Wednesday 11 August 2010

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर , जय कपीश तिंहू लोक उजागर .. संगीता पुरी

पिछले तीन आलेखों में आपने पढा कि किन परिस्थितियों में हमें तीन चार महीनों में तीन घर बदलने पडे थे , सेक्‍टर 4 के छोटे से क्‍वार्टर में पहुंच चुके थे। यहां आने के बाद हमलोग यहां के माहौल के अनुरूप धीरे धीरे ढलते जा रहे थ। यहां आने से पूर्व के दो वर्षों में भी हमलोग तीन क्‍वार्टर बदल चुके थे , उसकी चर्चा भी कभी अवश्‍य करूंगी। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी हमलोग तनिक भी विचलित नहीं थे। अपने जेठ के उस क्‍वार्टर को जहां मैं विवाह के बाद पहुंची थी और अपने जीवन के आरंभिक 8 वर्ष व्‍यतीत किए थे , दोनो बच्‍चों ने जन्‍म लिया था और अपना बचपन जीया था , भी जोडा जाए तो हमारे  बच्‍चे 8 और 6 वर्ष की उम्र में ही अभी तक सात मकान देख चुके थे।

कहा जाता है कि बिल्‍ली जबतक अपने अपने बच्‍चों को सात घर में न घुमाए , तबतक उसके आंख नहीं खुलते। हमारे बच्‍चों के साथ भी ऐसा ही हो रहा था , ये सातवां घर था , इसलिए हम कुछ निश्चिंत थे कि अब शायद इन्‍हें लेकर कहीं और न जाना पडे। पर मनुष्‍य के जीवन के अनुरूप आंख खुलने तक , आज की सरकार के अनुसार बालिग होने तक इन्‍होने पूरे 10 मकान देख लिया। इनके 12वीं पास होने तक बोकारो स्‍टील सिटी में हमें और तीन मकान बदलने पडे, जिनके बारे में कुछ दिन बाद चर्चा करूंगी । अभी आनेवाले कुछ आलेखों में अन्‍य पहलुओं की चर्चा , क्‍यूंकि सेक्‍टर 4 के उस छोटे से आरामदायक क्‍वार्टर में हमने 4 वर्ष आराम से व्‍यतीत किए थे ।

वैसे तो हमारे यहां प्रथा है कि हम जब भी नए घर में रहने को जाएं , तो वहां मौजूद बुरे शक्तियों से बचने के लिए एक हवन अवश्‍य कराएं। मकान पुराना हो , तो इसकी आवश्‍यकता नहीं पडती है , पर नए में तो यह आवश्‍यक है। अधिकांश लोग स्‍वामी सत्‍य नारायण भगवान की ही कथा करवाते हैं, पर हम पुराने मकानों में शिफ्ट करते थे , इतनी जल्‍दबाजी में हर जगह अस्‍थायी तौर पर क्‍वार्टर बदलते थे कि हर वक्‍त इतना खर्च कर पाना आवश्‍यक नहीं लगा। और इसी क्रम में जब स्‍थायी तौर पर किसी क्‍वार्टर में निवास करने की बारी आयी तो भी पूजा करवाने का ध्‍यान न रहा। इस बात की वजह ये भी हो सकती है कि ईश्‍वर को मानते हुए भी विभिन्‍न प्रकार के कर्मकांडों पर हमारा कम विश्‍वास है।

पहली बार क्‍वार्टर बदलते समय हमलोगों ने स्‍वामी बजरंग बली की एक फोटो रख ली थी , बस जिस नए मकान में शिफ्ट करते ,  एक दो किलो लड्डू से ही उनका भोग लगाते और पडोसियों में प्रसाद के बहाने बांटकर सबके परिचय भी ले लिया करते। वास्‍तव में , बचपन से मेरी प्रवृत्ति रही है कि किसी भी प्रकार के घबराहट में मैं प्रार्थना अवश्‍य ईश्‍वर से किया करती हूं , पर जब भी पूजा , पाठ ,कर्मकांड , व्रत , मन्‍नत की बारी आती है , मुझे बजरंग बली ही याद आ जाते हैं और हमेशा हमें संकट से मुक्ति भी मिल जाती है। भले ही समाज मं चलती आ रही प्रथा केअनुरूप मैं संकट में घबडाकर कभी कोई मन्‍नत मान लिया करती हूं , पर वास्‍तव में मेरी सोंच है कि पूजा के तरीके से ईश्‍वर को कोई मतलब नहीं , दिल में भक्ति होनी चाहिए। ऐसी मानसिकता विकसित किए जाने में मेरे पिताजी का मुझपर प्रभाव रहा ,  मेरे पति की मानसिकता भी लगभग ऐसी ही है , यही कारण है कि जीवन में हर मौके पर हमलोग समाज और पंडितों के हिसाब से नहीं , अपनी मानसिकता के अनुसार काम करते रहें।