Thursday 21 January 2010

चेहरे , शरीर और कपडों की साफ सफाई के लिए कितनी परंपरागत पद्धतियां हैं !!

आज हर स्‍तर के टूथपेस्‍ट , डिटरजेंट , फेस वाश और साबुन से बाजार भरा पडा है , इसकी इतनी बडी मात्रा में खरीद और बिक्री हो रही है , जिससे हमारे दांत , चेहरे , शरीर और कपडों की सफाई हो रही है, जो प्राचीन काल से अबतक लोगों के द्वारा साफ सफाई के लिए न जाने कितने प्रयोग किए जाने का परिणाम हैं। आज पैकेट में बिकने वाली मुल्‍तानी मिट्टी फेस पैक के रूप में प्रयोग की जाती है , पर प्राचीन काल में भी खेतों में यत्र तत्र बिखरी चिकनी मिट्टी का प्रयोग चेहरे की सफाई के लिए किया जाता था। इसके अलावे चेहरे की सफाई के लिए तरह तरह के उबटन लगाए जाने की परंपरा थी , उबटन चेहरे की मालिश करते हुए सारी गंदगी को हटाने में समर्थ होता था।

चिकनी मिट्टी से धुले बाल तो रेशम से मुलायम हो जाया करते थे। बाल को धोने के लिए सरसों या अन्‍य तिलहनों के तेल निकालने के बाद के बचे भाग का प्रयोग किया जाता था , जिसे बिहार में 'खल्‍ली' कहा जाता है। इसके अलावे आंवले और शिकाकाई के उपयोग से अपने बालों को स्‍वस्‍थ रखने में मदद ली जाती थी। विभिन्‍न दालों के बेसन और दही को भी बालों की सुरक्षा हेतु उपयोग किया जाता था। इन परंपरागत पद्धतियों से अपने शरीर और बाल की सफाई की जाती थी।

ग्रामीण परिवेश में कोयले या लकडी के चूल्‍हे और अन्‍य धूप धूल में काम करती महिलाओं को अपने तन बदन साफ रखने के लिए धुलाई के लिए विभिन्‍न प्रकार के प्राकृतिक ब्रश भी उपलब्‍ध थे। विभिन्‍न पेडो , खासकर औषधिय पेडों की पतली टहनी को दांतों से चबाकर उसका उपयोग दतवन के रूप में दांतो की सफाई के लिए किया जाता था , यह बात तो आप सबों को मालूम होगी । इसी प्रकार बीज के लिए रखे गए  नेनुए , लौकी या झींगी जैसे सब्जियों के बीज निकालने के बाद जो झिल्‍ली बची रह जाती थी , उसका उपयोग हाथ पैरों की गंदगी को निकालने के लिए ब्रश के रूप में किया जाता था। घर बनाने के लिए प्रयोग किए जानेवाले खपडे के टूटे हुए हिस्‍से या ईंट के टुकडे से पैरों के एडी की सफाई की जाती थी।

रेशमी और ऊनी कपडे तो उच्‍च वर्गीय लोगों के पास ही होते थे , जिन्‍हे धोने के लिए रीठे की ही आवश्‍यकता होती थी। सूती वस्‍त्रों को धोने के लिए सोडे का प्रयोग कब शुरू हुआ , मै नहीं बता सकती। पर उससे पहले बंजर खेतों के ऊपर जमी मिट्टी , जिसे 'रेह' कहा जाता था , को निकालकर उससे सूती कपडे धोए जाते थे , उस मिट्टी में सोडे की प्रधानता होने से उससे धुले कपडे बहुत साफ हो जाते थे। अभी भी ग्रामीण महिलाएं अपने सूती वस्‍त्रों की सफाई में इसी पद्धति का इतेमाल करती हैं। इस प्रकार की सफाई में बहुत अधिक पानी की आवश्‍यकता पडती थी , पर नदी , तालाबों की प्रचुरता से इस काम को कर पाना मुश्किल नहीं होता था, आजकल इस पद्धति में थोडी दिक्‍कत अवश्‍य हो जाया करती है।

 गरम पानी में इस मिट्टी को डाल कर उससे सूती कपडों को साफ कर पाना अधिक आसान होता था , मिट्टी और तेल तक की गंदगी आराम से साफ हो जाया करती थी। कई स्‍थानों में केले के सूखे तने और पत्‍तों को जलाकर उसके राख से कपडों की सफाई की जाती थी। हमारे यहां आम या इमली की लकडी को जलाने पर जो राख बचता था , उसे सुरक्षित रखा जाता था और लूंगी , धोती , साडी से लेकर ओढने बिछाने तक के सारे सूती कपडे इसी राख से धोए जाते थे। इस राख से सफाई करने पर कई दिनों की जमी गंदगी और अन्‍य तरह के दाग धब्‍बे तक दूर हो जाया करते थे। आज भी ओढने बिछाने या अन्‍य प्रकार के गंदे वस्‍त्रो को धोने के लिए इस राख का उपयोग किया जाता है। आज नदियो और तालाबों में पानी की कमी और कम मूल्‍यों में सामान्‍य डिटरजेंटों की बिक्री होने के कारण सफाई की ये परंपरागत पद्धतियां समाप्‍त हो गयी हैं।