Monday 30 August 2010

ज्‍योतिष के व्‍यावहारिक पक्ष को मजबूत बनाने के लिए लोगों से मिलना जुलना जरूरी होता है !!

अभी तक आपने पढा ... इस तरह घर गृहस्‍थी में उलझने के बाद अपने कैरियर की ओर मेरा ध्‍यान नहीं रह गया था। भले ही स्‍वयं की संतुष्टि के लिए मै कुछ रचनाएं लिख लिया करती थी , पर मुझे अपनी इस योग्‍यता पर इतना विश्‍वास नहीं था कि इसकी बदौलत मैं अपनी पहचान बना सकती हूं। जबकि ज्‍योतिष में पापाजी के पूरे जीवन का रिसर्च आमजन के लिए बिल्‍कुल नया और बहुत उपयोगी था , जिसपर लिखने के ज्‍योतिष के क्षेत्र में इतनी जल्‍द मैने पहचान बना ली थी। इधर पापाजी की उम्र भी बढती जा रही थी और उनके वृद्धावस्‍था में प्रवेश करते देख उनके मित्र , चेले , जो कि उनसे धार्मिक , ज्‍योतिषीय और अन्‍य प्रकार के वैचारिक सहयोग लिया करते थे , अक्‍सर उनसे पूछा करते कि वे अपने जीवनभर के अनुभवों से जुटाए गए ज्ञान को किसके पास छोडकर जाएंगे ??

आरंभ में तो मुझे ज्‍योतिष सिखलाने की पापाजी की बिल्‍कुल भी इच्‍छा नहीं थी , पर मनुष्‍य के सोंचने से होता ही क्‍या है ?? पढाई के बाद के कुछ दिन और विवाह के बाद के कुछ दिनों में ही मैने ज्‍योतिष का सामान्‍य ज्ञान प्राप्‍त कर लिया था। इसके बाद हर वक्‍त पापाजी से कुछ न कुछ प्रश्‍न करती , जबाब देने के बाद पापाजी चौंकते कि अनजाने ही एक और रहस्‍य मैने जान लिया है। 1980 के बाद पापाजी ने पत्र पत्रिकाओं में लिखना बंद कर दिया था , इसलिए ज्‍योतिष के क्षेत्र में आ रही नई पीढी पापाजी से परिचित नहीं थी , इसलिए 1992 से मैने उनके खोज को 'गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष' के नाम से पत्र पत्रिकाओं में भेजना शुरू किया। 1996 में मेरी पुस्‍तक भी छपकर आ गयी थी।

पर उस समय तक पापाजी को इतना विश्‍वास नहीं था कि अपने उत्‍तराधिकारी के तौर पर वे उनलोगों से मेरा परिचय करवाते। पर मेरे तर्क वितर्क को देखकर तथा कुछ रचनाओं को खासकर ज्‍योतिष का समयानुसार बदलाव पढने के बाद उन्‍हें मुझपर भरोसा हो गया था । फिर तो वे धीरे धीरे मुझे सबसे मिलवाना शुरू किया। लोगों से मिलने के बाद , उनके प्रश्‍नों को सुनने के बाद मुझे महसूस होने लगा कि ज्‍योतिष की मात्र सैद्धांतिक जानकारी से लोगों का कल्‍याण नहीं किया जा सकता है। इसके लिए ज्‍योतिष के व्‍यावहारिक पक्ष को मजबूत बनाए जाने की आवश्‍यकता है। महीने में एक दो व्‍यक्ति या परिवार की समस्‍या को सुनकर ज्‍योतिष को पूरा गत्‍यात्‍मक नहीं बनाया जा सकता , जैसा कि पापाजी का लक्ष्‍य है। मुझे महीने भर लोगों से मिलते जुलते रहना चाहिए। पर नए जगह में , जहां एक ज्‍योतिषी के तौर पर मुझे कोई नहीं जानता , लोगों से मिलना जुलना संभव नहीं था।

10 बजे से 1 बजे तक खाली समय में एक दिन टी वी खोलने पर मैने उसमें एक नई फिल्‍म को चलता पाया । बोकारो में उस समय कोई स्‍थानीय चैनल तो था नहीं , केबल वाले तीन घंटे किसी खास चैनल का प्रसारण रोककर उसमें नई पिक्‍चर दिखलाया करते थे , चूंकि उस वक्‍त आज की तरह घर घर सीडी या डीवीडी प्‍लेयर नहीं होते थे , इसलिए पूरी कॉलोनी के दर्शकों का इसपर ध्‍यान बना होता था। दर्शकों की भीड को देखते हुए उन्‍हें स्‍थानीय विज्ञापन मिलते , जिसकी उन तीन घंटे में स्‍क्रालिंग की जाती थी , महीनेभर पिक्‍चर के नीचे चलनेवाली स्‍क्रालिंग के लिए केबलवाले 800 रूपए चार्ज करते थे। मैने उनको फोन लगाया और अपना पहला विज्ञापन स्‍क्रॉलिंग में चलवाया , जो निम्‍न था .....

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दूसरे दिन से ही टी वी पर स्‍क्रालिंग शुरू हो गयी थी , पर आलेख लंबा होता जा रहा है , इसलिए इसके परिणाम की बातें अगले पोस्‍ट में  ........