Wednesday 6 May 2020

प्रकृति की पूजा सबसे बड़ी पूजा है

prakriti hame kya sikh deti hai

प्रकृति की पूजा सबसे बड़ी  पूजा है 

कल मैने आप सबों को एक लेख के माध्‍यम से समझाने की कोशिश की कि किस तरह आध्‍यात्‍म , धर्म , अंधविश्‍वास और जादू टोना एक दूसरे से अलग हैं। युग के परिवर्तन के साथ ही साथ धर्म की परिभाषा बदलने लगती है। आज के विकसित समाज में भी परिवार में हर सुख या दुख के मौके की वर्षगांठ मनायी जाती है , इसके माध्‍यम से हम खुशी या दुखी होकर आपनी भावनाओं का इजहार कर पाते हैं , जिन माध्‍यमों से हमे या हमारे परिवार को सुख या दुख मिल रहा हो , उसे याद कर पाते हैं , उनके प्रति नतमस्‍तक हो पाते हैं। एक पूरे समाज में मनाए जानेवाले किसी त्‍यौहार का ही संकुचित रूप है ये , पर जब किसी की उपस्थिति और अनुपस्थिति पूरे समाज पर प्रभाव डाल रही हो , तो वैसे महान व्‍यक्ति का जन्‍मदिन या पुण्‍य तिथि पूरा समाज एक साथ मनाता है। यह हमारा कर्तब्‍य है , हमें मनाना चाहिए , पर इसे मनाने न मनाने से उन महान आत्‍माओं के धर्म में कोई परिवर्तन नहीं होगा। उनका काम कल्‍याण करना है , तो वे अपने धर्म के अनुरूप कल्‍याण ही करते रहेंगे। पर उन्‍हें याद कर हमें उनके गुणों से सीख लेने की प्रेरणा अवश्‍य मिल जाती है।

प्राचीन काल के संदर्भ में हम इसी बात को देखे तो आग , जल , वायु , सूर्य से लेकर प्रकृति की अन्‍य वस्‍तुओं में एक मनुष्‍य की तुलना में कितनी गुणी अधिक शक्ति है , इसकी कल्‍पना करना भी नामुमकिन है। आग हमें जला भी सकती है , पर ऐसा विरले करती , वह हमें गर्म रखने से लेकर हमारे लिए स्‍वादिष्‍ट खाना बनाने की शक्ति रखती है। जल हमें अपने आगोश में ले सकते हैं , पर वे ऐसा नहीं करते और हमारे जीवन यापन के हर पल में सहयोग करते हैं। वायु हमें कहां से उडाकर कहां तक ले जा सकती है , पर वो ऐसा नहीं करती , हमारे प्राण को बचाए रखने के लिए ऑक्‍सीजन का इंतजाम करती है। सूर्य हमें जलाकर खाक कर सकता है , पर हमारी दिनचर्या को बनाए रखने के लिए प्रतिदिन उदय और अस्‍त होता है। ये सब इसलिए होता है , क्‍यूंकि कल्‍याण करना उनका स्‍वभाव है।

prakriti hame kya sikh deti hai

हम प्रकृति की वस्‍तुओं के इसी स्‍वरूप की पूजा करते हैं । पूजा करने के क्रम में हम इनको सम्‍मान तो देते ही हैं , उनसे सीख भी लेते हैं कि हम अपने गुणों से संसार का कल्‍याण करेंगे। प्रकृति के एक एक कण में कुछ न कुछ खास विशेषताएं हैं , जो हमारी सेवा में तत्‍पर रहती हैं। यदि हम ढंग से प्रयोग करें , तो फूल से लेकर कांटे तक और अमृत से लेकर विष तक , सबमें किसी न किसी प्रकार का फायदा है। हर वर्ष का एक एक दिन हमने इनकी पूजा के लिए निर्धारित किया है , ताकि हम इनके गुणों को याद कर सके और इनसे सीख ले सकें। इसलिए इसे हमारे धर्म से जोडा गया है। यदि इस ढंग से सोंचा जाए कि हम इनकी पूजा नहीं करेंगे यानि इसका दुरूपयोग करेंगे , तो इनके सारे गुण अवगुण में बदल जाएंगे यानि तरह तरह की प्राकृतिक आपदाएं आएंगी , तो यह अंधविश्‍वास नहीं हकीकत ही है।




जैम के बहाने अमृतफल आंवला अपने बच्‍चों को खिलाएं !!

Amla ka jam in hindi

जैम के बहाने अमृतफल आंवला अपने बच्‍चों को खिलाएं !!

अमृतफल आंवले से भला कौन परिचित न होगा , फिर भी इसके बारे में वैज्ञानिक जानकारी के लिए विकिपीडीया का यह पृष्‍ठपढें। एशिया और यूरोप में बड़े पैमाने पर आंवला की खेती होती है. आंवला के फल औषधीय गुणों से युक्त होते हैं, इसलिए इसकी व्यवसायिक खेती किसानों के लिए भी फायदेमंद होता है। डॉ. इशी खोसला , लीडिंग न्यूट्रीशिनिस्ट, डॉ. रुपाली तलवार , फोर्टिस हॉस्पिटल, डॉ. सोनिया कक्कड़ , सीताराम भरतिया हॉस्पिटल जैसे विशेषज्ञों द्वारा बैलेंस्‍ड डाइट तैयार करने में भी आंवले को महत्‍व दिया गया है , जिसे आप इस पृष्‍ठमें पढ सकते हैं। मीडिया डॉक्‍टर प्रवीण चोपडा जी ने भी अपने ब्‍लॉग में आंवले की काफी प्रशंसाकी है।

इसके धार्मिक महत्‍व को जानना हो तो आप इस पृष्‍ठ पर क्लिक कर सकते हैं , जिसमें कहा गया है कि जो भगवान् विष्णु को आंवले का बना मुरब्बा एवं नैवेध्य अर्पण करता है, उस पर वे बहुत संतुष्ट होते हैं। यह भी कहा जाता है कि नवमी को आंवला पूजन स्त्री जाति के लिए अखंड सौभाग्य और पेठा पूजन से घर में शांति, आयु एवं संतान वृद्धि होती है। पुराणाचार्य कहते हैं कि आंवला त्यौहारों पर खाये गरिष्ठ भोजन को पचाने और पति-पत्नी के मधुर सबंध बनाने वाली औषधि है।

amla ka jam in hindi

आंवले में इतना विटामिन सी होता है कि इसे सुखाने , पकाने या अचार बनाने के बावजूद भी पूरा नष्‍ट नहीं किया जा सकता। स्‍वास्‍थ्‍यवर्द्धक होने के कारण ही प्राचीन काल से ही भारतीय रसोई में आंवले का काफी प्रयोग किया जाता है। सालभर के लिए न सिर्फ आंवले का अचार , चटनी , मुरब्‍बा वगैरह ही बनाए जाते हैं , सुखाकर इसका चुर्ण भी रखा जाता है। अचार बनाने की विधि आप निम्‍न लिंको पर प्राप्‍त कर सकते हैं। मुरब्‍बा बनाने की विधि के लिए आप यहां पर क्लिक कर सकते हैं।

पर ये सारे व्‍यंजन बडे लोग तो आराम से खा लेते हैं , पर बच्‍चे नहीं खा पाते,  इस कारण बच्‍चे आंवले के लाभ से वंचित रह जाते हैं। पर यदि आंवले का जैम बना लिया जाये तो आंवले का कडुआपन या खट्टापन समाप्‍त हो जाता है और यह मीठा हो जाता है , इसलिए बच्‍चे इसे पसंद करते हैं। इस जैम को ब्रेड में लगाकर या फिर रोटी के साथ ही या यूं ही बच्‍चों को चम्‍मच में निकालकर खाने को दे सकते हैं। इस जैम को बनाने की विधि नीचे दे रही हूं।

एक किलो आंवले को अच्‍छी तरह धोकर थोडे पानी के साथ कुकर में एक सीटी लगा कर छानकर रख लें। फिर बीज निकालकर उसे अच्‍छी तरह मैश कर लें। अब एक कडाही में कम से कम सौ ग्राम घी, थोडा अधिक भी डाला जा सकता है, डालकर उसे गर्म कर उसमें मैश किए आंवले को डालें। दस पंद्रह मिनट तेज आंच पर भूनने के बाद उसमें 750 ग्राम चीनी डाल दें । चीनी काफी पानी छोड देता है , इसलिए पानी डालने की आवश्‍यकता नहीं , जो पानी है , उसे ही सुखाना पडेगा और थोडी ही देर में जेली तैयार हो जाएगी। बहुत अधिक सुखाने पर वह कडी हो जाती है , इसलिए थोडी गीली रहने पर ही उसे उतार दें। तब यह ठंडा होने पर सामान्‍य रहता है।

इसी विधि से घर में ही आंवले का च्‍यवनप्राश भी बनाया जा सकता है। पर अभी मुझे वह डायरी नहीं मिल रही ,‍ जिसमें उन मसालों के नाम और उसकी मात्रा लिखी हुई है , जिसे कूटकर इस जेली में डालना पडता है , जिससे कि यह च्‍यवनप्राश बन सके। सस्‍ती और अपेक्षाकृत कम स्‍वादिष्‍ट होते होते हुए भी बाजार में मिलनेवाले च्‍यवनप्राश की तुलना में यह अधिक फायदेमंद होती है। जबतक वह डायरी नहीं मिलती है, तबतक मैं भी इस जेली का ही उपयोग कर रही हूं और पूरे जाडे आप भी इस जेली को ही प्रतिदिन एक चम्‍मच खाइए।




हमारे धार्मिक ग्रंथों के पात्र और घटनाएं वास्‍तविक हैं या फिर काल्‍पनिक ??

Ramayan aur Mahabharat Story

हमारे धार्मिक ग्रंथों के पात्र और घटनाएं वास्‍तविक हैं या फिर काल्‍पनिक ??

हमारे धार्मिक ग्रंथों के प्रति हिन्‍दुओं में अटूट श्रद्धा है, पर इसके बावजूद कुछ बातें अक्‍सर विवादास्‍पद बनी रहती हैं। वेदों और पुराणों में लिखी ऋचाएं तो सामान्‍य लोगों को पूरी तरह समझ में आने से ही रही , इसलिए वे बहस का मुद्दा नहीं बन पाती , पर रामायण और महाभारत स्टोरी,कुछ ग्रंथ या अन्‍य धार्मिक पुस्‍तकें अपनी सहज भाषा और सुलभता के कारण हमेशा ही किसी न किसी प्रकार के विवाद में बने होते हैं। कभी इन ग्रंथों के पात्रों और घटनाओं के काल्‍पनिक और वास्‍तविक होने को लेकर विवाद बनता है, तो कभी इनमें सीमा से अधिक अतिशयोक्ति भी लोगों का विश्‍वास डिगाने में महत्‍वपूर्ण भूमिका अदा करती है। घटनाओं का क्रम देखकर ही रामायण और महाभारत स्टोरी मुझे कभी भी काल्‍पनिक नहीं लगी , साथ ही घटनाओं के साथ साथ ग्रहों नक्षत्रों की स्थिति का सटीक विवरण और रामचंद्र जी और कृष्‍ण जी की जन्‍मकुंडली इस घटना के पात्रों के वास्‍तविक होने की पुष्टि कर देती है। पर इन ग्रंथों में कहीं कहीं पर वर्णन सहज विश्‍वास के लायक नहीं है , यह मैं भी मानती हूं।

पर इसे एक अलग कोण से भी देखा और समझा जा सकता है , जिसकी प्रेरणा मुझे हमारे पडोसी श्री श्रद्धानंद पांडेय जी के द्वारा लिखा गया एक आलेख 'क्‍या हनुमान जी एक बंदर थे ?' से मिली। वैसे तो वे साइंस के ही विद्यार्थी रहे हैं , पर जाति से ब्राह्मण होने या फिर अपने शौक के कारण, विज्ञान के अलावे हर तरह के ग्रंथों को पढना भी उनसे नहीं छूटता। प्राचीन ग्रंथों को सीधा न नकारते हुए वे तर्क से उन खामियों का कारण ढूंढते हैं , जो अक्‍सर एक वैज्ञानिक मस्तिष्‍क में कौंधते हैं । एक घटना का उदाहरण देते हुए उन्‍होने इस आलेख की शुरूआत की है , जिसमें उनका चार वर्ष का पुत्र कई दिनों से 'सिंह अंकल' के आने की सूचना सुनकर अपने पापा के जंगल वाले सिंह दोस्‍त का इंतजार कर रहा था और 'सिंह अंकल' के आने पर उन्‍हें अपनी कल्‍पना के अनुरूप न पाकर उनके मिलकर भी असंतुष्‍ट था। उनका कहना था कि इस प्रकार की गलतफहमी कई पीढीयों तक कहानी सुनते सुनते आराम से हो सकती है।

Ramayan aur Mahabharat Story

उनके आलेख को पढने के बाद उनकी बातों से असहमत हुआ ही नहीं जा सकता। हो सकता है , प्राचीन काल में शब्‍द कम रहे हों , क्‍यूंकि ग्रहों को जो नाम दिया गया , वही सप्‍ताह के दिनों का भी दिया गया है। नक्षत्रों का जो नाम है , वहीं हिन्‍दी के महीनों का नाम है। जानवरों को जो नाम दिए गए , वही मनुष्‍य की विभिन्‍न जातियों को दिए गए थे। खासकर अभी भी आदिवासियों की जाति तो पशुओं के नाम पर देखी जाती है। उनका कहना है हनुमान मनुष्‍य ही रहे होंगे , पर जाति के कारण हनुमान के रूप में ऐसे प्रसिद्ध हो गए हों कि बाद में उनकी कल्‍पना हनुमान के रूप में ही कर ली गयी हो। इसी तरह 'देव' 'मनुष्‍य' और 'दैत्‍य' के रूप में वर्णित सारे चरित्र मनुष्‍य हो सकते हैं। रामायण में वर्णित अन्‍य लोगों को भी पशु ही समझ लिया गया हो , तो वर्णन में गलतफहमी होना स्‍वाभाविक है।

मैने पहले भी सुना है कि यदि दस बीस लोगों का एक घेरा बना लिया जाए और किसी के कान में फुसफुसाकर एक कोई बात सुनाए , वह दूसरे को और दूसरा तीसरे को सुनाता चला जाए , तो दसवें या बीसवें व्‍यक्ति के पास पहुंचने पर उस बात के अर्थ का अनर्थ होना तय है। महाभारत की कहानी में धृतराष्‍ट्र को अंधा बताया गया है , पर इस दृष्टि से सोंचती हूं तो मुझे नहीं लगता है कि वे अंधे रहे होंगे। मेरे विचार से किसी चीज का अधिक मोह लोगों को अंधा बना देता है। महाभारत की पूरी कहानी में धृतराष्‍ट्र का चरित्र पुत्रमोह में अंधा दिखता है , जनता को उससे नाराजगी रही होगी , इसी कारण कहानी में अंधा अंधा कहते सुनते लोगों ने उसे अंधा मान लिया होगा।  धृतराष्‍ट्र तो मोह में अंधे थे ही , लेकिन राजमहल में इतनी घटनाएं घटती रहीं और उनकी रानी गांधारी को भी कुछ नजर नहीं आया। अब कहानी में एक वाक्‍य जोड दें कि धृतराष्‍ट्र तो अंधा था ही , गांधारी ने भी आंख में पट्टी बांध रखी थी। इस प्रकार से कई पीढी चलने पर कहानी को एक अलग मोड लेना ही था , क्‍यूंकि प्रश्‍न उठना ही है , दोनो अंधे कैसे ? औरतों के पतिप्रेम और त्‍याग की भावना को देखते हुए कारण बताया जाएगा , 'गांधारी ने जब देखा कि उसके पति 'कुछ नहीं' देख सकते हैं , तो उसने भी 'कुछ नहीं' देखने के लिए आंखो पर पट्टी बांध ली। बस इसी तरह पीढी दर पीढी एक के बाद एक कुछ गलत तथ्‍य जुटते चले गए होंगे, जिनपर हम आज विश्‍वास नहीं कर पाते। पर इसमें कुछ न कुछ वास्‍तविकता होने से तो इंकार नहीं किया जा सकता है।


Ramayan aur Mahabharat Story


माफी मांगना मुश्किल होता है या माफ़ करना ?

Maafi mangna mushkil hota hai ya maaf karna

माफी मांगना मुश्किल होता है या माफ़ करना ?

गल्‍ती करना मानव का स्‍वभाव है कभी न कभी हर किसी से गल्‍ती हो ही जाती है। यदि गल्‍ती का फल स्‍वयं को भुगतना पडे , तो कोई बात नहीं होती , पर आपकी गल्‍ती से किसी और को धन या मान की हानि हो रही हो, तो ऐसे समय नि:संकोच हमें माफ़ी मांग लेना चाहिए। कुछ लोगों को अपनी गल्‍ती मानते हुए दूसरों से माफ़ी मांग लेने में कोई दिक्‍कत नहीं होती , पर 'अहं' वाले लोग आसानी से ऐसा नहीं कर पाते। यह स्‍वभाव व्‍यक्तिगत होता है और इसके गुण बचपन से ही दिखाई देते हैं। अपनी गल्‍ती को न स्‍वीकारने के कारण कई बार सामनेवालों से उनका संबंध बिगड जाता है , पर बिना माफ़ी मांगे ही अपना संबंध सुधारने की भी कोशिश करते हैं। 

ऐसी स्थिति आने पर मेरे छोटे भाई ने मात्र छह वर्ष की उम्र में कितना दिमाग लगाया था, इसे इस कहानी को पढकर समझा जा सकता है। उसने दादी जी को एक ऐसा जबाब दे दिया था , जो अक्‍सर दादा जी से सुना करता था और उसका मतलब तक नहीं जानता था। इसलिए हम सभी लोगों को उसकी बात पर हंसी आ रही थी , पर घर के बडे लोगों ने उसकी हिम्‍मत न बढते देने के लिए उसे दादी जी से माफी मांगने को कहा। काफी देर तक उसने टाल मटोल की , पर बात खाना नहीं मिलने तक आ गयी तो उसे बडी दिक्‍कत हो गयी , क्‍यूंकि वह जानता था कि इतने बडे बडे लोगों के बीच उसकी तो नहीं ही चलेगी , मम्‍मी , चाची , दीदी या भैया की भी नहीं चलनेवाली , जो लोग उसे किसी मुसीबत से बचाते आ रहे हैं। हंसकर या रोकर जैसे भी हो माफी मांगने में ही उसकी भलाई है , फिर उसने अपना दिमाग लगाते हुए एक कहानी सुनाने लगा। 

galti ki maafi

एक गांव में एक छोटा सा बच्‍चा रहा करता था। एक दिन उससे गल्‍ती हो गयी , उसने अपनी दादी जी को भला बुरा कह दिया। फिर क्‍या था , सभी ने उससे अपनी दादी जी से माफी मांगने को कहा। वह दादी जी से कुछ दूरी पर बैठा था , जमीन को बित्‍ते (हाथ के अंगूठे से छोटी अंगुली तक को फैलाने से बनीं दूरी) से नापते हुए दादी जी की ओर आगे बढता जा रहा था । मुश्किल से दो तीन बित्‍ते बचे रह गए होंगे कि दादी जी ने उसे अपनी ओर खींच लिया और गले लगाते हुए कहा कि बेटे तुझे माफी मांगने की कोई जरूरत नहीं , बच्‍चे तो गल्‍ती करते ही हैं। इसके साथ ही वह खुद भी जमीन को अपने बित्‍ते से नापते हुए आगे बढने लगा । इस तरह वह माफी मांगने से बच गया , इस कहानी को सुनने के बाद दो तीन बित्‍ते दूरी से ही भला मेरी दादी जी उसे गले से कैसे न लगाती ?



दोबारा दरवाजे का लॉक चेक करते हैं ?

Bhulne ki bimari

दोबारा दरवाजे का लॉक चेक करते हैं ?

जब आप अपने घर का ताला लगाकर कहीं बाहर जाते हैं , थोडी ही देर में आपको इस बात का संशय होता है कि आपने दरवाजे का ताला अच्‍छी तरह बंद नहीं किया है। थोडी दूर जाने के बाद भी आप इस बात के प्रति आश्‍वस्‍त होने के लिए घर लौटते हैं और जब चेक करते हैं , तो पता चलता है कि यह बेवजह का संशय था। कभी भी आपसे गलती नहीं हुई होती है , फिर भी आप कभी निश्चिंत नहीं रह पाते हैं , बार बार इसी तरह का मौका आता रहता है। आपको लगता है कि आपको भूलने की बीमारी हो गयी है। मनोचिकित्‍सक बताते हैं कि यहीं से आपका मानसिक तौर पर अस्‍वस्‍थ होने की शुरूआत हो जाती है। पर क्‍या यह सच है ?

 वैसे तो हमारे शरीर के सारे अंग मस्तिष्‍क के निर्देशानुसार काम करते हैं , पर मैने अपने अनुभव में पाया है कि यदि शरीर का कोई अंग लगातार एक काम के बाद दूसरा काम करते जाए तो उसका अंग वैसा करने को अभ्‍यस्‍त हो जाता है। ऐसी हालत में कुछ दिनों में बिना दिमाग की सहायता के स्‍वयमेव वह एक काम के बाद दूसरा काम करने लगता है , जब मस्तिष्‍क की जरूरत हो तभी उसे पुकारता है , जिस प्रकार एक नौकर मेहनत का सीखे हुए हर काम को क्रम से कर सकता है , पर जहां दिमाग लगाने की बारी आती है , तो मालिक को पुकार लिया करता है।

bhulne ki bimari

इस बात को मैं एक उदाहरण की सहायता से स्‍पष्‍ट कर रही हूं। मैं अक्‍सर रसोई घर में काम करते करते अपने चिंतन में खो जाया करती हूं। पर इसके कारण आजतक कभी दिक्‍कत आते मैने नहीं महसूस किया जैसे कि चाय में नमक हल्‍दी पड गयी या सब्‍जी में चीनी पत्‍ती। सब्‍जी , दाल या चाय बनाने के वक्‍त मैं कहीं भी खोयी रहूं , हाथ में अपने आप तद्नुसार नमक , हल्‍दी , चीनी या चायपत्‍ती का डब्‍बा आ जाता है , पर इन्‍हें डालने के वक्‍त मेरा मस्तिष्‍क वापस आता है , क्‍यूंकि सबकुछ अंदाज से डालना आवश्‍यक है। यहां तक कि जिस बर्तन में मैं अक्‍सर चाय बनाती हूं , उसमें यदि किसी दूसरे उद्देश्‍य के लिए पानी गरम करने का विचार आ जाए तो उसे गैस पर रखने के बाद चाय बनाने के क्रम में पानी मापने के लिए रखा एक गिलास स्‍वयं हाथ में आ जाता है। तब ध्‍यान जाता है कि आज पानी मापना थोडे ही है , अंदाज से डालना है।

मैने एक अविकसित मस्तिष्‍क की लडकी को भी देखा है , जो घर का सारा काम कर लेती है। चूंकि वह स्‍कूल नहीं जाती थी , उसकी मम्‍मी उससे एक के बाद दूसरा काम करवाती रहीं और वह बिना दिमाग के भी उन कामों को करने की अभ्‍यस्‍त हो गयी है। झाडू लगाने , पोछा करने , बरतन धोने और कपडे धोने में उसे कोई दिक्‍कत नहीं , लेकिन जब किसी चीज का अंदाज करना हो तो वह नहीं कर पाती और उसके लिए अपनी मम्‍मी पर आश्रित रहती है। मुझे उसके काम को देखकर अक्‍सर ताज्‍जुब होता रहता है ।

जब हमलोग बाहर निकलते हैं , तो हमारा मुख्‍य ध्‍यान हमारे बाहर के कार्यक्रम पर होता है । घर का ताला बंद करते करते हमारा हाथ उसका अभ्‍यस्‍त हो चुका है , इसलिए बिना मस्तिष्‍क की सहायता से वह ताला बंद कर लेता है और हम आगे बढ जाते हैं। थोडी दूर जाने के बाद जब हम अपने चिंतन से बाहर निकलते हैं तो हम घर के दरवाजे पर ताले के बंद होने के प्रति आश्‍वस्‍त नहीं रह पाते , क्‍यूंकि हमारे मस्तिष्‍क को यह बात बिल्‍कुल याद नहीं। हम पुन: लौटकर आश्‍वस्‍त होना चाहते हैं कि ताला अच्‍छी तरह बंद है या नहीं ? इसलिए मेरे ख्‍याल से एक बार ऐसा करना एक मानसिक बीमारी नहीं , बिल्‍कुल सामान्‍य बात है। अब बार बार भी लोग ऐसा करते हों तो इसके बारे में मनोवैज्ञानिकों का कहना माना जा सकता है ।




मिथ्या भ्रम

Andhvishwas story in hindi

मिथ्या भ्रम 


मुझे परंपरागत मान्‍यताएं बहुत पसंद है , क्‍यूंकि उससे सामान्‍य तौर पर कुछ नुकसान नहीं दिखाई पडता तथा ध्‍यान देने पर उसमें अनेक अच्‍छी बातें छुपी महसूस होती हैं। पर कभी कभी समाज में प्रचलित कुछ ऐसे अंधविश्‍वासों को भी शामिल देखती हूं , जिससे किसी का नुकसान हो रहा हो , तो वह मुझे बुरा लगता है। इसी सोंच में मैने एक कहानी ‘मिथ्‍याभ्रम’ लिखी थी  , यह एक सत्‍य घटना पर आधारित है , जो आपको पढवा रही हूं। इसके अलावे मेरी दो कहानियां ‘एक झूठ’और ‘पहला विरोध’साहित्‍य शिल्‍पी में पहले प्रकाशित हो चुकी हैं , जिसे कभी समय निकालकर अवश्‍य पढें। तो लीजिए ‘मिथ्‍याभ्रम’ को पढना शुरू कीजिए ......

‘क्‍या हुआ, ट्रेन क्‍यूं रूक गयी ?’ रानी ने उनींदी आंखों को खोलते हुए पूछा। ’अरे, तुम सो गयी क्‍या ? देखती नहीं , बोकारो आ गया।‘ बोकारो का नाम सुनते ही वह चौंककर उठी। तीन दिनों तक बैठे बैठे कमर में दर्द सा हो रहा था। कब से इंतजार कर रही थी वह , अपने गांव पहुंचने का , इंतजार करते करते तुरंत ही आंख लग गयी थी। अब मंजिल काफी नजदीक आ गयी थी। उसने अपने कपडे समेटे , मोनू को संभाला और सीट पर एक नजर डालती हुई ट्रेन से उतरने के लिए क्‍यू में खडी हो गयी।

andhvishwas story in hindi

दस वर्षों बाद वह मद्रास से वापस आ रही थी। गांव आने का कोई बहाना इतने दिनों तक नहीं मिल रहा था। गांव का मकान भी इतने दिनों से सूना पडा था। अपने अपने रोजगार के सिलसिले में सब बाहर ही जम गए थे। पर इस बार चाचाजी की जिद ने उन सबके लिए गांव का रास्‍ता खोल ही दिया था। वे अपने लडके की शादी गांव से ही करेंगे। सबके पीछे वह सामानों को लेकर ट्रेन से उतर पडी। एक टैक्‍सी ली और गांव के रास्‍ते पर बढ चली।

टैक्‍सी जितनी ही तेजी से अपने मंजिल की ओर जा रही थी , उतनी ही तेजी से वह अतीत की ओर। मद्रास के महानगरीय जीवन को जीती हुई वह अबतक जिस गांव को लगभग भूल ही चली थी , वह अचानक उसकी आंखों के सामने सजीव हो उठा था। घटनाएं चलचित्र के समान चलती जा रही थी। उछलते कूदते , उधम मचाते उनके कदम .. कभी बाग बगीचे में तो कभी खेल के मैदानों में। अपना लम्‍बा चौडा आंगन भी उन्‍हें धमाचौकडी में मदद ही कर देता था।


खेलने का कोई साधन नहीं , फिर भी खेल में इतनी विविधता। जो मन में आया , वही खेल लिया। खेल के लिए कार्यक्रम बनाने में उसकी बडी भूमिका रहती। वास्‍तविक जीवन में जो भी होते देखती , खेल के स्‍थान पर उतार लेती थी। घर के कुर्सी , बेंच , खाट और चौकी को गाडी बनाकर यात्रा का आनंद लेने का खेल बच्‍चों को खूब भाता था। कोई टिकट बेचता , कोई ड्राइवर बनता , तो कोई यात्री। रूट की तो कोई चिंता ही नहीं थी , उनकी मनमौजी गाडी कहीं से कहीं पहुंच सकती थी।

तब सरकार की ओर से परिवार नियोजन का कार्यक्रम जोरों पर था। भला उनके खेल में यह कैसे शामिल न होता। कुर्सी पर डाक्‍टर , बेंच पर उसके सहायक और खाट चौकी पर लेटे हुए मरीज । चाकू की जगह चम्‍मच , पेट काटा , आपरेशन किया , फटाफट घाव ठीक , एक के बाद एक मरीज का आपरेशन। भले ही अस्‍पताल के डाक्‍टर साहब का लक्ष्‍य पूरा न हुआ हो , पर उन्‍होने तो लक्ष्‍य से अधिक काम कर डाला था।

इसी तरह गांव में एक महायज्ञ का आयोजन हुआ। यज्ञ के कार्यक्रम को एक दिन ही देख लेना उनके लिए काफी था। अपने आंगन में यज्ञ का मंडप तैयार बीच में हवन कुंड और चारो ओर परिक्रमा के लिए जगह । मुहल्‍ले के सारे बच्‍चे हाथ जोडे हवनकुंड की परिक्रमा कर रहे थे और ‘श्रीराम , जयराम , जय जय राम , जय जय विघ्‍न हरण हनुमान’ के जयघोष से आंगन गूंज रहा था। कितना स्‍वस्‍थ माहौल था , बच्‍चे भी खुश रहते थे और अभिभावक भी।

लेकिन इसी क्रम में उसे एक बच्‍चे दीपू की याद अचानक आ गयी। जब सारे बच्‍चे खेल रहे होते , वह एक किनारे खडा उनका मुंह तक रहा होता। ‘दीपू , तुम भी आ जाओ’ उसे बुलाती , तो धीरे धीरे चलकर उनके खेल में शामिल होता। पर दीपू को शामिल करके खेलना शुरू करते ही तुरंत रानी को कुछ याद आ जाता और वह दौडकर घर के एक खास कमरे में जाती। उसका अनुमान बिल्‍कुल सही होता। दीपू की मम्‍मी उस कमरे में फरही बना रही होती। अपनी कला में पारंगत वह छोटे छोटे चावल को मिट्टी के बरतन में रखे गरम रेत में तल तलकर निकाल रही होती।

उसकी दिलचस्‍पी चावल के फरही में कम होती , इसलिए वह अंदर जाकर चने निकाल लाती। ’काकी, इन चनों को तल दो ना’ वह उनसे आग्रह करती। ’इतनी जल्‍दी तलने से ये कठोर हो जाएंगे और इन्‍हे खाने में तुम्‍हारे दांत टूट जाएंगे, थोडी देर सब्र करो।‘ वह चने में थोडे नमक , हल्‍दी और पानी डालकर उसे भीगने को रख देती। अब भला उसका खेल में मन लग सकता था। हर एक दो मिनट में अंदर आती और फिर निराश होकर बाहर आती , लेकिन कुछ ही देर में उसे सब्र का सोंधा नमकीन फल मिल जाता और चने के भुंजे को सारे बच्‍चे मिलकर खाते। इस तरह शायद ही कभी दीपू को उनके साथ खेलने का मौका मिल पाया हो।

टैक्‍सी अब उसके गांव के काफी करीब आ चुकी थी। रबी के फसल खेतों में लहलहा रहे थे। बहुत कुछ पहले जैसा ही दिखाई पड रहा था। शीघ्र ही गांव का ब्‍लाक , मिड्ल स्‍कूल , बस स्‍टैंड , गांव का बाजार , सब क्रम से आते और देखते ही देखते आंखो से ओझल भी होते जा रहे थे। थोडी ही देर में उसका मुहल्‍ला भी शुरू हो गया था। बडे पापा का मकान , रमेश की दुकान , हरिमंदिर , शिवमंदिर , सबको देखकर खुशी का ठिकाना न था।

पर एक स्‍थान पर अचानक तीनमंजिला इमारत को देखकर उसके तो होश उड गए। यह मकान पहले तो नहीं था। फिर उसे दीपू की याद आ गयी। इसी जगह तो दीपू का छोटा सा दो कमरों का खपरैल घर था , जिसके बाहरवाले छोटे से कमरे को ड्राइंग , डाइनिंग या किचन कुछ भी कहा जा सकता था तथा उसी प्रकार अंदरवाले को बेडरूम , ड्रेसिंग रूम या स्‍टोर। यहां पर इस मकान के बनने का अर्थ यही था कि दीपू के पापा ने अपनी जमीन किसी और को बेच दी , क्‍यूंकि इतनी जल्‍दी उनकी सामर्थ्‍य तीनमंजिला मकान बनाने की नहीं हो सकती थी।

घर पहुंचने से ठीक पहले उसका मन बहुत चिंतित हो गया था। पता नहीं वे लोग अब किस हालत में होंगे । दीपू के पापा तो बेरोजगार थे , उसकी मम्‍मी ही दिनभर भूखी , प्‍यासी , अपने भूख को तीन चार कप चाय पीकर शांत करती हुई लोगों के घरों में फरही बनाती अपने परिवार की गाडी को खींच रही थी। बृहस्‍पतिवार को वे भी बैठ जाती थी , क्‍यूंकि गांव में इस दिन चूल्‍हे पर मिट्टी के बरतन चढाना अशुभ माना जाता है। कहते हैं , ऐसा करने से लक्ष्‍मी घर से दूर हो जाती है , धन संपत्ति की हानि होती है।

 एक दिन बैठ जाना दीपू की मम्‍मी के लिए बडी हानि थी। कुछ दिनों तक उन्‍होने इसे झेला , पर बाद में एक रास्‍ता निकाल लिया। अब वे बृहस्‍पतिवार को अपने घर में फरही बनाती मिलती , जो उनके घर से सप्‍ताहभर की बिक्री के लिए काफी होता। ’काकी , तुम अपने घर में बृहस्‍पतिवार को मिट्टी के बर्तन क्‍यू चढाती हो ? ‘ वह अक्‍सर उनसे पूछती। उनके पास जबाब होता ‘ बेटे , मुझे घरवालों के पेट भरने की चिंता है , मेरे पास कौन सी धन संपत्ति है , जिसे बचाने के लिए मुझे नियम का पालन करना पडे’ तब उसका बाल मस्तिष्‍क उनकी इन बातों को समझने में असमर्थ था।

पर अभी उसका वयस्‍क वैज्ञानिक मस्तिष्‍क दुविधा में पड गया था। ’क्‍या जरूरत थी , दीपू के मम्‍मी को बृहस्‍पतिवार को अपने घर में फरही बनाने की , लक्ष्‍मी सदा के लिए रूठ गयी , जमीन भी बेचना पड गया , अपनी जमीन बेचने के बाद न जाने वे किस हाल में होंगी , दीपू भी न जाने कहां भटक रहा होगा’ सोंचसोंचकर उसका मन परेशान हो गया था। टैक्‍सी के रूकते ही वे लोग घर के अंदर गए , परसों ही शादी थी , लगभग सारे रिश्‍तेदार आ चुके थे , इसलिए काफी चहल पहल थी। मिलने जुलने और बातचीत के सिलसिले में तीन चार घंटे कैसे व्‍यतीत हो गए , पता भी न चला।

अब थोडी ही देर में रस्‍मों की शुरूआत होने वाली थी। चूंकि घर में रानी ही सबसे बडी लडकी थी , उसे ही गांव के सभी घरों में औरतों को रस्‍म में सम्मिलित होने के लिए न्‍योता दे आने की जबाबदेही मिली। वह दाई के साथ इस काम को करने के लिए निकली। सबों के घर तो जाने पहचाने थे , पर सारे लोगों में से कुछ आसानी से पहचान में आ रहे थे , तो कुछ को पहचानने के लिए उसके दिमाग को खासी मशक्‍कत करनी पड रही थी।

 एक मकान से दूसरे मकान में घूमती हुई वह आखिर उस मकान में पहुच ही गयी , जिसने चार छह घंटे से उसे भ्रम में डाल रखा था। इस मकान के बारे में उसने दाई से पूछा तो वह भाव विभोर होकर कहने लगी ‘अरे , दीपू जैसा होनहार बेटा भगवान सबको दे। उसने व्‍यापार में काफी तरक्‍की की और शोहरत भी कमाया । उसने ही यह मकान बनवाया है। इस बीच पिताजी तो चल बसे , पर अपनी मां का यह काफी ख्‍याल रखता है। अभी तीन चार महीने पूर्व इसका ब्‍याह हुआ है। पत्‍नी भी बहुत अच्‍छे घर से है‘ दाई उसकी प्रशंसा में अपनी धुन में कुछ कुछ बोले जा रही थी और वह आश्‍चर्यचकित उसकी बातों को सुन रही थी। हां , उसके वैज्ञानिक मस्तिष्‍क को चुनौती देनेवाला एक मिथ्‍याभ्रम टूटकर जरूर चकनाचूर हो चुका था।




धर्म की परिभाषा कैसे दी जाये ?

Dharm ki paribhasha

धर्म की परिभाषा कैसे दी जाये ?

धर्म कितने प्रकार के होते हैं या धर्म की कोई परिभाषा तय नही हुई है अभी। धर्म के कई नियमों को आज की कसौटी पर खरा न पाकर धर्म के पालन में भी धर्म संकट उठ खडा होता है। ऐसा तब होता है जब ग्रंथों में लिखे या परंपरागत तौर पर चलते आ रहे धर्म या कर्मकांड का हमारे अंदर के धर्म से टकराव होता है। अंदर का धर्म यदि स्‍वार्थ से लिप्‍त हो तो इच्‍छा के बावजूद भी हममें इतनी हिम्‍मत नहीं होती कि हम सार्वजनिक तौर पर परंपरागत रूप से चलते आ रहे धर्म का विरोध कर सकें , पर यदि हमारा आंतरिक धर्म परोपकार की भावना या किसी अच्‍छे उद्देश्‍य पर आधारित होता है, तो हमें नियमों के विपक्ष में उठ खडा होने की शक्ति मिल जाती है। ऐसी हालत में समाज के अन्‍य जनों के सहयोग से भी हम विरोध के स्‍वर को मजबूत कर पाते हैं। इससे कुछ परंपरावादी लोगों को अवश्‍य तकलीफ हो जाती है , हम भी धर्म की परिभाषा नहीं दे पाते, पर हम लाचार होते हैं।

इस संदर्भ में मैं दो घटनाओं का उल्‍लेख करना चाहूंगी। पहली घटना मेरे जन्‍म के छह महीनें बाद मेरा मुंडन करवाने के वक्‍त की है । हमारे परिवार के सभी बच्‍चों का मुंडन बोकारो और रामगढ के मध्‍य दामोदर नदी के तट पर एक प्रसिद्ध धर्मस्‍थान रजरप्‍पा में स्थित मां छिन्‍नमस्तिका देवीकी पूजा के बाद ही की जाती आ रही है। पूजा के लिए एक बकरे की बलि देने की भी प्रथा है। मेरे मम्‍मी और पापा बलि प्रथा के घोर विरोधी , पर परिवार के दूसरे बच्‍चों के मामलों में तो दखलअंदाजी कर नहीं सकते थे , ईश्‍वर न करे , पर कोई अनहोनी हो गयी , तो कौन बर्दाश्‍त करेगा इनके सिद्धांतों को , इसलिए आंखे मूंदे अपने स्‍वभाव के विपरीत कार्य को होते देखते रहे। 

पर जैसे ही उनकी पहली संतान यानि मेरे मुंडन की बारी आयी , उन्‍होने ऐलान कर दिया कि वे देवी मां की पूजा फल, फूल और कपडे से करेंगे, पर इस कार्यक्रम में बकरे की बलि नहीं देंगे। घरवाले परेशान , नियम विरूद्ध काम करें और कोई विपत्ति आ जाए तो क्‍या होगा ? कितने दिनो तक घर का माहौल ही बिगडा रहा , पर मेरे मम्‍मी पापा को इस मामले में समझौता नहीं करना था , सो उन्‍होने नहीं किया । फिर मेरे दादाजी तो काफी हिम्‍मतवर थे ही , उनका सहयोग मिल गया। देवी देवता की कौन कहे , भूत प्रेत तक के नाम से वे नहीं डरते थे , उनकी हिम्‍मत का बखान किसी अगले पोस्‍ट में करूंगी । बाकी घरवाले भी विश्‍वास में आ गए और बिना बलि के ही मेरा मुंडन हो गया। मुंडन के बाद सबकुछ सामान्‍य ही रहा। धर्म की परिभाषा स्वयं तय हो गयी। 

dharm ki paribhasha

दूसरी घटना तब की है , जब विवाह के पश्‍चात पहली बार अपने पति के साथ मै अपने गांव पहुंची थी। चूंकि हमारे गांव में नवविवाहिताओं को पति के साथ पूरे गांव के मंदिरों में जाकर देवताओं के दर्शन करने की प्रथा चल रही है , इसलिए हमलोगों को भी ले जाया गया। वैज्ञानिक दृष्टिकोण युक्‍त स्‍वभाव होने के बावजूद सभी देवी देवताओं के आगे हाथ जोडने में तो हमें कोई दिक्‍कत नहीं है। मान लें , वो भगवान न भी हो , सामान्‍य व्‍यक्ति ही हो , धर्मशास्‍त्रों में उनके बारे में यूं ही बखान कर दिया गया हो , पर हमारे पूर्वज तो हैं , कुछ असाधारण गुणों से युक्‍त होने के कारण ही इतने दिनों से उनकी पूजा की जा रही है , हम भी कर लें तो कोई अनर्थ तो नहीं होगा। पर आगे एक सती मंदिर आया , इसमें हमारे ही अपने परिवार की एक सती की पूजा की जाती है , मैने तो बचपन से सती जी की इतनी कहानियां सुनी है , शादी विवाह या अन्‍य अवसरों पर उनके गाने भी गाए जाते हैं ,पति के मरने के बाद उनकी चिता पर बैठने के लिए बिना भय के उन्‍होने अपना पूरा श्रृंगार खुद किया था , पर कोई उन्‍हे शीशे की चूडियां लाकर नहीं दे सके थे , न जाने कितने दिन हो गए इस बात के ,पर इसी अफसोस में आजतक हमारे परिवार में शीशे की चूडियां तक नहीं पहनी जाती है। 

इतनी इज्‍जत के साथ उनकी पूजा होते देखा था , इसलिए सती प्रथा को दूर करने के राजा राम मोहन राय के अथक प्रयासों को पुस्‍तकों में पढने के बावजूद मेरे दिमाग में उक्‍त सती जी या अपने परिवार की गलत मानसिकता के लिए कोई सवाल न था। पर इन्‍होने तो यहां हाथ जोडने से साफ इंकार कर दिया ‘यहां हाथ जोडने का मतलब सती प्रथा को बढावा देना है’ उनकी इस बात से घर की बूढी महिलाएं परेशान , ये किसी को दुखी नहीं करना चाहते थे , पर परिस्थितियां ही ऐसी आ गयी थी। धर्म पालन में ऐसा ही धर्म संकट खडा हो जाता है कभी कभी। धर्म की परिभाषा कैसे दी जाये ?





ये जादू भी न .. कम मजेदार कला नहीं

Jadu sikhne ka tarika in hindi

ये जादू भी न .. कम मजेदार कला नहीं

कल मुझे अलबेला खत्री जी की टिप्‍पणी मिली है , जिसमें उन्‍होने लिखा है कि मैं सभी पाठकों को ज्‍योतिषी बनाकर ही छोडूंगी। यह बात पहले भी कई पाठक कह चुके हैं। सभी पाठकों को ज्‍योतिषी बनने में भले ही कुछ समय और लगे , पर देर से ‘गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष’ में पदार्पण करनेवाले अलबेला खत्री जी सबसे पहले ज्‍योतिषी बन चुके हैं , क्‍यूकि कल उनके द्वारा की गयी भविष्‍यवाणी बिल्‍कुल सही हुई है। मुझसे उन्‍होने पूछा है कि मैं जादूगर तो नहीं ? तो पाठकों को मैं बताना चाहूंगी कि अपने जीवन में कुछ दिनों तक जादू दिखाने का भी चस्‍का रहा मुझे। अपने जादू दिखाने की लिस्‍ट में से सबसे आसान और सबसे कठिन जादू के ट्रिक आपके लिए पेश कर रही हूं। आप भी ऐसी जादू कर सकते हैं।

सबसे आसान जादू को दिखाने से पहले तैयारी के लिए आपको अपने रूमाल के किनारे मोडे गए हिस्‍से में सावधानीपूर्वक एक माचिस की तिली डालकर छोड देनी है। जहां दो चार दोस्‍त जमा हों , वहां आप जादू दिखाने के लिए अपने उसी रूमाल को बिछा दें। अपने किसी दोस्‍त को उस स्‍माल में एक माचिस की तिली रखने को कहें। अब माचिस को कई तह मोडते वक्‍त आप ध्‍यान देते हुए उस तिली को छुपाकर और अपनी रूमाल के किनारे छिपायी तिली को सामने रखें। अपने दोस्‍त को अपने तिली को तोडने को कहे , इसके दो नहीं , चार छह टुकडे करवा लें । जब दोस्‍त को तसल्‍ली हो जाए कि तिली अच्‍छी तरह टूट चुकी है , तब आप रूमाल को झाड दें , साबुत तिली आपके सामने होगी। आपकी जादूगिरी देखकर दोस्‍त प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे।

jadu sikhne ka tarika in hindi

हाल फिलहाल तो विज्ञान के प्रवेश से जादू के क्षेत्र में भी बहुत अधिक विकास हुआ है , पर पारंपरिक जादू में सबसे बडा जादू बच्‍चे के सर काटकर उसे जोडने का दिखाया जाता था। उसमें हाथ की अधिक सफाई की जरूरत होती थी। चादर को झाडकर बच्‍चे को सर से पांव तक ढंकते वक्‍त एक गोल तकिया और तरल लाल रंग का पैकेट अंदर भेज देना पडता था , उसके बाद बाहर के व्‍यक्ति के कहे अनुसार लडके का हर क्रिया कलाप होता था और जिस समय सर धड से अलग करने का समय होता , उससे पहले वह अपने शरीर को सिकोडकर छोटा कर लेता और सर के जगह गोल तकिया रखकर रंग के पैकेट को खोल देता । जब लोगों के अनुरोध पर उसके सर जोडने की बात होती है, वह तकिए और पैकेट को चादर में छुपाते हुए उठ खडा होता था।

जादूगर को जादू दिखाते देख हमें अचरज इसलिए होता है , क्‍यूंकि हम नहीं जानते कि उसने किस ट्रिक का इस्‍तेमाल किया है। प्राचीन काल में जब प्रकृति के निकट रहनेवाले युग में खाने पीने और रहने के अलावे न तो खर्च था और न ही महत्‍वाकांक्षा , तो यह बात मानी नहीं जा सकती कि जादूगरों ने पैसे कमाने के लालच में जनता को उनके द्वारा की जानेवाली हाथ की सफाई की जानकारी नहीं दी हो । बडा कारण यही माना जा सकता है कि यदि वे लोगों को अपने ट्रिक की जानकारी दे देतें , तो इससे लोगों के मनोरंजन का यह साधन समाप्‍त हो जाता । और जब इस कला का कोई महत्‍व ही नहीं रह जाएगा , तो फिर इसका दिनोदिन विकास भी संभव नहीं था । यही सब कारण था कि जादू की तरह ही हर कला की पीढी दर पीढी संबंधित परिवार में ही सुरक्षित रहने की परंपरा बन गयी।

वास्‍तव में , लोगों ने जब समाज बनाकर रहना शुरू किया तो पाया कि किसी एक वर्ग द्वारा उपजाए जानेवाले अनाज से सिर्फ उनके परिवार का ही नहीं , बहुतों का गुजारा हो सकता है , तो सारे लोगों का खेती में ही व्‍यस्‍त रहना आवश्‍यक नहीं। इस कारण हर क्षेत्र के विशेषज्ञों को अपनी अपनी प्रतिभा के अनुसार अलग अलग काम सौंप दिए गए और उनके खाने , पीने और अन्‍य आवश्‍यकताओं की पूर्ति करने की जिम्‍मेदारी खेतिहरों को दी गयी। इसी से समाज में इतने वर्ग बन गए और पीढी दर पीढी सभी अलग अलग प्रकार के कार्यों में जुट गए । 

खेतिहरों द्वारा सामान्‍य कलाकारों को भी पूरी मदद मिलने के कारण ही प्राचीन काल में कला का इतना विकास हो सका , वरना आज कला के क्षेत्र में बिना विशिष्‍टता के आप जुडे , तो दो वक्‍त का भोजन जुटाना भी मुश्किल है । इसके अतिरिक्‍त प्राचीन काल में सभी कलाओं , सभी क्षेत्रों के लोगों को महत्‍व देने और समाज में परस्‍पर सहयोग की भावना को जागृत करने के लिए ही विभिन्‍न तरह के कर्मकांड की व्‍यवस्‍था भी की गयी । पर इतने अच्‍छे लक्ष्‍य को ध्‍यान में रखते हुए समाज के लोगों के किए गए श्रम-विभाजन का आज हम यत्र तत्र बुरा ही परिणाम देखने को मजबूर हैं।