Sunday 28 March 2010

कैसा हो कलियुग का धर्म ??

प्रत्‍येक माता पिता अपने बच्‍चों को शिक्षा देते हैं , ताकि उसके व्‍यक्तित्‍व का उत्‍तम विकास हो सके और किसी भी गडबड से गडबड परिस्थिति में वह खुद को संभाल सके। पूरे समाज के बच्‍चों के समुचित व्‍यक्तित्‍व निर्माण के लिए जो अच्‍छी शिक्षा दे, वो गुरू हो जाता है। इसी प्रकार सारी मानव जाति के कल्‍याण के लिए बनायी गयी शिक्षा धर्म और उसे देनेवाले धर्म गुरू हो जाते हैं। इस शिक्षा का मुख्‍य उद्देश्‍य ज्ञान की प्राप्ति होनी चाहिए, जिसका आज गंभीर तौर पर अभाव है। सिर्फ गणित और विज्ञान को पढकर शिक्षा तो प्राप्‍त की जा सकती है , पर इससे व्‍यवहारिक ज्ञान नहीं प्राप्‍त किया जा सकता। माता पिता , गुरू या धर्मगुरू को शिक्षा देने से पूर्व आज के समाज को ध्‍यान में रखना अति आवश्‍यक है , तभी उसकी शिक्षा का सही महत्‍व होता है। प्राचीन काल में समाज के या जन जन के कल्‍याण के लिए प्रत्‍येक नागरिक को कर्तब्‍यों की डोर से बांधा गया था , जिसके पालन के लिए उन्‍हें ईश्‍वर का भय दिखाया गया था।

ग्रहों के प्रभाव की सटीक जानकारी के क्रम में एक बात तो स्‍पष्‍ट हो गयी है कि इस दुनिया में कोई भी काम किसी के चाहने या मेहनत करने मात्र से नहीं होता, वरन् एक स्‍पष्‍ट नियम से होता है, जिसे किसी भी समय प्रमाणित किया जा सकता है। इसलिए एक परम पिता परमेश्‍वर की संभावना से तो मैं इंकार नहीं कर सकती , भले ही यह हो सकता है कि हमारे अपने पिता , राष्‍ट्रपति या प्रधानमंत्री की तरह वो भी किसी नियम से चलने को मजबूर हों। इसलिए चाहते हुए भी त्‍वरित ढंग से किसी को बुरे कर्मों की सजा और किसी को अच्‍छे कर्मों का इनाम दे पाने में मजबूर हो , इसलिए उन्‍हें सर्वशक्तिमान रूप में नहीं देख पाने से हम उनके प्रति अक्‍सर भ्रम में होते हैं ।

मैने हिंदू धर्म में जन्‍म लिया है , पर किसी भी धार्मिक नियमों को मानने की मुझे कोई मजबूरी नहीं है। मेरी अंतरात्‍मा साथ दे , तो मैं पूजा करूं , यदि न दे , पूजा न करूं। जिस देवी देवता को पूजने की इच्‍छा हो , पूजूं , जिसका मजाक उडाने का मन हो , मजाक उडाऊं । गंगा में जाकर छठ का व्रत करूं , टब में जल भरवाकर या फिर एक कठौती में , मेरी मर्जी या देश , काल परिस्थिति पर निर्भर करता है। अलग से एक आयोजन रखकर बच्‍चे का मुंडन जनेऊ करवाऊं या किसी के विवाह में या फिर उसके खुद के विवाह में , पूरा बाल मुंडवाऊं या फिर एक लट ही काटूं , सब हमारी अपनी मर्जी। मरने के बाद शरीर के हर अंग को दान करने के लिए उसके काट छांट करवाऊं या फिर दाह संस्‍कार , वो भी अपनी आवश्‍यकता और रूचि के अनुसार। जंगलों की अधिकता हो तो लकडियों से अंतिम संस्‍कार हो सकता है , यदि कमी हो तो विद्युत शवगृहों में भी। जैसा देश , वैसा भेष बनाने की सुविधा हमें हमारा धर्म देता है, जैसा वास्‍तव में धर्म को होना चाहिए।

सिर्फ ग्रंथों को पढने लिखने से ही ज्ञान नहीं आता , गंभीर चिंतन मनन औरसमस्‍त चर अचर के प्रति प्रेम से इसमें निखार आता है। काफी दिनों से मैने ईश्‍वर और धर्म के बारे में मैने बहुत चिंतन मनन किया है , इसलिए इस बारे में कुछ अधिक लिखने की इच्‍छा अवश्‍य थी , पर वो कभी बाद में , अभी मैं वर्षों पहले अपनी डायरी में लिखी चंद लाइनों को पोस्‍ट कर रही हूं .........

कंप्‍यूटर युग का मानव है तू  , धर्मग्रंथों से इतना मत डर।
मानव जाति के विकास हेतु , धर्म का स्‍वयं निर्माण कर।।
माना वैदिककालीन विद्या है, उपयोगी होगी उस युग में।
इसका अर्थ कदापि नहीं कि ये पूजी जाए हर युग में।।

उन ऋषि मुनियों की तुलना में , क्‍या कम है तेरा दिमाग।
गंभीर चिंतन करो, तो मिटा सकोगे समाज की हर दाग ।।
धर्म कहता है , लालच मत कर, तरक्‍की होगी भला कैसे ?
महत्‍वाकांक्षा के बिना मंजिल निश्चित होगी नहीं जैसे ।।

अतिथि और असहायों की सेवा कर , धर्म बताता है।
आज इसी विश्‍वास का , बुरा फल ही देखा जाता है।।
टोने टोटके, व्रत जाप , कर्मकांड , धर्म के तत्‍व नहीं।
सच्‍ची प्रार्थना के आगे, किसी का कोई महत्‍व नहीं।।

कलियुग का सबसे बडा धर्म है , करते रहो प्रयोग ।
अपने तन मन धन संपत्ति का , करो उत्‍तम उपयोग।।
पीछे झांककर कभी न देखों , पीछे ही मत रह जाओ।
आगे बढते रहो हरदम, और सबको राह दिखाओ।।

11 comments:

श्यामल सुमन said...

एक सकारात्मक सोच की प्रस्तुति।

नहीं समस्या धर्म जगत में उपदेशक है जड़ उलझन की
धर्म तो है कर्तव्य आज का पर गाते वे राग पुराने

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

Vinashaay sharma said...

बहुत ही सही विशलेशन किया है,शयामल सुमन जी ने,आज के युग के ही अनुसार धर्म शिक्शा हो,तो अच्छा है,और संगीता जी आपके इस आलेख से मुझे पुर्ण सहमति है ।

hem pandey said...

' मैने हिंदू धर्म में जन्‍म लिया है , पर किसी भी धार्मिक नियमों को मानने की मुझे कोई मजबूरी नहीं है। मेरी अंतरात्‍मा साथ दे , तो मैं पूजा करूं , यदि न दे , पूजा न करूं। जिस देवी देवता को पूजने की इच्‍छा हो , पूजूं , जिसका मजाक उडाने का मन हो , मजाक उडाऊं । गंगा में जाकर छठ का व्रत करूं , टब में जल भरवाकर या फिर एक कठौती में , मेरी मर्जी या देश , काल परिस्थिति पर निर्भर करता है। अलग से एक आयोजन रखकर बच्‍चे का मुंडन जनेऊ करवाऊं या किसी के विवाह में या फिर उसके खुद के विवाह में , पूरा बाल मुंडवाऊं या फिर एक लट ही काटूं , सब हमारी अपनी मर्जी। मरने के बाद शरीर के हर अंग को दान करने के लिए उसके काट छांट करवाऊं या फिर दाह संस्‍कार , वो भी अपनी आवश्‍यकता और रूचि के अनुसार। जंगलों की अधिकता हो तो लकडियों से अंतिम संस्‍कार हो सकता है , यदि कमी हो तो विद्युत शवगृहों में भी। जैसा देश , वैसा भेष बनाने की सुविधा हमें हमारा धर्म देता है, जैसा वास्‍तव में धर्म को होना चाहिए।'

- यही है हिन्दू धर्म की उदात्तता.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

शिक्षाप्रद पोस्ट के लिए शुक्रिया!

समयचक्र said...

"""प्रत्‍येक माता पिता अपने बच्‍चों को शिक्षा देते हैं , ताकि उसके व्‍यक्तित्‍व का उत्‍तम विकास हो सके और किसी भी गडबड से गडबड परिस्थिति में वह खुद को संभाल सके"""
बहुत ही सार्थक शिक्षाप्रद विचार .... आभार

कृष्ण मुरारी प्रसाद said...

अच्छी प्रस्तुति......सही सोच....स्वतंत्रता जरूरी है.....
http://laddoospeaks.blogspot.com/

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपने बहुत सटीक बात कही है...सकारात्मक सोच के साथ अच्छी पोस्ट.....बधाई

अंकुर गुप्ता said...

मेरे भी ऐसे ही विचार हैं।

मनोज कुमार said...

शिक्षाप्रद पोस्ट के लिए शुक्रिया!

राइना said...

thank you

रश्मि प्रभा... said...

अतिथि और असहायों की सेवा कर , धर्म बताता है।
आज इसी विश्‍वास का , बुरा फल ही देखा जाता है।।
टोने टोटके, व्रत जाप , कर्मकांड , धर्म के तत्‍व नहीं।
सच्‍ची प्रार्थना के आगे, किसी का कोई महत्‍व नहीं।।
sach kaha, aur vistaar me samjhaya bhi