भी सुखद और सफल हो , इसके लिए आज बोकारो स्‍टील सिटी के भगवान जगन्‍नाथ जी के मंदिर में भगवान के दर्शन और पूजन को गयी , बेटे के मोबाइल कैमरे से खींचे गए वहां के चित्र  देखिए     ....









Thursday 11 March 2010

हमारे विवाह तय करने में थाने के वायरलेस को भी काम करना पडा था !!

प्रतिवर्ष फरवरी की समाप्ति के बाद मार्च के शुरूआत होते ही शनै: शनै: ठंढ की कमी और गर्मी के अहसास से जैसे जैसे कुछ सुस्‍ती सी छाने लगती है , वैसे वैसे मेरा मन मस्तिष्‍क 1988 की खास पुरानी यादों से गुजरने लगता है। नौकरी छोडकर गांव लौटकर दादाजी के व्‍यवसाय को संभालने का निर्णय ले चुके पापाजी के कारण ग्रामीण परिवेश में जीवन जीने को मजबूर मेरी मम्‍मी अपनी जीवनशैली को लेकर जितनी दुखी नहीं थी , उतना हम भाई बहनों के कैरियर और शादी विवाह के बारे में सोंचकर थी। एक वर्ष पहले अर्थशास्‍त्र में एम ए करने के बाद लेक्‍चररशिप की वैकेंसी के इंतजार में मैं घर पर अविवाहित बैठी थी , जो मेरी मम्‍मी के लिए काफी चिंता का विषय था और पापाजी 'अजगर करे ना चाकरी , पंक्षी करे न काम , दास मलूका कह गए , सबके दाता राम' की तर्ज पर आराम से घर में बैठे होते थे। भले ही एक ज्‍योतिषी के रूप में उनका मानना था कि हमें अपने कर्म और विचार अच्‍छे रखने चाहिए , इस दुनिया में सभी मनुष्‍यों के समक्ष खास प्रकार की परिस्थिति स्‍वयमेव उपस्थित होती है , जिसमें हम 'हां' या 'ना' करने को मजबूर होते हैं और अच्‍छे या बुरे ढंग से हमारा काम बन या बिगड जाता है , पर अपने संतान के प्रति मोह से वे वंचित नहीं हो सके थे और अपने पास आनेवाले हर लडके की जन्‍मकुंडली में कोई न कोई दोष निकाल कर बात को आगे बढने नहीं दे पाते थे।

एक दिन मम्‍मी के बहुत जिद करने पर हमारे गांव से 30 किलोमीटर दूर डी वी सी के पावर प्‍लांट में अच्‍छी नौकरी कर रहे एक लडके का पता मिलते ही पापाजी वहां पहुंच गए। हमारे गांव के एक दारोगा जी का स्‍थानांतरण दो चार महीने पूर्व वहीं हुआ था , पापाजी आराम से थाना पहुंचे , वहां अपने पहुंचने का प्रयोजन बताया। जैसे ही लडके के बडे भाई के पते पर दारोगा जी की निगाह गयी वो चौंके। यह पता तो उनके पडोसी का था , व्‍यस्‍तता के कारण उनका तो पडोसियों से संपर्क नहीं था , पर उनकी पत्‍नी का उनके यहां आना जाना था। दारोगा जी ने जानकारी लेने के लिए तुरंत घर पर फोन लगाया । उनकी पत्‍नी को आश्‍चर्य हुआ , फोन पर ही पूछ बैठी , 'एक ज्‍योतिषी होकर पूस के महीने में विवाह की बात तय करने आए हैं ?' तब पिताजी ने उन्‍हें समझाया कि पूस के महीने में यानि 15 दिसंबर से 15 जनवरी के मध्‍य ग्रहों की कोई भी ऐसी बुरी स्थिति नहीं होती कि विवाह से कोई अनिष्‍ट हो जाए। वास्‍तव में उन दिनों में खलिहानों में खरीफ की फसल को संभालने में लगे गृहस्‍थ वैवाहिक कार्यक्रमों को नहीं रखा करते थे। फिर भी परंपरा को मानते हुए पूस महीने में कोई वैवाहिक रस्‍म नहीं भी की जा सकती है , पर किसी व्‍यक्ति या परिवार का परिचय लेने देने या बातचीत में पूस महीने पर विचार की क्‍या आवश्‍यकता ?'

एक समस्‍या और उनके सामने थी , आजतक वे अपने पडोसियों को राजपूत समझती आ रही थी,  अभिभावको द्वारा तय किए जानेवाले विवाह में तो जाति का महत्‍व होता ही है , उन्‍होने दूसरा सवाल दागा, 'पर वे तो खत्री नहीं , राजपूत हैं' अब चौंकने की बारी पापाजी की थी। बिहार में खत्रियों की नाम मात्र की संख्‍या के कारण 'खत्री' के नाम से अधिकांश लोग अपरिचित हैं और हमें राजपूत ही मानते हें। पर भले ही 'क्षत्री' और 'खत्री' को मात्र उच्‍चारण के आधार पर अलग अलग माना गया हो , पर अभी तक हमलोगों का आपस में वैवाहिक संबंध नहीं होता है। खैर , थोडी ही देर बाद बातचीत में साफ हो गया कि वे खत्री ही हैं और पूस के महीने में भी वैवाहिक मामलों की बातचीत करने में उन्‍हें कोई ऐतराज नहीं है। सिर्फ मम्‍मी के कडे रूख के कारण ही नहीं , पापाजी ने भी इस बार सोंच लिया था कि कि वो लडके की जन्‍मकुंडली मांगकर अपने सम्‍मुख आए इस विकल्‍प को समाप्‍त नहीं करेंगे। मेरे ससुराल वाले भी कुंडली मिलान पर विश्‍वास नहीं रखते थे , इसलिए उन्‍होने भी मेरी जन्‍मकुंडली नहीं मांगी। बिहार में पांव पसारी 'दहेज' की भीषण समस्‍या भी तबतक 'खत्री परिवारों'  पर नहीं हावी हुई थी। इसलिए मात्र सबसे मिलजुल कर आपस में परिचय का आदान प्रदान कर पापाजी वापस चले आए।

एक महीने बाद 8 फरवरी 1988 को मुझसे 3 महीने छोटी ममेरी बहन का विवाह होते देख मम्‍मी मेरे विवाह के लिए  काफी गंभीर हो गयी थी। पर दारोगा जी के बारंबार तकाजा किए जाने के बावजूद अपने पिताजी के स्‍वास्‍थ्‍य में आई गडबडी की वजह से लडकेवाले बात आगे नहीं बढा पा रहे थे। 15 फरवरी तक कहीं भी कोई बात बनती नहीं दिखाई देने से मम्‍मी काफी चिंतित थी , पर उसके बाद दारोगा जी के माध्‍यम से सकारात्‍मक खबरों के आने सिलसिला बनता गया। उस वक्‍त फोन की सुविधा तो नहीं थी , दोनो थानों के वायरलेस के माध्‍यम से संवादों का आदान प्रदान हुआ और सारे कार्यक्रम बनते चले गए। बहुत जल्‍द दोनो परिवारों का आपस में मेल मिलाप हुआ और मात्र एक पखवारे के बाद 1 मार्च को सारी बातें तय होने के बाद लडके को टीका लगाकर सबलोग वहां से इस सूचना के साथ वापस आए कि 2 मार्च को मेरा सगुन और 12 मार्च को हमारी शादी होनी पक्‍की हो गयी है। मेरे ससुरालवालों की तो इच्‍छा थी कि विवाह जून में हो , पर मेरी एक दीदी की जून में हुई शादी के समय के भयानक रूप से आए आंधी, तूफान और बारिश से भयाक्रांत मेरे पापाजी इस बात के लिए बिल्‍कुल तैयार नहीं थे , पिताजी के बिगडते स्‍वास्‍थ्‍य को देखते हुए मेरे ससुराल वाले भी नहीं चाहते थे कि शादी नवम्‍बर में हो और इस तरह बिल्‍कुल निकट की तिथि तय हो गयी थी। दूसरे ही दिन 2 मार्च की शाम को मेरा सगुन हुआ। 

पर उसके बाद के बचे 9 दिनों में से दो दिन रविवार , एक दिन होली की छुट्टी , मतलब सिर्फ 6 दिन में सारी व्‍यवस्‍था , किस छोर से आरंभ किया जाए और कहां से अंत हो , किसी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। दो तीन दिन तो बैंक ही बंद थे , पैसे निकले तब तो कुछ काम हो। मैं पहली संतान थी , सो मेरे विवाह में कहीं कोई कमी भी नहीं होनी चाहिए थी । आखिरकार सारी व्‍यवस्‍था हो ही गयी , जल्‍दी जल्‍दी आवश्‍यक हर चीज की बुकिंग करने के बाद सबसे पहले कार्ड की स्‍केचिंग हुई , प्रिंट निकला और गांव में होली की छुट्टी के दौरान अलग अलग क्षेत्र से आए लोगों के माध्‍यम से अलग अलग क्षेत्र के कार्ड उसी क्षेत्र के पोस्‍ट ऑफिस में डाले गए , जिससे दो ही दिनो में कार्ड सबो को मिल गया और कोई भी रिश्‍तेदार और मित्र  न तो निमंत्रण से वंचित रहे और न ही विवाह में सम्मिलित होने से। चूंकि गांव का माहौल था , कार्यकर्ताओं की कमी नहीं थी ,  सो बाद के कार्य का बंटवारा भी सबके मध्‍य कर दिया गया और सबने अपने अपने कर्तब्‍यों का बखूबी पालन किया और दस दिनों के अंदर सारी तैयारियां पूरी हो गयी।

लेकिन असली समस्‍या तो हम दोनो वर वधू के समक्ष आ गयी थी , जहां मेरे ससुराल में अपने घर के अकेले कार्यकर्ता ये अपने विवाह के लिए बाजार और अन्‍य तैयारियों में ही अपने स्‍वास्‍थ्‍य की चिंता किए वगैर अनियमित खान पान के साथ एक सप्‍ताह तक  दौड धूप करते रहे , वही विवाह की भीड के कारण टेलरों ने मेरी सभी चचेरी ममेरी फुफेरी बहनों और भाभियों के कपडे सिलने से इंकार कर दिया था और मैं अपने रख रखाव की चिंता किए वगैर विवाह के शाम शाम तक उनके सूट और लहंगे सिलती रही थी। फिर भी बिना किसी बाधा के , बिल्‍कुल उत्‍सवी माहौल में 12 मार्च 1988 को विवाह कार्यक्रम संपन्‍न हो ही गया था और 13 मार्च को हम साथ साथ  एक नए सफर पर निकल पडे थे.............

पर पहले दिन का सफर ही झंझट से भरा था , हमारी विदाई सुबह 9 बजे हो गयी , थोडी ही देर में सारे बराती और घरवाले पहुंचकर हमारा इंतजार कर रहे थे और बीच जंगल में गाडी के खराब होने की वजह से हमलोग मात्र 30 किलोमीटर की यात्रा 10 घंटे में तय करते हुए 7 बजे शाम को ही वहां पहंच पाए थे। उसके बाद खट्टे मीठे अनुभवों के साथ 22 वर्षो से जारी है ये सफर , शायद कल इस बारे में आप सबों को विस्‍तार से जानकारी दे पाऊं !!

Saturday 6 March 2010

हमारा गांव पेटरवार आर्सेलर-मित्‍तल को भी पसंद आया !!

रांची बोकारो मुख्‍य मार्ग पर बोकारो जिले में स्थित हमारा पैतृक गांव पेटरवार सिर्फ इस क्षेत्र के लोगों का ही नहीं ,दूर दराज के बहुत सारे लोगों का भी पसंदीदा रहा है। काफी दिनों से जहां मारवाडियों को व्‍यावसायिक दृष्टि से यह क्षेत्र पसंद आया है, वहीं हमारे गांव से रिटायरमेंट लेनेवाले अनेको सरकारी अधिकारी भी शांतिपूर्वक अवकाशप्राप्‍त जीवन जीने के लिए इसे चुना करते आए हैं। यही कारण है कि गांव फैलता जा रहा है और यहां के जमीन का भाव आसमान छूता जा रहा है। अब इसमें एक नया आयाम जुडनेवाला है , पेटरवार ब्‍लॉक का कुछ क्षेत्र आर्सेलर-मित्तल कम्पनी को 12 मिलियन टन उत्पादन क्षमता का इस्पात संयंत्र लगाने के लिए पसंद आ गया है , ग्रामीणों में भी उन्‍हें सहयोग करने के लिए हरी झंडी दे दी है और वह दिन दूर नहीं, जब यहां कंपनी के द्वारा प्‍लांट का निर्माण कार्य भी शुरू हो जाए। विस्‍तार में यह खबर रांची एक्‍सप्रेस के सौजन्‍य से दी जा रही है ......




झारखंड प्रदेश का बोकारो जिला वास्तव में विकास की नयी बुलंदियों को ओर अग्रसर होता दिख रहा है। इस विकासयात्रा में जल्द ही एक और नया अध्याय जुड़ने जा रहा है। आर्सेलर-मित्तल कम्पनी जिले के पेटरवार और कसमार में 12 मिलियन टन उत्पादन क्षमता का इस्पात संयंत्र लगाने जा रही है। इस प्लांट के निर्माण के साथ ही पेटरवार, कसमार और आसपास के क्षेत्रों की दशा-दिशा बदल जायेगी। एक ओर जहां क्षेत्र का चतुर्दिक विकास होगा, वहीं मजदूरों के पलायन पर काफी हद तक विराम लग जायेगा। वर्ष 2005 में तत्कालीन प्रदेश सरकार के साथ हुए एक समझौते के तहत आर्सेलर-मित्तल पेटरवार व कसमार में उक्त परियोजना को मूर्त रूप देने जा रही है। इसके क्रियान्वित होने से पेटरवार एवं कसमार प्रखंड के लुकैया, कोजरम, जरुवाटांड़, पोड़दाग, हसलता, ओरमो, बेमरोटांड़, बेदोटांड़, फुटलाही व आसपास बसे गांवों की तस्वीर बदल जायेगी। ग्रामीण भी विकास की इस नयी आस से काफी उत्साहित है। मालूम हो कि आर्सेलर-मित्तल कम्पनी के महाप्रबंधक पीएस प्रसाद ने हाल ही में क्षेत्र के रैयतों के साथ वार्ता की थी, जिसमें उन्होंने रैयतों की शर्तों को मानते हुए प्लांट निर्माण हेतु तत्परता दिखायी थी। इसके अलावा कम्पनी के अधिकारीगण कई बार इलाके का दौरा कर चुके हैं और रैयतों के बीच विस्थापन नीति की पुस्तिका भी वितरित की जा चुकी है। रैयतों ने भी कम्पनी द्वारा जारी प्रपत्रों पर अपनी स्वीकृति कम्पनी को दे दी है। अब अगर बिना किसी अड़ंगे के यह परियोजना धरातल पर उतरती है, तो क्षेत्र में शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी सहित तमाम सुविधाओं की पूर्ण व्यवस्था होगी और विकास की गंगा बहती दिखेगी। क्षेत्र के कुछ रैयतों ने ‘रांची एक्सप्रेस’ से बातचीत के दौरान अपनी सहमति जतायी है। पेटरवार प्रखंड के जरुवाटांड़ निवासी एजाजुल हक, अजहर हुसैन, पेटरवार के पवन महथा, कसमार के बेमरोटांड़ निवासी मुकेश कुमार प्रसाद, लुकैया के हारुण रसीद, बरई ग्राम के महानंद महतो, फुटलाही ग्राम निवासी सदानंद महतो आदि ने खुले दिल से आर्सेलर-मित्तल की उक्त पहल का स्वागत किया है। रैयतों ने प्लांट निर्माण के बहुआयामी फायदों की चर्चा करते हुए कहा कि जैसे बोकारो स्टील प्लांट से वहां बसे आसपास के गांवों में विकास हुए, वैसे ही यहां की भी रौनक बदल जायेगी। क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं का विकास तो होगा ही, बेरोजगारी और मजदूरों के पलायन पर भी अंकुश लगेगा। रैयतों का स्पष्ट कहना है कि कम्पनी उन्हें विस्थापित बनाकर सुव्यवस्थित तरीके से बसाये, नियोजन दे और अन्य शर्तों का पालन करे, तो निश्चय ही वह संयंत्रनिर्माण में हरसम्भव सहयोग करेंगे। प्लांट लगने से रैयतों को जो क्षति होगी, उसकी समुचित भरपाई जरूरी है। यकीनन रैयतों और प्रबंधन के बीच का मामला किसी दलाली हस्तक्षेप के बिना ही अगर सुलझ जाता है, तो इस क्षेत्र को विकास के मुकाम पर ले जाने से कोई नहीं रोक सकता। प्लांट निर्माण से न केवल पेटरवार, कसमार व बोकारो जिले का, बल्कि राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय फलक पर झारखंड का नाम गौरवान्वित होगा।

Friday 5 March 2010

आज आप साहित्‍य शिल्‍पी में प्रकाशित मेरी नई कहानी 'कलियुग का पागल बाबा' पढें !!

आज मेरी एक कहानी 'कलियुग का पागल बाबा' साहित्‍य शिल्‍पी में प्रकाशित की गयी है। इस कहानी में एक ज्ञानी पुरूष को वर्तमान परिस्थितियों से जूझते हुए दिखाया गया है। इसको पढकर डॉ अरविंद मिश्रा जी ने मुझे मेल किया ....

आपकी कहनी साहित्य शिल्पी पर पढी -
मेरा कमेन्ट वहां पोस्ट नहीं हो पा रहा है -
बहुत  अच्छी कहानी !संगीता जी कहानी बहुत अच्छी लिख लेती हैं -यह तो उनके  खुद के व्यक्तित्व के द्वंद्व की कहानी है ! 
पेज का दाहिना हाशिया लेखके भाग पर आ गया है -उनसे बोले!


मैं उतना ज्ञानी कहां , इसपर मेरा जबाब था ....

धन्‍यवाद .. सैकडों वर्षों से कितने लोगों के व्‍यक्तित्‍व में यह
द्वन्‍द्व रहा होगा .. दो पीढियों से मैं अपने ही घर में देख रही हूं ..
और आगे भी चलता रहेगा शायद .. मैने ये कहानी तब लिखी थी .. जब ज्‍योतिष
में मेरा पदार्पण नहीं हुआ था .. पिताजी द्वारा कई प्रकार की चर्चा किए
जाने से दिमाग में ये बात आ गयी थी .. और ये कहानी बन पडी थी। बस
प्रकाशित करने से पहले इसका अंतिम वाक्‍य लिखकर कहानी को सकारात्‍मक मोड
दिया गया है !



इस कहानी के साथ ही साहित्‍य शिल्‍पी में मेरी सात कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं .....


कलियुग का पागल बाबा 
सिक्‍के का दूसरा पहलू 
दूसरी हार
थम गया तूफान 
मिथ्‍या भ्रम
पहला विरोध
एक झूठ 

ब्‍लॉग में से विजेट्स को हटाने का जो काम शुरू किया था , वो अभी भी जारी है। इसलिए कुछ अन्‍य महत्‍वपूर्ण आलेखों के लिंक्स इसी पोस्‍ट में डालकर इस पोस्‍ट का लिंक साइडबार में लगाने की इच्‍छा है , इसी क्रम में 'मां पर प्रकाशित मेरे दोनो आलेखों को देखें ....
 
दुनिया का सबसे आसान शब्‍द है मां  
प्रकृति इन मांओं के साथ अन्‍याय क्‍यूं कर रही हैं 


'फलित ज्‍योतिष : सच या झूठ' में प्रकाशित मेरे आलेख....




क्‍या है गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष