Saturday 22 January 2011

हमारे क्षेत्रीय भाषाओं में गाली रचे बसे हैं !!

इधर हाल के दिनों में ब्‍लॉग जगत में गालियों पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है। कोई भी सुसंस्‍कृत व्‍यक्ति गालियों का पक्ष तो नहीं ले सकता , तो मेरे द्वारा इसके पक्ष लिए जाने का सवाल ही नहीं। पर क्‍या हमारे समाजिक जीवन से गालियां इतनी जल्‍दी समाप्‍त हो सकती हैं , जो किसी जबान में रच बस गयी हैं। मन में कोई दुर्भावना हो या न हो , पर बचपन से जिस भाषा का प्रयोग देखता सुनता रहा है , उसके मुंह में वो शब्‍द स्‍वाभाविक ढंग से आएगा। मेरे दादाजी जब भी पोतों से नाराज होते , उनके मुंह से 'साला' शब्‍द अनायास निकल जाता। पूरे आंगन में जितने भी बच्‍चे थे , उन्‍होने घर में किसी को इस तरह के शब्‍द का उपयोग करते नहीं देखा था , इसलिए जब दादाजी का गुस्‍सा शांत होता तो कहते कि आप तो गंदे हैं , गाली बकते हैं। दादाजी हमेशा गाली न बकने का वादा करते , पर जब गुस्‍से में होते उनके मुंह से ये शब्‍द स्‍वाभाविक ढंग से निकल ही जाता।

घर में न तो पापाजी और अन्‍य चाचाओं को हमलोगों ने कभी किसी गाली का प्रयोग करते नहीं देखा था। हमलोग जब होश होने पर नानी के यहां गए , तो मामा वगैरह को भी किसी प्रकार के गाली का प्रयोग करते नहीं देखा , पर वहां के सारे बच्‍चों को गाली के रूप में 'कुत्‍ता' का उपयोग करते देखा। 'साला' शब्‍द को सुनने की कभी कभी आदत थी हमें , इसलिए वो शब्‍द इतना बुरा नहीं लगता था , पर किसी व्‍यक्ति के लिए कुत्‍ते जैसे शब्‍द का प्रयोग देख बहुत बुरा लगता। भाई बहनों को बहुत समझाया , पर वे लोग जब भी झगडते , एक दूसरे को गाली देने के लिए कुत्‍ता का प्रयोग अवश्‍य करते। उनके मन में ऐसी कोई दुर्भावना नहीं होती कि सामने वाले को गाली दी जाए , पर बस आदत से लाचार ।

इससे भी बडा आश्‍चर्य तब हुआ , जब मैं ससुराल पहुंची , वहां माताजी और पिताजी में से किसी को भी गाली की आदत नहीं थी , पर बडे भैया और बडी दीदी गाली के रूप में 'कुत्‍ते का बच्‍चा' शब्‍द का प्रयोग करते , वो भी खुद अपने अपने बच्‍चों के लिए। वातावरण शांत होने पर जब हमलोग हंसते कि आपलोग गाली किसे देते हैं , तो वे समझाते कि बच्‍चे छोटे हैं , इसलिए इन्‍हे कुत्‍ता न कहकर कुत्‍ते का बच्‍चा यानि 'पिल्‍ला' कहा करते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि वे खुद को कुत्‍ता कह रहे हैं। लेकिन उनके द्वारा इस शब्‍द का प्रयोग किया जाना अन्‍य भाई बहनों को जरूर बुरा लगा , क्‍यूंकि अन्‍य भाई बहनों ने कभी इसका प्रयोग नहीं किया। सबसे छोटे भाई की जबान से यदा कदा कोई न कोई गाली निकल जाती है।

गालियों को लेकर एक रोचक कथा मेरे जीवन में भी आयी है। मैं झारखंड की हूं और मेरी शादी मिथिलांचल में हुई है। शादी के बाद मुझे मैथिली सीखने का बडा शौक हुआ , ध्‍यान देने पर कुछ ही दिनों में सुनकर और पढकर समझना भी सीख लिया , पर कभी भी परिवारवालों या अन्‍य लोगों से मैथिली बोलने की हिम्‍मत नहीं जुटा सकी , क्‍यूंकि बडों को जिस तरह से संबोधित किया जाना चाहिए , नहीं कर सकूं तो बाद में मैं हंसी की पात्र बनूंगी। गांव गयी तो वहां अपने आंगन में छोटे मोटे काम करने के लिए एक छोटा लडका था , जो मैथिली में ही बात करता था। वैसे तो उसे हिंदी समझ में आती थी  , पर मैने उससे तोड मोड कर उसकी भाषा मैथिली में ही बातें करनी शुरू की।

पिताजी की तबियत खराब होने से उस बार ससुराल में रहने का कार्यक्रम कुछ लंबा था , कुछ दिनों में तो मैं मैथिली बोलना सीख ही लेती , लेकिन एक दिन मेरी छोटी ननद , जो ससुराल में मेरी सबसे अच्‍छी दोस्‍त हैं , ने मुझे मैथिली बोलने को मना कर दिया।  जब मैने कारण पूछा तो उन्‍होने बताया कि मैने उस नौकर को गाली दी है । 'गाली' .. मै तो चौंक पडी , बचपन से आजतक मैने कभी गाली का प्रयोग नहीं किया था। तब उन्‍होने मेरे द्वारा प्रयोग किए जानेवाले शब्‍द के बारे में पूछा कि '*****' शब्‍द का अर्थ आप जानती हैं , मैने कहा 'नहीं' । तो ये शब्‍द आपने किससे सुना , मुझे याद आया गांव की एक महिला ने किसी बात पर थोडी नाराजगी के साथ उस लडके को जो कहा था ,मैने भी वैसी परिस्थिति आने पर उस लडके को वैसा कह दिया था। सारी बातें सुनकर घर की सारी औरतें मुझपर हंस रही थी , मैं बिना की गई अपनी गल्‍ती पर शर्मिंदा थी। तब से आजतक किसी नई भाषा का प्रयोग करने से डरती हूं।

इस तरह गाली देनेवालों को 'साला' जैसे छोटी गालियों से लेकर गंदी गंदी गालियों तक बकने में कोई अंतर नहीं पडता , पर ऐसी गालियों का प्रयोग न करनेवालों को अवश्‍य बुरा लगता है। अंतिम वाकये को प्रस्‍तुत करने का मेरा मतलब यह है कि हमारे लिए जो शब्‍द गाली थी , वह उस गांव की महिला के लिए बिल्‍कुल सामान्‍य शब्‍द । हमारे क्षेत्रीय भाषाओं में गाली रचे बसे हैं , उनका कोई बुरा नहीं मानता। हालांकि विकास के साथ साथ गालियों का प्रयोग कम हो रहा है और पारंपरिकता को बचाने के लिए गाली गलौज का प्रयोग किया जाना चाहिए , इसकी मैं पक्षधर नहीं। गाली की शुरूआत जिस भी कारण से हुई हो , पर इसका अंत इतनी जल्‍दी हो जाएगा , ऐसा भी नहीं दिखता। इसलिए 

7 comments:

किलर झपाटा said...

आदरणीय संगीता जी,
आपने बिल्कुल सही लेख लिखा है।
आपकी इस बात से भी मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि "हालांकि विकास के साथ साथ गालियों का प्रयोग कम हो रहा है और पारंपरिकता को बचाने के लिए गाली गलौज का प्रयोग किया जाना चाहिए , इसकी मैं पक्षधर नहीं। गाली की शुरूआत जिस भी कारण से हुई हो , पर इसका अंत इतनी जल्‍दी हो जाएगा , ऐसा भी नहीं दिखता।"

नीरज मुसाफ़िर said...

अपने यहां बहन की गाली सबकी जुबान पर होती है। ज्यादातर ब्यैणचो, बैणचो निकलता है मुंह से।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

हालांकि विकास के साथ साथ गालियों का प्रयोग कम हो रहा है और पारंपरिकता को बचाने के लिए गाली गलौज का प्रयोग किया जाना चाहिए , इसकी मैं पक्षधर नहीं।

विकास के साथ कहाँ कम हो रहा है गाली का प्रयोग ? आज तो संसद तक में जिसे पूरा विश्व देखता है गालियाँ दी जाती हैं .. ..ऐसी पिक्चर आ रही हैं जिनमें पुरुष ही नहीं महिलायें भी खूब गाली देती दिखाई जा रही हैं ....पढ़े लिखे लोग आज कल हिंदी में नहीं अंग्रेज़ी में गाली देते हैं ...अंग्रेज़ी में गालियाँ शायद कानों को इतनी बुरी नहीं लगतीं ..पर मतलब तो वही होता है ...

गालियों का अंत शायद कभी नहीं होगा

Vinashaay sharma said...

संगीता स्वरूप जी की बात से सहमत हूं,और आपने सच कहा,जिनके लिये गाली स्वभाविक है,उनको कोई फर्क नहीं पड़ता,प्रन्तु जिनको इस की आदत नहीं है,उनको बुरा लगता है।

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

गालियाँ मनुष्य के साथ परजीवी की तरह चिपकी हुई हैं कि अलग होना बहुत ही कठिन है। आपने एक पोस्ट का मसाला दे दिया है। आभार

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

हर चीज एक सीमा रेखा के भीतर ही सुहाती है।

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क्‍या आपको मालूम है कि हिन्‍दी के सर्वाधिक चर्चित ब्‍लॉग कौन से हैं?

naresh singh said...

गुजरातमे बच्चे माँ बाप के सामने ही माँ बहिन की गालिया निकालते है उनका कोइ भी बुरा नहीं मानता है | जब किसी को कहा जाता है तुम्हे उसने गाली दी है| तो आराम से जवाब आता है, कुछ दिया ही है ना,लिया तो नहीं है |