Wednesday 26 October 2011

भला बिना बच्‍चों के कैसी दीपावली ??

वैसे तो पूरी दुनिया में हर देश और समाज में कोई न कोई त्‍यौहार मनाए जाते हैं , पर भारतीय संस्‍कृति की बात ही अलग है। हर महीने एक दो पर्व मनते ही रहते हैं , कुछ आंचलिक होते हैं तो कुछ पूरे देश में मनाए जानेवाले। दीपावली , ईद और क्रिसमस पूरे विश्‍व में मनाए जाने वाले तीन महत्‍वपूर्ण त्‍यौहार हैं , जो अलग अलग धर्मों के लोग मनाते हैं। भारतवर्ष में पूरे देश में मनाए जानेवाले त्‍यौहारों में होली , दशहरा , दीपावली जैसे कई त्‍यौहार हैं। त्‍यौहार मनाने के क्रम में लगभग सभी परिवारों में पति खर्च से परेशान होता है , पत्‍नी व्रत पूजन , साफ सफाई और पकवान बनाने के अपने बढे हुए काम से , पर बच्‍चों के लिए तो त्‍यौहार मनोरंजन का एक बडा साधन होता है। स्‍कूलों में छुट्टियां है , पापा के साथ घूमघूमकर खरीदारी करने का और मम्‍मी से मनपसंद पकवान बनवाकर खाने की छूट है , तो मस्‍ती ही मस्‍ती है। मम्‍मी और पापा की तो बच्‍चों की खुशी में ही खुशी है। सच कहं , तो बच्‍चों के बिना कैसा त्‍यौहार ??

पर आज सभी छोटे छोटे शहरों के मां पापा बिना बच्‍चों के त्‍यौहार मनाने को मजबूर हैं। चाहे होली हो , दशहरा हो या दीपावली , किसी के बच्‍चे उनके साथ नहीं। इस प्रतियोगिता वाले दौर में न तो पढाई छोटे शहरों में हो सकती है और न ही नौकरी। दसवीं पास करते ही अनुभवहीन बच्‍चों को दूर शहरों में भेजना अभिभावकों की मजबूरी होती है , वहीं से पढाई लिखाई कर आगे बढते हुए कैरियर के चक्‍कर में वो ऐसे फंसते हैं कि पर्व त्‍यौहारों में दो चार दिन की छुट्टियों की व्‍यवस्‍था भी नहीं कर पाते। मैं भी पिछले वर्ष से हर त्‍यौहार बच्‍चों के बिना ही मनाती आ रही हूं। दशहरे में गांव चली गयी , भांजे भांजियों को बुलवा लिया , नई जगह मन कुछ बहला। पर दीपावली में अपने घर में रहने की मजबूरी थी , लक्ष्‍मी जी का स्‍वागत तो करना ही पडेगा। पर बच्‍चों के न रहने से भला कोई त्‍यौहार त्‍यौहार जैसा लग सकता है ??

पहले संयुक्‍त परिवार हुआ करते थे , तीन तीन पीढियों के पच्‍चीस पचास लोगों का परिवार , असली त्‍यौहार मनाए जाते थे। कई पीढियों की बातें तो छोड ही दी जाए , अब तो त्‍यौहारों में पति पत्‍नी और बच्‍चों तक का साथ रह पाना दूभर होता है। जबतक बच्‍चों की स्‍कूली पढाई चलती है , त्‍यौहारों में पति की अनुपस्थिति बनी रहती है , क्‍यूंकि बच्‍चों की पढाई में कोई बाधा न डालने के चक्‍कर में वे परिवार को एक स्‍थान पर शिफ्ट कर देते हैं और खुद तबादले की मार खाते हुए इधर उधर चक्‍कर लगाते रहते हैं। हमारे मुहल्‍ले के अधिकांश परिवारों में किराए में रहनेवाली सभी महिलाएं बच्‍चों की पढाई के कारण अपने अपने पतियों से अलग थी। पर्व त्‍यौहारों में भी उनका सम्मिलित होना कठिन होता था , किसी के पति कुछ घंटों के लिए , तो किसी के दिनभर के लिए समय निकालकर आ जाते। मैने खुद ये सब झेला है , भला त्‍यौहार अकेले मनाया जाता है ??

बच्‍चों की शिक्षा जैसी मौलिक आवश्‍यकता के लिए भी सरकार के पास कोई व्‍यवस्‍था नहीं है। पहले समाज के सबसे विद्वान लोग शिंक्षक हुआ करते थे , सरकारी स्‍कूलों की मजबूत स्थिति ने कितने छात्रों को डॉक्‍टर और इंजीनियर बना दिया था। पर समय के साथ विद्वान दूसरे क्षेत्रों में जाते रहें और शिक्षकों का स्‍तर गिरता चला गया। शिक्षकों के हिस्‍से इतने सरकारी काम भी आ गए कि सरकारी स्‍कूलों में बच्‍चों की पढाई पीछे होती गयी।सरकार ने कर्मचारियों के बच्‍चों के पढने के लिए केन्‍द्रीय स्‍कूल भी खोलें , उनमें शिक्षकों का मानसिक स्‍तर का भी ध्‍यान रखा , पर अधिकांश क्षेत्रों में खासकर छोटी छोटी जगहों के स्‍कूल पढाई की कम राजनीति की जगह अधिक बनें।  इसका फायदा उठाते हुए प्राइवेट स्‍कूल खुलने लगे और मजबूरी में अभिभावकों ने बच्‍चों को इसमें पढाना उचित समझा। आज अच्‍छे स्‍कूल और अच्‍छे कॉलेजों की लालच में बच्‍चों को अपनी उम्र से अधिक जबाबदेही देते हुए हम दूर भेज देते हैं। अब नौकरी या व्‍यवसाय के कारण कहीं और जाने की जरूरत हुई तो पूरे परिवार को ले जाना मुनासिब नहीं था। इस कारण परिवार में सबके अलग अलग रहने की मजबूरी बनी रहती है।

वास्‍तव में अध्‍ययन के लिए कम उम्र के बच्‍चों का माता पिता से इतनी दूर रहना उनके सर्वांगीन विकास में बाधक है , क्‍यूंकि आज के गुरू भी व्‍यावसायिक गुरू हैं , जिनका छात्रों के भविष्‍य या चरित्र निर्माण से कोई लेना देना नहीं। इसलिए उन्‍हें अपने घर के आसपास ही अध्‍ययन मनन की सुविधा मिलनी चाहिए।  यह सब इतना आसान तो नहीं , बहुत समय लग सकता है , पर पारिवारिक सुद्ढ माहौल के लिए यह सब बहुत आवश्‍यक है। इसलिए आनेवाले दिनों में सरकार को इस विषय पर सोंचना चाहिए।  मैं उस दिन का इंतजार कर रही हूं , जब सरकार ऐसी व्‍यवस्‍था करे , जब प्राइमरी विद्यालय में पढने के लिए बच्‍चे को अपने मुहल्‍ले से अधिक दूर , उच्‍च विद्यालय में पढने के लिए अपने गांव से अधिक दूर , कॉलेज में पढने या कैरियर बनाने के लिए अपने जिले से अधिक दूर जाने की जरूरत नहीं पडेगी। तभी पूरा परिवार साथ साथ रह पाएगा और आनेवाले दिनों में पर्व त्‍यौहारों पर हम मांओं के चेहरे पर खुशी आ सकती है , भला बिना बच्‍चों के कैसी दीपावली ??

Monday 24 October 2011

आपको जन्‍मदिन की बहुत बहुत बधाई मम्‍मी !!

meri adarsh mahila


ज्योतिष से जुड़े होने के कारण पापाजी की चर्चा अक्सर कर लेती हूँ , पर मम्मी को आज पहली बार याद कर रही हूँ . बिहार के नवादा जिले के एक गांव खत्रिया माधोपुर के एक समृद्ध परिवार में सत्‍तर वर्ष पूर्व कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी यानि धनतेरस की संध्या  स्व करतार नारायण कपूर की पुत्री के रुप में साक्षात लक्ष्मी का जन्‍म हुआ। बचपन से विवाह होने तक पांच भाइयों और पांच भतीजों के मध्य अकेली होने के कारण काफी लाड प्यार से पालन पोषण होता रहा . किन्तु जैसा कि हर बेटियों का प्रारब्ध है, उन्‍होने जन्म वहां लिया , परंतु रोशनी फैलाने वह हमारे घर पहुच गयी।


शायद ही किसी दार्शनिक या विचारक का दाम्पत्य जीवन इतना सफल रहता है , जितना कि मेरे पापाजी का रहा । इसका सारा श्रेय मेरी मम्मी की कर्तब्यपरायणता , सहनशीलता , उदारता और त्याग को ही जाता है। पापाजी चालीस वर्षों तक अपनी ज्योतिष की साधना में लीन रहें , उनको कोई व्यवधान न देकर उन्होनें घर-गृहस्थी की सारी जवाबदेही अपने कंधों पर उठायी। सारे जीवन में अधिकारों की कोई चिंता नहीं , केवल कर्तब्य निभाती रही , चाहे सास-ससुर हों या देवर-ननद या देवरानिया-जिठानिया । भतीजे-भतीजीयों और बेटे-बेटियों की जिम्‍मेदारी तो थी ही उनकी। 




सभी बच्चों के उचित लालन-पालन करने , शिक्षा-दीक्षा देने में वे सफल हुईं। मैं जैसा समझती हॅ , इसका सबसे बड़ा कारण माना जा सकता है , उनके गजब के दृष्टिकोण को । सकारात्मक दृष्टिकोण के बारे में लोग कहते हैं - ‘गिलास में आधा पानी हो तो उसे आधा गिलास खाली न कहकर आधा गिलास भरा कहो।’ पर मेरी मम्मी तो दस प्रतिशत भरे गिलास को भी गिलास में पानी है , कहना पसंद करेगी। फूल की प्रशंसा तो हर कोई करता है , काटों की भी प्रशंसा करना कोई मेरी मम्मी से सीखे। किसी के हजारो खामियों को छोड़कर उसके गिने-चुने गुणों की प्रशंसा करते ही मैंने उन्हें देखा और सुना है। 

गाँव में न जाने कितने सास-ससुर इनकी जैसी बहू पाने , कितने ही नौजवान इनकी जैसी पत्नी या भाभी पाने , कितने बच्चे इनकी जैसी माँ और चाची , मामी पाने के लिए आहें भरते रह गए , पर जिन्हें आसानी से सुख मिल जाता है , वो कहाँ कभी उसकी कद्र कर पाता है। आज जब उम्र के उस मोड़ पर मैं खड़ी हूँ , जहाँ वे बीस वर्ष पूर्व वे खड़ी थीं , मैं उनकी महानता को नजरअंदाज नहीं कर पा रही । मेरा आदर्श मेरी माँ है और कोई नहीं , मैं उनके जैसी मेहनती, सहनशील और कर्तब्यपरायण बनना चाहती हूँ । मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि मुझे उतनी शक्ति प्रदान करे। ईश्‍वर आपको लंबी आयु और हर सुख दे मम्‍मी , आपको जन्‍म दिन की बहुत बहुत बधाई !!

(अब मेरी मम्मी इस दुनिया में नहीं रही, २३ दिसंबर 2018 को हमसे सारा मोह माया समाप्त कर ईश्वर में समाहित हो गयीं)

माँ पर मेरे अन्य लेख :-----


माँ के लिए दो शब्द
माँ के लिए सुविचार




Tuesday 18 October 2011

मात्र 20 वर्ष व्‍यतीत हुए ... और इनका जमाना आ गया !!

अभी कुछ दिन पूर्व ही एलबम देखते हुए 20 वर्ष पुराने इस चित्र पर नजर पडी , इसमें रोता हुआ बच्‍चा मेरा बडा सुपुत्र है , जो अभी इंजीनियरिंग के तृतीय वर्ष का छात्र है ,  साथ में  हमारे दो घनिष्‍टतम मित्र की दोनो बच्चियां हैं , जिसमें से एक डीवीसी में ही इंजीनियर है , इसी वर्ष फरवरी माह में उसका विवाह हुआ है और पति के साथ बंगलौर में निवास कर रही है। दूसरी का विवाह बी कॉम करने के बाद हुआ , एक बेटे की मां है और अपने पति के साथ दिल्‍ली में है ।

इस चित्र में जो दो लडके सबसे बडे दिखाई दे रहे हैं , वो जेठ जी के बच्‍चे हैं , बडा अभी दुबई के किसी कंपनी में कार्यरत है ,  जबकि दूसरा बंगलौर में ही है। चित्र में मौजूद अन्‍य दोनो लडके उस समय हमारे पडोस में रह रहे एक पडोसी के बच्‍चे हैं , जिनमें से एक बंगाल सरकार के किसी विभाग में कार्यरत है और दूसरा इंजीनियरिंग करने के बाद ऑस्‍ट्रेलिया में किसी फर्म में काम कर रहा है। समय कितनी तेज गति से आगे बढता है , मात्र 20 वर्ष व्‍यतीत हुए और इन बच्‍चों का जमाना आ गया .............