Sunday 27 June 2010

चोर चोरी से तो जाए .. पर हेराफेरी से न जाए !!

बात उन दिनों की है , जब घर में मम्‍मी को सिलाई बुनाई करते देखते हुए इसे सीखने की इच्‍छा हुई। मैट्रिक की परिक्षाएं हो चुकी थी और मैं घर में बैठी थी। मम्‍मी चाहती थी कि कॉलेज जाने से पहले घर के कुछ काम काज , तौर तरीके सीख ले। तो मैने सिलाई सीखने का काम शुरू किया , दो चार दिनों में ही छोटे छोटे बहुत सारे कपडों में कटिंग सीखने के बाद एक सूट सिलने की बारी आयी। बाजार से कपडा मंगाया गया , उस पहले कपडे को कटिंग करने के लिए मैं पूरी बेताब थी , पर मम्‍मी को घर के काम काज से फुर्सत ही नहीं थी। यह विश्‍वास होते ही कि कटिंग मैं मम्‍मी के बिना भी कर लूंगी , मुझे कपडे को जमीन में बिछाकर कुरते को माप के अनुसार काटने में थोडा भी भय नहीं हुआ। कपडा तो जैसा भी कटा हो , सिलाई में भी एडजस्‍टमेंट हो जाता है , पर कटे हुए कपडे को खोलते ही मैं भयभीत हो गयी , 'वी' शेप का गला तो सिर्फ आगे काटना था , और मैने तो दोनो ओर काट दिया था। आजकल तो सूट में दोनो ओर 'वी' शेप के गले चलते भी हैं , पर उस वक्‍त पीछे की ओर छोटा गोल गला ही चलता था। 

मेरी अच्‍छी आदत ये हैं कि मुसीबत में मैं घबराती नहीं, मैने उपाय ढूंढना शुरू किया। दोमंजिले मकान में मैं ऊपर थी और मम्‍मी नीचे रसोई में। मम्‍मी के अलावे और किसी का भय तो था नहीं। ध्‍यान देने पर मैने पाया कि कुरते के पीछे के कपडे में कोई डिजाइन नहीं है और उसके प्रिंट सलवार की तरह ही हैं। बस फटाफट सलवार के कपडे को ही काटकर कुरते के पीछे का भाग बना दिया , बांह भी काट लिए और कुरते के पीछे के कटे भाग को सलवार में एडजस्‍ट करने की कोशिश करने लगी। पर तबतक सीढियों में किसी के चढने की आहट आ रही थी , मम्‍मी के आने का संदेह होते ही मैने फटाफट कपडे को समेट कर रख दिया। पर वो तो मेरी मम्‍मी ठहरी, उनकी निगाह से मेरा क्रियाकलाप कैसे बच सकता था ? उनकी आंखे देखकर मैं डर गयी और मैने कपडा उनकी ओर बढा दिया , कुरते की कटिंग देखकर वो खुश हो गयी , और सलवार के बारे में पूछा। मैने बताया कि सलवार की कटिंग मैने अभी तक नहीं की है , उनके सामने होने पर करूंगी। उनको आश्‍चर्य भी हो रहा था कि कुरते की कटिंग करने के बाद सलवार की कटिंग के लिए मैं भयभीत क्‍यूं हूं , फिर भी सलवार के कपडे को खोलकर नहीं देखा। 

अर्से से गल्‍ती करने की मेरी आदत नहीं थी और जब गल्‍ती हो जाती थी , तो कोई इस बात को जानकर मुझपर हंसेगा , यह सोंचकर उसे छिपाने की कोशिश करती थी। अब सलवार की कटिंग के लिए बहुत निश्चिंति चाहिए थी , पर वैसा मौका मिल ही नहीं रहा था। जब भी काटने की सोंचती , कोई न कोई कमरे मे या आसपास होता । सलवार के कपडे में 'वी' शेप कटिंग जो भी देखेगा , उसे संदेह हो ही जाएगा। कटिंग न हो पाने से इधर मैं जितनी परेशान थी , उससे अधिक मम्‍मी के फुर्सत के क्षणों में व्‍यस्‍त रहने का बहाना बनाने में हो रही थी। पढाई ही तो हमारे लिए अच्‍छा बहाना हुआ करता था , परीक्षा के बाद किस बात का बहाना किया जाए ? क्‍युंकि मम्‍मी जब भी फुर्सत में होती , कपडे निकालने को कहती। दो तीन बार मेरे टालने को देखकर उन्‍हें शक भी होने लगा था , पर मैं बडी होशियारी से निकल जाती थी। अब देर करना उचित नहीं , यह अहसास होते ही मम्‍मी के नीचे जाते ही मैने कपडे निकाले और फटाफट सलवार की कटिंग भी कर डाली। 'वी' शेप कटा हुआ कपडा सलवार के बिल्‍कुल साइड से कटकर निकल चुका था और मैं सिलाई शुरू कर चुकी थी। पर तबतक मम्‍मी पहुंच चुकी थी। कुछ गडबड तो नहीं था , पर मैं संदेह के घेरे में तो आ ही चुकी थी। आखिर अभी अभी मम्‍मी को मना करने के बाद मैं तुरंत जो इसकी कटिंग कर सिलाई जो कर रही थी।

मम्‍मी ने अपना पूरा दिमाग चलाया पर उन्‍हें कोई ऐसा सबूत नहीं मिला , जिससे कुछ समझ में आए , लेकिन शक तो बना ही हुआ कि कुछ गडबड है। सबकुछ सामान्‍य हो जाने के बाद मैं भी अब कुछ छिपाना नहीं चाहती थी , क्‍यूंकि अब तनाव नहीं रह गया था। पूरा किस्‍सा सुनकर तो सब हंसे , पर फिर भी एक बार फिर से सबक तो सुननी ही पडी कि एक गल्‍ती को छिपाने से उसके बाद न जाने कितनी गलतियां छिपानी पडती है , इसलिए कोई गल्‍ती हो जाए , तो उसे बता दिया करो। पर और बच्‍चों की तरह ही डांट सुनने के भय से जब तक अभिभावक न समझे , कोई बात बताना मैं आवश्‍यक नहीं समझती थी। मम्‍मी के लाख समझाने पर भी मेरी आदत नहीं संभली और जबतक कुछ बिगडे नहीं , अपनी गलतियों को बताने से बाज आती रही। आखिर चोर चोरी से तो जाए , पर हेराफेरी से न जाए !

Saturday 26 June 2010

क्‍या प्राण प्रतिष्‍ठा के बाद ही मूर्तियां पूजा करने योग्‍य होती है ??

यह जानते हुए कि पैरों के बिना सही ढंग से जीवन जीया नहीं जा सकता , हम अपने शरीर में पैरों का स्‍थान सबसे निकृष्‍ट मानते हैं। शायद शरीर के सबसे निम्‍न भाग में होने की वजह से गंदा रहने और किटाणुओं को ढोने में इसकी मुख्‍य भूमिका होने के कारण ही पैरो को अछूत माना गया हो। इसी वजह से लात मारना शिष्‍टाचार की दृष्टि से बिल्‍कुल गलत माना जाता है। हमारा पैर गल्‍ती से भी किसी को छू जाए , तो इसके लिए हम अफसोस करते हैं या माफी मांगते हैं। हमारी संस्‍कृति सिर्फ व्‍यक्ति को ही नहीं , किसी वस्‍तु को भी पैरों से छूने की इजाजत नहीं देती। चाहे वह घर के सामान हों , बर्तन हो या खाने पीने की वस्‍तु। यहां तक कि अन्‍न की सफाई करने वाले सूप , अनाज को रखी जानेवाली टोकरियां या फिर घर की सफाई के लिए प्रयुक्‍त होने वाली झाडू , सबमें लक्ष्‍मी है।

एक प्रसंग याद है , जब तुरंत होश संभालने के बाद एक बच्‍ची को गांव जाने का मौका मिला। घर में , बरामदे में किसी को पैर नहीं लगाना , बच्‍चे को पैर नहीं लगाना , बरतन को पैर नहीं लगाना, परेशान हो रही थी वो। खेती बारी का समय था , खलिहान में फसल थे , कुछ सामान वगैरह भी थे , जो बच्‍ची को खेल के लिए भाते थे। पर वह जिधर भी खेलने जाती , कोई न कोई टोक ही देता , उसपर मत चढों , उसे पैरो से मत कुचलो या फिर उसमें पैर मत लगाओ। हार कर वह पुआल में खेलने को गयी , वहां भी किसी ने टोक दिया तो बच्‍ची से रहा नहीं गया , उसने कहा, 'और सब तो अन्‍नपूर्णा है, नहीं छू सकती , अब पुआल में भी लक्ष्‍मी'  इतना ख्‍याल रखे जाने की परंपरा थी हमारी। 

लेकिन हमारी संस्‍कृति में दूसरों को इज्‍जत देने के लिए उनके पैरों को छूने की प्रथा है। इसका अर्थ यह माना जाना चाहिए कि हम सामने वाले के निकृष्‍ट पैरों को भी अपने सर से अधिक इज्‍जत दे रहे हें। बहुत सारे कर्मकांड में पैर पूजने का अर्थ है कि हम बडों के पैरों की धूलि को भी चरण से लगाते हैं। इसी तरह मूर्तियों की प्राण प्रतिष्‍ठा करने के बाद उसके चरणों की ही वंदना की जाती है , उनके चरणों की ही पूजा की जाती है, उनके चरणों में ही सबकुछ अर्पित किया जाता है। पर जहां कला की इज्‍जत करते हुए छोटे छोटे पेण्‍टिंग्‍स , छोटी छोटी कलाकृतियों आम लोगों की बैठकों में  स्‍थान पाते हैं , बिना प्राण प्रतिष्‍ठा के मूर्तियों को निकृष्‍ट मानना उचित नहीं। 

जिस देश की संस्‍कृति में एक एक जीव , एक एक कण को भगवान माना जाए , किसी को पैर लगाने की मना‍ही हो , वहां मूतिर्यों की पूजा करने के क्रम में विभिन्‍न देवियों की प्राण प्रतिष्‍ठा एक बहाना भी हो सकता है। मूर्तियों की पूजा करते समय हम अपने देश की मिट्टी की पूजा कर सकते हैं , मिट्टी के लचीलेपन की पूजा कर सकते हैं, विभिन्‍न देवी देवताओं की कल्‍पना को साकार रूप देने की सफलता की पूजा कर सकते हैं , और उस सब से ऊपर है कि उस मूर्ति का निर्माण करनेवाले सारे कलाकारों की कला की पूजा कर सकते हैं। हां , प्राण प्रतिष्‍ठा हो जाने के बाद आस्‍था से परिपूर्ण लोगों के मन में मौजूद ईश्‍वर के एक रूप की एक काल्‍पनिक और धुंधली छवि बिल्‍कुल सामने दृष्टिगोचर होती है , इसलिए पूजा के वक्‍त पूर्ण समर्पित हो जाना स्‍वाभाविक है। पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि प्राण प्रतिष्‍ठा करने के बाद या भगवान के रूप में माने जाने के बाद ही मूर्तियां पूजा करने योग्‍य होती हैं , उसके पहले उसका कोई महत्‍व नहीं।

Friday 25 June 2010

असफल व्‍यक्ति अधिक अनुभवी होते हैं !!

प्रकृति के अधिकांश नियम निश्चित ही होते हैं , हां यदा कदा कुछ अपवाद अवश्‍य उपस्थित होते रहते है। ऐसा नहीं है कि अपवाद यूं ही उपस्थित हो जाते हैं , दरअसल अपवादों का भी एक अलग नियम होता है। जब हम कई बार लगातार एक तरह की घटना के कार्य करण संबंध को देखते हुए कोई नियम बनाते हैं , तो उस समय तक हमें अपवाद की जानकारी नहीं होती है , पर जब जब नियमों को काम करते नहीं देखते हैं , विश्‍लेषण करने पर हमें वो अपवाद दिखाई पडते हैं। सैकडों हजारो प्रयोंगो में से एक दो बार वैसे अपवाद दिखाई पडते हैं , पर उसे इग्‍नोर करते हुए अधिकांश जगहों पर हम नियम के अनुसार ही काम करते हैं।

मेहनत करने से सफलता मिलती ही है , जो जैसा करेगा वो वैसा ही भरेगा इस यथार्थ भरे वाक्‍य में भी हमें बहुत अपवाद देखने को मिलते हैं। हमारे नजर के सामने हर सुख सुविधा से संपन्‍न आलसी और कठिन परिस्थितियों से जूझ रहे पुरूषार्थी देखने को मिलेंगे। कोई भी मनुष्‍य पूर्ण नहीं हो सकता है , कर्तब्‍य पथ पर चलते हुए कोई न कोई गल्‍ती कर ही बैठता है , पर प्रकृति से मिलने वाले सहयोग के कारण उस गल्‍ती का कोई दुष्‍परिणाम सफल लोगों के जीवन में देखने को नहीं मिलता। इसलिए जीवन में अनायास सफलता प्राप्‍त करनेवाले व्‍यक्ति भले ही सफल लोगों की श्रेणी में आ जाते हों , पर वास्‍तव में वे अनुभवी नहीं होते। असफल होते हुए भी अनुभवी तो वे होते हैं , जिनकी छोटी छोटी चूक से बडा बडा नुकसान होता आया है। इसलिए वे हर काम में हुए अपनी या व्‍यवस्‍था की खामियों को उजागर कर सकते हैं , उससे बचने के लिए पहले ही तैयार रहने के लिए लोगों को सलाह दे सकते हैं।

इतने लंबे जीवन में कहीं भी कोई मोड आ सकता है , जिससे आगे बढने पर या तो फूलों से भरी या कांटों से भरी सडक हमारा इंतजार कर रही होती है । सभी स्‍वीकार करते हैं कि सुख भरे दिन में कुछ सीखने का मौका नहीं मिलता। लेकिन जब भी हम कठिनाइयों के दौर से गुजरते हैं , दिन ब दिन कुछ न कुछ सीखने को मिलता है। बडों की बाते छोड दें , विपत्ति झेल रहे लोगों के बच्‍चे बालपन में ही समझदारी भरी बात किया करते हैं। इस तरह उबड खाबड रास्‍तों पर चलकर , विपत्ति को झेलकर देर से ही सही , पुरूषार्थी को मंजिल मिलती है। इसलिए जरूरत है असफल पुरूषार्थियों से कुछ सीख लेने की , न कि अनायास सफलता पानेवालों से , क्‍यूंकि मेरा मानना है कि अपने निर्णयों के सही होने से वे सफलता के झंडे तो गाड सकते हैं , पर जीवन में किसी प्रकार की अनहोनी नहीं आने से वे अनुभवी नहीं बन सकते , इसलिए दूसरों को सलाह देने में असफल व्‍यक्ति ही अधिक सक्षम होते हैं।

Tuesday 15 June 2010

खुशदीप सहगल जी का मक्‍खन .. आज मेरे ब्‍लॉग पे

मक्‍खन पहली बार शहर जा रहा था , मक्‍खनी को भय था कि वहां मक्‍खन बेवकूफ न बन जाए, क्‍यूंकि उसने सुना था कि वहां के लोग गांववालों को बहुत बेवकूफ बनाते हैं'
'शहर से लौटकर मक्‍खन ने बताया कि वो खामख्‍वाह ही उसे बेवकूफ समझ रही थी , उसने तो शहर वालों को ही बेवकूफ बना दिया है।
'वो , कैसे'
'मैं स्‍टेशन से उतरकर थोडी दूर ही गया होगा कि मुझे ऊंचे ऊंचे मकान दिखे। वहां जो सबसे ऊंची मकान थी , वो कितने मंजिले की होगी , इसका अनुमान करने में मैं असमर्थ था , सोंचा गिन ही लिया जाए।'
'मैं उसकी मंजिलें गिन ही रहा था , कि एक शहरी वहां आ पहुंचा , पूछा 'क्‍या कर रहे हो ?'
मैने बताया कि गिन रहा हूं कि यह मकान कितने मंजिले की हैं।
शहरी ने कहा, ' यहां तो मकान की मजिले गिनने पर 100 रूपए के हिसाब से बिल चुकाने पडतें हैं , तुमने अभी तक कितनी मंजिले गिनी है'
'मैने तो बीस मंजिले गिन ली हैं'
'तो तुम्‍हें दो हजार रूपए देने होंगे।'
मैने उसे दो हजार रूपए दे दिए।
'ओह , मेरे समझाने के बावजूद तुम बेवकूफ बन ही गए, हमारे दो हजार रूपए गए पानी में' मक्‍खनी चिल्‍लायी।
'तुम गलत समझ रही हो , मैं बेवकूफ नहीं बना, मैने उसे बेवकूफ बनाया , घर के दो हजार रूपए बचा लिए , मै तो उस समय तक 40 मंजिले गिन चुका था' मक्खन ने बताया।

Tuesday 8 June 2010

मिलिए आज की मॉडर्न राधा से !!

दिल्‍ली यात्रा के दौरान सबसे अधिक मौका भतीजे भतीजियों के साथ रहने का मिला। ये है साढे चार वर्षीय यूरी सेठी , तीन वर्ष की उम्र तक खाना ही नहीं जानती थी , सिर्फ दूध पीकर या दूध में कोई खाद्य पदार्थ पीसकर गटकती रही। आजकल किसी तरह एक घंटे में एक छोटी रोटी खा लेती है , बाकी खाना अभी भी गटकना ही पडता है।  प्‍ले स्‍कूल में पढ रही है , पर कविताएं रटने में बिल्‍कुल तेज , पुस्‍तक के पृष्‍ठों को उलट उलटकर उसके चित्र देखकर इस प्रकार कविता बोलती जाएगी , कि आपको इसके द्वारा पढे जाने का भ्रम हो जाएगा  ....
उस वक्‍त अपने प्‍ले स्‍कूल 'नटखट' में होनेवाले समर कैम्‍प में शामिल , पेपर से प्रतिदिन कुछ न कुछ बनाकर लाती ...

उसके स्‍कूल में जन्‍माष्‍टमी के दिन सभी लडके कृष्‍ण और लडकियां राधा के गेट अप में आते हैं , पिछले दोनो ही वर्ष उसने सर्वश्रेष्‍ठ राधा का पुरस्‍कार पाया है , उसके दोनो वर्ष के राधा के चित्र देखिए ,ये है पहले वर्ष में .....
और ये है दूसरे वर्ष में .......
 कितनी जल्‍दी जल्‍दी बडी हो रही है हमारी राधा !!

Monday 7 June 2010

विरोधी समूह के द्वारा प्रशंसा और सम्‍मान .. इससे बडा सुख क्‍या हो सकता है ??

अपने तो हमेशा प्रशंसक होते हैं , इसलिए उसकी प्रशंसा आपको उतना सुख नहीं दे सकती , जितना एक विरोधी के द्वारा आपकी प्रशंसा किए जाने पर होता है। एक विरोधी के द्वारा प्रशंसा किए जाने का अर्थ है कि आप सही राह चल रहे हैं , जो आपका आत्‍मविश्‍वास बढाने में कामयाब होती है।  यूं तो विभिन्‍न श्रेणियों के अंतर्गत 'संवाद सम्‍मान' काफी दिन पहले से ही घोषित किया जा रहा है , पर जब संवाद समूह ने मुझे 'लोकप्रिय ब्लॉगर-नामित' श्रेणी के अन्तर्गत सम्मानित किया तो मैं दिल्‍ली में थी , इंटरनेट से दूर रहने के कारण मैं इसका शुक्रिया भी न अदा कर सकी।


'गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष' मेरा मुख्‍य ब्‍लॉग है और मैं अधिकांशत: ज्‍योतिष विषय पर ही लिखा करती हूं , इस कारण संवाद समूह से मेरा खासा वैचारिक विरोध बना होता है , पर तीन वर्ष के ब्‍लॉगिंग के जीवन में इस विरोध ने कभी भी मर्यादा का उल्‍लंघन नहीं किया। वो तर्क से ज्‍योतिष की खामियों की चर्चा किया करते हैं और मैं तर्क से उन खामियों के ज्‍योतिष में बने रहने के कारण का उल्‍लेख करती हूं। 'गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष' खुद ही ज्‍योतिष में व्‍याप्‍त खामियों को दूर करने के लिए प्रयत्‍नशील है , इसलिए उसकी सहायता से मैं खुद उन खामियों की तह में जाती हूं , ताकि ज्‍योतिष को प्रामाणिक शास्‍त्र बनाया जा सके। पर मैं यह भी मानती हूं कि जबतक ज्‍योतिष की वैज्ञानिकता को साबित न कर दूं , तबतक बुद्धिजीवी वर्ग को इसे मानने को मजबूर नहीं कर सकती। संवाद समूह ने मेरी मानसिकता को समझते हुए बिल्‍कुल सही वक्‍तब्‍य दिया है .......


एक हिसाब से देखा जाए, तो सकारात्मक लेखन के नजरिये से संगीता पुरी जी सर्वाधिक चर्चित महिला ब्लॉगर हैं। वे हालांकि मुख्य रूप से अपने ज्योतिष सम्बंधी ब्लॉग 'गत्यात्मक ज्योतिष' के लिए जानी जाती हैं। देखने में यह एक विरोधाभास के समान है कि संवाद समूह जोकि अंधविश्वास का प्रबल विरोध है, उसके द्वारा गत्यात्मक ज्योतिष की प्रवक्ता का सम्मान किया जा रहा है। पर अगर गहराई से देखें, तो संगीता जी ने ज्योतिष में प्रचलित अनेकअंधविश्वासों को तोड़ने का काम भी किया है। साथ ही संगीता जी ज्योतिष को तर्कपूर्ण बनाने और उसे वैज्ञानिक स्वरूप देने के लिए भी लगातार प्रयत्नशीन रहती हैं। वैसे संगीता जी का हमारा खत्री समाजब्लॉग भी काफी चर्चा में रहा है और 'हिन्दी शब्दकोश' सम्बंधी कार्य भी उन्होंने काफी मेहनत से सम्पन्न किया है। संगीता जी की इन तमाम योग्यताओं  को दृष्टिगत रखते हुए संवाद समूह ने उन्हें 'लोकप्रिय ब्लॉगर-नामित' श्रेणी के अन्तर्गत सम्मानित करने का निर्णय लिया है। 



मैं संवाद समूह का शुक्रिया अदा करती हूं कि उसने मुझे इस काबिल समझा , उम्‍मीद रखती हूं कि यह आनेवाले दिनों में भी मुझपर भरोसा करेगा । इसके अलावे सभी टिप्‍पणीकर्ताओं का भी आभार !!

Sunday 6 June 2010

मेरे द्वारा 'दृष्टिपात' पत्रिका को भेजी गयी 23 मई 2010 के दिल्‍ली ब्‍लॉगर मीट की रिपोर्ट

हिंदी ब्‍लॉग जगत से जुडने के बाद प्रतिवर्ष भाइयों के पास दिल्‍ली यानि नांगलोई जाना हुआ , पर इच्‍छा होने के बावजूद ब्‍लोगर भाइयों और बहनों से मिलने का कोई बहाना न मिल सका। इस बार दिल्‍ली के लिए प्रस्‍थान करने के पूर्व ही ललित शर्मा जी और अविनाश वाचस्‍पति जी के द्वारा मुझे जानकारी मिल गयी थी कि हमारे दिल्‍ली यात्रा के दौरान एक ब्‍लॉगर मीट रखी जाएगी। रविवार का दिन होने से 23 मई ब्‍लागर मीट के लिए उपयुक्‍त था , यह काफी पहले तय हो चुका था , पर स्‍थान के बारे में मुझे कोई जानकारी न थी।  आभासी दुनिया के लोगों को प्रत्‍यक्ष देखने और उनके विचारों से रू ब रू होने की कल्‍पना ही मन को आह्लादित कर रही थी। पर 20 तारीख तक यानि दिल्‍ली जाने के पंद्रह दिनों बाद तक मुझे ऐसी कोई सूचना नहीं मिल पायी थी, ब्‍लॉग मीट की बात कैंसिल तो नहीं हो गयी , यह सोंचकर मैं थोडी अनिश्चितता में थी।

पर शीघ्र ही सूचना मिली कि पश्चिमी दिल्ली के छोटूराम जाट धर्मशाला में रविवार २३ मई को दोपहर तीन बजे से शाम के बजे तक एक ब्लोग बैठक का आयोजन किया गया है । नियत दिन और समय पर मैं जब इस बैठक में पहुंची तो वहां जिन्‍हें पहचान सकी , वो श्री ललित शर्मा जी , श्री अविनाश वाचस्पति जीश्री रतन सिंह शेखावत जी,  श्री जय कुमार झा जीश्री एम वर्मा जी, श्री राजीव तनेजा जी, श्रीमती संजू तनेजा जी, श्री विनोद कुमार पांडे जी , श्री पवन चंदन जी आदि थे , धीरे धीरे श्री मयंक सक्सेना जी , श्री नीरज जाट जी , श्री अमित (अंतर सोहिल ) , सुश्री प्रतिभा कुशवाहा जी श्री एस त्रिपाठी जी ,श्री आशुतोष मेहता जी , श्री शाहनवाज़ सिद्दकी जी , श्री सुधीर जीश्री राहुल राय जी, डावेद व्यथित जीश्री राजीव रंजनप्रसाद जी, श्री अजय यादव जी , अभिषेक सागर जी , डाप्रवीण चोपडा जी ,श्री प्रवीण शुक्ल प्रार्थी जी , श्री योगेश गुलाटी जी, श्री उमा शंकर मिश्रा जी, श्री सुलभ जायसवाल जी,श्री चंडीदत्त शुक्ला जी, श्री राम बाबू जी ,श्री देवेंद्र गर्ग जी , श्रीघनश्याम बाग्ला जी , श्री नवाब मियां जी, श्री बागी चाचा जी ,अजय कुमार झा जी , श्री खुशदीप सहगल जी ,श्री इरफ़ान जी वगैरह भी पहुंचे इतने ब्‍लॉगर भाइयों को पहचान पाना तो मुश्किल था , पर कार्यक्रम के शुरूआत में ही परिचय के औपचारिक आदान प्रदान ने इसे आसान कर दिया। इनके अलावा फ़ोन के माध्यम से भी हमारे बीच उपस्थित होने वालों में श्री समीर लाल जी , सुश्री शोभना चौरे जी ,सुश्री शोभना चौधरी जी , श्री राज भाटिया जी , श्री ताऊ जी ,दीपक मशाल जी और अदा जी थी राजीव तनेजा जी के सुपुत्र माणिक तनेजा सबका खास ख्‍याल रख रहे थे । ठंढा , गर्म और अल्‍पाहार की पूरी व्‍यवस्‍था को उन्‍होने अपने कम उम्र के बावजूद बखूबी संभाला।

 अविनाश वाचस्पति जी ने बैठक की प्रस्तावना पेश करते हुए कुछ अहम बातें कहीं । हिन्‍दी ब्लॉगिंग को उन दोषों से दूर रखने का प्रयास करेंगे , जो टी वीप्रिंट मीडिया और अन्‍य माध्‍यमों में दिखलाई दे रहे हैं। जो भाषा हम अपने लिएअपने बच्‍चों के लिए चाहते हैं - वही ब्‍लॉग पर लिखेंगे और वही प्रयोग करेंगे। ब्‍लॉगिंग को पारिवारिक और सामाजिक बनायेंगेजिससे भविष्‍ में इसे प्राइमरी शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल किया जा सके। ब्‍लॉगिंग में वो आनंद आना चाहिए , जो संयुक्‍ परिवार में आता है। जिस प्रकार आज मोबाइल फोन का प्रसार हुआ है, उतना ही प्रचार प्रसार हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग का भी हो परंतु उसके लिए हमें संगठित होना होगा। इसके लिए हमें एक संगठन बना लेना चाहिए। जो ब्‍लॉगर इस संबंध में पंजीकरणनियमों इत्‍यादि की पूरी जानकारी रखते हों , वो इस संबंध में कानूनी प्रक्रिया पूरी करते हुए कार्रवाई शुरू कर लें। जिस प्रकार अपने बच्‍चों के लाभ के लिए हम सदा सक्रिय रहते हैंउसी प्रकार ब्‍लॉगों के भले के लिए जागृत रहना चाहिए। और जो काम हम अपने लिए नहीं चाहते वो दूसरों के लिए भी  करें – देखना सारे फसाद उसी दिन खत् हो जायेंगे। हम सबको मिलकर हिन्‍दी ब्‍लॉग की दुनिया को बेहतर बनाना है। 

मिश्र जी ने जिन्होंने ब्लोग्गर्स के किसीभी संगठन के निर्माण से पहले , या किसी भी संगठन को स्थापित किए जाने से पहले उसके उद्देश्यों को तय किये जाने की बात कहीं । श्री एम वर्मा जी जिन्होंने स्पष्ट किया कि भविष्य में ब्लोग्गर्स पर जो भी जिम्मेदारी बढने वाली है और संभावना है कि ब्लोग्गिंग की बढती ताकत को पहचानते हुए उसे दबाने की कोशिश की जाए तो इसके लिए अभी से तैयारी करना आवश्यक होगा । डा.प्रवीण चोपडा जी ने भी संगठन को अपनी सहमति देते हुए उसका उद्देश्य भी तय करने का विचार रखा । उन्होंने एक महत्वपूर्ण सुझाव रखते हुए कहा कि अच्छा होगा कि चूंकि हम सब ब्लोग्गर्स आभासी रूप से एक दूसरे से जुडे हैं इंडिया ब्लोगर्स फ़ोरम जैसा कुछ बनाया जा सकता है । इसके बाद इरफ़ान जीने अपने ब्लोग्गिंग और कार्टून के पेशेगत अनुभवों को बांटते हुए बताया कि किस तरह उनके एक कार्टून ने न्यायपालिका तक को मजबूर कर दिया । और यही अभिव्यक्ति की ताकत है । 

मयंक सक्सेना जी ने बताया कि प्रतिबंध और सेंसरशिप की गाज़ हिंदी ब्लोग्गिंग पर भी पडने वाली ही है एक दिन । उस दिन यदि उस ब्लोग्गर ने अपने आपको अलग थलग पाया तो उस दिन किसी ऐसे संगठन का न होना अधिक नुकसानदायक होगा । साहित्य शिल्पी के संचालक श्री राजीव रंजन जी ने अपने ओजपूर्ण शैली में सबके सामने रखा । उन्होंने बताया कि जब तक हिंदी ब्लोग्गिंग में आलोचना को स्वस्थ अंदाज़ में नहीं लिया जाएगा तब तक हिंदी ब्लोग्गिंग परिपक्व नहीं हो सकेगी । अजय कुमार झा जी ने कहा कि आखिर ब्लोग्गर्स के किसी भी संगठन को लेकर इतनी दुविधा इसलिए हो रही है क्‍यूंकि इस संगठन के प्रयास को किसी भी तरह की गुटबंदी समझने की जो भूल की जा रही है। चार व्‍यक्ति के साथ होने का अर्थ यह नहीं कि वो फलाने गुट में है ! ललित शर्मा जी ने भी ब्‍लॉगिंग में आने के बाद अपने अनुभवों की चर्चा करते हुए इसकी ताकत के बारे मे समझाया। 

मैने भी ब्‍लॉगिंग के मुद्दे पर अपना विचार रखा , चूंकि प्रत्‍येक व्‍यक्ति ऊपर से देखने में एक होते हुए भी अंदर से बिल्‍कुल अलग बनावट लिए हैं , इसलिए इस दुनिया में घटने वाली सारी घटनाओं को विभिन्‍न कोणों से देखते हैं , जाहिर है , हम अलग कोण से लिखेंगे ही। भले ही कोई 'वाद' देश , काल और परिस्थिति के अनुसार सटीक होता हो , पर कालांतर में उसमें सिर्फ अच्‍छाइयां ही नहीं  रह जाती है। इसलिए ही समय समय पर हमारे मध्‍य विचारों का बडा टकराव होता है , उससे दोनो ही पक्ष में शामिल पाठकों या आनेवाली पीढी के समक्ष एक नया रास्‍ता खुलता है। ऐसा भी होता ही आया है कि भीड में भी समान विचारों वाले लोग छोटे छोटे गुट बना लेते हैं , कक्षा में भी  विद्यार्थियों के कई ग्रुप होते हैं , इसका अर्थ ये नहीं कि वे एक दूसरे पर पत्‍थर फेके। हमें समझना चाहिए कि जहां हमारे विचारों की विभिन्‍नता और वाद विवाद हिंदी ब्‍लॉगजगत को व्‍यापक बनाने में समर्थ है , वहीं एक दूसरे के प्रति मन की खिन्‍नता और आपस में गाली गलौज हिंदी ब्‍लॉग जगत का नुकसान कर रही है। मेरा अपना दृष्टिकोण है कि यदि हम संगठित नहीं हों तो हमारे ऊपर कभी भी आपत्ति आ सकती है और हमें विचारों की अभिव्‍यक्ति से संबंधित अपनी इस स्‍वतंत्रता को खोना पड सकता है। इसलिए संगठित बने रहने के प्रयास तो होने ही चाहिए !!