अभी तक आपने पढा ... इस तरह घर गृहस्थी में उलझने के बाद अपने कैरियर की ओर मेरा ध्यान नहीं रह गया था। भले ही स्वयं की संतुष्टि के लिए मै कुछ रचनाएं लिख लिया करती थी , पर मुझे अपनी इस योग्यता पर इतना विश्वास नहीं था कि इसकी बदौलत मैं अपनी पहचान बना सकती हूं। जबकि ज्योतिष में पापाजी के पूरे जीवन का रिसर्च आमजन के लिए बिल्कुल नया और बहुत उपयोगी था , जिसपर लिखने के ज्योतिष के क्षेत्र में इतनी जल्द मैने पहचान बना ली थी। इधर पापाजी की उम्र भी बढती जा रही थी और उनके वृद्धावस्था में प्रवेश करते देख उनके मित्र , चेले , जो कि उनसे धार्मिक , ज्योतिषीय और अन्य प्रकार के वैचारिक सहयोग लिया करते थे , अक्सर उनसे पूछा करते कि वे अपने जीवनभर के अनुभवों से जुटाए गए ज्ञान को किसके पास छोडकर जाएंगे ??
आरंभ में तो मुझे ज्योतिष सिखलाने की पापाजी की बिल्कुल भी इच्छा नहीं थी , पर मनुष्य के सोंचने से होता ही क्या है ?? पढाई के बाद के कुछ दिन और विवाह के बाद के कुछ दिनों में ही मैने ज्योतिष का सामान्य ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इसके बाद हर वक्त पापाजी से कुछ न कुछ प्रश्न करती , जबाब देने के बाद पापाजी चौंकते कि अनजाने ही एक और रहस्य मैने जान लिया है। 1980 के बाद पापाजी ने पत्र पत्रिकाओं में लिखना बंद कर दिया था , इसलिए ज्योतिष के क्षेत्र में आ रही नई पीढी पापाजी से परिचित नहीं थी , इसलिए 1992 से मैने उनके खोज को 'गत्यात्मक ज्योतिष' के नाम से पत्र पत्रिकाओं में भेजना शुरू किया। 1996 में मेरी पुस्तक भी छपकर आ गयी थी।
पर उस समय तक पापाजी को इतना विश्वास नहीं था कि अपने उत्तराधिकारी के तौर पर वे उनलोगों से मेरा परिचय करवाते। पर मेरे तर्क वितर्क को देखकर तथा कुछ रचनाओं को खासकर ज्योतिष का समयानुसार बदलाव पढने के बाद उन्हें मुझपर भरोसा हो गया था । फिर तो वे धीरे धीरे मुझे सबसे मिलवाना शुरू किया। लोगों से मिलने के बाद , उनके प्रश्नों को सुनने के बाद मुझे महसूस होने लगा कि ज्योतिष की मात्र सैद्धांतिक जानकारी से लोगों का कल्याण नहीं किया जा सकता है। इसके लिए ज्योतिष के व्यावहारिक पक्ष को मजबूत बनाए जाने की आवश्यकता है। महीने में एक दो व्यक्ति या परिवार की समस्या को सुनकर ज्योतिष को पूरा गत्यात्मक नहीं बनाया जा सकता , जैसा कि पापाजी का लक्ष्य है। मुझे महीने भर लोगों से मिलते जुलते रहना चाहिए। पर नए जगह में , जहां एक ज्योतिषी के तौर पर मुझे कोई नहीं जानता , लोगों से मिलना जुलना संभव नहीं था।
10 बजे से 1 बजे तक खाली समय में एक दिन टी वी खोलने पर मैने उसमें एक नई फिल्म को चलता पाया । बोकारो में उस समय कोई स्थानीय चैनल तो था नहीं , केबल वाले तीन घंटे किसी खास चैनल का प्रसारण रोककर उसमें नई पिक्चर दिखलाया करते थे , चूंकि उस वक्त आज की तरह घर घर सीडी या डीवीडी प्लेयर नहीं होते थे , इसलिए पूरी कॉलोनी के दर्शकों का इसपर ध्यान बना होता था। दर्शकों की भीड को देखते हुए उन्हें स्थानीय विज्ञापन मिलते , जिसकी उन तीन घंटे में स्क्रालिंग की जाती थी , महीनेभर पिक्चर के नीचे चलनेवाली स्क्रालिंग के लिए केबलवाले 800 रूपए चार्ज करते थे। मैने उनको फोन लगाया और अपना पहला विज्ञापन स्क्रॉलिंग में चलवाया , जो निम्न था .....
FOR ACCURATE TIME BOUND PREDICTION AND PROPER COUNSELLING BASED ON NEW GRAPHICAL TECHNIQUE CONTACT SANGITA PURI , PH No ******** , TIME .. 10AM to 2 PM , FEE .. 100 RS , NO SATISFACTION: NO FEE
दूसरे दिन से ही टी वी पर स्क्रालिंग शुरू हो गयी थी , पर आलेख लंबा होता जा रहा है , इसलिए इसके परिणाम की बातें अगले पोस्ट में ........
सकारात्मक का मतलब क्या होता है, सकारात्मक और नकारात्मक सोच क्या है, सकारात्मक सोच कैसे बनाये, सकारात्मक सोच के फायदे क्या हैं, सकारात्मक सोच के उपाय क्या कर सकते हैं, खुद को, दिमाग को पॉजिटिव कैसे रखें - कुल मिलाकर इस ब्लॉग में पॉजिटिव थिंकिंग टिप्स यानि सकारात्मक सोच पर निबंध और सकारात्मक दृष्टिकोण मिलेगा आपको !
Monday 30 August 2010
Saturday 28 August 2010
आज जनकपुर में डंका बजाया जाएगा ........!!
अभी तक आपने पढा .... बच्चे अपनी पढाई में व्यस्त हो गए थे और धीरे धीरे बोकारो में हमारा मन लगता जा रहा था , पर स्कूल के कारण सुबह जल्दी उठना पडता , इसलिए दस बजे तक प्रतिदिन के सारे कामों से निवृत्त हो जाती तथा उसके बाद दो बजे बच्चों के आने तक यूं ही अकेले बैठी रहती। आरंभ से ही टी वी देखने की मेरी आदत नहीं , इसलिए मेरे सामने एक बडी समस्या उपस्थित हो गयी थी , प्रतिदिन दिन के दस बजे से लेकर दो बजे तक का समय काटने को दौडता। ये तो सप्ताहांत में एक दो दिन ही यहां आ पाते , और यहां हमारे परिचित अधिक नहीं। जिस मुहल्ले में मैं रह रही थी , वहां की महिलाओं की बातचीत भी टेलीवीजन के सीरियलों या दूसरों के घरों की झांक ताक तक ही सीमित थी , जिसमें बचपन से आज तक मेरा मन बिल्कुल ही नहीं लगा।
वैसे तो ज्योतिषीय पत्र पत्रिकाओं में मेरे लेख काफी दिनों से प्रकाशित हो रहे थे और 1996 के अंत में मेरी पुस्तक भी प्रकाशित होकर बाजार में आ गयी थी। पर मुझे यही महसूस होता रहा कि ज्योतिष में विषय वस्तु की अधिकता के कारण ही मैं भले ही लिख लेती हूं , पर बाकी मामलों में मुझमें लेखन क्षमता नहीं है। कुछ पत्र पत्रिकाएं मंगवाया करती थी मैं , उन्हें पढने के बाद प्रतिक्रियास्वरूप कुछ न कुछ मन में आता , जिसे पन्नों पर उतारने की कोशिश करती। कभी कादंबिनी की किसी समस्या को हल करते हुए कुछ पंक्तियां लिख लेती .....
सख्ती कठोरता , वरदान प्रकृति का ,
हर्षित हो अंगीकार कर।
दृढ अचल चरित्र देगी तुम्हें,
क्रमबद्ध ढंग से वो सजकर।।
जैसे बनती है भव्य अट्टालिकाएं,
जुडकर पत्थरों में पत्थर ।।
तो कभी किसी बहस में भी भाग लेते हुए क्या भारतीय नेता अंधविश्वासी हैं ?? जैसे एक आलेख तैयार कर लेती। कभी कभी जीवन के कुछ अनुभवों को चंद पंक्तियों में सहेजने की कोशिश भी करती । बच्चों के स्कूल के कार्यक्रम के लिए लिखने के क्रम मे उत्पादकता से प्रकृति महत्वपूर्ण जैसी कविताएं लिखती तो कभी चिंतन में आकर कैसा हो कलियुग का धर्म ?? पर भी दो चार पंक्तियां लिख लेती। इसके अतिरिक्त न चाहते हुए भी स्वयमेव कुछ गीत कुछ भजन , अक्सर मेरे द्वारा लिखे जाते। यहां तक कि इसी दौरान मैने कई कहानियां भी लिख ली थी , जो साहित्य शिल्पी में प्रकाशित हो चुकी हैं। एक दिन यूं ही बैठे बिठाए सीता जी के स्वयंवर की घोषणा के बाद राजा जनक , रानी और सीताजी के शंकाग्रस्त मनस्थिति का चित्रण करने बैठी तो एक कविता बन पडी थी , कल डायरी में मिली , आज प्रस्तुत है ......
आज जनकपुर में डंका बजाया जाएगा।
जनकजी के वचन को दुहराया जाएगा।।
राजा , राजकुमार या हो प्रधान।
बूढा , बुजुर्ग या हो जवान।।
देशी , परदेशी या हो भगवान।
दैत्य , दानव या हो शैतान।
शिव के धनुष को जो तोडेगा उसी से ,
सीता का ब्याह रचाया जाएगा।।
आज जनकपुर में डंका बजाया जाएगा ........
आज राजा का मन बडा घबडाएगा।
अपने वचन पे पछतावा आएगा।।
राजा , राजुकमार या होगा प्रधान ?
बूढा बुजुर्ग या होगा जवान ??
देशी , परदेशी या भगवान ?
दैत्य , दानव या फिर शैतान ??
शिव के धनुष को कौन तोडेगा किससे ,
सीता का ब्याह रचाया जाएगा ??
आज जनकपुर में डंका बजाया जाएगा ......
आज रानी का मन बडा घबडाएगा।
आज देवता पितृ मनाया जाएगा।।
चाहे हों राजा, राजकुमार या प्रधान।
ना हो वो बूढा, बुजुर्ग , हो जवान।।
चाहे हो देशी , परदेशी या भगवान।
ना हो वो दैत्य , दानव ना शैतान !!
शिव के धनुष को जो तोडे , जिससे,
सीता का ब्याह रचाया जाएगा।।
आज जनकपुर में डंका बजाया जाएगा ........
आज सीता को मंदिर ले जाया जाएगा।
वहां राम जी के दर्शन पाया जाएगा।।
ना होंगे राजा , राजकुमार ना प्रधान।
ना होंगे बूढे , बुजुर्ग ना जवान।।
ना होंगे दैत्य , दानव ना शैतान।
ना देशी , परदेशी , होंगे भगवान।।
शिव के धनुष को वही तोडेंगे उन्हीं से ,
मेरा ब्याह रचाया जाएगा।।
फिर तो राम जी को वरमाला पहनाया जाएगा।
फिर तो सखियों द्वारा मंगलगान गाया जाएगा।।
फिर तो जनकपुर में उत्सव मनाया जाएगा।
फिर तो 'राम संग सीता ब्याह' रचाया जाएगा।।
वैसे तो ज्योतिषीय पत्र पत्रिकाओं में मेरे लेख काफी दिनों से प्रकाशित हो रहे थे और 1996 के अंत में मेरी पुस्तक भी प्रकाशित होकर बाजार में आ गयी थी। पर मुझे यही महसूस होता रहा कि ज्योतिष में विषय वस्तु की अधिकता के कारण ही मैं भले ही लिख लेती हूं , पर बाकी मामलों में मुझमें लेखन क्षमता नहीं है। कुछ पत्र पत्रिकाएं मंगवाया करती थी मैं , उन्हें पढने के बाद प्रतिक्रियास्वरूप कुछ न कुछ मन में आता , जिसे पन्नों पर उतारने की कोशिश करती। कभी कादंबिनी की किसी समस्या को हल करते हुए कुछ पंक्तियां लिख लेती .....
सख्ती कठोरता , वरदान प्रकृति का ,
हर्षित हो अंगीकार कर।
दृढ अचल चरित्र देगी तुम्हें,
क्रमबद्ध ढंग से वो सजकर।।
जैसे बनती है भव्य अट्टालिकाएं,
जुडकर पत्थरों में पत्थर ।।
तो कभी किसी बहस में भी भाग लेते हुए क्या भारतीय नेता अंधविश्वासी हैं ?? जैसे एक आलेख तैयार कर लेती। कभी कभी जीवन के कुछ अनुभवों को चंद पंक्तियों में सहेजने की कोशिश भी करती । बच्चों के स्कूल के कार्यक्रम के लिए लिखने के क्रम मे उत्पादकता से प्रकृति महत्वपूर्ण जैसी कविताएं लिखती तो कभी चिंतन में आकर कैसा हो कलियुग का धर्म ?? पर भी दो चार पंक्तियां लिख लेती। इसके अतिरिक्त न चाहते हुए भी स्वयमेव कुछ गीत कुछ भजन , अक्सर मेरे द्वारा लिखे जाते। यहां तक कि इसी दौरान मैने कई कहानियां भी लिख ली थी , जो साहित्य शिल्पी में प्रकाशित हो चुकी हैं। एक दिन यूं ही बैठे बिठाए सीता जी के स्वयंवर की घोषणा के बाद राजा जनक , रानी और सीताजी के शंकाग्रस्त मनस्थिति का चित्रण करने बैठी तो एक कविता बन पडी थी , कल डायरी में मिली , आज प्रस्तुत है ......
आज जनकपुर में डंका बजाया जाएगा।
जनकजी के वचन को दुहराया जाएगा।।
राजा , राजकुमार या हो प्रधान।
बूढा , बुजुर्ग या हो जवान।।
देशी , परदेशी या हो भगवान।
दैत्य , दानव या हो शैतान।
शिव के धनुष को जो तोडेगा उसी से ,
सीता का ब्याह रचाया जाएगा।।
आज जनकपुर में डंका बजाया जाएगा ........
आज राजा का मन बडा घबडाएगा।
अपने वचन पे पछतावा आएगा।।
राजा , राजुकमार या होगा प्रधान ?
बूढा बुजुर्ग या होगा जवान ??
देशी , परदेशी या भगवान ?
दैत्य , दानव या फिर शैतान ??
शिव के धनुष को कौन तोडेगा किससे ,
सीता का ब्याह रचाया जाएगा ??
आज जनकपुर में डंका बजाया जाएगा ......
आज रानी का मन बडा घबडाएगा।
आज देवता पितृ मनाया जाएगा।।
चाहे हों राजा, राजकुमार या प्रधान।
ना हो वो बूढा, बुजुर्ग , हो जवान।।
चाहे हो देशी , परदेशी या भगवान।
ना हो वो दैत्य , दानव ना शैतान !!
शिव के धनुष को जो तोडे , जिससे,
सीता का ब्याह रचाया जाएगा।।
आज जनकपुर में डंका बजाया जाएगा ........
आज सीता को मंदिर ले जाया जाएगा।
वहां राम जी के दर्शन पाया जाएगा।।
ना होंगे राजा , राजकुमार ना प्रधान।
ना होंगे बूढे , बुजुर्ग ना जवान।।
ना होंगे दैत्य , दानव ना शैतान।
ना देशी , परदेशी , होंगे भगवान।।
शिव के धनुष को वही तोडेंगे उन्हीं से ,
मेरा ब्याह रचाया जाएगा।।
फिर तो राम जी को वरमाला पहनाया जाएगा।
फिर तो सखियों द्वारा मंगलगान गाया जाएगा।।
फिर तो जनकपुर में उत्सव मनाया जाएगा।
फिर तो 'राम संग सीता ब्याह' रचाया जाएगा।।
Wednesday 25 August 2010
आज थोडी जानकारी बच्चों की पढाई के बारे में भी .......
अभी तक आपने पढा .... खासकर बच्चों के पढाई के लिए ही तो हमलोग अपना नया जीवन बोकारो में शुरू करने आए थे , इसलिए बच्चों के पढाई के बारे में चर्चा करना सबसे आवश्यक था , जिसमें ही देर हो गयी। बचपन से जिन बच्चों की कॉपी में कभी गल्ती से एक दो भूल रह जाती हो , स्कूल के पहले ही दिन उन बच्चों की कॉपी के पहले ही पन्ने पर चार छह गल्तियां देखकर हमें तो झटका ही लग गया था , वो भी जब उन्हें मात्र स्वर और व्यंजन के सारे वर्ण लिखने को दिया गया हो। पर जब ध्यान से कॉपी देखने को मिला , तो राहत मिली कि यहां पे मैं भी होती तो हमारी भी चार छह गलतियां अवश्य निकलती। हमने तो सरकारी विद्यालय में पढाई की थी और हमें ये तो कभी नहीं बताया गया था कि वर्णों को वैसे लिखते हैं , जैसा टाइपिंग मशीनें टाइप करती हैं। और जैसा हमने सीखा था , वैसा ही बच्चों को सिखाया था और उनके पुराने स्कूल में भी इसमें काट छांट नहीं की गयी थी। इसका ही फल ही था कि पहली और तीसरी कक्षा के इन बच्चों के द्वारा लिखे स्वर और व्यंजन वर्ण में भी इतनी गल्तियां निकल गयी थी। पर बहुत जल्द स्कूल के नए वातावरण में दोनो प्रतिदिन कुछ न कुछ सीखते चले गए और पहले ही वर्ष दोनो कक्षा में स्थान बनाने में कामयाब रहे। खासकर छोटे ने तो पांच विषयों में मात्र एक नंबर खोकर 99.8 प्रतिशत नंबर प्राप्त कर न सिर्फ अपनी कक्षा में , वरन् पूरी कक्षा में यानि सभी सेक्शन में टॉप किया था।
धीरे धीरे नए नए बच्चों से दोस्ती और उनके मध्य स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के जन्म लेने से बच्चे अपने विद्यालय के वातावरण में आराम से एडजस्ट करने लगे थे। विद्यालय में पढाई की व्यवस्था तो बहुत अच्छी थी , अच्छी पढाई के लिए उन्हें प्रोत्साहित भी बहुत किया जाता था। हर सप्ताह पढाए गए पाठ के अंदर से किसी एक विषय का टेस्ट सोमवार को होता , इसके अलावे अर्द्धवार्षिक और वार्षिक परीक्षाएं होती , तीनों को मिलाकर रिजल्ट तैयार किए जाते। पांचवी कक्षा से ही कुल प्राप्तांक को देखकर नहीं , हर विषय में विद्यार्थियों को मजबूत बनाने के लिए प्रत्येक विषय में 80 प्रतिशत नंबर लानेवाले को स्कोलर माना जाता और उन्हें स्कोलर बैज दिए जाते। तीन वर्षों तक नियमित तौर पर स्कोलर बैज लानेवाले बच्चों को स्कूल से ही नीले कलर की स्कोलर ब्लेजर के साथ स्कोलर बैज मिलती और छह वर्षों तक नियमित तौर पर स्कोलर बैज पाने वाले बच्चों को फिर से एक नीले स्कोलर ब्लेजर और नीली स्कोलर टाई के साथ स्कोलर बैज , इसके लिए बच्चे पूरी लगन से प्रत्येक वर्ष मेहनत करते।
डी पी एस , बोकारो के स्कूल की पढाई ही बच्चें के लिए पर्याप्त थी , उन्हें मेरी कभी भी जरूरत नहीं पडी , मैं सिर्फ उनके रिविजन के लिए प्रतिदिन कुछ प्रश्न दे दिया करती थी। कभी कभी किसी विषय में समस्या होने पर कॉपी लेकर मेरे पास आते भी , तो मेरे द्वारा हल किए जानेवाले पहले ही स्टेप के बाद उन्हें सबकुछ समझ में आ जाता। तुरंत वे कॉपी छीनकर भागते , तो मुझे खीझ भी हो जाती , अरे पूरा देख तो लो । स्कूल में स्कोलर बैज , ब्लेजर तो प्रत्येक विषय में 80 प्रतिशत मार्क्स में ही मिल जाते थे , पर ईश्वर की कृपा है कि दोनो बच्चों को कभी भी किसी विषय में 90 प्रतिशत से नीचे जाने का मौका नहीं मिला , इसलिए स्कोलर बैज कभी भी अनिश्चित नहीं रहा , लगातार तीसरे वर्ष स्कोलर बैज लेने के कारण 8 वीं कक्षा में उन्हें नीला स्कोलर ब्लेजर भी मिल चुका था। दोनो न सिर्फ पढाई में , वरन् कुछ खेल और क्विज से संबंधित क्रियाकलापों में भी अपनी अपनी कक्षाओं में अच्छे स्थान में बनें रहें। स्कूली मामलों में तो इनकी सफलता से हमलोग संतुष्ट थे ही , 8 वीं कक्षा में भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय प्रतिभा खोज परीक्षा में भी दोनो के चयन होने पर उन्हें प्रमाण पत्र दिया गया और उन्हें प्रतिवर्ष छात्रवृत्ति भी मिलने लगी।
पर हमारे देश की स्कूली व्यवस्था का प्रकोप ऐसा कि इन सब उपलब्धियों के बावजूद हमारा ध्यान इस ओर था कि वे दसवीं के बोर्ड की रिजल्ट अच्छा करें , ताकि इनके अपने स्कूल में इन्हें अपनी पसंद का विषय मिल सके। हालांकि डी पी एस बोकारो में ग्यारहवीं में दाखिला मिलने में अपने स्कूल के विद्यार्थियों को थोडी प्राथमिकता दी जाती है , फिर भी दाखिला नए सिरे से दसवीं बोर्ड के रिजल्ट से होता है। यदि इनका रिजल्ट गडबड हो जाता , तो इन्हें अपनी पसंद के विषय यानि गणित और विज्ञान पढने को नहीं मिलेंगे , जिसका कैरियर पर बुरा असर पडेगा। ग्यारहवीं में दूसरे स्कूल में पढने का अर्थ है , सारे माहौल के साथ एक बार फिर से समायोजन करना , जिसका भी पढाई पर कुछ बुरा असर पडेगा। और डी पी एस की पढाई खासकर 12वीं के साथ साथ अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए अच्छी मानी जाती है , उसी के लिए हमलोग यहां आए थे , और ग्यारहवीं में ही यहां से निकलना पडे , तो क्या फायदा ?? इसलिए हमलोग 10वीं बोर्ड में बढिया रिजल्ट के लिए ही बच्चें को प्रेरित करते। आगे की यात्रा अगली कडी में ....
धीरे धीरे नए नए बच्चों से दोस्ती और उनके मध्य स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के जन्म लेने से बच्चे अपने विद्यालय के वातावरण में आराम से एडजस्ट करने लगे थे। विद्यालय में पढाई की व्यवस्था तो बहुत अच्छी थी , अच्छी पढाई के लिए उन्हें प्रोत्साहित भी बहुत किया जाता था। हर सप्ताह पढाए गए पाठ के अंदर से किसी एक विषय का टेस्ट सोमवार को होता , इसके अलावे अर्द्धवार्षिक और वार्षिक परीक्षाएं होती , तीनों को मिलाकर रिजल्ट तैयार किए जाते। पांचवी कक्षा से ही कुल प्राप्तांक को देखकर नहीं , हर विषय में विद्यार्थियों को मजबूत बनाने के लिए प्रत्येक विषय में 80 प्रतिशत नंबर लानेवाले को स्कोलर माना जाता और उन्हें स्कोलर बैज दिए जाते। तीन वर्षों तक नियमित तौर पर स्कोलर बैज लानेवाले बच्चों को स्कूल से ही नीले कलर की स्कोलर ब्लेजर के साथ स्कोलर बैज मिलती और छह वर्षों तक नियमित तौर पर स्कोलर बैज पाने वाले बच्चों को फिर से एक नीले स्कोलर ब्लेजर और नीली स्कोलर टाई के साथ स्कोलर बैज , इसके लिए बच्चे पूरी लगन से प्रत्येक वर्ष मेहनत करते।
डी पी एस , बोकारो के स्कूल की पढाई ही बच्चें के लिए पर्याप्त थी , उन्हें मेरी कभी भी जरूरत नहीं पडी , मैं सिर्फ उनके रिविजन के लिए प्रतिदिन कुछ प्रश्न दे दिया करती थी। कभी कभी किसी विषय में समस्या होने पर कॉपी लेकर मेरे पास आते भी , तो मेरे द्वारा हल किए जानेवाले पहले ही स्टेप के बाद उन्हें सबकुछ समझ में आ जाता। तुरंत वे कॉपी छीनकर भागते , तो मुझे खीझ भी हो जाती , अरे पूरा देख तो लो । स्कूल में स्कोलर बैज , ब्लेजर तो प्रत्येक विषय में 80 प्रतिशत मार्क्स में ही मिल जाते थे , पर ईश्वर की कृपा है कि दोनो बच्चों को कभी भी किसी विषय में 90 प्रतिशत से नीचे जाने का मौका नहीं मिला , इसलिए स्कोलर बैज कभी भी अनिश्चित नहीं रहा , लगातार तीसरे वर्ष स्कोलर बैज लेने के कारण 8 वीं कक्षा में उन्हें नीला स्कोलर ब्लेजर भी मिल चुका था। दोनो न सिर्फ पढाई में , वरन् कुछ खेल और क्विज से संबंधित क्रियाकलापों में भी अपनी अपनी कक्षाओं में अच्छे स्थान में बनें रहें। स्कूली मामलों में तो इनकी सफलता से हमलोग संतुष्ट थे ही , 8 वीं कक्षा में भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय प्रतिभा खोज परीक्षा में भी दोनो के चयन होने पर उन्हें प्रमाण पत्र दिया गया और उन्हें प्रतिवर्ष छात्रवृत्ति भी मिलने लगी।
पर हमारे देश की स्कूली व्यवस्था का प्रकोप ऐसा कि इन सब उपलब्धियों के बावजूद हमारा ध्यान इस ओर था कि वे दसवीं के बोर्ड की रिजल्ट अच्छा करें , ताकि इनके अपने स्कूल में इन्हें अपनी पसंद का विषय मिल सके। हालांकि डी पी एस बोकारो में ग्यारहवीं में दाखिला मिलने में अपने स्कूल के विद्यार्थियों को थोडी प्राथमिकता दी जाती है , फिर भी दाखिला नए सिरे से दसवीं बोर्ड के रिजल्ट से होता है। यदि इनका रिजल्ट गडबड हो जाता , तो इन्हें अपनी पसंद के विषय यानि गणित और विज्ञान पढने को नहीं मिलेंगे , जिसका कैरियर पर बुरा असर पडेगा। ग्यारहवीं में दूसरे स्कूल में पढने का अर्थ है , सारे माहौल के साथ एक बार फिर से समायोजन करना , जिसका भी पढाई पर कुछ बुरा असर पडेगा। और डी पी एस की पढाई खासकर 12वीं के साथ साथ अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए अच्छी मानी जाती है , उसी के लिए हमलोग यहां आए थे , और ग्यारहवीं में ही यहां से निकलना पडे , तो क्या फायदा ?? इसलिए हमलोग 10वीं बोर्ड में बढिया रिजल्ट के लिए ही बच्चें को प्रेरित करते। आगे की यात्रा अगली कडी में ....
Monday 23 August 2010
दो वर्षों तक स्कूल में होनेवाली छुट्टियों का हमलोगों ने जमकर फायदा उठाया था !!
अभी तक आपने पढा ....... हर प्रकार के सुख सुविधायुक्त वातावरण होने के कारण हमलोग कुछ ही दिनों में आसानी से बोकारो में और बच्चे अपने नए स्कूल में एडजस्ट करने लगे थे। पर यहां रिश्तेदारों या परिचितों की संख्या बहुत कम थी , इसलिए कुछ ही दिनों में बोरियत सी महसूस होती। बच्चे अभी नीचली कक्षाओं में थे , इसलिए उनपर पढाई लिखाई का दबाब भी अधिक नहीं था , इसलिए समय काटना कुछ अधिक ही मुश्किल होता । खासकर सप्ताहांत में तो पुरानी यादें हमारा पीछा न छोडती और कुछ ही दिन व्यतीत होने पर ही हमलोग छुट्टियों का इंतजार करने लगते। एक दो वर्षों तक तो हमलोग स्कूल में दस बीस दिन की छुट्टियां होने पर भी कहीं न कहीं भागते , स्कूल खुलने से एक दिन पहले शाम को यहां पहुंचते।
डी पी एस बोकारो में होनेवाली स्कूल की लंबी लंबी छुट्टियां भी हमारा काफी मदद कर देती थी। चाहे सत्रांत की छुट्टियां हो या गर्मियों की , चाहे दुर्गापूजा की छुट्टियां हो या दीपावली और छठ की या फिर बडे दिन की , डी पी एस में बडे ढंग से दी जाती। इस बात का ख्याल रखा जाता कि शुक्रवार को पढाई के बाद छुट्टियां हो और सोमवार को स्कूल खुले , इस तरह पांच दिन की छुट्टियों में भी बाहर जाने के लिए नौ दिन मिल जाते। वहां जूनियर से लेकर सीनियरों तक की सप्ताह में पांच दिन यानि सोमवार से शुक्रवार तक ही कक्षाएं होती थी और शनिवार रविवार को छुट्टियां हुआ करती थी। पूरे वर्ष के दौरान सप्ताह के मध्य किसी त्यौहार की छुट्टियां हो जाती तो शनिवार को कक्षा रखकर से समायोजित कर लिया जाता था। लेकिन लंबी छुट्टियों में कोई कटौती नहीं की जाती थी , हमें सत्रांत के पचीस दिन , गर्मी की छुट्टियों के चालीस दिन , दुर्गापूजा के नौ दिन और ठंड के चौदह दिनों की छुट्टियां मिल जाती थी।
वैसे तो हर सप्ताह में दो दिन छुट्टियों हो ही जाती थी , हालांकि उसका उपयोग शहर के अंदर ही किया जा सकता था। इसके अलावे वर्षभर में उपयोग में आनेवाली कुल 88 दिन की छुट्टियां कम तो नहीं थी। भले ही स्कूल के शिक्षकों ने अपनी सुविधा के लिए इस प्रकार की छुट्टी की व्यवस्था रखी हो , पर इसका हमलोगों ने जमकर फायदा उठाया। छुट्टियों के पहले ही हमलोग कहीं न कहीं बाहर जाने की तैयारी करते , और बच्चों के स्कूल से आते ही निकल पडते। पर संयुक्त परिवार से तुरंत निकलकर यहां आने के बाद , और खासकर भतीजी के विवाह के बाद हम पर खर्च का इतना दबाब बढ गया था कि दूर दराज की यात्रा का कार्यक्रम नहीं बना पाते थे । पर बच्चों को दादी , नानी और अन्य रिश्तेदारों के घरो में घुमाते हुए हमने आसानी से दो तीन वर्ष बिता दिए।
डी पी एस बोकारो में होनेवाली स्कूल की लंबी लंबी छुट्टियां भी हमारा काफी मदद कर देती थी। चाहे सत्रांत की छुट्टियां हो या गर्मियों की , चाहे दुर्गापूजा की छुट्टियां हो या दीपावली और छठ की या फिर बडे दिन की , डी पी एस में बडे ढंग से दी जाती। इस बात का ख्याल रखा जाता कि शुक्रवार को पढाई के बाद छुट्टियां हो और सोमवार को स्कूल खुले , इस तरह पांच दिन की छुट्टियों में भी बाहर जाने के लिए नौ दिन मिल जाते। वहां जूनियर से लेकर सीनियरों तक की सप्ताह में पांच दिन यानि सोमवार से शुक्रवार तक ही कक्षाएं होती थी और शनिवार रविवार को छुट्टियां हुआ करती थी। पूरे वर्ष के दौरान सप्ताह के मध्य किसी त्यौहार की छुट्टियां हो जाती तो शनिवार को कक्षा रखकर से समायोजित कर लिया जाता था। लेकिन लंबी छुट्टियों में कोई कटौती नहीं की जाती थी , हमें सत्रांत के पचीस दिन , गर्मी की छुट्टियों के चालीस दिन , दुर्गापूजा के नौ दिन और ठंड के चौदह दिनों की छुट्टियां मिल जाती थी।
वैसे तो हर सप्ताह में दो दिन छुट्टियों हो ही जाती थी , हालांकि उसका उपयोग शहर के अंदर ही किया जा सकता था। इसके अलावे वर्षभर में उपयोग में आनेवाली कुल 88 दिन की छुट्टियां कम तो नहीं थी। भले ही स्कूल के शिक्षकों ने अपनी सुविधा के लिए इस प्रकार की छुट्टी की व्यवस्था रखी हो , पर इसका हमलोगों ने जमकर फायदा उठाया। छुट्टियों के पहले ही हमलोग कहीं न कहीं बाहर जाने की तैयारी करते , और बच्चों के स्कूल से आते ही निकल पडते। पर संयुक्त परिवार से तुरंत निकलकर यहां आने के बाद , और खासकर भतीजी के विवाह के बाद हम पर खर्च का इतना दबाब बढ गया था कि दूर दराज की यात्रा का कार्यक्रम नहीं बना पाते थे । पर बच्चों को दादी , नानी और अन्य रिश्तेदारों के घरो में घुमाते हुए हमने आसानी से दो तीन वर्ष बिता दिए।
Sunday 22 August 2010
बोकारो में भयमुक्त होकर जीने में मुझे बहुत समय लग गए !!
अभी तक आपने पढा .... वैसे तो बोकारो बहुत ही शांत जगह है और यहां आपराधिक माहौल भी न के बराबर , कभी कभार चोरी वगैरह की घटनाएं अवश्य हुआ करती हैं , जिसके लिए आवश्यक सावधानी बरतना आवश्यक है। यहां किसी क्वार्टर को खाली छोडकर छुट्टियां मनाने जाना खतरे से खाली नहीं। जबतक आप लौटेंगे , ताला तोडकर सारा सामान ढोया जा चुका होगा। भले ही ऐसी घटनाएं एक दो के साथ ही घटी हो , पर सावधान सबको रहना आवश्यक हो जाता है। इसलिए छुट्टियों में पूरे परिवार एक साथ कहीं जाते हैं , तो क्वार्टर में किसी को रखकर जाना आवश्यक होता है , खासकर रात्रि में तो घर में किसी का सोना बेहद जरूरी है। स्कूल बंद होने पर हम तीनों मां बंटे अक्सर कहीं न कहीं चले जाते। वैसे में घर की चाबी अपने सामने रह रहे पडोसी को देकर जाते , उनलोगों ने पूरी जिम्मेदारी से अपना दायित्व निभाया और कभी भी हमारे घर से कोई वस्तु गायब नहीं हुई। इसके अलावे अखबार में कभी कभार कुछ घटनाएं देखने या सुनने को मिलती भी तो उसकी अधिक चिंता नहीं होती।
पर कुछ घटनाओं का प्रभाव हमारे सामने स्पष्ट दिखाई पडा , इसलिए वहां रहते हुए जीवन जीने के प्रति हम निश्चिंत नहीं रह सके। खासकर यहां आने के बाद पहले ही वर्ष यानि 1998 के बडे दिन की छुट्टियों में बडे बेटे के कक्षा में साथ साथ बैठनेवाले दोस्त के अपहरण और हत्या के बाद हमलोग बहुत ही दुखी हो गए थे। बेटे के दिलोदिमाग से ये घटना भूली नहीं जाती , और मैं स्कूल से लौटने पर प्रतिदिन उस बच्चे के बारे में जानकारी लेती , तो वह और दुखी हो जाता। उस समय तक उसकी हत्या के बारे में हमने कल्पना भी न की थी । उसके न लौटने की खबर से ही हम मां बेटे थोडी देर अवश्य रोते। प्रतिदिन मुझे रोते देख बेटे ने ही एक दिन हिम्मत दिखायी और मुझसे झूठमूठ ही कह दिया कि उसका वह दोस्त लौट आया है। पुलिस ने अपहरणकर्ताओं को गिरफ्तार कर उसे छुडा लिया है। बाद में मुहल्ले के अन्य लोगों से मालूम हुआ कि ऐसी बात नहीं है , कल उस लडके की लाश मिली है। मैं समझ गयी , मुझे खुश रखने के लिए बेटे ने अपने दोस्त के जाने का गम झेलते हुए मुझसे झूठ बोला था।
कुछ ही दिनों में यानि अप्रैल 1999 में एक बच्ची के साथ हुए हादसे ने बोकारो में कर्फ्यू लगाने तक की नौबत ला दी थी। आजतक समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में पढे और सुने शब्द 'कर्फ्यू' का पहली बार झेलने का मौका मिला था। ऐसे में डर स्वाभाविक तौर पर उत्पन्न हो गया था , कर्फ्यू में ढील के बावजूद भी मैं भय से कोई भी सामन लेने बाहर न निकलती। जो भी घर में मौजूद होता , उसे बनाकर खिला देती। यहां तक कि इस घटना के बाद मैं बच्चों का जरूरत से अधिक ख्याल रखने लगी थी। खुद से स्कूल बस तक बच्चों को पहुंचाना और लाना तो हर अभिभावक का फर्ज ही है , पर मैं शाम को खेलने वक्त भी इनके साथ जाती , ये जबतक खेलते , तबतक टहलती और इनके साथ ही दूध लेते हुए वापस आती। दो चार वर्षों तक खेलते वक्त , साइकिल सीखते वक्त हमेशा मैं इनके साथ होती , इस तरह बोकारो में भयमुक्त होकर जीने में मुझे बहुत समय लग गए। हां , सुरक्षा की दृष्टि से कॉपरेटिव कॉलोनी आने के बाद अच्छा लगा , यह बहुत ही अच्छी जगह है ,यहां मैने बाहर में रखी साइकिल और अन्य कपडों को उठाकर ले जाने से आगे बढने की किसी भी चोर को हिम्मत करते नहीं देखा।
पर कुछ घटनाओं का प्रभाव हमारे सामने स्पष्ट दिखाई पडा , इसलिए वहां रहते हुए जीवन जीने के प्रति हम निश्चिंत नहीं रह सके। खासकर यहां आने के बाद पहले ही वर्ष यानि 1998 के बडे दिन की छुट्टियों में बडे बेटे के कक्षा में साथ साथ बैठनेवाले दोस्त के अपहरण और हत्या के बाद हमलोग बहुत ही दुखी हो गए थे। बेटे के दिलोदिमाग से ये घटना भूली नहीं जाती , और मैं स्कूल से लौटने पर प्रतिदिन उस बच्चे के बारे में जानकारी लेती , तो वह और दुखी हो जाता। उस समय तक उसकी हत्या के बारे में हमने कल्पना भी न की थी । उसके न लौटने की खबर से ही हम मां बेटे थोडी देर अवश्य रोते। प्रतिदिन मुझे रोते देख बेटे ने ही एक दिन हिम्मत दिखायी और मुझसे झूठमूठ ही कह दिया कि उसका वह दोस्त लौट आया है। पुलिस ने अपहरणकर्ताओं को गिरफ्तार कर उसे छुडा लिया है। बाद में मुहल्ले के अन्य लोगों से मालूम हुआ कि ऐसी बात नहीं है , कल उस लडके की लाश मिली है। मैं समझ गयी , मुझे खुश रखने के लिए बेटे ने अपने दोस्त के जाने का गम झेलते हुए मुझसे झूठ बोला था।
कुछ ही दिनों में यानि अप्रैल 1999 में एक बच्ची के साथ हुए हादसे ने बोकारो में कर्फ्यू लगाने तक की नौबत ला दी थी। आजतक समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में पढे और सुने शब्द 'कर्फ्यू' का पहली बार झेलने का मौका मिला था। ऐसे में डर स्वाभाविक तौर पर उत्पन्न हो गया था , कर्फ्यू में ढील के बावजूद भी मैं भय से कोई भी सामन लेने बाहर न निकलती। जो भी घर में मौजूद होता , उसे बनाकर खिला देती। यहां तक कि इस घटना के बाद मैं बच्चों का जरूरत से अधिक ख्याल रखने लगी थी। खुद से स्कूल बस तक बच्चों को पहुंचाना और लाना तो हर अभिभावक का फर्ज ही है , पर मैं शाम को खेलने वक्त भी इनके साथ जाती , ये जबतक खेलते , तबतक टहलती और इनके साथ ही दूध लेते हुए वापस आती। दो चार वर्षों तक खेलते वक्त , साइकिल सीखते वक्त हमेशा मैं इनके साथ होती , इस तरह बोकारो में भयमुक्त होकर जीने में मुझे बहुत समय लग गए। हां , सुरक्षा की दृष्टि से कॉपरेटिव कॉलोनी आने के बाद अच्छा लगा , यह बहुत ही अच्छी जगह है ,यहां मैने बाहर में रखी साइकिल और अन्य कपडों को उठाकर ले जाने से आगे बढने की किसी भी चोर को हिम्मत करते नहीं देखा।
Saturday 21 August 2010
अपने एकाधिकार का पूरा फायदा उठाती थी उस वक्त बी एस एन एल !!
अभी तक आपने पढा .... 20 वीं सदी का अंत संचार के मामलों में बहुत ही प्रगति पर था और भारतवर्ष के शहरों की बात क्या ग्रामीण अंचल भी इससे अछूते नहीं थे। भले ही हम शहरी क्षेत्र में थे , पर पूरे परिवार में सबसे पहले 1990 में हमारे गांव में ही मेरे श्वसुर जी ने ही फोन का कनेक्शन लिया था। तब वे DVC के सुरक्षा पदाधिकारी के पद से सेवानिवृत्त होकर बिहार के दरभंगा जिले के एक गांव जाले में निवास कर रहे थे। इससे पहले वे बिहार मिलिटरी पुलिस में पुलिस अफसर भी रह चुके थे , जिसके कारण गांव में होनेवाले महत्वपूर्ण आयोजनों में उन्हें निमंत्रित किया जाता था। इसी कारण फोन की सुविधा दिए जाने से पूर्व बी एस एन एल द्वारा हुए उद्घाटन समारोह में उन्हें भी निमंत्रित किया गया था। उसी मीटिंग में उन्होने बात रखी कि जिस परिवार के अधिकांश सदस्य दूर रहते हों , उन्हें फोन की सुविधा सबसे पहले मिलनी चाहिए। रिटायर होने के बाद 20 वर्षों से वे अपने तीनों बेटों से दूर रहते हुए 80 वर्ष की उम्र में पहुंच चुके थे , इसलिए दूसरे ही दिन उन्हें फोन की सुविधा मिल गयी थी , शहरी क्षेत्र में होते हुए भी तबतक हमलोगों को भी कनेक्शन नहीं मिल सका था , पर टेलीफोन बूथ से हमलोग समय पर हाल चाल लेने में अवश्य समर्थ हो गए थे। दो चार वर्ष के अंदर ही बिहार के छोटे बडे हर गांव में टेलीफोन के जाल ही बिछ गए थे और कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं रह गया था। उसी फोन ने इन्हे अंतिम समय में उनके बडे बेटे से मिला भी दिया था। भले ही 1993 में ही वे हमें छोडकर इस दुनिया से चल दिए हों , पर उससे पहले 1992 से ही रिश्तेदारों का हाल चाल लेने के लिए हमलोगों को पूर्ण तौर पर टेलीफोन पर निर्भर कर दिया था।
यही कारण था कि बोकारो में स्थायित्व की समस्या हल होने पर एक टेलीफोन का कनेक्शन लेना हमारे लिए जरूरत बन चुका था , पर इसमें बहुत सारी समस्याएं थी। क्वार्टर किसी और का हो , उसे किराए में लगाने की छूट भी न हो । एक मित्र के तौर पर हम वहां रह सकते थे और इसी आधार पर कनेक्शन ले सकते थे। इसके लिए अदालत में भी कुछ फार्मलिटिज की जरूरत थी। छोटे शहरों में लैंडलाइन लेने के लिए अभी तक सिर्फ सरकारी कंपनियां ही हैं , जिनके पास उस समय कनेक्शन देने की सुविधाएं सीमित थी और फोन कनेक्शन लेने के मामलों में मध्यमवर्गीय परिवारों में एक होड सी लगी थी। ऐसे में आपका नंबर आने में दो तीन वर्षों तक का इंतजार करना पडता था , अन्य लोगों की तरह ही इतना इंतजार करने को हमलोग भी तैयार नहीं थे। इस कारण विभाग में भ्रष्टाचार का भी बोलबाला था , नंबर में देर होने के बावजूद पैसे लेकर फोन कनेक्शन दिए जा रहे थे। पर हमारे द्वारा फोन के लिए एप्लाई किए जाने के दो तीन महीने बाद ही बी एस एन एल में आधिकारिक तौर पर घोषणा की गयी कि इंतजार कर रहे सभी लोगों को अक्तूबर तक फोन लगा दिए जाएंगे। भले ही एक वर्ष तक हमने बिना फोन के व्यतीत किए हों , पर इस घोषणा के होते ही हमारी यह समस्या भी हल हो गयी। तबतक हमलोगों ने सामने वाले पडोसी को बहुत कष्ट दिए।
पर फोन का कनेक्शन मिलने के बाद भी यहां समस्याएं कम न थी। उस समय खुले केबल के माध्यम से फोन का कनेक्शन किया जाता था , इस कारण हमेशा फोन को लॉक करने का झंझट था। बरसात में अक्सर फोन कट जाता , दस बारह दिन बाद ही उसके ठीक होने की उम्मीद रहती। हालांकि कुछ ही वर्षों में पूरी कॉलोनी में अंडरग्राउंड केबिल लग गए और असुविधाएं कम हो गयी थी। पर बिल की मनमानी की तो पूछिए ही मत , अपने एकाधिकार का पूरा फायदा उठाती थी उस वक्त बी एस एन एल । बिल के डिटेल्स निकालने की कोई सुविधा नहीं थी , सिर्फ एस टी डी के बिल निकलते थे , हमने एक दो बार निकलवाया , पर क्या फायदा ?? एस टी डी का बिल 160 रूपए , पर कुल बिल 1600। अब हम उन्हें कैसे समझाएं कि लोकल में हमारे इतने परिचित भी नहीं कि इतना बिल आ जाए , चुपचाप बिल भरने को बाध्य थे। कितने तो अपनी पत्नियों और बच्चों पर शक की निगाह रखते , मजबूरी में फोन कटवा देते। एक बार तो गरमी की छुट्टियों के दो महीने दिल्ली में व्यतीत करने के बाद भी हमें टेलीफोन बिल के रूप में 1800 रूपए भरने पडे थे।पर धीरे धीरे कई कंपनियों के इस क्षेत्र में आने से उनका एकाधिकार समाप्त हुआ और सुविधाओं में बढोत्तरी होती गयी। पर आज हर प्रकार के प्लान और सुविधाओं के कारण इसी बी एस एन एल से हमें कोई शिकायत नहीं।
यही कारण था कि बोकारो में स्थायित्व की समस्या हल होने पर एक टेलीफोन का कनेक्शन लेना हमारे लिए जरूरत बन चुका था , पर इसमें बहुत सारी समस्याएं थी। क्वार्टर किसी और का हो , उसे किराए में लगाने की छूट भी न हो । एक मित्र के तौर पर हम वहां रह सकते थे और इसी आधार पर कनेक्शन ले सकते थे। इसके लिए अदालत में भी कुछ फार्मलिटिज की जरूरत थी। छोटे शहरों में लैंडलाइन लेने के लिए अभी तक सिर्फ सरकारी कंपनियां ही हैं , जिनके पास उस समय कनेक्शन देने की सुविधाएं सीमित थी और फोन कनेक्शन लेने के मामलों में मध्यमवर्गीय परिवारों में एक होड सी लगी थी। ऐसे में आपका नंबर आने में दो तीन वर्षों तक का इंतजार करना पडता था , अन्य लोगों की तरह ही इतना इंतजार करने को हमलोग भी तैयार नहीं थे। इस कारण विभाग में भ्रष्टाचार का भी बोलबाला था , नंबर में देर होने के बावजूद पैसे लेकर फोन कनेक्शन दिए जा रहे थे। पर हमारे द्वारा फोन के लिए एप्लाई किए जाने के दो तीन महीने बाद ही बी एस एन एल में आधिकारिक तौर पर घोषणा की गयी कि इंतजार कर रहे सभी लोगों को अक्तूबर तक फोन लगा दिए जाएंगे। भले ही एक वर्ष तक हमने बिना फोन के व्यतीत किए हों , पर इस घोषणा के होते ही हमारी यह समस्या भी हल हो गयी। तबतक हमलोगों ने सामने वाले पडोसी को बहुत कष्ट दिए।
पर फोन का कनेक्शन मिलने के बाद भी यहां समस्याएं कम न थी। उस समय खुले केबल के माध्यम से फोन का कनेक्शन किया जाता था , इस कारण हमेशा फोन को लॉक करने का झंझट था। बरसात में अक्सर फोन कट जाता , दस बारह दिन बाद ही उसके ठीक होने की उम्मीद रहती। हालांकि कुछ ही वर्षों में पूरी कॉलोनी में अंडरग्राउंड केबिल लग गए और असुविधाएं कम हो गयी थी। पर बिल की मनमानी की तो पूछिए ही मत , अपने एकाधिकार का पूरा फायदा उठाती थी उस वक्त बी एस एन एल । बिल के डिटेल्स निकालने की कोई सुविधा नहीं थी , सिर्फ एस टी डी के बिल निकलते थे , हमने एक दो बार निकलवाया , पर क्या फायदा ?? एस टी डी का बिल 160 रूपए , पर कुल बिल 1600। अब हम उन्हें कैसे समझाएं कि लोकल में हमारे इतने परिचित भी नहीं कि इतना बिल आ जाए , चुपचाप बिल भरने को बाध्य थे। कितने तो अपनी पत्नियों और बच्चों पर शक की निगाह रखते , मजबूरी में फोन कटवा देते। एक बार तो गरमी की छुट्टियों के दो महीने दिल्ली में व्यतीत करने के बाद भी हमें टेलीफोन बिल के रूप में 1800 रूपए भरने पडे थे।पर धीरे धीरे कई कंपनियों के इस क्षेत्र में आने से उनका एकाधिकार समाप्त हुआ और सुविधाओं में बढोत्तरी होती गयी। पर आज हर प्रकार के प्लान और सुविधाओं के कारण इसी बी एस एन एल से हमें कोई शिकायत नहीं।
Friday 20 August 2010
क्या आपके शहर में भी एक गैस कनेक्शन लेने का यही हाल है ??
पिछले पोस्टों में आप पढ ही चुके हैं ... बच्चों के एडमिशन के बाद हमलोगों को बिना किसी तैयारी के ही एक महीने के अंदर बोकारो में शिफ्ट करना पड गया था। शहर के कई कॉलोनी में दौडते भागते अंत में सेक्टर 4 में एक क्वार्टर मिलने के बाद हमलोग निश्चिंत हो गए थे। इसके साथ ही स्थायित्व के लिए आवश्यक अन्य सुविधाओं पर हमारा ध्यान चला गया था। दो तीन महीने किरासन तेल के स्टोव पर खाना बनाते हुए हमने काट दिए थे , इस तरह के स्टोव का उपयोग मैं जीवन में पहली बार कर रही थी , इसलिए मुझे किन समस्याओं का सामना करना पडा होगा , आप पाठक जन उम्मीद कर सकते हैं। इस स्टोव की तुलना में खाना बनाने के लिए लकडी या कोयले के चूल्हे का उपयोग मेरे लिए अधिक आसान था , पर दोमंजिले के छोटे से क्वार्टर में इसका उपयोग नहीं किया जा सकता था , इसलिए एक गैस कनेक्शन तो हमारे लिए बहुत आवश्यक था ।
बोकारो के विभिन्न सेक्टरों में इंडियन ऑयल गैस की जितनी भी एजेंसियां थी , हमलोग सबमें भटकते रहे , पर सबने हमें एक कनेक्शन देने से इंकार कर दिया था। उन दिनों गैस कनेक्शन की मांग की तुलना में पूर्ति का कम होना एक मुख्य वजह हो सकती है , पर हमारे पास बोकारो में कनेक्शन लेने के लिए आवश्यक कागजात भी नहीं थे कि हम वहां नंबर भी लगा सकते। वैसे आवश्यक कागजातों के बाद भी सरकारी दर से किसी को गैस नहीं मिला करता था। एक कनेक्शन के लिए दुगुने तीगुने पैसे देने होते। पडोस में पूछती , तो मालूम होता कि उन्होने गैस का कनेक्शन भी नहीं लिया है। बाजार से ही एक चूल्हा , कहीं से एक सिलिंडर और रेगुलेटर और पाइप का इंतजाम करते और ब्लैक से सिलिंडर चेंज करते। बिजली की सुविधा मुफ्त थी , इसलिए अधिकांश लोग हीटर का भी उपयोग करते।
प्राइवेट मकानों में तो इसकी सुविधा नहीं थी , पर सरकारी क्वार्टर में आने के बाद हमलोगों ने भी एक हीटर रख लिया था , पर हीटर और स्टोव में खाना बनाने में समय काफी जाया होता। हमारी इच्छा इंडियन ऑयल के गैस के कनेक्शन लेने की थी , लेकिन बोकारो मे कोई व्यवस्था नहीं हो रही थी। मरता क्या न करता , आखिरकार हमें हार मानकर यहां से 30 किमी दूर के एक शहर फुसरो से एक एच पी का गैस कनेक्शन लेना पडा । वो भी आसानी से नहीं , हमें उन्हें कमीशन देने के लिए एक गैस चूल्हा भी साथ खरीदना पडा , डबल सिलिंडर का कनेक्शन और उन्हें मनमाने पैसे , तब यानि 1998 में सरकार के द्वारा तय किए गए मात्र 1800 रूपए खर्च करने की जगह हमें 5500 रूपए खर्च करने पडे थे। फिर जबतक उस कनेक्शन का बोकारो ट्रांसफर नहीं हुआ , हमें ब्लैक में ही गैस भरवाने यानि हर महीने 100 रूपए अधिक देने को बाध्य होना पडा। इस मामले में काफी दिनों बाद हम निश्चिंत हो सके थे । आज घर घर तक गैस के पहुंचने के बाद भी यह समस्या वैसे ही बनी हुई है , बोकारो में इंडियन ऑयल या एच पी का कनेक्शन लेना आज भी मुश्किल कार्य है। क्या आपके शहर में भी एक गैस कनेक्शन लेने में इतनी समस्याओं का सामना करना पडता है ??
बोकारो के विभिन्न सेक्टरों में इंडियन ऑयल गैस की जितनी भी एजेंसियां थी , हमलोग सबमें भटकते रहे , पर सबने हमें एक कनेक्शन देने से इंकार कर दिया था। उन दिनों गैस कनेक्शन की मांग की तुलना में पूर्ति का कम होना एक मुख्य वजह हो सकती है , पर हमारे पास बोकारो में कनेक्शन लेने के लिए आवश्यक कागजात भी नहीं थे कि हम वहां नंबर भी लगा सकते। वैसे आवश्यक कागजातों के बाद भी सरकारी दर से किसी को गैस नहीं मिला करता था। एक कनेक्शन के लिए दुगुने तीगुने पैसे देने होते। पडोस में पूछती , तो मालूम होता कि उन्होने गैस का कनेक्शन भी नहीं लिया है। बाजार से ही एक चूल्हा , कहीं से एक सिलिंडर और रेगुलेटर और पाइप का इंतजाम करते और ब्लैक से सिलिंडर चेंज करते। बिजली की सुविधा मुफ्त थी , इसलिए अधिकांश लोग हीटर का भी उपयोग करते।
प्राइवेट मकानों में तो इसकी सुविधा नहीं थी , पर सरकारी क्वार्टर में आने के बाद हमलोगों ने भी एक हीटर रख लिया था , पर हीटर और स्टोव में खाना बनाने में समय काफी जाया होता। हमारी इच्छा इंडियन ऑयल के गैस के कनेक्शन लेने की थी , लेकिन बोकारो मे कोई व्यवस्था नहीं हो रही थी। मरता क्या न करता , आखिरकार हमें हार मानकर यहां से 30 किमी दूर के एक शहर फुसरो से एक एच पी का गैस कनेक्शन लेना पडा । वो भी आसानी से नहीं , हमें उन्हें कमीशन देने के लिए एक गैस चूल्हा भी साथ खरीदना पडा , डबल सिलिंडर का कनेक्शन और उन्हें मनमाने पैसे , तब यानि 1998 में सरकार के द्वारा तय किए गए मात्र 1800 रूपए खर्च करने की जगह हमें 5500 रूपए खर्च करने पडे थे। फिर जबतक उस कनेक्शन का बोकारो ट्रांसफर नहीं हुआ , हमें ब्लैक में ही गैस भरवाने यानि हर महीने 100 रूपए अधिक देने को बाध्य होना पडा। इस मामले में काफी दिनों बाद हम निश्चिंत हो सके थे । आज घर घर तक गैस के पहुंचने के बाद भी यह समस्या वैसे ही बनी हुई है , बोकारो में इंडियन ऑयल या एच पी का कनेक्शन लेना आज भी मुश्किल कार्य है। क्या आपके शहर में भी एक गैस कनेक्शन लेने में इतनी समस्याओं का सामना करना पडता है ??
Tuesday 17 August 2010
10,000 रूपए की बजट में सबसे अच्छा डिजिटल कैमरा कौन सा होगा ??
घर में दो कैमरे वाले मोबाइल थे , दोनो बेटे लेकर चले गए। इच्छा है , एक डिजिटल कैमरा ही ले लिया जाए । पर उपयुक्त जानकारी के अभाव में निर्णय नहीं ले पा रही। मेरा बजट लगभग 10,000 रूपए का है , ज्ञानी पाठक जन सटीक राय देने की कृपा करें , घरेलू उपयोग के लिए कौन सा कैमरा लेना अच्छा रहेगा ??
Saturday 14 August 2010
बोकारो में बच्चों को एंटीबॉयटिक दवाओं का सेवन कम करना पडा !!
अभी तक आपने पढा .. बोकारो में कक्षा 1 और 3 में पढने वाले दो छोटे छोटे बच्चों को लेकर अकेले रहना आसान न था , स्वास्थ्य के प्रति काफी सचेत रहती। पर बच्चों को कभी सर्दी , कभी खांसी तो कभी बुखार आ ही जाते थे , मेरी परेशानी तो जरूर बढती थी , पर यहां बगल में ही एक डॉक्टर के होने से तुरंत समाधान निकल जाता। यहां आने का एक फायदा हुआ कि हमारे यहां के डॉक्टर जितने एंटीबायटिक खिलाते थे , उससे ये दोनो जरूर बच गए , इससे दोनो की रोग प्रतिरोधक शक्ति को तो फायदा पहुंचा ही होगा। वहां भले ही इलाज में हमारे पैसे खर्च नहीं होते थे , पर दोनो ने बचपन से ही एलोपैथी की बहुत दवाइयां खा ली थी । यहां के डॉक्टर की फी मात्र 35 रूपए थी और अधिक से अधिक 25 रूपए की दवा लिखते , आश्चर्य कि कभी उनके पास दुबारा जाने की जरूरत भी नहीं होती।
हां , बाद में बच्चों के 10-11 वर्ष की उम्र के आसपास पहुंचने पर दोनो के अच्छे शारीरिक विकास के कारण उनके द्वारा दिया जानेवाला डोज जरूर कम होने लगा था , जिसे मैं समझ नहीं सकी थी , दवा खिलाने के बाद भी कई बार बुखार न उतरने पर रात भर मुझे पट्टी बदलते हुए काटने पडे थे। डोज के कम होने से दवा के असर नहीं करने से एक बार तो तबियत थोडी अधिक ही बिगड गयी । एक दूसरे डॉक्टर ने जब मैने दवा का नाम और डोज सुनाया तो बच्चों का वेट देखते हुए वे डॉक्टर की गल्ती को समझ गए और मुझसे डोज बढाने को कहा। तब मेरी समझ में सारी बाते आयी। डॉक्टर ने चुटकी भी ली कि मम्मी तुमलोगों को बच्चा समझकर आम और अन्य फल भी कम देती है क्या ??
आए हुए दो महीने भी नहीं हुए थे , बरसात के दिन में बडे बेटे को कुत्ते ने काट लिया, तब मै उन्हें अकेले निकलने भी नहीं देती थी। चार बजे वे खेलने जाते तो मैं उनके साथ होती, उस दिन भी किसी काम के सिलसिले में बस पांच मिनट इंतजार करने को कहा और इतनी ही देर में दरवाजा खोलकर दोनो निकल भी गए , अभी मेरा काम भी समाप्त नहीं हुआ था कि छोटे ने दौडते हुए आकर बताया कि भैया को कुत्ते ने काट लिया है। पडोसी का घरेलू कुत्ता था , पर कुत्ते के नाम से ही मन कांप जाता है। तुरंत डॉक्टर को दिखाया , टेटवेक के इंजेक्शन पडे। घाव तो था नहीं , सिर्फ एक दांत चुभ गया था , हल्की सी एंटीबायटिक पडी। कुत्ते का इंतजार किया गया , कुत्ता बिल्कुल ठीक था , इसलिए एंटीरैबिज के इंजेक्शन की आवश्यकता नहीं पडी, पर काफी दिनों तक हमलोग भयभीत रहे।
पता नहीं दवा कंपनी के द्वारा दिए जाने वाला कमीशन का लालच था या और कुछ बातें , बाद में हमें यहां कुछ डॉक्टर ऐसे भी दिखें , जो जमकर एंटीबॉयटिक देते थे। बात बात में खून पेशाब की जांच और अधिक से अधिक दवाइयां , हालांकि उनका कहना था कि मरीजों द्वारा कचहरी में घसीटे जाने के भय से वे ऐसा किया करते हैं। खाने पीने और जीवनशैली में सावधानी बरतने के कारण हमलोगों को डॉक्टर की जरूरत बहुत कम पडी , इसलिए इसका कोई प्रभाव हमपर नहीं पडा !!
हां , बाद में बच्चों के 10-11 वर्ष की उम्र के आसपास पहुंचने पर दोनो के अच्छे शारीरिक विकास के कारण उनके द्वारा दिया जानेवाला डोज जरूर कम होने लगा था , जिसे मैं समझ नहीं सकी थी , दवा खिलाने के बाद भी कई बार बुखार न उतरने पर रात भर मुझे पट्टी बदलते हुए काटने पडे थे। डोज के कम होने से दवा के असर नहीं करने से एक बार तो तबियत थोडी अधिक ही बिगड गयी । एक दूसरे डॉक्टर ने जब मैने दवा का नाम और डोज सुनाया तो बच्चों का वेट देखते हुए वे डॉक्टर की गल्ती को समझ गए और मुझसे डोज बढाने को कहा। तब मेरी समझ में सारी बाते आयी। डॉक्टर ने चुटकी भी ली कि मम्मी तुमलोगों को बच्चा समझकर आम और अन्य फल भी कम देती है क्या ??
आए हुए दो महीने भी नहीं हुए थे , बरसात के दिन में बडे बेटे को कुत्ते ने काट लिया, तब मै उन्हें अकेले निकलने भी नहीं देती थी। चार बजे वे खेलने जाते तो मैं उनके साथ होती, उस दिन भी किसी काम के सिलसिले में बस पांच मिनट इंतजार करने को कहा और इतनी ही देर में दरवाजा खोलकर दोनो निकल भी गए , अभी मेरा काम भी समाप्त नहीं हुआ था कि छोटे ने दौडते हुए आकर बताया कि भैया को कुत्ते ने काट लिया है। पडोसी का घरेलू कुत्ता था , पर कुत्ते के नाम से ही मन कांप जाता है। तुरंत डॉक्टर को दिखाया , टेटवेक के इंजेक्शन पडे। घाव तो था नहीं , सिर्फ एक दांत चुभ गया था , हल्की सी एंटीबायटिक पडी। कुत्ते का इंतजार किया गया , कुत्ता बिल्कुल ठीक था , इसलिए एंटीरैबिज के इंजेक्शन की आवश्यकता नहीं पडी, पर काफी दिनों तक हमलोग भयभीत रहे।
पता नहीं दवा कंपनी के द्वारा दिए जाने वाला कमीशन का लालच था या और कुछ बातें , बाद में हमें यहां कुछ डॉक्टर ऐसे भी दिखें , जो जमकर एंटीबॉयटिक देते थे। बात बात में खून पेशाब की जांच और अधिक से अधिक दवाइयां , हालांकि उनका कहना था कि मरीजों द्वारा कचहरी में घसीटे जाने के भय से वे ऐसा किया करते हैं। खाने पीने और जीवनशैली में सावधानी बरतने के कारण हमलोगों को डॉक्टर की जरूरत बहुत कम पडी , इसलिए इसका कोई प्रभाव हमपर नहीं पडा !!
Friday 13 August 2010
बोकारो में दूध की व्यवस्था भी खुश कर देनेवाली है !!
अभी तक आपने पढा .. जब बच्चे छोटे थे , तो जिस कॉलोनी में उनका पालन पोषण हुआ , वहां दूध की व्यवस्था बिल्कुल अच्छी नहीं थी। दूधवालों की संख्या की कमी के कारण उनका एकाधिकार होता था और दूध खरीदने वाले मजबूरी में सबकुछ झेलने को तैयार थे , और उनके मुनाफे की तो पूछिए मत। हमारे पडोस में ही एक व्यक्ति मोतीलाल और उसका पुत्र जवाहरलाल मिलकर सालों से सरकारी जमीन पर खटाल चला रहे थे। जमीन छीने जाने पर दूसरे स्थान में वे लोग दूसरी जगह खटाल की व्यवस्था न कर सके और सभी गाय भैंसों की बिक्री कर देनी पडी। जमीन की व्यवस्था में ही उन्हें कई वर्ष लग गए , हमलोगों को शक था कि इतने दिनों से आपलोगों का व्यवसाय बंद है , महीने के खर्च में तो पूंजी कम हो गयी होगी। पर हमें यह जानकर ताज्जुब हुआ कि कि उन्होने पूंजी को हाथ भी नहीं लगाया है, अभी तक जहां तहां पडे उधार से अपना काम चला रहे हैं।
दूध का व्यवसाय करने वाले घर घर पानी मिला दूध पहुंचाना पसंद करते थे , पर कुछ जागरूक लोगो ने सामने दुहवाकर दूध लेने की व्यवस्था की। इसके लिए वह दूध की दर अधिक रखते थे , फिर भी उन्हें संतोष नहीं होता था। कभी नाप के लिए रखे बरतन को वे अंदर से चिपका देते , तो कभी दूध निकालते वक्त बरतन को टेढा कर फेनों से उस बरतन को भर देते। चूंकि हमलोग संयुक्त परिवार में थे और दूध की अच्छी खासी खपत थी , सो हमने रोज रोज की परेशानी से तंग आकर हारकर एक गाय ही पाल लिया था और शुद्ध दूध की व्यवस्था कर ली थी। यहां आने पर दूध को लेकर चिंता बनी हुई थी।
पर बोकारो में दूधविक्रेताओं की व्यवस्था को देखकर काफी खुशी हुई , अन्य जगहों की तुलना में साफ सुथरे खटाल , मानक दर पर मानक माप और दूध की शुद्धता भी। भले ही चारे में अंतर के कारण दूध के स्वाद में कुछ कमी होती हो, साथ ही बछडे के न होने से दूध दूहने के लिए इंजेक्शन दिया करते हों। पर जमाने के अनुसार इसे अनदेखा किया जाए , तो बाकी और कोई शिकायत नहीं थी। पूरी सफाई के साथ ग्राहक के सामने बरतन को धोकर पूरा खाली कर गाय या भैंस के दूध दूहते। बहुत से नौकरी पेशा भी अलग से दूध का व्यवसाय करते थे , उनके यहां सफाई कुछ अधिक रहती थी।
अपनी जरूरत के हिसाब से ग्राहक आधे , एक या दो किलो के हॉर्लिक्स के बोतल लेकर आते , जिसमें दूधवाले निशान तक दूध अच्छी तरह भर देते। सही नाप के लिए यदि दूध में फेन होता , तो वह निशान के ऊपर आता। इतना ही नहीं , कॉपरेटिव कॉलोनी में तो वे गायें लेकर सबके दरवाजे पर जाते और आवश्यकता के अनुसार दूध दूहकर आपको दे दिया करते और फिर गायें लेकर आगे बढ जाते। यहां के दूधवाले हर महीने हिसाब भी नहीं करते , वे कई कई महीनों के पैसे एक साथ ही लेते। हां , हमारा दूधवाला एडवांस में जरूर पैसे लेता था।
दूध का व्यवसाय करने वाले घर घर पानी मिला दूध पहुंचाना पसंद करते थे , पर कुछ जागरूक लोगो ने सामने दुहवाकर दूध लेने की व्यवस्था की। इसके लिए वह दूध की दर अधिक रखते थे , फिर भी उन्हें संतोष नहीं होता था। कभी नाप के लिए रखे बरतन को वे अंदर से चिपका देते , तो कभी दूध निकालते वक्त बरतन को टेढा कर फेनों से उस बरतन को भर देते। चूंकि हमलोग संयुक्त परिवार में थे और दूध की अच्छी खासी खपत थी , सो हमने रोज रोज की परेशानी से तंग आकर हारकर एक गाय ही पाल लिया था और शुद्ध दूध की व्यवस्था कर ली थी। यहां आने पर दूध को लेकर चिंता बनी हुई थी।
पर बोकारो में दूधविक्रेताओं की व्यवस्था को देखकर काफी खुशी हुई , अन्य जगहों की तुलना में साफ सुथरे खटाल , मानक दर पर मानक माप और दूध की शुद्धता भी। भले ही चारे में अंतर के कारण दूध के स्वाद में कुछ कमी होती हो, साथ ही बछडे के न होने से दूध दूहने के लिए इंजेक्शन दिया करते हों। पर जमाने के अनुसार इसे अनदेखा किया जाए , तो बाकी और कोई शिकायत नहीं थी। पूरी सफाई के साथ ग्राहक के सामने बरतन को धोकर पूरा खाली कर गाय या भैंस के दूध दूहते। बहुत से नौकरी पेशा भी अलग से दूध का व्यवसाय करते थे , उनके यहां सफाई कुछ अधिक रहती थी।
अपनी जरूरत के हिसाब से ग्राहक आधे , एक या दो किलो के हॉर्लिक्स के बोतल लेकर आते , जिसमें दूधवाले निशान तक दूध अच्छी तरह भर देते। सही नाप के लिए यदि दूध में फेन होता , तो वह निशान के ऊपर आता। इतना ही नहीं , कॉपरेटिव कॉलोनी में तो वे गायें लेकर सबके दरवाजे पर जाते और आवश्यकता के अनुसार दूध दूहकर आपको दे दिया करते और फिर गायें लेकर आगे बढ जाते। यहां के दूधवाले हर महीने हिसाब भी नहीं करते , वे कई कई महीनों के पैसे एक साथ ही लेते। हां , हमारा दूधवाला एडवांस में जरूर पैसे लेता था।
अखबार वालों की ऐसी व्यवस्था भी होती है !!
अभी तक आपने पढा ...बोकारो में आने के तुरंत हमलोगों को अखबार की जरूरत पड गयी थी , ताकि रोज की खबरों पर नजर रखी जा सके , क्यूंकि उस समय हमारे पास टी वी नहीं था। रेडियो का तो तब शहरों में समय ही समाप्त ही हो चुका था। पडोस में अखबार डालते अखबार वाले को बुलवाकर हमने उसी दिन से अपने पसंद का अखबार लेना शुरू कर दिया था। ट्रेन के देर होने से या अन्य किसी कारण से शहर में अखबार के आने में देर भले ही हो जाती , पर शहर के अंदर समाचार पत्रों को वितरित करने में बहुत चुस्त दुरूस्त लगे ये अखबार वाले , फटाफट अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए हर जगह पहुंचा देते। हमने तीन मकान बदल लिए , पर हर जगह इन्हें ऐसा ही पाया।
जब हमलोग पहली बार मकान बदल रहे थे , तो अखबार वाले को बुलाकर उसका हिसाब करना चाहा। पर उसने हिसाब करने से इंकार कर दिया , उसने सिर्फ हमसे वह पता मांगा , जहां हम जा रहे थे। हम जब वहां पहुंचे तो दूसरे ही दिन से वहां मेरा पसंदीदा अखबार आने लगा। लगभग छह किलोमीटर की दूरी तक यानि दूसरी बार भी मकान बदलने पर ऐसा ही देखने को मिला। यह भी मालूम हुआ कि यदि हम पुराने अखबार वाले को अपना नया पता नहीं देकर आते तो भी दूसरे किसी अखबारवाले से अखबार ले सकते थे और हमें अपना अखबार मिलने लगता और सारे बिल एक साथ मिलते। नए महीने के पहले सप्ताह में ही पिछले महीने के बिल आते रहे , चाहे कितनी भी दूरी में और किसी से भी हमने समाचार पत्र क्यूं न लिए हों। पता नहीं , ऐसी व्यवस्था वे कैसे कर पाते थे ??
पूरे बोकारो शहर में भले ही सभी समाचार पत्रों का यहां एक ही एजेंट हो , उसे महाएजेंट माना जा सकता हो और उसके अंदर पुन: कई एजेंट कमीशन पर काम करते हैं , उनसे लेकर अखबार वितरित करनेवाले भी अपना काम करते हैं , जो अलग अलग क्षेत्रों के होते हैं । भले ही एजेंट पूर्ण रूप से अखबार के व्यवसाय से ही जुडे हो , पर अखबार वितरित करनेवालों का यह अतिरिक्त पेशा होता है , ये किसी अन्य काम से भी जुडे होते हैं , क्यूंकि उनकी आमदनी कम होती है। लेकिन सब मिलकर हिसाब किताब एक साथ रखते हैं और आप बोकारो में जहां भी रहें और जिससे भी पेपर लें , बीच में हिसाब करने की कोई जरूरत नहीं ,उनका अपना हिसाब होता है। हो सकता है , सभी शहरों में ऐसी व्यवस्था हो , पर मैं नहीं जानती थी , इसलिए मुझे बडा आश्चर्य हुआ।
Wednesday 11 August 2010
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर , जय कपीश तिंहू लोक उजागर .. संगीता पुरी
पिछले तीन आलेखों में आपने पढा कि किन परिस्थितियों में हमें तीन चार महीनों में तीन घर बदलने पडे थे , सेक्टर 4 के छोटे से क्वार्टर में पहुंच चुके थे। यहां आने के बाद हमलोग यहां के माहौल के अनुरूप धीरे धीरे ढलते जा रहे थ। यहां आने से पूर्व के दो वर्षों में भी हमलोग तीन क्वार्टर बदल चुके थे , उसकी चर्चा भी कभी अवश्य करूंगी। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी हमलोग तनिक भी विचलित नहीं थे। अपने जेठ के उस क्वार्टर को जहां मैं विवाह के बाद पहुंची थी और अपने जीवन के आरंभिक 8 वर्ष व्यतीत किए थे , दोनो बच्चों ने जन्म लिया था और अपना बचपन जीया था , भी जोडा जाए तो हमारे बच्चे 8 और 6 वर्ष की उम्र में ही अभी तक सात मकान देख चुके थे।
कहा जाता है कि बिल्ली जबतक अपने अपने बच्चों को सात घर में न घुमाए , तबतक उसके आंख नहीं खुलते। हमारे बच्चों के साथ भी ऐसा ही हो रहा था , ये सातवां घर था , इसलिए हम कुछ निश्चिंत थे कि अब शायद इन्हें लेकर कहीं और न जाना पडे। पर मनुष्य के जीवन के अनुरूप आंख खुलने तक , आज की सरकार के अनुसार बालिग होने तक इन्होने पूरे 10 मकान देख लिया। इनके 12वीं पास होने तक बोकारो स्टील सिटी में हमें और तीन मकान बदलने पडे, जिनके बारे में कुछ दिन बाद चर्चा करूंगी । अभी आनेवाले कुछ आलेखों में अन्य पहलुओं की चर्चा , क्यूंकि सेक्टर 4 के उस छोटे से आरामदायक क्वार्टर में हमने 4 वर्ष आराम से व्यतीत किए थे ।
वैसे तो हमारे यहां प्रथा है कि हम जब भी नए घर में रहने को जाएं , तो वहां मौजूद बुरे शक्तियों से बचने के लिए एक हवन अवश्य कराएं। मकान पुराना हो , तो इसकी आवश्यकता नहीं पडती है , पर नए में तो यह आवश्यक है। अधिकांश लोग स्वामी सत्य नारायण भगवान की ही कथा करवाते हैं, पर हम पुराने मकानों में शिफ्ट करते थे , इतनी जल्दबाजी में हर जगह अस्थायी तौर पर क्वार्टर बदलते थे कि हर वक्त इतना खर्च कर पाना आवश्यक नहीं लगा। और इसी क्रम में जब स्थायी तौर पर किसी क्वार्टर में निवास करने की बारी आयी तो भी पूजा करवाने का ध्यान न रहा। इस बात की वजह ये भी हो सकती है कि ईश्वर को मानते हुए भी विभिन्न प्रकार के कर्मकांडों पर हमारा कम विश्वास है।
पहली बार क्वार्टर बदलते समय हमलोगों ने स्वामी बजरंग बली की एक फोटो रख ली थी , बस जिस नए मकान में शिफ्ट करते , एक दो किलो लड्डू से ही उनका भोग लगाते और पडोसियों में प्रसाद के बहाने बांटकर सबके परिचय भी ले लिया करते। वास्तव में , बचपन से मेरी प्रवृत्ति रही है कि किसी भी प्रकार के घबराहट में मैं प्रार्थना अवश्य ईश्वर से किया करती हूं , पर जब भी पूजा , पाठ ,कर्मकांड , व्रत , मन्नत की बारी आती है , मुझे बजरंग बली ही याद आ जाते हैं और हमेशा हमें संकट से मुक्ति भी मिल जाती है। भले ही समाज मं चलती आ रही प्रथा केअनुरूप मैं संकट में घबडाकर कभी कोई मन्नत मान लिया करती हूं , पर वास्तव में मेरी सोंच है कि पूजा के तरीके से ईश्वर को कोई मतलब नहीं , दिल में भक्ति होनी चाहिए। ऐसी मानसिकता विकसित किए जाने में मेरे पिताजी का मुझपर प्रभाव रहा , मेरे पति की मानसिकता भी लगभग ऐसी ही है , यही कारण है कि जीवन में हर मौके पर हमलोग समाज और पंडितों के हिसाब से नहीं , अपनी मानसिकता के अनुसार काम करते रहें।
कहा जाता है कि बिल्ली जबतक अपने अपने बच्चों को सात घर में न घुमाए , तबतक उसके आंख नहीं खुलते। हमारे बच्चों के साथ भी ऐसा ही हो रहा था , ये सातवां घर था , इसलिए हम कुछ निश्चिंत थे कि अब शायद इन्हें लेकर कहीं और न जाना पडे। पर मनुष्य के जीवन के अनुरूप आंख खुलने तक , आज की सरकार के अनुसार बालिग होने तक इन्होने पूरे 10 मकान देख लिया। इनके 12वीं पास होने तक बोकारो स्टील सिटी में हमें और तीन मकान बदलने पडे, जिनके बारे में कुछ दिन बाद चर्चा करूंगी । अभी आनेवाले कुछ आलेखों में अन्य पहलुओं की चर्चा , क्यूंकि सेक्टर 4 के उस छोटे से आरामदायक क्वार्टर में हमने 4 वर्ष आराम से व्यतीत किए थे ।
वैसे तो हमारे यहां प्रथा है कि हम जब भी नए घर में रहने को जाएं , तो वहां मौजूद बुरे शक्तियों से बचने के लिए एक हवन अवश्य कराएं। मकान पुराना हो , तो इसकी आवश्यकता नहीं पडती है , पर नए में तो यह आवश्यक है। अधिकांश लोग स्वामी सत्य नारायण भगवान की ही कथा करवाते हैं, पर हम पुराने मकानों में शिफ्ट करते थे , इतनी जल्दबाजी में हर जगह अस्थायी तौर पर क्वार्टर बदलते थे कि हर वक्त इतना खर्च कर पाना आवश्यक नहीं लगा। और इसी क्रम में जब स्थायी तौर पर किसी क्वार्टर में निवास करने की बारी आयी तो भी पूजा करवाने का ध्यान न रहा। इस बात की वजह ये भी हो सकती है कि ईश्वर को मानते हुए भी विभिन्न प्रकार के कर्मकांडों पर हमारा कम विश्वास है।
पहली बार क्वार्टर बदलते समय हमलोगों ने स्वामी बजरंग बली की एक फोटो रख ली थी , बस जिस नए मकान में शिफ्ट करते , एक दो किलो लड्डू से ही उनका भोग लगाते और पडोसियों में प्रसाद के बहाने बांटकर सबके परिचय भी ले लिया करते। वास्तव में , बचपन से मेरी प्रवृत्ति रही है कि किसी भी प्रकार के घबराहट में मैं प्रार्थना अवश्य ईश्वर से किया करती हूं , पर जब भी पूजा , पाठ ,कर्मकांड , व्रत , मन्नत की बारी आती है , मुझे बजरंग बली ही याद आ जाते हैं और हमेशा हमें संकट से मुक्ति भी मिल जाती है। भले ही समाज मं चलती आ रही प्रथा केअनुरूप मैं संकट में घबडाकर कभी कोई मन्नत मान लिया करती हूं , पर वास्तव में मेरी सोंच है कि पूजा के तरीके से ईश्वर को कोई मतलब नहीं , दिल में भक्ति होनी चाहिए। ऐसी मानसिकता विकसित किए जाने में मेरे पिताजी का मुझपर प्रभाव रहा , मेरे पति की मानसिकता भी लगभग ऐसी ही है , यही कारण है कि जीवन में हर मौके पर हमलोग समाज और पंडितों के हिसाब से नहीं , अपनी मानसिकता के अनुसार काम करते रहें।
Monday 9 August 2010
जहां चाह वहां राह .. आखिरकार मुझे एक क्वार्टर प्राप्त करने में सफलता मिल ही गयी !!
बोकारो स्टील सिटी के मेरे अपने अनुभव की पिछली तीनों कडियां पढने के लिए आप यहां , यहां और यहां चटका लगाएं , अब आगे बढते हैं। कॉपरेटिव कॉलोनी के प्लाट नं 420 में अभी साफ सफाई और सेटिंग में व्यस्त ही थे कि बोकारो के निकट के एक गांव बालीडीह में रहनेवाले मेरे पापाजी के एक मित्र ठाकुर साहब को संदेश मिल गया कि हमलोग दो तीन माह से एक क्वार्टर के लिए परेशान हैं। सुनते ही उन्होने पापाजी से संपर्क किया , बोकारो में स्टील प्लांट के निर्माण के वक्त बी एस एल को उन्होने सैकडो एकड जमीन दी थी , पर मुआवजे की रकम उन्हें 30 वर्ष बाद भी नहीं मिल पायी थे। इतने जमीन देने के बाद बोकारो स्टील सिटी में वे एक इंच जमीन के भी हकदार नहीं थे। अपनी बाकी जमा पूंजी से वे केस लड रहे थे , तबतक उनका केस चल ही रहा था। अपने परिवार की गरिमा को देखते हुए वे कंपनी की ओर से दिए जानेवाले चतुर्थ श्रेणी की नौकरी को अस्वीकार कर चुके थे, परिवार की कमजोर होती स्थिति को देखते हुए उनके एक छोटे भाई ने अवश्य बोकारो में नौकरी करना स्वीकार कर लिया था। उनको सेक्टर 4 में क्वार्टर एलॉट किया गया था , जो तबतक खाली ही पडा था , क्यूंकि नौकरी के लिए वे बोकारो से 10 कि मी दूर अपने गांव बालीडीह से ही आना जाना करते थे।
शहर में क्वार्टर की इतनी दिक्कत के बावजूद उस समय तक बोकारो के विस्थापित कर्मचारी इस शर्त पर अपने क्वार्टर दूसरों को आराम से दे दिया करते थे कि किरायेदार उसे वह पैसे दे दे , जो क्वार्टर के एवज में कंपनी उससे काटती है। हां , विस्थापितों को एक सुविधा अवश्य होती थी कि उसे सालभर या दो साल के पैसे एडवांस में मिल जाते थे। आज तो सब लोग व्यवसायिक बुद्धि के होते जा रहे हैं , इतने कम में शायद न सौदा न हो। हां , तो दोनो मित्रों में तय हुआ कि कंपनी से क्वार्टर के लिए जो पैसे काटे जाएंगे , वो हमें उनके भाई को दे देना होगा। उन्हें भी सुविधा हो , इसके लिए हमलोगों ने एडवांस में ही उन्हें 25,000 रूपए दे दिए और 2 जुलाई को हमें क्वार्टर की चाबी मिल गयी। कॉलोनी में इतने सस्ते दर पर बिजली और पानी की मुफ्त सुविधा के साथ एक क्वार्टर मिल जाना हमारे लिए बहुत बडी उपलब्धि थी। तीन महीनों से चल रहा सर से एक बडा बोझ हट गया था , पर कॉपरेटिव कॉलोनी के मकान मालिक हमारे दो महीने के एडवांस लौटाने को तैयार न थे।
लगातार खर्चे बढते देख हम भी कम परेशान न थे , पैसे को वसूल करने के लिए हम यदि दो महीने यहां रहते , तो एक महीने का पानी और डेढ महीने के बिजली के भी अतिरिक्त पैसे लगते। सेक्टर 4 का क्वार्टर तो हम ले ही चुके थे , इसलिए अब यहां मन भी नहीं लग रहा था , हमने पांच जुलाई को वहीं शिफ्ट करने का निश्चय किया। बहुत ही छोटे छोटे दो कमरो का सरकारी क्वार्टर , पर हम तीन मां बेटे तो रह ही सकते थे। मेरी आवश्यकता के अनुरूप रसोई अपेक्षाकृत बडी थी , क्यूंकि मैं एक साथ सबकुछ बनाने के फेर में सारा सामान फैला देती हूं , फिर खाना बन जाने के बाद ही सबको एक साथ समेटती हूं। दिक्कत इतनी ही दिखी कि स्लैब नहीं था , कुछ दिनों तक बैठकर खाना बनाना पडा। शिफ्ट करने के बाद बारिश का मौसम शुरू हुआ , रसोईघर के सीपेज वाले दीवाल में से , नालियों में से रंग बिरंगे कीडे निकलने का दौर शुरू हुआ , तो हमने स्वयं से ही इस रसोई की दीवालों पर प्लास्टर करने का मन बनाया। लेकिन यह काम बारिश के बाद ही हो सकता था , तबतक मैं इस छोटी सी समस्या को झेलने को मजबूर थी।
कुछ दिनों तक पानी के लाइन में काम होने की वजह से पानी भी 4 बजे से 7 बजे सुबह तक चला करता था। इतनी सुबह क्या काम हो , जब काम के लिए तैयार होते , नल में पानी ही नहीं होती। तब हमलोगों ने स्टोर करने के लिए एक बडा ड्रम रख लिया और सुबह सुबह ही कपडे धुल जाएं , इसलिए वाशिंग मशीन भी ले ली थी , भले ही तबतक घर में टी वी और फ्रिज तक नहीं थे। घर में वाशिंग मशीन रखने के लिए भी जगह नहीं थी , पर बडा किचन इस काम आया और उसके एक किनारे मैने इसे रख दिया। बरसात के बाद कंपनी का खुद ही टेंडर निकला , दीवाल के प्लास्टर के लिए कुछ मिस्त्री काम करने आए , लगे हाथ हमलोगों ने अलग से एक स्लैब बनवाया, सिंक खरीदा , रसोई में ये सब भी लगवा दिए। कंपनी की ओर से ऊपर की टंकी को भी ठीक किया गया , जिससे 24 घंटे पानी की सप्लाई होने लगी। कुछ ही दिनों में चूना भी हो गया और अक्तूबर 1998 से घर बिल्कुल मेरे रहने लायक था , बस कमी थी तो एक कि वह बहुत छोटा था , पर उस वक्त आदमी और सामान कम थे , सो दिक्कत नहीं हुई।
कुछ ही दिनों में सेक्टर 4 का यह छोटा सा क्वार्टर हमारे लिए पूरा सुविधाजनक बन गया था। यहां से मात्र 500 मीटर की दूरी पर एक ओर बोकारो का मुख्य बाजार , जिसमें हर प्रकार का बाजार किया जा सकता था , डॉक्टर भी बैठा करते , छोटे मोटे कई नर्सिंग होम भी थे। और इतनी ही दूरी पर दूसरी ओर बडा हॉस्पिटल भी , जहां किसी इमरजेंसी में जाया जा सकता था , वहीं बगल में छोटा सा हाट भी था , जहां से फल सब्जियां खरीदा जा सकता था। बच्चों के जूनियर स्कूल भले ही थोडी दूरी पर थे , वे बस से जाते। पर सीनियर स्कूल बगल में होने और उसी में सारा ऑफिशियल काम होने से मुझे बहुत सुविधा होती। आधे किलोमीटर के अंदर मेरा हर काम हो सकता था। कुल मिलाकर यह क्वार्टर बहुत ही अच्छी जगह था , जहां परिवार को छोडकर ये निश्चिंत रह सकते थे। इतने दिनों के झंझट में सारी छुट्टियां जो समाप्त हो गयी थी। धीरे धीरे कुछ परिचितों का भी पता चलने लगा था और हमलोग संडे वगैरह को वहां घूम भी लेते। अभी चलती ही रहेगी ये बोकारो गाथा !!
Saturday 7 August 2010
कुछ दिनों तक तो हमें चार सौ बीस में रहने को बाध्य होना पडा !!
पिछले इस और इस आलेख के माध्यम से क्रमश: आपको जानकारी हुई कि किन परिस्थितियों में हमने अपने बच्चों का बोकारो के स्कूल में एडमिशन कराया और हमें एक महीने तक चास में विपरीत परिस्थितियों में रहने को बाध्य होना पडा। घर लौटने पर गर्मी की छुट्टियों के 45 दिनों में से एक महीने हमने पूरी निश्चिंति से गुजारे , पर 31 वें दिन से पुन: तनाव ने घेरना शुरू कर दिया था , क्यूंकि कहीं भी बात बनती नहीं दिख रही थी। लेकिन उसके बाद काफी गंभीरता से पुन: मकान के लिए दौड धूप करने की शुरूआत की। पर देखते ही देखते 42वां दिन भी पहुंच गया और हमारी बात कहीं भी न बनी।
दो तीन दिन बाद स्कूल खुलने थे और इतनी जल्दी तो हम हार नहीं मान सकते थे , पर चास के गुजरात कॉलोनी जाने के लिए हम बिल्कुल तैयार न थे। ऐसी हालत में हमने मजबूरी में बी एस एल कॉलोनी में किसी मकान का जुगाड होने तक अपने बजट के बाहर कॉपरेटिव कॉलोनी में घर लेना चाहा, जहां बी एस एल की ओर से नियमित पानी और बिजली की सप्लाई की जाती है। पर यहां भी मकान खाली हो तब तो मिले। घूमते घूमते सिर्फ एक जगह 'TO LET' का बोर्ड टंगा मिला , हमने उस फ्लैट की किसी खामी पर ध्यान न देते हुए हां कर दी। बिजली और पानी की सुविधा के बाद बाकी असुविधाएं गौण होती हैं, इसका हमें पता चल गया था। हां , 1998 में 2500 रूपए का किराया , पानी के लिए दो सौ रूपए और 4 रू प्रति यूनिट की दर से बिजली का भुगतान हमारे बजट से बाहर था और इसे लंबे समय तक चलाने के लिए कुछ अतिरिक्त आय की व्यवस्था करनी पडती। हमने अपने पुराने मकान मालिक को एक महीने रहने का तीन महीने का किराया सौंपा और वहां से सामान यहां ले आए।
18 जून से हमलोगों ने उस फ्लैट में रहना और 20 जून से बच्चों ने स्कूल जाना शुरू कर दिया। दो कमरे बडे बडे थे , पर डाइनिंग रूम को सभी कमरो , रसोई और बाथरूम को जोडनेवाला गलियारा मात्र कहा जा सकता था। गंदगी हद से अधिक , खासकर किचन की खिडकियों का तो पूछे ही मत। नए किरायेदार के आने से पूर्व मकानमालिक दीवालों पर तो रंगरोगन करवाते हैं , पर खिडकियों को यूंही छोड देते हैं , जिसका फल हमें भुगतना पड रहा था। पूरे घर की साफ सफाई में हमें 10 दिन लग गए , इस बार हमलोग कुछ और सामान लेकर आए थे , घर धीरे धीरे व्यवस्थित होने लगा था। बाथरूम का पानी कभी कभी डाइनिंग में अवश्य चला जाता था , पर इसे अनदेखा करके हम चैन की सांस लेने लगे थे।
हमें बाद में मालूम हुआ कि यह फ्लैट मुझे इतनी जल्दी सामान्य परिस्थितियों में नहीं मिला था , वो इसलिए मिला था , क्यूंकि लोग इसमें रहना पसंद नहीं करते थे , इसका नंबर 420 जो था। मकानमालिक ने बाद में स्पष्ट किया कि प्लॉट एलॉट होने के वक्त भी कम प्वाइंट होने के बाद भी उन्हें यह प्लॉट आसानी से मिल गया था , क्यूंकि अधिक प्वाइंटवाले लोग प्लॉट नं 420 को लेकर अपनी छवि को खराब नहीं करना चाहते थे। भला हो उन कुछ नंबरों का , जिसे आमतौर पर लोग प्रयोग नहीं करना चाहते और वह नंबर मुसीबत में पडे लोगों की मदद कर देता है। ऐसी परिस्थिति में ही मुझे भी 420 में रहने का मौका मिल गया , पर मात्र 18 दिनों तक ही वहां रह पायी , आखिर क्या हुआ आगे ?? इसे जानने के लिए अगली कडी को पढना न भूलें।
दो तीन दिन बाद स्कूल खुलने थे और इतनी जल्दी तो हम हार नहीं मान सकते थे , पर चास के गुजरात कॉलोनी जाने के लिए हम बिल्कुल तैयार न थे। ऐसी हालत में हमने मजबूरी में बी एस एल कॉलोनी में किसी मकान का जुगाड होने तक अपने बजट के बाहर कॉपरेटिव कॉलोनी में घर लेना चाहा, जहां बी एस एल की ओर से नियमित पानी और बिजली की सप्लाई की जाती है। पर यहां भी मकान खाली हो तब तो मिले। घूमते घूमते सिर्फ एक जगह 'TO LET' का बोर्ड टंगा मिला , हमने उस फ्लैट की किसी खामी पर ध्यान न देते हुए हां कर दी। बिजली और पानी की सुविधा के बाद बाकी असुविधाएं गौण होती हैं, इसका हमें पता चल गया था। हां , 1998 में 2500 रूपए का किराया , पानी के लिए दो सौ रूपए और 4 रू प्रति यूनिट की दर से बिजली का भुगतान हमारे बजट से बाहर था और इसे लंबे समय तक चलाने के लिए कुछ अतिरिक्त आय की व्यवस्था करनी पडती। हमने अपने पुराने मकान मालिक को एक महीने रहने का तीन महीने का किराया सौंपा और वहां से सामान यहां ले आए।
18 जून से हमलोगों ने उस फ्लैट में रहना और 20 जून से बच्चों ने स्कूल जाना शुरू कर दिया। दो कमरे बडे बडे थे , पर डाइनिंग रूम को सभी कमरो , रसोई और बाथरूम को जोडनेवाला गलियारा मात्र कहा जा सकता था। गंदगी हद से अधिक , खासकर किचन की खिडकियों का तो पूछे ही मत। नए किरायेदार के आने से पूर्व मकानमालिक दीवालों पर तो रंगरोगन करवाते हैं , पर खिडकियों को यूंही छोड देते हैं , जिसका फल हमें भुगतना पड रहा था। पूरे घर की साफ सफाई में हमें 10 दिन लग गए , इस बार हमलोग कुछ और सामान लेकर आए थे , घर धीरे धीरे व्यवस्थित होने लगा था। बाथरूम का पानी कभी कभी डाइनिंग में अवश्य चला जाता था , पर इसे अनदेखा करके हम चैन की सांस लेने लगे थे।
हमें बाद में मालूम हुआ कि यह फ्लैट मुझे इतनी जल्दी सामान्य परिस्थितियों में नहीं मिला था , वो इसलिए मिला था , क्यूंकि लोग इसमें रहना पसंद नहीं करते थे , इसका नंबर 420 जो था। मकानमालिक ने बाद में स्पष्ट किया कि प्लॉट एलॉट होने के वक्त भी कम प्वाइंट होने के बाद भी उन्हें यह प्लॉट आसानी से मिल गया था , क्यूंकि अधिक प्वाइंटवाले लोग प्लॉट नं 420 को लेकर अपनी छवि को खराब नहीं करना चाहते थे। भला हो उन कुछ नंबरों का , जिसे आमतौर पर लोग प्रयोग नहीं करना चाहते और वह नंबर मुसीबत में पडे लोगों की मदद कर देता है। ऐसी परिस्थिति में ही मुझे भी 420 में रहने का मौका मिल गया , पर मात्र 18 दिनों तक ही वहां रह पायी , आखिर क्या हुआ आगे ?? इसे जानने के लिए अगली कडी को पढना न भूलें।
Friday 6 August 2010
इतने निकट रहते हुए भी हमें मालूम न था .. बोकारो में मकान की इतनी किल्लत है !!
पिछले अंक में आपने पढा कि कितनी माथापच्ची के बाद हमने आखिरकार बच्चों का बोकारो में एडमिशन करवा ही लिया। 1998 के फरवरी के अंत में बच्चों के दाखिले से लेकर स्कूल के लिए अन्य आवश्यक सामानों की खरीदारी , जो आजकल आमतौर पर स्कूलों के द्वारा ही दी जाती है , सब हो गयी थी और 2 अप्रैल से क्लासेज शुरू होने थे , जिससे पहले हमें मार्च के अंत में बोकारो में किराये का मकान लेकर शिफ्ट कर जाना था। हमने अपने सारे परिचितों को बोकारो में एक किराए के मकान के लिए कह दिया था , पर पूरा बोकारो शहर SAIL के अंदर आता है , वहां उनके अपने कर्मचारियों के लिए क्वार्टर्स बने हैं , जिसमें वो रहते हैं। शहर के एक किनारे बी एस एल के द्वारा ही एकमात्र प्राइवेट कॉलोनी 'कॉपरेटिव कॉलोनी' बनायी गयी है , जिसमें बिजली और पानी की सप्लाई बी एस एल के द्वारा की जाती है , पर मांग की तुलना में मकान की कमी होने से ये भी सर्वसुलभ नहीं। बैंक , एल आई सी या अन्य छोटी बडी कंपनियों के कर्मचारी वहां रहा करते है। बडे बडे व्यवसायियों के रहने के लिए मार्केट कांप्लेक्स में उनके अपने मकान हैं।
यहां के छोटे व्यवसायी या बाहरी लोग विस्थापित चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को एलॉट किए गए छोटे छोटे क्वार्टर्स को किराये में ले लेते हैं , जरूरत हो तो उसी कैम्पस में एक दो कमरे बना लेते हैं , क्यूंकि ऐसे कर्मचारी अपने गांव में रहते हैं और उनके क्वार्टर्स खाली पडे होते हें। BSL के अनुसार यह गैरकानूनी तो है , पर आम जनों के लिए इसके सिवा कोई विकल्प नहीं। मुझे अकेले ही दोनो बच्चों को लेकर रहना था , इसलिए मैने वैसे ही किसी कर्मचारी की खोज आरंभ कर दी। जान पहचान के लोगों को फोन करने पर जबाब मिलता ... बोकारो में जीने खाने के लिए नौकरी मिल जाती है , विवाह करने के लिए छोकरी भी मिल जाती है , पर घर बसाने के लिए कोठरी क्या , झोपडी भी नहीं मिलती , सुनकर मन परेशान हो जाया करता था। देखते देखते मार्च का अंतिम सप्ताह आ गया , दो चार दिनों में क्लासेज शुरू होने थे और रहने के लिए मकान का अता पता भी नहीं था। वास्तव में बोकारो के इर्द गिर्द के शहर या अन्य कॉलोनी में पानी की व्यवस्था मकानमालिकों को खुद करनी पडती है , जबकि बिजली के लिए वे राज्य सरकार पर निर्भर रहते हैं , दोनो असुविधाजनक है , किराएदार वहां रहना पसंद नहीं करते , इसलिए बोकारो के सभी सेक्टरों की मुख्य कॉलोनी पर पूरा दबाब बना होता है।
हारकर हमने बोकारो से बिल्कुल सटे शहर चास में डेरा लेने का निश्चय किया । बोकारो और चास के मध्य एक छोटी सी नदी बहती है और दोनो के मध्य दो चार सौ मीटर की एक पुल का ही फासला है। स्कूल की बस वहां तक आती थी , इसलिए अधिक चिंता नहीं थी , कुछ लोगों ने वहां के पीने के पानी की शिकायत कर हमें भयभीत जरूर कर दिया था। चास में डेरा मिलने में देर नहीं लगी और 1 अप्रैल को हमलोग कामचलाऊ सामान के साथ इसके गुजरात कॉलोनी के एक मकान में शिफ्ट कर गए। पता नहीं , किसने घर का नक्शा तैयार किया था , इस घर के एक कमरे में एक भी खिडकी नहीं थी , जबकि दूसरे में चारो ओर खिडकियां ही खिडकियां , वो भी बिना ग्रिल या रॉड की अनफिट दरवाजे वाली। कम सामान के कारण दो चार घंटे में ही घर व्यवस्थित हो गया , पर पहले ही दिन खाना खाने से भी पहले हुई बारिश ने न सिर्फ इस घर का पूरा पोल खोलकर रख दिया , वरन् हमें अप्रैलफूल भी बना दिया। थोडी ही देर में पूरा कमरा बारिश के पानी से भरा था और भीगने से बचाने के क्रम में सारा सामान कमरे के बीचोबीच। 'मैं इस घर में नहीं रह सकती , बरसात से पहले पहले दूसरा घर देखना होगा' मैने निश्चय कर लिया था , पर बाद में अन्य कठिनाइयों को देखते हुए महसूस हुआ कि इस कॉलोनी मे मकान बदलने से भी कोई फायदा नहीं होनेवाला।
दूसरे दिन से बच्चों ने स्कूल जाना शुरू कर दिया था , पर शाम को चार घंटे बिजली गुल , न तो होमवर्क करना संभव था और न ही खाना बनाना। कई दिन तो बच्चे बिना होमवर्क के भूखे सो गए , सुबह जल्दी उठाकर उन्हें होमवर्क कराने पडते। फिर मैने एक उपाय निकाला , उन्हे दिन में सुलाना बंद कर दिया , स्कूल से आने के बाद खिलाकर होमवर्क करवाती , शाम को फिर से नाश्ता और नींद आने के वक्त हॉर्लिक्स पिलाकर सुला देती , दूध तो तब लेना भी नहीं शुरू किया था। पर समस्या एक नहीं थी , शाम बिजली के जाते ही जेनरेटरों की आवाज से जीना मुश्किल लगने लगता। कुछ दिनों तक एक छोटा भाई मेरे साथ था , छोटी सी बालकनी में मुश्किल से दो कुर्सियां डालकर हम दोनो बैठे रहते , कुर्सियों के हत्थे पर थोडी देर बच्चे बैठते , फिर थककर सो जाते।10 बजे रात में लाइट आने से पहले तक हमलोग दोनो सोए बच्चों को पंखा झलते , लाइट आने के बाद खाना बनाते , तब खाते। अंधेरे , गर्मी और होहल्ले की वजह से मेरे सर मे दर्द रहने लगा था।
परेशान हो गए थे हमलोग इस रूटीन से , हमलोग समझ चुके थे कि चास में रहकर बच्चों को पढा पाना मुश्किल है , इसलिए प्रतिदिन बोकारो आकर अपने परिचितों के माध्यम से क्वार्टर्स के बारे में पता करते। इतने आसपास में बसे दो शहर और दोनो में इतना फर्क , हमें ऐसा महसूस होता , मानो दोनो शहरों के मध्य बहती नदी पर बना वह पुल स्वर्ग और नरक को जोडता हो। ऐसे ही तनावपूर्ण वातावरण में एक महीने व्यतीत हो गए और 4 मई का दिन आ गया , जहां से 45 दिनों की गर्मियों की छुट्टियां थी , हमलोग वापस अपने घर आ गए। हमें 45 दिन पुन: मकान ढूंढने के लिए मिल गए थे , जिससे काफी राहत हो गयी थी। तबतक हमने फर्नीचर भले ही यहां छोड दिए हों , पर मन ही मन तैयार थी कि यदि बोकारो मे घर नहीं मिला तो यहां दुबारा नहीं आऊंगी , क्यूंकि मुझे बच्चों को पढाने के लिए ही यहां रहना था और ऐसे वातावरण्ा में जब बच्चे पढ ही नहीं पाएंगे , तो फिर यहां रहने का क्या फायदा ?? बोकारो के खट्टे मीठे अनुभवों से संबंधित पोस्ट आगे भी चलती ही रहेगी।
यहां के छोटे व्यवसायी या बाहरी लोग विस्थापित चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को एलॉट किए गए छोटे छोटे क्वार्टर्स को किराये में ले लेते हैं , जरूरत हो तो उसी कैम्पस में एक दो कमरे बना लेते हैं , क्यूंकि ऐसे कर्मचारी अपने गांव में रहते हैं और उनके क्वार्टर्स खाली पडे होते हें। BSL के अनुसार यह गैरकानूनी तो है , पर आम जनों के लिए इसके सिवा कोई विकल्प नहीं। मुझे अकेले ही दोनो बच्चों को लेकर रहना था , इसलिए मैने वैसे ही किसी कर्मचारी की खोज आरंभ कर दी। जान पहचान के लोगों को फोन करने पर जबाब मिलता ... बोकारो में जीने खाने के लिए नौकरी मिल जाती है , विवाह करने के लिए छोकरी भी मिल जाती है , पर घर बसाने के लिए कोठरी क्या , झोपडी भी नहीं मिलती , सुनकर मन परेशान हो जाया करता था। देखते देखते मार्च का अंतिम सप्ताह आ गया , दो चार दिनों में क्लासेज शुरू होने थे और रहने के लिए मकान का अता पता भी नहीं था। वास्तव में बोकारो के इर्द गिर्द के शहर या अन्य कॉलोनी में पानी की व्यवस्था मकानमालिकों को खुद करनी पडती है , जबकि बिजली के लिए वे राज्य सरकार पर निर्भर रहते हैं , दोनो असुविधाजनक है , किराएदार वहां रहना पसंद नहीं करते , इसलिए बोकारो के सभी सेक्टरों की मुख्य कॉलोनी पर पूरा दबाब बना होता है।
हारकर हमने बोकारो से बिल्कुल सटे शहर चास में डेरा लेने का निश्चय किया । बोकारो और चास के मध्य एक छोटी सी नदी बहती है और दोनो के मध्य दो चार सौ मीटर की एक पुल का ही फासला है। स्कूल की बस वहां तक आती थी , इसलिए अधिक चिंता नहीं थी , कुछ लोगों ने वहां के पीने के पानी की शिकायत कर हमें भयभीत जरूर कर दिया था। चास में डेरा मिलने में देर नहीं लगी और 1 अप्रैल को हमलोग कामचलाऊ सामान के साथ इसके गुजरात कॉलोनी के एक मकान में शिफ्ट कर गए। पता नहीं , किसने घर का नक्शा तैयार किया था , इस घर के एक कमरे में एक भी खिडकी नहीं थी , जबकि दूसरे में चारो ओर खिडकियां ही खिडकियां , वो भी बिना ग्रिल या रॉड की अनफिट दरवाजे वाली। कम सामान के कारण दो चार घंटे में ही घर व्यवस्थित हो गया , पर पहले ही दिन खाना खाने से भी पहले हुई बारिश ने न सिर्फ इस घर का पूरा पोल खोलकर रख दिया , वरन् हमें अप्रैलफूल भी बना दिया। थोडी ही देर में पूरा कमरा बारिश के पानी से भरा था और भीगने से बचाने के क्रम में सारा सामान कमरे के बीचोबीच। 'मैं इस घर में नहीं रह सकती , बरसात से पहले पहले दूसरा घर देखना होगा' मैने निश्चय कर लिया था , पर बाद में अन्य कठिनाइयों को देखते हुए महसूस हुआ कि इस कॉलोनी मे मकान बदलने से भी कोई फायदा नहीं होनेवाला।
दूसरे दिन से बच्चों ने स्कूल जाना शुरू कर दिया था , पर शाम को चार घंटे बिजली गुल , न तो होमवर्क करना संभव था और न ही खाना बनाना। कई दिन तो बच्चे बिना होमवर्क के भूखे सो गए , सुबह जल्दी उठाकर उन्हें होमवर्क कराने पडते। फिर मैने एक उपाय निकाला , उन्हे दिन में सुलाना बंद कर दिया , स्कूल से आने के बाद खिलाकर होमवर्क करवाती , शाम को फिर से नाश्ता और नींद आने के वक्त हॉर्लिक्स पिलाकर सुला देती , दूध तो तब लेना भी नहीं शुरू किया था। पर समस्या एक नहीं थी , शाम बिजली के जाते ही जेनरेटरों की आवाज से जीना मुश्किल लगने लगता। कुछ दिनों तक एक छोटा भाई मेरे साथ था , छोटी सी बालकनी में मुश्किल से दो कुर्सियां डालकर हम दोनो बैठे रहते , कुर्सियों के हत्थे पर थोडी देर बच्चे बैठते , फिर थककर सो जाते।10 बजे रात में लाइट आने से पहले तक हमलोग दोनो सोए बच्चों को पंखा झलते , लाइट आने के बाद खाना बनाते , तब खाते। अंधेरे , गर्मी और होहल्ले की वजह से मेरे सर मे दर्द रहने लगा था।
परेशान हो गए थे हमलोग इस रूटीन से , हमलोग समझ चुके थे कि चास में रहकर बच्चों को पढा पाना मुश्किल है , इसलिए प्रतिदिन बोकारो आकर अपने परिचितों के माध्यम से क्वार्टर्स के बारे में पता करते। इतने आसपास में बसे दो शहर और दोनो में इतना फर्क , हमें ऐसा महसूस होता , मानो दोनो शहरों के मध्य बहती नदी पर बना वह पुल स्वर्ग और नरक को जोडता हो। ऐसे ही तनावपूर्ण वातावरण में एक महीने व्यतीत हो गए और 4 मई का दिन आ गया , जहां से 45 दिनों की गर्मियों की छुट्टियां थी , हमलोग वापस अपने घर आ गए। हमें 45 दिन पुन: मकान ढूंढने के लिए मिल गए थे , जिससे काफी राहत हो गयी थी। तबतक हमने फर्नीचर भले ही यहां छोड दिए हों , पर मन ही मन तैयार थी कि यदि बोकारो मे घर नहीं मिला तो यहां दुबारा नहीं आऊंगी , क्यूंकि मुझे बच्चों को पढाने के लिए ही यहां रहना था और ऐसे वातावरण्ा में जब बच्चे पढ ही नहीं पाएंगे , तो फिर यहां रहने का क्या फायदा ?? बोकारो के खट्टे मीठे अनुभवों से संबंधित पोस्ट आगे भी चलती ही रहेगी।
Wednesday 4 August 2010
किसी प्रकार के रिस्क से भय कैसा .. अपने घर लौटने के लिए तो रास्ता हमेशा खुला होता है !!
बेटे के एडमिशन के सिलसिले में एक सप्ताह से नेट से , ब्लॉग जगत से दूर थी , कुछ भी लिखना पढना नहीं हो पाया। दो वर्ष पहले जब बडे बेटे ने अपनी पढाई के लिए घर से बाहर कदम बढाया था , छोटे की घर में मौजूदगी के कारण बनी व्यस्तता ने इसका अहसास भी नहीं होने दिया था। पर इस बार छोटे का कॉलेज में दाखिले के बाद घर लौटना हुआ तो घर इतना खाली लग रहा है कि यहां रहने की इच्छा नहीं हो रही। वैसे रहने की बाध्यता भी इस घर में , इस शहर में नहीं है , क्यूंकि ये शहर तो मैने बच्चों की 12वीं तक की पढाई लिखाई के लिए ही चुना था , जो पूरा हो चुका। पर जहां की मिट्टी में एक बार घुलना मिलना हो जाता है , तुरंत पीछा छुडा पाना इतना आसान भी तो नहीं होता। 12 वर्षों का समय कम भी तो नहीं होता , शहर के एक एक गली से ,घर के एक एक कोने से ऐसा जुडाव हो जाता है कि उससे दूर होने का जी भी नहीं करता। किसी नई जगह जाना हो , तो एक उत्सुकता भी मन में होती है , पर उसी पुरानी छोटी सी जगह में लौटना , जिसे 12 वर्षों पहले छोडकर आयी थी , मन में कोई उत्साह नहीं पैदा करता है। वैसे तो उस छोटी सी कॉलोनी के अंदर भी सुख सुविधा की तो कोई कमी नहीं , पर जो बात इस शहर में है , वो भला कहीं और कहां ??
12 वर्ष पहले की एक एक बात हमें याद है , सभी जागरूक अभिभावकों की तरह ही हमें भी यह अहसास होने लगा था कि बच्चों को पढाई लिखाई का अच्छा माहौल दिया जाए , तो उनके कैरियर को मजबूती दी जा सकती है। बच्चों को लकर हमारी महत्वाकांक्षा बढती जा रही थी और हमारी कॉलोनी के जिस स्कूल में बच्चे पढ रहे थे , उसमें पढाई लिखाई के वातावरण का ह्रास होता जा रहा था। राज्य सरकार के विद्यालयों को तो छोड ही दें , बिहार और झारखंड के केन्द्रीय विद्यालय का तो हाल भी किसी से छुपा न होगा। पढाई के ऐसे वातावरण से ऊबकर हमलोग अच्छे अच्छे अवासीय स्कूलों का पता करने लगें। पर उनमें दो बच्चों की पढाई का बजट हमारी क्षमता से अधिक था। कुछ दिनों तक दौड धूप करने के बाद हम निराश बैठे थे कि अचानक बोकारो के 'दिल्ली पब्लिक स्कूल' में हर कक्षा में एक नए सेक्शन के शुरूआत की घोषणा की खबर हमें मिली। हमने स्कूल से दो फार्म मंगवा तो लिए , पर स्कूल में होस्टल की व्यवस्था नहीं थी , बच्चे छोटे थे , इसलिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था भी नहीं की जा सकती थी , यह सोंचकर हमलोग दाखिले के लिए अधिक गंभीर नहीं थे।
पर बोकारो के इस स्कूल की सबने इतनी प्रशंसा सुनी थी कि फॉर्म जमा करने के ठीक एक दिन पहले परिवार के अन्य सदस्यों के बातचीत के बाद निर्णय हुआ कि फार्म भर ही दिया जाए , रिजल्ट से ये तो पता चलेगा कि बच्चे कितने पानी में हैं। जहां तक एडमिशन कराने की बात है , कोई बाध्यता तो नहीं है , रिजल्ट के बाद ही कुछ सोंचा समझा जाएगा। पर दूसरे दिन दिसंबर का अंतिम दिन था , कंपकंपाती ठंड महीने में लगातार बारिश , मौसम के बारे में सब अंदाजा लगा सकते हैं, फार्म जमा करने की हमलोगों की इच्छा समाप्त हो गयी थी , पर अपने भांजे के बेहतर भविष्य के लिए वैसे मौसम में भी बस से लंबी सफर करते हुए दिनभर क्यू मे खडा रहकर मेरा भाई फॉर्म जमा करके आ ही गया , साथ में परीक्षा की तिथि लेकर भी। बच्चों को हमने एक सप्ताह तक परीक्षा की तैयारी करायी , परीक्षाभवन में भीड की तो पूछिए मत , बोकारो के अभिभावकों के लिए डी पी एस पहला विकल्प हुआ करता है । पर दोनो भाइयों ने लिखित के साथ साथ मौखिक परीक्षा और इंटरव्यू तक में अच्छा प्रदर्शन किया और क्रमश: तीसरी और पहली कक्षा में एडमिशन के लिए दोनो का चयन कर लिया गया।
दोनो में से किसी एक के चयन न होने से हमारे सामने बोकारो न जाने का अच्छा बहाना हो जाता , पर दोनो के चयन के बाद हमारी मुश्किल और भी बढ गयी। एडमिशन तक के दस दिनों का समय हमलोगों ने किंकर्तब्यविमूढता में गुजारे। ये नौकरी छोडकर बोकारो आ नहीं सकते थे , बच्चों को दूसरी जगह छोडा नहीं जा सकता था , एकमात्र विकल्प था , मैं उनको लेकर यहां रहूं , एक दो वर्ष नहीं , लगातार 12 वर्षों तक । पर बडे होने पर बच्चे मेरी आज्ञा की अवहेलना करें , पिता के घर में नहीं होने से पढाई न करें , बिगड जाएं तो सारी जबाब देही मेरे माथे पर ही आएगी , सोंचकर मैं परेशान थी। लेकिन एडमिशन के डेट के ठीक दो दिन पहले यहां भी निर्णय हुआ।
इनके एक मित्र के भाई बोकारो में रहते थे , डी पी एस की पढाई और व्यवस्था के बारे में उन्हें जानकारी थी। वो संयोग से हमारे यहां आए , जब सारी बातों की उन्हें जानकारी हुई , तो उन्होने तुरंत एडमिशन कराने को कहा। भविष्य के प्रति हमारी आशंका को देखते हुए उन्होने कहा .. 'अपने घर लौटने के लिए तो आपका रास्ता हमेशा खुला होता है , किसी प्रकार के रिस्क लेने में भय कैसा ?? दूसरी जगह जाने के लिए मौका कभी कभार ही मिलता है , वहां कोई परेशानी हो , उसी दिन वापस लौट जाइए। हां , इसमें कुछ पैसे भले ही बर्वाद होंगे , पर इसे अनदेखा किया जाना चाहिए।' उनका इतना कहना हमें बहुत कुछ समझा गया । पुरानी व्यवस्था को बिना डगमग किए सफलता की ओर जाने का कोई चांस मिले तो वैसे रिस्क लेने में भला क्या गडबडी ?? हमलोगों ने तुरंत एडमिशन का मन बना लिया और दूसरे ही दिन बोकारो आ गए। आगे की पोस्टों में भी चलता ही रहेगा .. बोकारो के 12 वर्षों के सफर के खट्टे मीठे अनुभव !!
12 वर्ष पहले की एक एक बात हमें याद है , सभी जागरूक अभिभावकों की तरह ही हमें भी यह अहसास होने लगा था कि बच्चों को पढाई लिखाई का अच्छा माहौल दिया जाए , तो उनके कैरियर को मजबूती दी जा सकती है। बच्चों को लकर हमारी महत्वाकांक्षा बढती जा रही थी और हमारी कॉलोनी के जिस स्कूल में बच्चे पढ रहे थे , उसमें पढाई लिखाई के वातावरण का ह्रास होता जा रहा था। राज्य सरकार के विद्यालयों को तो छोड ही दें , बिहार और झारखंड के केन्द्रीय विद्यालय का तो हाल भी किसी से छुपा न होगा। पढाई के ऐसे वातावरण से ऊबकर हमलोग अच्छे अच्छे अवासीय स्कूलों का पता करने लगें। पर उनमें दो बच्चों की पढाई का बजट हमारी क्षमता से अधिक था। कुछ दिनों तक दौड धूप करने के बाद हम निराश बैठे थे कि अचानक बोकारो के 'दिल्ली पब्लिक स्कूल' में हर कक्षा में एक नए सेक्शन के शुरूआत की घोषणा की खबर हमें मिली। हमने स्कूल से दो फार्म मंगवा तो लिए , पर स्कूल में होस्टल की व्यवस्था नहीं थी , बच्चे छोटे थे , इसलिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था भी नहीं की जा सकती थी , यह सोंचकर हमलोग दाखिले के लिए अधिक गंभीर नहीं थे।
पर बोकारो के इस स्कूल की सबने इतनी प्रशंसा सुनी थी कि फॉर्म जमा करने के ठीक एक दिन पहले परिवार के अन्य सदस्यों के बातचीत के बाद निर्णय हुआ कि फार्म भर ही दिया जाए , रिजल्ट से ये तो पता चलेगा कि बच्चे कितने पानी में हैं। जहां तक एडमिशन कराने की बात है , कोई बाध्यता तो नहीं है , रिजल्ट के बाद ही कुछ सोंचा समझा जाएगा। पर दूसरे दिन दिसंबर का अंतिम दिन था , कंपकंपाती ठंड महीने में लगातार बारिश , मौसम के बारे में सब अंदाजा लगा सकते हैं, फार्म जमा करने की हमलोगों की इच्छा समाप्त हो गयी थी , पर अपने भांजे के बेहतर भविष्य के लिए वैसे मौसम में भी बस से लंबी सफर करते हुए दिनभर क्यू मे खडा रहकर मेरा भाई फॉर्म जमा करके आ ही गया , साथ में परीक्षा की तिथि लेकर भी। बच्चों को हमने एक सप्ताह तक परीक्षा की तैयारी करायी , परीक्षाभवन में भीड की तो पूछिए मत , बोकारो के अभिभावकों के लिए डी पी एस पहला विकल्प हुआ करता है । पर दोनो भाइयों ने लिखित के साथ साथ मौखिक परीक्षा और इंटरव्यू तक में अच्छा प्रदर्शन किया और क्रमश: तीसरी और पहली कक्षा में एडमिशन के लिए दोनो का चयन कर लिया गया।
दोनो में से किसी एक के चयन न होने से हमारे सामने बोकारो न जाने का अच्छा बहाना हो जाता , पर दोनो के चयन के बाद हमारी मुश्किल और भी बढ गयी। एडमिशन तक के दस दिनों का समय हमलोगों ने किंकर्तब्यविमूढता में गुजारे। ये नौकरी छोडकर बोकारो आ नहीं सकते थे , बच्चों को दूसरी जगह छोडा नहीं जा सकता था , एकमात्र विकल्प था , मैं उनको लेकर यहां रहूं , एक दो वर्ष नहीं , लगातार 12 वर्षों तक । पर बडे होने पर बच्चे मेरी आज्ञा की अवहेलना करें , पिता के घर में नहीं होने से पढाई न करें , बिगड जाएं तो सारी जबाब देही मेरे माथे पर ही आएगी , सोंचकर मैं परेशान थी। लेकिन एडमिशन के डेट के ठीक दो दिन पहले यहां भी निर्णय हुआ।
इनके एक मित्र के भाई बोकारो में रहते थे , डी पी एस की पढाई और व्यवस्था के बारे में उन्हें जानकारी थी। वो संयोग से हमारे यहां आए , जब सारी बातों की उन्हें जानकारी हुई , तो उन्होने तुरंत एडमिशन कराने को कहा। भविष्य के प्रति हमारी आशंका को देखते हुए उन्होने कहा .. 'अपने घर लौटने के लिए तो आपका रास्ता हमेशा खुला होता है , किसी प्रकार के रिस्क लेने में भय कैसा ?? दूसरी जगह जाने के लिए मौका कभी कभार ही मिलता है , वहां कोई परेशानी हो , उसी दिन वापस लौट जाइए। हां , इसमें कुछ पैसे भले ही बर्वाद होंगे , पर इसे अनदेखा किया जाना चाहिए।' उनका इतना कहना हमें बहुत कुछ समझा गया । पुरानी व्यवस्था को बिना डगमग किए सफलता की ओर जाने का कोई चांस मिले तो वैसे रिस्क लेने में भला क्या गडबडी ?? हमलोगों ने तुरंत एडमिशन का मन बना लिया और दूसरे ही दिन बोकारो आ गए। आगे की पोस्टों में भी चलता ही रहेगा .. बोकारो के 12 वर्षों के सफर के खट्टे मीठे अनुभव !!
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