Friday 4 February 2011

मिथ्‍या भ्रम (कहानी) ... संगीता पुरी


‘क्‍या हुआ, ट्रेन क्‍यूं रूक गयी ?’ रानी ने उनींदी आंखों को खोलते हुए पूछा। ’अरे, तुम सो गयी क्‍या ? देखती नहीं , बोकारो आ गया।‘ बोकारो का नाम सुनते ही वह चौंककर उठी। तीन दिनों तक बैठे बैठे कमर में दर्द सा हो रहा था। कब से इंतजार कर रही थी वह , अपने गांव पहुंचने का , इंतजार करते करते तुरंत ही आंख लग गयी थी। अब मंजिल काफी नजदीक आ गयी थी। उसने अपने कपडे समेटे , मोनू को संभाला और सीट पर एक नजर डालती हुई ट्रेन से उतरने के लिए क्‍यू में खडी हो गयी।

दस वर्षों बाद वह मद्रास से वापस आ रही थी। गांव आने का कोई बहाना इतने दिनों तक नहीं मिल रहा था। गांव का मकान भी इतने दिनों से सूना पडा था। अपने अपने रोजगार के सिलसिले में सब बाहर ही जम गए थे। पर इस बार चाचाजी की जिद ने उन सबके लिए गांव का रास्‍ता खोल ही दिया था। वे अपने लडके की शादी गांव से ही करेंगे। सबके पीछे वह सामानों को लेकर ट्रेन से उतर पडी। एक टैक्‍सी ली और गांव के रास्‍ते पर बढ चली।

टैक्‍सी जितनी ही तेजी से अपने मंजिल की ओर जा रही थी , उतनी ही तेजी से वह अतीत की ओर। मद्रास के महानगरीय जीवन को जीती हुई वह अबतक जिस गांव को लगभग भूल ही चली थी , वह अचानक उसकी आंखों के सामने सजीव हो उठा था। घटनाएं चलचित्र के समान चलती जा रही थी। उछलते कूदते , उधम मचाते उनके कदम .. कभी बाग बगीचे में तो कभी खेल के मैदानों में। अपना लम्‍बा चौडा आंगन भी उन्‍हें धमाचौकडी में मदद ही कर देता था।

खेलने का कोई साधन नहीं , फिर भी खेल में इतनी विविधता। जो मन में आया, वही खेल लिया। खेल के लिए कार्यक्रम बनाने में उसकी बडी भूमिका रहती। वास्‍तविक जीवन में जो भी होते देखती , खेल के स्‍थान पर उतार लेती थी। घर के कुर्सी , बेंच , खाट और चौकी को गाडी बनाकर यात्रा का आनंद लेने का खेल बच्‍चों को खूब भाता था। कोई टिकट बेचता , कोई ड्राइवर बनता , तो कोई यात्री। रूट की तो कोई चिंता ही नहीं थी , उनकी मनमौजी गाडी कहीं से कहीं पहुंच सकती थी।

तब सरकार की ओर से परिवार नियोजन का कार्यक्रम जोरों पर था। भला उनके खेल में यह कैसे शामिल न होता। कुर्सी पर डाक्‍टर , बेंच पर उसके सहायक और खाट चौकी पर लेटे हुए मरीज । चाकू की जगह चम्‍मच , पेट काटा , आपरेशन किया , फटाफट घाव ठीक , एक के बाद एक मरीज का आपरेशन। भले ही अस्‍पताल के डाक्‍टर साहब का लक्ष्‍य पूरा न हुआ हो , पर उन्‍होने तो लक्ष्‍य से अधिक काम कर डाला था।

इसी तरह गांव में एक महायज्ञ का आयोजन हुआ। यज्ञ के कार्यक्रम को एक दिन ही देख लेना उनके लिए काफी था। अपने आंगन में यज्ञ का मंडप तैयार बीच में हवन कुंड और चारो ओर परिक्रमा के लिए जगह । मुहल्‍ले के सारे बच्‍चे हाथ जोडे हवनकुंड की परिक्रमा कर रहे थे और ‘श्रीराम , जयराम , जय जय राम, जय जय विघ्‍न हरण हनुमान’ के जयघोष से आंगन गूंज रहा था। कितना स्‍वस्‍थ माहौल था , बच्‍चे भी खुश रहते थे और अभिभावक भी।

लेकिन इसी क्रम में उसे एक बच्‍चे दीपू की याद अचानक आ गयी। जब सारे बच्‍चे खेल रहे होते , वह एक किनारे खडा उनका मुंह तक रहा होता। ‘दीपू , तुम भी आ जाओ’ उसे बुलाती , तो धीरे धीरे चलकर उनके खेल में शामिल होता। पर दीपू को शामिल करके खेलना शुरू करते ही तुरंत रानी को कुछ याद आ जाता और वह दौडकर घर के एक खास कमरे में जाती। उसका अनुमान बिल्‍कुल सही होता। दीपू की मम्‍मी उस कमरे में फरही बना रही होती। अपनी कला में पारंगत वह छोटे छोटे चावल को मिट्टी के बरतन में रखे गरम रेत में तल तलकर निकाल रही होती।

उसकी दिलचस्‍पी चावल के फरही में कम होती , इसलिए वह अंदर जाकर चने निकाल लाती। ’काकी, इन चनों को तल दो ना’ वह उनसे आग्रह करती। ’इतनी जल्‍दी तलने से ये कठोर हो जाएंगे और इन्‍हे खाने में तुम्‍हारे दांत टूट जाएंगे, थोडी देर सब्र करो।‘ वह चने में थोडे नमक , हल्‍दी और पानी डालकर उसे भीगने को रख देती। अब भला उसका खेल में मन लग सकता था। हर एक दो मिनट में अंदर आती और फिर निराश होकर बाहर आती , लेकिन कुछ ही देर में उसे सब्र का सोंधा नमकीन फल मिल जाता और चने के भुंजे को सारे बच्‍चे मिलकर खाते। इस तरह शायद ही कभी दीपू को उनके साथ खेलने का मौका मिल पाया हो।

टैक्‍सी अब उसके गांव के काफी करीब आ चुकी थी। रबी के फसल खेतों में लहलहा रहे थे। बहुत कुछ पहले जैसा ही दिखाई पड रहा था। शीघ्र ही गांव का ब्‍लाक , मिड्ल स्‍कूल , बस स्‍टैंड , गांव का बाजार , सब क्रम से आते और देखते ही देखते आंखो से ओझल भी होते जा रहे थे। थोडी ही देर में उसका मुहल्‍ला भी शुरू हो गया था। बडे पापा का मकान , रमेश की दुकान, हरिमंदिर , शिवमंदिर , सबको देखकर खुशी का ठिकाना न था।

पर एक स्‍थान पर अचानक तीनमंजिला इमारत को देखकर उसके तो होश उड गए। यह मकान पहले तो नहीं था। फिर उसे दीपू की याद आ गयी। इसी जगह तो दीपू का छोटा सा दो कमरों का खपरैल घर था , जिसके बाहरवाले छोटे से कमरे को ड्राइंग , डाइनिंग या किचन कुछ भी कहा जा सकता था तथा उसी प्रकार अंदरवाले को बेडरूम , ड्रेसिंग रूम या स्‍टोर। यहां पर इस मकान के बनने का अर्थ यही था कि दीपू के पापा ने अपनी जमीन किसी और को बेच दी, क्‍यूंकि वे लोग काफी गरीब थे और इतनी जल्‍दी उनकी सामर्थ्‍य तीनमंजिला मकान बनाने की नहीं हो सकती थी।

घर पहुंचने से ठीक पहले उसका मन बहुत चिंतित हो गया था। पता नहीं वे लोग अब किस हालत में होंगे । दीपू के पापा तो बेरोजगार थे , उसकी मम्‍मी ही दिनभर भूखी , प्‍यासी , अपने भूख को तीन चार कप चाय पीकर शांत करती हुई लोगों के घरों में फरही बनाती अपने परिवार की गाडी को खींच रही थी। बृहस्‍पतिवार को वे भी बैठ जाती थी , क्‍यूंकि गांव में इस दिन चूल्‍हे पर मिट्टी के बरतन चढाना अशुभ माना जाता है। कहते हैं , ऐसा करने से लक्ष्‍मी घर से दूर हो जाती है , धन संपत्ति की हानि होती है।

एक दिन बैठ जाना दीपू की मम्‍मी के लिए बडी हानि थी। कुछ दिनों तक उन्‍होने इसे झेला , पर बाद में एक रास्‍ता निकाल लिया। अब वे बृहस्‍पतिवार को अपने घर में फरही बनाती मिलती , जो उनके घर से सप्‍ताहभर की बिक्री के लिए काफी होता। ’काकी , तुम अपने घर में बृहस्‍पतिवार को मिट्टी के बर्तन क्‍यू चढाती हो ? ‘ वह अक्‍सर उनसे पूछती। उनके पास जबाब होता ‘ बेटे , मुझे घरवालों के पेट भरने की चिंता है , मेरे पास कौन सी धन संपत्ति है , जिसे बचाने के लिए मुझे नियम का पालन करना पडे’ तब उसका बाल मस्तिष्‍क उनकी इन बातों को समझने में असमर्थ था।

पर अभी उसका वयस्‍क वैज्ञानिक मस्तिष्‍क दुविधा में पड गया था। ’क्‍या जरूरत थी , दीपू के मम्‍मी को बृहस्‍पतिवार को अपने घर में फरही बनाने की , लक्ष्‍मी सदा के लिए रूठ गयी , जमीन भी बेचना पड गया , अपनी जमीन बेचने के बाद न जाने वे किस हाल में होंगी , दीपू भी न जाने कहां भटक रहा होगा’ सोंचसोंचकर उसका मन परेशान हो गया था। टैक्‍सी के रूकते ही वे लोग घर के अंदर गए , परसों ही शादी थी , लगभग सारे रिश्‍तेदार आ चुके थे , इसलिए काफी चहल पहल थी। मिलने जुलने और बातचीत के सिलसिले में तीन चार घंटे कैसे व्‍यतीत हो गए , पता भी न चला।

अब थोडी ही देर में रस्‍मों की शुरूआत होने वाली थी। चूंकि घर में रानी ही सबसे बडी लडकी थी , उसे ही गांव के सभी घरों में औरतों को रस्‍म में सम्मिलित होने के लिए न्‍योता दे आने की जबाबदेही मिली। वह दाई के साथ इस काम को करने के लिए निकली। सबों के घर तो जाने पहचाने थे , पर सारे लोगों में से कुछ आसानी से पहचान में आ रहे थे , तो कुछ को पहचानने के लिए उसके दिमाग को खासी मशक्‍कत करनी पड रही थी।

एक मकान से दूसरे मकान में घूमती हुई वह आखिर उस मकान में पहुच ही गयी, जिसने चार छह घंटे से उसे भ्रम में डाल रखा था। इस मकान के बारे में उसने दाई से पूछा तो वह भाव विभोर होकर कहने लगी ‘अरे , दीपू जैसा होनहार बेटा भगवान सबको दे। उसने व्‍यापार में काफी तरक्‍की की और शोहरत भी कमाया। उसने ही यह मकान बनवाया है। इस बीच पिताजी तो चल बसे , पर अपनी मां का यह काफी ख्‍याल रखता है। अभी तीन चार महीने पूर्व इसका ब्‍याह हुआ है।

पत्‍नी भी बहुत अच्‍छे घर से है‘ दाई उसकी प्रशंसा में अपनी धुन में कुछ कुछ बोले जा रही थी और वह आश्‍चर्यचकित उसकी बातों को सुन रही थी। हां, उसके वैज्ञानिक मस्तिष्‍क को चुनौती देनेवाला एक मिथ्‍याभ्रम टूटकर जरूर चकनाचूर हो चुका था।

Tuesday 1 February 2011

आदर्शवादी सास की बहू ...


आज प्रस्‍तुत है .. मेरी छोटी बहन श्रीमती शालिनी खन्‍ना की एक रचना 'आदर्शवादी सास की बहू'.. पहले यह नुक्‍कड पर भी पोस्‍ट हो चुकी है ..


टी वी, फ्रिज, वाशिंग मशीन, स्‍कूटर,
क्‍या करूंगी ये सब लेकर,
बस एक अच्‍छी सी बहू चाहिए
और भला मुझे क्‍या चाहिए। 
ऐसी बहू जो हर वक्‍त करे बडों की सेवा,
और न चाहत रखे मिले किसी से मेवा।‘
बोली मां संपन्‍न घराने में बेटे का विवाह तय कर,
और फिर चल दी,
मित्रमंडली में अपनी आदर्शवादिता की छाप छोडकर।

पर दिल में काफी इच्‍छाएं थी,
काफी अरमान थे, 
हर समय सपने में बहू के दहेज में मिले
ढेर सारे सामान थे।
और जब बहू घर आयी,
उनकी खुशी का ठिकाना न था,
हर चीज साथ लेकर आयी थी,
उसके पास कौन सा खजाना न था।
हर तरफ दहेज का सामान फैला पडा था, 
पर सास का ध्‍यान कहीं और अडा था।




बहू ने बगल में जो पोटली दबा रखी थी ,
इस कारण उनकी निगाह
इधर उधर नहीं हो पा रही थी।
न जाने क्‍या हो इसमें ,
सोंच सोंच कर परेशान थी,
बहू ने अब तक बताया नहीं ,
यह सोंचकर हैरान थी।
हो सकता है सुंदर चंद्रहार,
जो हो मां का विशेष उप‍हार,
या हो कोई पर्सनल चीज,
या फिर किसी महंगी कार के एडवांस पैसे ,
शायद मां ने दिए हो इसे।
पर खुद से अलग नहीं करती,
इसमें अंटके हो प्राण जैसे।

काफी देर तक सास अपना दिमाग दौडाती रही,
और मन ही मन बडबडाती रही।
कैसी बहू है ,
सास से भी घुल मिल नहीं पा रही,
अपनी पोटली थमाकर बाथरूम तक नहीं जा रही।
अब हो रही थी बर्दाश्‍त से बाहर,
जी चाहता हूं दे दूं इसे जहर
समझ में नहीं आता मैं क्‍या करूं ?
कैसे इस दुल्‍हन के अंदर अपना प्‍यार भरूं।
बहुत हिम्‍मत कर करीब जाकर प्‍यार से बोली,
बहू से बहुत मीठे स्‍वर में अपनी बात खोली।
'इसमें क्‍या है' , मेरी राजदुलारी,
इसे दबाए दबाए तो थक जाओगी प्‍यारी।

बहू भी काफी शांत एवं गंभीर स्‍वर में बोली,
आदर्शवादी सास के समक्ष पहली बार अपना मुंह खोली।
’सुना है ससुरालवाले दहेज के लिए सताते हैं,
ये लाओ, वो लाओ मायके से ये हमेशा बताते हैं।
जो मेरे साथ ऐसा बर्ताव करने की कोशिश करेगा,
वही मुझसे यह खास सबक लेगा।
उसके सामने मैं अपनी यह पोटली खोलूंगी,
इसमें रखे मूंग को उसकी छाती पर दलूंगी।‘