Thursday 11 March 2010

हमारे विवाह तय करने में थाने के वायरलेस को भी काम करना पडा था !!

प्रतिवर्ष फरवरी की समाप्ति के बाद मार्च के शुरूआत होते ही शनै: शनै: ठंढ की कमी और गर्मी के अहसास से जैसे जैसे कुछ सुस्‍ती सी छाने लगती है , वैसे वैसे मेरा मन मस्तिष्‍क 1988 की खास पुरानी यादों से गुजरने लगता है। नौकरी छोडकर गांव लौटकर दादाजी के व्‍यवसाय को संभालने का निर्णय ले चुके पापाजी के कारण ग्रामीण परिवेश में जीवन जीने को मजबूर मेरी मम्‍मी अपनी जीवनशैली को लेकर जितनी दुखी नहीं थी , उतना हम भाई बहनों के कैरियर और शादी विवाह के बारे में सोंचकर थी। एक वर्ष पहले अर्थशास्‍त्र में एम ए करने के बाद लेक्‍चररशिप की वैकेंसी के इंतजार में मैं घर पर अविवाहित बैठी थी , जो मेरी मम्‍मी के लिए काफी चिंता का विषय था और पापाजी 'अजगर करे ना चाकरी , पंक्षी करे न काम , दास मलूका कह गए , सबके दाता राम' की तर्ज पर आराम से घर में बैठे होते थे। भले ही एक ज्‍योतिषी के रूप में उनका मानना था कि हमें अपने कर्म और विचार अच्‍छे रखने चाहिए , इस दुनिया में सभी मनुष्‍यों के समक्ष खास प्रकार की परिस्थिति स्‍वयमेव उपस्थित होती है , जिसमें हम 'हां' या 'ना' करने को मजबूर होते हैं और अच्‍छे या बुरे ढंग से हमारा काम बन या बिगड जाता है , पर अपने संतान के प्रति मोह से वे वंचित नहीं हो सके थे और अपने पास आनेवाले हर लडके की जन्‍मकुंडली में कोई न कोई दोष निकाल कर बात को आगे बढने नहीं दे पाते थे।

एक दिन मम्‍मी के बहुत जिद करने पर हमारे गांव से 30 किलोमीटर दूर डी वी सी के पावर प्‍लांट में अच्‍छी नौकरी कर रहे एक लडके का पता मिलते ही पापाजी वहां पहुंच गए। हमारे गांव के एक दारोगा जी का स्‍थानांतरण दो चार महीने पूर्व वहीं हुआ था , पापाजी आराम से थाना पहुंचे , वहां अपने पहुंचने का प्रयोजन बताया। जैसे ही लडके के बडे भाई के पते पर दारोगा जी की निगाह गयी वो चौंके। यह पता तो उनके पडोसी का था , व्‍यस्‍तता के कारण उनका तो पडोसियों से संपर्क नहीं था , पर उनकी पत्‍नी का उनके यहां आना जाना था। दारोगा जी ने जानकारी लेने के लिए तुरंत घर पर फोन लगाया । उनकी पत्‍नी को आश्‍चर्य हुआ , फोन पर ही पूछ बैठी , 'एक ज्‍योतिषी होकर पूस के महीने में विवाह की बात तय करने आए हैं ?' तब पिताजी ने उन्‍हें समझाया कि पूस के महीने में यानि 15 दिसंबर से 15 जनवरी के मध्‍य ग्रहों की कोई भी ऐसी बुरी स्थिति नहीं होती कि विवाह से कोई अनिष्‍ट हो जाए। वास्‍तव में उन दिनों में खलिहानों में खरीफ की फसल को संभालने में लगे गृहस्‍थ वैवाहिक कार्यक्रमों को नहीं रखा करते थे। फिर भी परंपरा को मानते हुए पूस महीने में कोई वैवाहिक रस्‍म नहीं भी की जा सकती है , पर किसी व्‍यक्ति या परिवार का परिचय लेने देने या बातचीत में पूस महीने पर विचार की क्‍या आवश्‍यकता ?'

एक समस्‍या और उनके सामने थी , आजतक वे अपने पडोसियों को राजपूत समझती आ रही थी,  अभिभावको द्वारा तय किए जानेवाले विवाह में तो जाति का महत्‍व होता ही है , उन्‍होने दूसरा सवाल दागा, 'पर वे तो खत्री नहीं , राजपूत हैं' अब चौंकने की बारी पापाजी की थी। बिहार में खत्रियों की नाम मात्र की संख्‍या के कारण 'खत्री' के नाम से अधिकांश लोग अपरिचित हैं और हमें राजपूत ही मानते हें। पर भले ही 'क्षत्री' और 'खत्री' को मात्र उच्‍चारण के आधार पर अलग अलग माना गया हो , पर अभी तक हमलोगों का आपस में वैवाहिक संबंध नहीं होता है। खैर , थोडी ही देर बाद बातचीत में साफ हो गया कि वे खत्री ही हैं और पूस के महीने में भी वैवाहिक मामलों की बातचीत करने में उन्‍हें कोई ऐतराज नहीं है। सिर्फ मम्‍मी के कडे रूख के कारण ही नहीं , पापाजी ने भी इस बार सोंच लिया था कि कि वो लडके की जन्‍मकुंडली मांगकर अपने सम्‍मुख आए इस विकल्‍प को समाप्‍त नहीं करेंगे। मेरे ससुराल वाले भी कुंडली मिलान पर विश्‍वास नहीं रखते थे , इसलिए उन्‍होने भी मेरी जन्‍मकुंडली नहीं मांगी। बिहार में पांव पसारी 'दहेज' की भीषण समस्‍या भी तबतक 'खत्री परिवारों'  पर नहीं हावी हुई थी। इसलिए मात्र सबसे मिलजुल कर आपस में परिचय का आदान प्रदान कर पापाजी वापस चले आए।

एक महीने बाद 8 फरवरी 1988 को मुझसे 3 महीने छोटी ममेरी बहन का विवाह होते देख मम्‍मी मेरे विवाह के लिए  काफी गंभीर हो गयी थी। पर दारोगा जी के बारंबार तकाजा किए जाने के बावजूद अपने पिताजी के स्‍वास्‍थ्‍य में आई गडबडी की वजह से लडकेवाले बात आगे नहीं बढा पा रहे थे। 15 फरवरी तक कहीं भी कोई बात बनती नहीं दिखाई देने से मम्‍मी काफी चिंतित थी , पर उसके बाद दारोगा जी के माध्‍यम से सकारात्‍मक खबरों के आने सिलसिला बनता गया। उस वक्‍त फोन की सुविधा तो नहीं थी , दोनो थानों के वायरलेस के माध्‍यम से संवादों का आदान प्रदान हुआ और सारे कार्यक्रम बनते चले गए। बहुत जल्‍द दोनो परिवारों का आपस में मेल मिलाप हुआ और मात्र एक पखवारे के बाद 1 मार्च को सारी बातें तय होने के बाद लडके को टीका लगाकर सबलोग वहां से इस सूचना के साथ वापस आए कि 2 मार्च को मेरा सगुन और 12 मार्च को हमारी शादी होनी पक्‍की हो गयी है। मेरे ससुरालवालों की तो इच्‍छा थी कि विवाह जून में हो , पर मेरी एक दीदी की जून में हुई शादी के समय के भयानक रूप से आए आंधी, तूफान और बारिश से भयाक्रांत मेरे पापाजी इस बात के लिए बिल्‍कुल तैयार नहीं थे , पिताजी के बिगडते स्‍वास्‍थ्‍य को देखते हुए मेरे ससुराल वाले भी नहीं चाहते थे कि शादी नवम्‍बर में हो और इस तरह बिल्‍कुल निकट की तिथि तय हो गयी थी। दूसरे ही दिन 2 मार्च की शाम को मेरा सगुन हुआ। 

पर उसके बाद के बचे 9 दिनों में से दो दिन रविवार , एक दिन होली की छुट्टी , मतलब सिर्फ 6 दिन में सारी व्‍यवस्‍था , किस छोर से आरंभ किया जाए और कहां से अंत हो , किसी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। दो तीन दिन तो बैंक ही बंद थे , पैसे निकले तब तो कुछ काम हो। मैं पहली संतान थी , सो मेरे विवाह में कहीं कोई कमी भी नहीं होनी चाहिए थी । आखिरकार सारी व्‍यवस्‍था हो ही गयी , जल्‍दी जल्‍दी आवश्‍यक हर चीज की बुकिंग करने के बाद सबसे पहले कार्ड की स्‍केचिंग हुई , प्रिंट निकला और गांव में होली की छुट्टी के दौरान अलग अलग क्षेत्र से आए लोगों के माध्‍यम से अलग अलग क्षेत्र के कार्ड उसी क्षेत्र के पोस्‍ट ऑफिस में डाले गए , जिससे दो ही दिनो में कार्ड सबो को मिल गया और कोई भी रिश्‍तेदार और मित्र  न तो निमंत्रण से वंचित रहे और न ही विवाह में सम्मिलित होने से। चूंकि गांव का माहौल था , कार्यकर्ताओं की कमी नहीं थी ,  सो बाद के कार्य का बंटवारा भी सबके मध्‍य कर दिया गया और सबने अपने अपने कर्तब्‍यों का बखूबी पालन किया और दस दिनों के अंदर सारी तैयारियां पूरी हो गयी।

लेकिन असली समस्‍या तो हम दोनो वर वधू के समक्ष आ गयी थी , जहां मेरे ससुराल में अपने घर के अकेले कार्यकर्ता ये अपने विवाह के लिए बाजार और अन्‍य तैयारियों में ही अपने स्‍वास्‍थ्‍य की चिंता किए वगैर अनियमित खान पान के साथ एक सप्‍ताह तक  दौड धूप करते रहे , वही विवाह की भीड के कारण टेलरों ने मेरी सभी चचेरी ममेरी फुफेरी बहनों और भाभियों के कपडे सिलने से इंकार कर दिया था और मैं अपने रख रखाव की चिंता किए वगैर विवाह के शाम शाम तक उनके सूट और लहंगे सिलती रही थी। फिर भी बिना किसी बाधा के , बिल्‍कुल उत्‍सवी माहौल में 12 मार्च 1988 को विवाह कार्यक्रम संपन्‍न हो ही गया था और 13 मार्च को हम साथ साथ  एक नए सफर पर निकल पडे थे.............

पर पहले दिन का सफर ही झंझट से भरा था , हमारी विदाई सुबह 9 बजे हो गयी , थोडी ही देर में सारे बराती और घरवाले पहुंचकर हमारा इंतजार कर रहे थे और बीच जंगल में गाडी के खराब होने की वजह से हमलोग मात्र 30 किलोमीटर की यात्रा 10 घंटे में तय करते हुए 7 बजे शाम को ही वहां पहंच पाए थे। उसके बाद खट्टे मीठे अनुभवों के साथ 22 वर्षो से जारी है ये सफर , शायद कल इस बारे में आप सबों को विस्‍तार से जानकारी दे पाऊं !!