Saturday 26 June 2010

क्‍या प्राण प्रतिष्‍ठा के बाद ही मूर्तियां पूजा करने योग्‍य होती है ??

यह जानते हुए कि पैरों के बिना सही ढंग से जीवन जीया नहीं जा सकता , हम अपने शरीर में पैरों का स्‍थान सबसे निकृष्‍ट मानते हैं। शायद शरीर के सबसे निम्‍न भाग में होने की वजह से गंदा रहने और किटाणुओं को ढोने में इसकी मुख्‍य भूमिका होने के कारण ही पैरो को अछूत माना गया हो। इसी वजह से लात मारना शिष्‍टाचार की दृष्टि से बिल्‍कुल गलत माना जाता है। हमारा पैर गल्‍ती से भी किसी को छू जाए , तो इसके लिए हम अफसोस करते हैं या माफी मांगते हैं। हमारी संस्‍कृति सिर्फ व्‍यक्ति को ही नहीं , किसी वस्‍तु को भी पैरों से छूने की इजाजत नहीं देती। चाहे वह घर के सामान हों , बर्तन हो या खाने पीने की वस्‍तु। यहां तक कि अन्‍न की सफाई करने वाले सूप , अनाज को रखी जानेवाली टोकरियां या फिर घर की सफाई के लिए प्रयुक्‍त होने वाली झाडू , सबमें लक्ष्‍मी है।

एक प्रसंग याद है , जब तुरंत होश संभालने के बाद एक बच्‍ची को गांव जाने का मौका मिला। घर में , बरामदे में किसी को पैर नहीं लगाना , बच्‍चे को पैर नहीं लगाना , बरतन को पैर नहीं लगाना, परेशान हो रही थी वो। खेती बारी का समय था , खलिहान में फसल थे , कुछ सामान वगैरह भी थे , जो बच्‍ची को खेल के लिए भाते थे। पर वह जिधर भी खेलने जाती , कोई न कोई टोक ही देता , उसपर मत चढों , उसे पैरो से मत कुचलो या फिर उसमें पैर मत लगाओ। हार कर वह पुआल में खेलने को गयी , वहां भी किसी ने टोक दिया तो बच्‍ची से रहा नहीं गया , उसने कहा, 'और सब तो अन्‍नपूर्णा है, नहीं छू सकती , अब पुआल में भी लक्ष्‍मी'  इतना ख्‍याल रखे जाने की परंपरा थी हमारी। 

लेकिन हमारी संस्‍कृति में दूसरों को इज्‍जत देने के लिए उनके पैरों को छूने की प्रथा है। इसका अर्थ यह माना जाना चाहिए कि हम सामने वाले के निकृष्‍ट पैरों को भी अपने सर से अधिक इज्‍जत दे रहे हें। बहुत सारे कर्मकांड में पैर पूजने का अर्थ है कि हम बडों के पैरों की धूलि को भी चरण से लगाते हैं। इसी तरह मूर्तियों की प्राण प्रतिष्‍ठा करने के बाद उसके चरणों की ही वंदना की जाती है , उनके चरणों की ही पूजा की जाती है, उनके चरणों में ही सबकुछ अर्पित किया जाता है। पर जहां कला की इज्‍जत करते हुए छोटे छोटे पेण्‍टिंग्‍स , छोटी छोटी कलाकृतियों आम लोगों की बैठकों में  स्‍थान पाते हैं , बिना प्राण प्रतिष्‍ठा के मूर्तियों को निकृष्‍ट मानना उचित नहीं। 

जिस देश की संस्‍कृति में एक एक जीव , एक एक कण को भगवान माना जाए , किसी को पैर लगाने की मना‍ही हो , वहां मूतिर्यों की पूजा करने के क्रम में विभिन्‍न देवियों की प्राण प्रतिष्‍ठा एक बहाना भी हो सकता है। मूर्तियों की पूजा करते समय हम अपने देश की मिट्टी की पूजा कर सकते हैं , मिट्टी के लचीलेपन की पूजा कर सकते हैं, विभिन्‍न देवी देवताओं की कल्‍पना को साकार रूप देने की सफलता की पूजा कर सकते हैं , और उस सब से ऊपर है कि उस मूर्ति का निर्माण करनेवाले सारे कलाकारों की कला की पूजा कर सकते हैं। हां , प्राण प्रतिष्‍ठा हो जाने के बाद आस्‍था से परिपूर्ण लोगों के मन में मौजूद ईश्‍वर के एक रूप की एक काल्‍पनिक और धुंधली छवि बिल्‍कुल सामने दृष्टिगोचर होती है , इसलिए पूजा के वक्‍त पूर्ण समर्पित हो जाना स्‍वाभाविक है। पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि प्राण प्रतिष्‍ठा करने के बाद या भगवान के रूप में माने जाने के बाद ही मूर्तियां पूजा करने योग्‍य होती हैं , उसके पहले उसका कोई महत्‍व नहीं।

11 comments:

Udan Tashtari said...

जानकारीपूर्ण आलेख.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

यह तो मेरे मन कि बात कह दी...बहुत अच्छी पोस्ट

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

भ्रांतियों का निवारण करने वाली पोस्ट के लिए बधाई!

हास्यफुहार said...

उपयोगी पोस्ट।

Gyan Darpan said...

जानकारीपूर्ण आलेख

देवेन्द्र पाण्डेय said...

प्राण प्रतिष्ठा से पूर्व मूर्तियों का वही महत्त्व है जो एक सुंदर कलाकृति का होता है. जब हम कण-कण में भगवान हैं ऐसा मानते हैं तो प्राण प्रतिष्ठा से पहले भी किसी मूर्ति को कैसे पैर लगा सकते हैं..!
..सुंदर वैचारिक पोस्ट.

माधव( Madhav) said...

जानकारीपूर्ण आलेख

सत्य गौतम said...

जय भीम

Vinashaay sharma said...

विचारणीय पोस्ट ।

Rajeev Nandan Dwivedi kahdoji said...

हा हा हा
आपने तो बहुत ही कमाल की बात कह दी है.
यह बच्ची वाली बात रोचक है.
हमेँ हमारी दादीजी याद आती हैं जो सायंकाल को बल्ब के जलने पर पूरे श्रद्धा से हाथ जोड़ कर प्रणाम करती थीं.

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

अगर निर्जीव में ही प्राणों की प्रतिष्ठा होती तो मैं अपने पिता के प्राणों पुन: लौटा लाता। उन्हे इस दुनिया से जाने नहीं देता।