Sunday 27 June 2010

चोर चोरी से तो जाए .. पर हेराफेरी से न जाए !!

बात उन दिनों की है , जब घर में मम्‍मी को सिलाई बुनाई करते देखते हुए इसे सीखने की इच्‍छा हुई। मैट्रिक की परिक्षाएं हो चुकी थी और मैं घर में बैठी थी। मम्‍मी चाहती थी कि कॉलेज जाने से पहले घर के कुछ काम काज , तौर तरीके सीख ले। तो मैने सिलाई सीखने का काम शुरू किया , दो चार दिनों में ही छोटे छोटे बहुत सारे कपडों में कटिंग सीखने के बाद एक सूट सिलने की बारी आयी। बाजार से कपडा मंगाया गया , उस पहले कपडे को कटिंग करने के लिए मैं पूरी बेताब थी , पर मम्‍मी को घर के काम काज से फुर्सत ही नहीं थी। यह विश्‍वास होते ही कि कटिंग मैं मम्‍मी के बिना भी कर लूंगी , मुझे कपडे को जमीन में बिछाकर कुरते को माप के अनुसार काटने में थोडा भी भय नहीं हुआ। कपडा तो जैसा भी कटा हो , सिलाई में भी एडजस्‍टमेंट हो जाता है , पर कटे हुए कपडे को खोलते ही मैं भयभीत हो गयी , 'वी' शेप का गला तो सिर्फ आगे काटना था , और मैने तो दोनो ओर काट दिया था। आजकल तो सूट में दोनो ओर 'वी' शेप के गले चलते भी हैं , पर उस वक्‍त पीछे की ओर छोटा गोल गला ही चलता था। 

मेरी अच्‍छी आदत ये हैं कि मुसीबत में मैं घबराती नहीं, मैने उपाय ढूंढना शुरू किया। दोमंजिले मकान में मैं ऊपर थी और मम्‍मी नीचे रसोई में। मम्‍मी के अलावे और किसी का भय तो था नहीं। ध्‍यान देने पर मैने पाया कि कुरते के पीछे के कपडे में कोई डिजाइन नहीं है और उसके प्रिंट सलवार की तरह ही हैं। बस फटाफट सलवार के कपडे को ही काटकर कुरते के पीछे का भाग बना दिया , बांह भी काट लिए और कुरते के पीछे के कटे भाग को सलवार में एडजस्‍ट करने की कोशिश करने लगी। पर तबतक सीढियों में किसी के चढने की आहट आ रही थी , मम्‍मी के आने का संदेह होते ही मैने फटाफट कपडे को समेट कर रख दिया। पर वो तो मेरी मम्‍मी ठहरी, उनकी निगाह से मेरा क्रियाकलाप कैसे बच सकता था ? उनकी आंखे देखकर मैं डर गयी और मैने कपडा उनकी ओर बढा दिया , कुरते की कटिंग देखकर वो खुश हो गयी , और सलवार के बारे में पूछा। मैने बताया कि सलवार की कटिंग मैने अभी तक नहीं की है , उनके सामने होने पर करूंगी। उनको आश्‍चर्य भी हो रहा था कि कुरते की कटिंग करने के बाद सलवार की कटिंग के लिए मैं भयभीत क्‍यूं हूं , फिर भी सलवार के कपडे को खोलकर नहीं देखा। 

अर्से से गल्‍ती करने की मेरी आदत नहीं थी और जब गल्‍ती हो जाती थी , तो कोई इस बात को जानकर मुझपर हंसेगा , यह सोंचकर उसे छिपाने की कोशिश करती थी। अब सलवार की कटिंग के लिए बहुत निश्चिंति चाहिए थी , पर वैसा मौका मिल ही नहीं रहा था। जब भी काटने की सोंचती , कोई न कोई कमरे मे या आसपास होता । सलवार के कपडे में 'वी' शेप कटिंग जो भी देखेगा , उसे संदेह हो ही जाएगा। कटिंग न हो पाने से इधर मैं जितनी परेशान थी , उससे अधिक मम्‍मी के फुर्सत के क्षणों में व्‍यस्‍त रहने का बहाना बनाने में हो रही थी। पढाई ही तो हमारे लिए अच्‍छा बहाना हुआ करता था , परीक्षा के बाद किस बात का बहाना किया जाए ? क्‍युंकि मम्‍मी जब भी फुर्सत में होती , कपडे निकालने को कहती। दो तीन बार मेरे टालने को देखकर उन्‍हें शक भी होने लगा था , पर मैं बडी होशियारी से निकल जाती थी। अब देर करना उचित नहीं , यह अहसास होते ही मम्‍मी के नीचे जाते ही मैने कपडे निकाले और फटाफट सलवार की कटिंग भी कर डाली। 'वी' शेप कटा हुआ कपडा सलवार के बिल्‍कुल साइड से कटकर निकल चुका था और मैं सिलाई शुरू कर चुकी थी। पर तबतक मम्‍मी पहुंच चुकी थी। कुछ गडबड तो नहीं था , पर मैं संदेह के घेरे में तो आ ही चुकी थी। आखिर अभी अभी मम्‍मी को मना करने के बाद मैं तुरंत जो इसकी कटिंग कर सिलाई जो कर रही थी।

मम्‍मी ने अपना पूरा दिमाग चलाया पर उन्‍हें कोई ऐसा सबूत नहीं मिला , जिससे कुछ समझ में आए , लेकिन शक तो बना ही हुआ कि कुछ गडबड है। सबकुछ सामान्‍य हो जाने के बाद मैं भी अब कुछ छिपाना नहीं चाहती थी , क्‍यूंकि अब तनाव नहीं रह गया था। पूरा किस्‍सा सुनकर तो सब हंसे , पर फिर भी एक बार फिर से सबक तो सुननी ही पडी कि एक गल्‍ती को छिपाने से उसके बाद न जाने कितनी गलतियां छिपानी पडती है , इसलिए कोई गल्‍ती हो जाए , तो उसे बता दिया करो। पर और बच्‍चों की तरह ही डांट सुनने के भय से जब तक अभिभावक न समझे , कोई बात बताना मैं आवश्‍यक नहीं समझती थी। मम्‍मी के लाख समझाने पर भी मेरी आदत नहीं संभली और जबतक कुछ बिगडे नहीं , अपनी गलतियों को बताने से बाज आती रही। आखिर चोर चोरी से तो जाए , पर हेराफेरी से न जाए !

14 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

आपके अंदर बचपन से ही कठिन परिस्थियों से जुझने का माद्दा है।

इस संस्मरण से यही पता चलता है।

प्रेरणादायक संस्मरण

आभार

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत ही रोचक संस्मरण है!

मनोज कुमार said...

चोर चोरी से तो जाए , पर हेराफेरी से न जाए !
ऐसी बअत नहीं है। दरअसल बात यह है कि अच्‍छे लोग इसलिए अच्‍छे होते हैं, क्‍योंकि उन्‍होंने अपनी नाकामियों से काफी ज्ञान बटोरा है।

rashmi ravija said...

हा हा बढ़िया संस्मरण बताया ,संगीता जी...मुझे भी एक बार शौक चढ़ा था,सिलाई का और मैने भी यही गलती की...एक से ज्यादा बार...पर वो दोनों तरफ गलती से V नेक काटते ही मैं इतनी जोर का चिल्लाती " Ohh God!! ये क्या कर दिया.." कि सबको पता चल जाता....फिर तो मम्मी के हवाले...कि वो जैसे ठीक करें :)

Arvind Mishra said...

घोर आश्चर्य यही तो मेरी भी आदत रही मगर फर्क एक है मेरी गलतियों के बाद सारे काम बिगड़े ही रहे फिर कभी बन न सके तो उन्हें अभिभावकों को बताने का मतलब ही नहीं रहा -शरारती ऐसा कि बारूद से पूरी हथेली जल गयी मगर क्या मजाल बड़ों को तनिक खबर भी लगे -एक माह तक मुट्ठी खोली ही नहीं जब तक ठीक नहीं हो गयी ..आश्चर्य कि किसी ने मुट्ठी जो बंद रहती है पर कैसे ध्यान नहीं दिया ...माँ -पिता से मैं दूर ही रहता ,बाबा जी नहलाते धुलाते थे मगर वे बहुत सीधे थे ..कभी पूछा ही नहीं बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है ....आज भी यह गाना डरा देता है ...
मगर आप तो पूरी उस्ताद निकली -गलती की और उसे दुरुस्त भी कर लिया -फिर वो गलती रही कहाँ ?

M VERMA said...

रोचक और मजेदार संस्मरण

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

रोचक संस्मरण....पर आपने तो गलती भी सुधार ली...

राम त्यागी said...

बहुत रोचक संस्मरण, मजा आ गया पढकर ...वैसे मम्मी से भी क्या डरना :-)

अन्तर सोहिल said...

हा-हा-हा
बढिया संस्मरण
लेकिन हमने कभी कोई गलती हो जाने पर घरवालों से छुपाने की कोशिश नहीं की

प्रणाम

राजकुमार सोनी said...

काफी मजेदार वर्णन है। अच्छा लगा पढ़कर

Bhavesh (भावेश ) said...

काफी रोचक और प्रेरणादायक संस्मरण :-)

Pramendra Pratap Singh said...

सही बात कही आपने, मुझे भी आज से 18-19 पहले की बात है, मैने दूध मे आटा डाल दिया, और शांत हो कर बैठ गया, अम्‍मा जी ने पूछा कि आटा किसने दूध मे डाला तो शक की सूई मेरी तरफ, मेरी सफझ मे नही आया कि दूध भी सफेद और आटा भी अम्‍मा जी को पता कैसे चला कि दूध मे आटा डाला गया है। :)

अजित गुप्ता का कोना said...

सच कह रही है कि हमारी छोटी सी गलती इतनी बड़ी भी नहीं होती है लेकिन डर बड़ा होता है। बस आज के युग में एक परिवर्तन आ गया है कि आज डर ही नहीं है और कल सबकुछ डर ही था। अच्‍छा संस्‍मरण।

ZEAL said...

बहुत रोचक संस्मरण,