Thursday 23 June 2011

अपने हिस्‍से का सुख (कहानी) .... संगीता पुरी

मात्र एक खबर से पूरे घर में सन्‍नाटा पसर गया था। सुबह एक्‍सीडेंट के बाद से ही सबके कान समय समय पर फोन पर होनेवाले बातचीत में ही लगे थे , इसलिए फोन रखते हुए 'मामाजी नहीं रहें' कहनेवाले पुलकित के धीमे से स्‍वर को सुनने में मां को तनिक भी देर न लगी और वह तुरंत बेहोश होकर गिर पडी। हमारे बहुत कोशिश करने पर ही वह होश में आ सकी , अपने इकलौते भाई की मौत का सदमा झेल पाना आसान तो न था। अभी उम्र ही क्‍या हुई थी , अभी नौकरी के भी दस साल बचे ही थे यानि मात्र 50 के ही थे वे। मेरे हाथ भले ही मम्‍मी को पंखा झल रहें हो , पर मन में विचारों का द्वन्‍द्व चल ही रहा था।

चार वर्ष पूर्व बोर्ड की परीक्षा पास करने के बाद मेरे समक्ष आगे की पढाई जारी रखने का कोई उपाय न था। ऐसे में मामाजी ने मुझे अपने पास शहर में बुलवाकर एक कॉलेज में मेरा नामांकन करवा दिया था। इस तरह अपनी पढाई के सिलसिले में मामाजी के परिवार से पिछले चार वर्षों से जुडी हुई थी मैं। उस घर की एक एक परेशानी से वाकिफ। वे शहर में रहते थे , बस इस बात को लेकर गांव वालों को भले ही उनसे प्रतिस्‍पर्धा रहती हो , पर वास्‍तव में उनकी स्थिति उतनी मजबूत भी नहीं थी। सरकारी नौकरी करने वाले सामान्‍य कर्मचारियों को तनख्‍वाह ही कितनी मिलती है ??

उतने में ही मामाजी तीन बच्‍चों के अपने पांच सदस्‍यीय परिवार को ही नहीं , साथ साथ नाना जी और नानी जी की जबाबदेही हमेशा संभालते आए थे। मेरे सामने ही चार वर्ष पहले नाना जी और दो वर्ष पहले नानी जी गुजर चुके थे , परिवार कुछ छोटा तो हो गया था , पर मामाजी के स्‍वास्‍थ्‍य की गडबडी तथा बच्‍चों की पढाई लिखाई के बढते भार से जीवन की गाडी खींचने में खासी परेशानी हो रही थी। महीने के अंत तक इतनी देनदारी हो जाती कि महीने का तनख्‍वाह शुरूआत के चार दिन में ही समाप्‍त हो जाता। अन्‍य आवश्‍यकताओं के लिए पूरे महीने खिचखिच होती रहती। अभी एक महीने पहले ही तो परीक्षा देकर मैं उनके यहां से वापस आयी थी।

ग्रेज्‍युएशन करने के बाद दो तीन वर्षों से बडे भैया नौकरी के लिए दिए जानेवाली परीक्षाओं में जुटे हुए थे। छह महीने के कोचिंग के फी के लिए घर में कितने दिनों तक हंगामा मचा रहा । भैया हर महीने कितने फार्म भरते और परीक्षा देने के लिए हमेशा शहर शहर भटकते ,  फिर अखबार में परीक्षाफल देखते और निराश सर झुका लेते। मामाजी इतने खर्च के व्‍यर्थ होने पर झुंझलाते। कर्मचारियों की छंटनी और रिक्तियों की कमी के इस दौर में सामान्‍य विद्यार्थियों को भला नौकरी मिल सकती है ?? व्‍यवसाय में रूचि रखनेवाले भैया को नौकरी करने की इच्‍छा भी न थी , पर व्‍यवसाय के लिए पूंजी कहां से लाते ?? मामाजी की मजबूरी वे समझते थे ,  दीदी की शादी भी तो करनी थी । दिन ब दिन तिलक दहेज की बढती मांग के कारण कहीं बात बढ भी नहीं पाती थी।

दो वर्षों से ग्रेज्‍युएशन करके बैठी दीदी अपने खाली दिमाग का शैतानी उपयोग ही कर रही थी। बात बात में भाइयों से झगड पडती।  छोटा भाई इंटर करने के बाद इंजीनियरिंग में एडमिशन लेना चाहता था , ताकि उसे भविष्‍य में कैरियर को लेकर इतना चिंतित न रहना पडे। पर आर्थिक समस्‍या यहां भी आडे आ रही थी। मामाजी की पहली प्राथमिकता दीदी की शादी थी , इस कारण इससे पहले वे कहीं भी बडा खर्च करने को तैयार न थे। छोटे भाई का भी एक वर्ष बर्वाद हो गया था , ऐसे दबाबपूर्ण वातावरण में मामाजी और बीमार रहने लगे थे , जिससे हर महीने दवाई का बोझ और बढता जा रहा था।

बढती महंगाई , मामाजी की बीमारी , दोनो भाइयों की महत्‍वाकांक्षा और दीदी की चिडचिडाहट ... ये सब घर के माहौल को बिगाडने के लिए काफी थे। अब तो किसी प्रकार घर को संभालनेवाले परिवार के एकमात्र कमानेवाले मामाजी ही नहीं रहें , तो अब घर का क्‍या हाल होगा ?? सोंचकर ही मैं परेशान थी। ऊपर नजर उठाया तो पापा खडे थे , उन्‍हें भी यह दुखद सूचना मिल चुकी थी। हमने तुरंत मामाजी के यहां निकलने का कार्यक्रम बनाया , उसके लिए पूरी तैयारी शुरू की। मां के बाद इस दुर्घटना का सर्वाधिक बुरा प्रभाव मुझपर ही पडा था , पर मां को लाचार देखते हुए मैने हिम्‍मत बनाए रखा। तीन चार घंटे का ही तो सफर था , हमें देखते ही मामीजी दहाड मारकर रो पडी। हमलोगों के पहुचने के बाद ही उनका दाह संस्‍कार हुआ। सारे क्रिया कर्म समाप्‍त होने तक लगभग सभी नजदीकी मेहमानों की मौजूदगी बनी रही , फिर धीरे धीरे सारे लोग चले गए। वहां की स्थिति को संभाले रहने की जिम्‍मेदारी मुझपर छोडकर मां भी चली गयी।

वहां रहने पर बातचीत से मालूम हुआ कि प्‍लांट में डृयूटी के दौरान ही एक एक्‍सीडेंट में मामाजी की मौत हुई थी , इसलिए कंपनी की ओर से उन्‍हें कुछ सुविधाएं मिलने की संभावना थी। कंपनी की ओर से एक बेटे को नौकरी देने के लिए ट्रेनिंग की वयवस्‍था की जानी थी , कंपनी की लापरवाही से हुए मौत के कारण परिवार को क्षतिपूर्ति के चेक भी मिलने थे। बीमा कंपनियों द्वारा भी एकमुश्‍त राशि मिलनेवाली थी और साथ में मामी जी को कुछ पेंशन भी। इसके लिए महीने दो महीने सबकी दौडधूप चलती रही , फिर धीरे धीरे सारा काम हो गया , छोटे भैया ने दो महीने की ट्रेनिंग के बाद आकर नौकरी ज्‍वाइन भी कर ली। दीदी के दहेज के लिए रूपए रख मामीजी ने बाकी रूपए बडे भैया को दे दिए। वे तो व्‍यवसाय करना ही चाहते थे , उनके मन की मुराद पूरी हो गयी। घर का माहौल सामान्‍य तौर पर ठीक ठाक देखकर मैं वापस लौट गयी।

समय समय पर मामा जी के यहां की खबर मिलती रहती थी , एक भाई व्‍यवसाय और एक नौकरी में सेट हो ही चुके थे , दहेज की वयवस्‍था हो जाने से दीदी के विवाह तय होने में देर नहीं लगी थी। हालांकि विवाह होने में अभी देर थी , पर विवाह का नाम सुनते ही मैं खुद को एक बार फिर से वहां जाने से नहीं रोक पायी। भैया का व्‍यवसाय चल पडा था , भैया की कमाई और दीदी की कुशलता से पूरे घर ही बदला बदला नजर आ रहा था। पूरे घर में हंसीखुशी का माहौल था , मामाजी सबके हिस्‍से का कष्‍ट लेकर इस दुनिया से चले गए थे। परिवार के एक एक सदस्‍य के पास पैसे थे , अभी से विवाह की तैयारी जोर शोर से हो रही थी। सबके चेहरे पर रौनक थी , सब अपने अपने हिस्‍से का सुख प्राप्‍त कर रहे थे।