Tuesday 23 February 2010

'उत्‍पादकता' से 'प्रकृति' महत्‍वपूर्ण, ये बात गांठ बांध लो सभी !!

डायरी के एक पन्‍ने में मुझे यह कविता दिखाई पडी। पढने पर मुझे याद आया कि पर्यावरण दिवस पर आयोजित किसी कार्यक्रम में बोलने के लिए बेटे को कविता लिखना सिखलाते हुए मैने यह तुकबंदी की थी । यह पन्‍ना इधर उधर खो न जाए , इस ख्‍याल से इस यादगार कविता को यहां प्रेषित कर रही हूं, उम्‍मीद है आपको अच्‍छा लगेगा......

विकास की अंधी दौड में हमने ,
ओजोन परत को नष्‍ट किया है।
सिर्फ 'उत्‍पादकता' पर ध्‍यान देकर ,
वायु को प्रदूषित कर दिया है।

कारखानो से निकले सारे कचरे,
नदी में जाकर मिल जाते हैं।
खेतों से बहकर गए रसायन,
जलजीवों को कष्‍ट बढाते हैं।

रसायनों का प्रयोग करके हमने,
भू की उर्वरता को कम किया है।
स्‍वार्थों की पूर्ति हेतु हमने,
सारे जंगलों को काट दिया है।

अपनी गलतियों का परिणाम,
हमें तो भुगतना ही होगा।
नाना बीमारियों से जल थल के ,
जीवों को तो मरना ही होगा।

तापमान बढने के कारण,
बर्फ तो पिघलते ही जाएंगे।
समस्‍याएं बाढ अकाल की आएंगी,
समुद्र सतह बढते ही जाएंगे।

वायु जल भू की रक्षा करो,
ताकि जलप्रलय न हो कभी।
'उत्‍पादकता' से 'प्रकृति' महत्‍वपूर्ण,
ये बात गांठ बांध लो सभी।