Friday 8 May 2020

नारी की समस्याएँ

 Nari ki samasyayen

नारी की समस्याएँ 

अधिकार और कर्तब्‍यों का आपस में एक दूसरे से अन्‍योनाश्रय संबंध है। चाहे कोई भी स्‍थान हो , कर्तब्‍यों का पालन करने वालों को सारे अधिकार स्‍वयमेव मिल जाते हैं। पर सिर्फ अच्‍छे खाते पीते परिवार की कुछ बेटियों या कुछ प्रतिशत दुलारी बहुओं की बात छोडकर हम समाज के अधिकांश नारियों की बात करें , तो यहां तो बात ही उल्‍टी है , बचपन से बूढे होने तक और मौत को गले लगाने तक ये सारे कर्तब्‍यों का पालन करती हैं , पर फिर भी इन्‍हें अधिकार से वंचित किया जाता रहा है। बहुत सारे परिवार और ऑफिसों में महिलाएं शोषण और प्रताडना की शिकार बनीं सबकुछ सहने को बाध्‍य हैं। इनकी स्थिति को सुधारने की कोशिश में स्त्रियां अक्‍सरहा पुरूष वर्ग से अपने अधिकार के लिए गुहार लगाती हैं , जो कि बिल्‍कुल अनुचित है। इस सृष्टि को आगे बढाने में स्‍त्री और पुरूष दोनो की ही बराबर भूमिका है , महिलाओं की खुशी के बिना पुरूष खुश नहीं रह सकते , फिर महिलाओं को अपने को कमजोर समझने की क्‍या आवश्‍यकता ?? उनसे अधिकारों की भीख क्‍यूं मांगने की क्‍या आवश्‍यकता ??

प्राचीन काल में बालिकाओं का विवाह बहुत ही छोटी उम्र में होता था , संयु‍क्‍त परिवार में पालन पोषण होने से कई प्रकार के माहौल से उनका दिलो दिमाग गुजरता था , पर होश संभालते ही ससुराल का माहौल सामने होता था। उनपर अपने मायके का कोई प्रभाव नहीं होता था , सुसराल के माहौल में , चाहे वहां जो भी अच्‍छाइयां हों , जो भी बुराइयां हों , वे आराम से अपना समायोजन कर लिया करती थी। पर आज स्थिति बिल्‍कुल भिन्‍न है , एकल परिवारों और देर से विवाह होने के कारण बौद्धिक विकास में मायके का माहौल गहरा असर रखता है , उसे एक सिरे से भुलाया नहीं जा सकता , इस कारण नारी के लचीलेपन में कमी आयी है। अब जहां वह खुद को थोडा परिवर्तित करना चाहती है , तो ससुराल वालों से भी थोडे परिवर्तन की उम्‍मीद रखती है। वो पढी लिखी और समझदार आज के जमाने से कदम से कदम मिलाकर चलना चाहती है , उसकी इस मानसिकता को ससुराल वालों को सहज ढंग से स्‍वीकार करना चाहिए, पर ऐसा नहीं हो पाता। समय के साथ हर क्षेत्र में परिवर्तन हुआ है , तो भला नारी के रहन सहन , सोंच विचार में परिवर्तन क्‍यूं नहीं होगा ?

nari ki samasyayen

आज पति या ससुराल वालों से समायोजन न हो पाने से वैवाहिक संबंधों के टूटने और बिखरने की दर में निरंतर बढोत्‍तरी हो रही है। ऐय्याश और लालची कुछ पतियों को छोड दिया जाए , तो बाकी मामलों में जितना दोष पतियों का नहीं होता , उससे अधिक उन्‍हें बरगलाने वाली नारी शक्ति का ही होता है। यहां तक की दहेज के लिए भी महिलाएं सास और ननदों के सहयोग से भी जलायी जाती हैं। इसके अतिरिक्‍त सिर्फ ससुराल पक्ष की माताजी ,बहनें और भाभियां निरंतर पीडिताओं को जलील करती हैं , पूरे समाज की महिलाएं भी उनके पीछे हाथ धोकर पड जाती हैं। 

इस कारण परित्‍यक्‍ताओं का जीना दूभर हो जाता है और समाज में इस प्रकार की घटनाओं को देखते हुए कोई भी नारी किसी बात का विरोध नहीं कर पाती , इसे अपनी नियति मानते हुए ससुराल में अत्‍याचारों को बर्दाश्‍त करती रहती है , विरोध की बात वह सोंच भी नहीं पाती। इस तरह अपनी बेटियों को पालने में भले ही माता पिता का नजरिया कुछ बदला हो , पर दूसरे की बेटियों के मामले में मानसिकता अभी तक थोडी भी नहीं बदली है। इस महिला दिवस पर महिलाएं प्रण लें कि दूसरों की बेटियों के कष्‍ट को भी अपना समझेंगे , उसे ताने उलाहने न देंगे , कोई महिला प्रताडित की जाए , तो उसके विरूद्ध आवाज उठाएंगे , तो ही महिला दिवस सार्थक हो सकता है। महिलाओं का साथ देकर अपना अधिकार वे स्‍वयं प्राप्‍त कर सकते हैं , भला वो पुरूषों से अपने अधिकार क्‍यूं मांगे ??



अंतर्राष्‍ट्रीय महिला दिवस पर सबों को शुभकामनाएं !!

बुरे कर्मों का फल कैसे मिलता है ?

Bure karmo ka fal kaise milta hai

बुरे कर्मों का फल कैसे मिलता है ?

ज्‍योतिष जैसे विषय से जुडे होने के कारण अपने को दुखी कहनेवाले और सुखी होने के लिए सलाह के लिए आनेवाले लोगों की मेरे पास कमी नहीं , पर मेरे विचार से ये सारे लोग दुखी नहीं होते। उनके पास जीवन के सारे सुख हैं , ये बडी बडी गाडियों में आते हैं , अच्‍छा जीवन जीते हैं , पर संतोष की कमी है , इसलिए अपने को दुखी मानते हैं। हर प्रकार के सुख , डिग्री और पद के साथ जीने की इन्‍हें बुरी आदत हो गयी है और उसमें से कोई भी कमजोरी उन्‍हें तनाव दे देती है। सिर्फ अपने कर्म पर भरोसा रखने वालों को भी आध्‍यात्मिक विश्‍वास वालों की तुलना में मैने अधिक दुखी पाया है , क्‍यूंकि हर वक्‍त कर्म से आप अपने जीवन को नहीं सुधार सकते , इस लंबे जीवन में बहुत कुछ अपने हाथ में नहीं होता , पर आध्‍यात्म पर विश्‍वास रखनेवालों को हर परिस्थिति को स्‍वीकारने और संतोष कर लेने की एक अच्‍छी आदत होती है। मैं तो बस यही मानती हूं कि अपने लक्ष्‍य के लिए जी जान से कोशिश करो , फिर भी वो नहीं मिले , तो उस वक्‍त समझौता कर लो और यह विश्‍वास रखो कि उससे बडी उपलब्धि आगे मिलनेवाली है।

कहा जाता है कि सबों का जीवन सुख और दुख का मिश्रण है। पर कभी कभी यह विचित्रता अवश्‍य देखने को मिलती है कि किसी के हिस्‍से में सिर्फ सुख ही सुख होता है और किसी के हिस्‍से में केवल कष्‍ट। यदि विज्ञान के कार्य कारण नियम के अनुसार इसका कारण ढूंढा जाए तो हमारे हिस्‍से कुछ भी नहीं लगेगा , पर आध्‍यात्‍म के अनुसार हमारा जीवन कई कई जन्‍मों के हमारे कर्म का फल है , भले ही इसका प्रमाण न हो , पर कार्य कारण नियम के अनुसार हमें मिलनेवाले हर सुख दुख का हिसाब तो इससे मिल ही जाता है। इतना ही नहीं , आध्‍यात्‍म पर विश्‍वास हमारे कर्म को नियंत्रित भी करता है और हमारे अंदर सद्गुणों का विकास कर हमें चरित्रवान भी बनाता है। आध्‍यात्‍म के इस विशंषता के आगे तर्क कहीं भी नहीं टिकता ।



अपने अभी तक के अनुभव में मैने अपने गांव की एक महिला को सबसे कष्‍टकर जीवन जीते पाया है , पर मैं ऐसा नहीं मान सकती कि उससे दुखी दुनिया में और कोई भी नहीं। पूरी दुनिया में न जाने कितनी महिलाएं और पुरूष किन किन जगहों पर घोर यातना का शिकार बने हुए हों, पर मेरी नजर में आयी तीन चार दुखियारी महिला के मध्‍य यह सबसे दुखियारी मानी जा सकती है। सामान्‍य तौर पर संपन्‍न घर में जन्‍म लेनेवाली इस महिला , जिसकी चर्चा कर रही हूं , का विवाह भी एक संपन्‍न घराने के सरकारी नौकरी कर रहे इकलौते युवक से हुआ। दो बेटियां और एक बेटे ने भी जन्‍म लेकर उनके परिवार को सुखी बनाने में कोई कसर नहीं रहने दिया, यहां तक कि दो चार वर्षों तक उनका पालन पोषण और विकास भी अच्‍छे ढंग से हुआ , पर आगे की कहानी पढकर बात समझ में आएगी कि उनके लिए यह खुशी बिल्‍कुल क्षणिक थी।

पीढियों से उनके परिवार के सारे नहीं , पर कुछ बच्‍चे एक खास प्रकार की बीमारी से ग्रस्‍त देखे जाते थे। इस बीमारी में तीन चार वर्ष की उम्र में पोलियो की तरह पहले शरीर का कोई एक अंग काम करना बंद कर देता है ,खासकर पैर , फिर धीरे धीरे पूरा शरीर ही इसके चपेट में आ जाता है। हालांकि इस दौरान भी शारिरीक विकास में कोई कमी नहीं देखी जाती है और 20 वर्ष की उम्र तक बच्‍चे बिस्‍तर में पडे पडे युवा भी हो जाते हैं, पर युवावस्‍था ही इनका अंतिम समय होता है , 20 से 22 वर्ष की उम्र के आसपास इनकी मौत हो जाती है। पर इस दौरान मानसिक विकास तो बाधित होता ही है , बोलने और समझने की शक्ति भी समाप्‍त हो जाती है। किसी भी डॉक्‍टर ने इसका कोई पुखता इलाज होने की बात नहीं कही। इस परिवार के अलावा हमारे पूरे गांव में इस प्रकार की बीमारी किसी भी परिवार में आजतक नहीं हुई , इसलिए इसे लोग जेनेटिक ही मानते हैं। हालांकि उनके परिवार में भी ये बीमारी बिल्‍कुल छिटपुट ढंग से कभी कभार ही किसी को हुई है, बाकी बच्‍चे बिल्‍कुल स्‍वस्‍थ हैं। यहां तक कि उनके परिवार की बेटियों को भी ऐसे बच्‍चे नहीं होते हैं।

पर उक्‍त महिला के दुर्भाग्‍य को हमने काफी निकट से देखा है, एक एक कर उसके तीनों बच्‍चे इस गंभीर बीमारी के शिकार हो गए। नौकरी करनेवाले अपने पति को शहर में छोडकर बच्‍चों की तीमारदारी के लिए उन्‍हें गांव में रहना पडा। जहां बच्‍चों को एक दो वर्ष संभालना ही हमें इतना भारी काम महसूस होता है , उसने निराशाजनक परिस्थितियों में 20 वर्ष की उम्र तक तीन तीन बच्‍चों को कैसे संभाला होगा , यह सोंचने वाली बात है। खैर बिस्‍तर पर पडे अपने बच्‍चों की इतने दिनों तक सेवा सुश्रुसा करने के बाद एक एक कर तीनों चल बसे , उनसे निश्चिंत हुई ही होगी कि पति की बीमारी ने फिर उसका जीना मुश्किल किया। तीन चार वर्षों तक गंभीर इलाज और कई प्रकार के ऑपरेशन के बाद उसके पति भी चल बसे। आज अपने जीवन के अंतिम दिनों में वो बिल्‍कुल अकेली है , उसके जीवन की खुशियों को जबरदस्‍ती ढूंढा जाए तो इतना अवश्‍य मिलेगा कि वो रोजी रोटी के लिए दर दर की ठोकरें खाने को मुहंताज नहीं है। उसके घर में अनाज है और हाथ में पेशन के रूपए भी , पर जीवन में उसने जो झेला और आज जो तनाव भरा जीवन काट रही है, उसे सोंचकर भी मेरे रोंगटे खडे हो जाते हैं !!

यदि हम आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो इस दुनिया में हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है।  सकारात्मक कार्यों का सकारात्मक और ऋणात्मक कार्यों का ऋणात्मक प्रभाव पड़ता है।  इनमे से कुछ को आप साफ़ साफ़ देख पाते हैं,  कुछ रहस्यमय ढंग से उपस्थित होता है। आपने किसी समय किसी के लिए कुछ अच्छा किया, उस समय तो नहीं पर बाद में आपको अच्छा फल मिल जाता है।  कभी कभी अच्छे फल एक दो पीढ़ी बाद भी मिलते हैं, और कभी कभी अगले जन्म में भी, इसलिए हमें हमेशा अच्छे कर्म ही करने चाहिए। जिस कर्म से हमारे मन और आत्मा को ख़ुशी मिलने के साथ साथ सामनेवाले के मन को भी ख़ुशी मिलती है, वह हमारा अच्छा कर्म है। जिस कर्म को अपने मन की ख़ुशी के लिए किया जाये, पर दूसरों का मन दुखी हो जाये, वह हमारा बुरा कर्म होता है।  बुरा कर्म करते वक्त खुद हमारी आत्मा हमें धिक्कारती है, पर हम इन्द्रियों को नियंत्रित न करके बुरा कर्म कर लेते हैं। इसका फल प्रकृति किसी न किसी तरह प्रकृति द्वारा हमें मिलता है। 




नारी शक्ति पर निबंध

Nari shakti par nibandh 

नारी शक्ति पर निबंध 


शारीरिक तौर पर पुरूषों से काफी कमजोर होते हुए भी महिलाएं मानसिक तौर पर बहुत ही सशक्‍त है। यह हमारा भ्रम है कि आज पढाई लिखाई के बाद महिलाएं मजबूत हुई हैं , वास्‍तव में महिलाएं हर युग में , हर क्षेत्र में मजबूत रही हैं। तभी तो एक मर्द पत्‍नी की आकस्‍मिक मृत्‍यु या अन्‍य किसी बीमारी वगैरह में खुद को ही संभाल नहीं पाता , बच्‍चों के कष्‍ट की न सोंचकर वह दूसरे विवाह के लिए तैयार हो जाता है , वहीं एक महिला ऐसी स्थिति आने पर न खुद स्‍वयं को संभालती है , खुद सारे कष्‍ट झेलकर भी बच्‍चों को भी अपने और पिता के सपने पर खरा उतारती है। वह आज की तरह पढी लिखी हो , या अनपढ , गांवों में रहती हो या शहर में , कोई अंतर नहीं पडता , वह जो भी ठान लेती है , कर दिखाती है। इनकी इस खासियत को उसकी कमजोरी बना दिया जाए , तो इसमें महिलाओं का कोई कसूर नहीं । 

नारी शक्ति क्या है

वैसे तो प्रकृति ने महिलाओं और पुरूष दोनो को एक दूसरे का पूरक बनाया है , पर वर्तमान में नहीं , किसी भी युग में कोई भी क्षेत्र महिलाओं से अछूता नहीं रहा। यदि समाज का दबाब न रहे तो अधिकांश महिला पुरूषों के बिना आराम से जीवन यापन कर सकती है , पर महिलाओं का सहारा लिए बिना अधिकांश पुरूषों का जीवन यापन मुश्किल है। यहां तक कि बलपूर्वक नारी को हासिल कर भी कोई पुरूष सुख का अनुभव नहीं कर सकता, उन्‍हें एक समर्पित नारी की ही आवश्‍यकता होती है। खासकर आनेवाली पीढी की जिम्‍मेदारी अच्‍छी तरह निभाने में महिलाओं की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता। नारी की उन्‍नति पर ही , नारी की प्रगति पर ही समाज और राष्‍ट्र को मजबूत बनाया जा सकता है। इससे स्‍पष्‍ट है कि महिलाओं के बिना ये दुनिया एक कदम भी आगे नहीं बढ सकती। 

nari shakti par nibandh


महिलाओं के इतना मजबूत होने के बावजूद प्राचीन काल से अबतक नारियों की बदतर होती दशा के कुछ कारण मुझे स्‍पष्‍ट नजर आते हैं। सबसे बडा कारण नारियों का दो वर्ग में विभाजन है , जिसमें युग या देश के अनुरूप होनेवाला हमारा जीवनस्‍तर कोई मायने नहीं रखता। जहां कुछ महिलाएं , जो हर वक्‍त पिता , पति , भाई और पुत्र की ओर से दी जानेवाली हर प्रकार की सुख सुविधा में जी रही है , घर से बाहर भी उसके कदम सुरक्षित स्‍थलों पर होते हैं , वो अपनी स्थिति से पूरी संतुष्‍ट है , नारी के रूप में अपने को पुरूषों से कम महत्‍वपूर्ण नहीं समझ पाती। वहीं दूसरी ओर कुछ महिलाएं , जो पिता , पति , भाई और पुत्र की ओर से दिए गए कष्‍टों से ही नहीं , घर से बाहर भी हर प्रकार से संघर्ष कर रही है , कदम कदम पर अपने को पुरूषों के आगे शक्तिहीन मानने को बाध्‍य है। इन दोनो वर्गों के मध्‍य तालमेल की कमी ही महिलाओं की स्थिति को कमजोर बनाता है। जबतक पीडित नारी का हम सही विश्‍लेषण नहीं कर पाएंगे , महिलाओं पर अत्‍याचार समाप्‍त नहीं होनेवाला। 

चाहे दहेज के कारण लगातार प्रताडित किया जा रहा हो या किसी अन्‍य कारण से , आंकडे ही स्‍पष्‍ट करते हैं कि महिलाएं हर युग में प्रताडना की शिकार है महिलाओं के ऊपर होनेवाले अत्‍याचार का विरोध करने के लिए हम सभी महिलाओं को मिलजुलकर सबसे समाज का भय समाप्‍त करना होगा । आखिर समाज की आधी आबादी तो हम हैं , फिर क्‍या कारण है कि जो अत्‍याचार करता है , उसे समाज में प्रतिष्‍ठा मिलती है और महिलाएं सहे तो ठीक है न सहे तो उसकी इज्‍जत जाती है , उसका दोष निकाला जाता है। उसने कैसे कपडे पहना , किस समय बाहर गयी ,कहकर न सिर्फ उसका व्‍यवहार गलत माना जाता है , यहां तक कि उसके परिवारवालों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। जिसकी गल्‍ती बडी है , उसपर बडा दोषारोपण हो और जिसकी गलती छोटी हो उसपर छोटा , पर ऐसा नहीं होता। यही कारण है कि पीडित महिलाएं अपना मुंह न खोलकर सब कुछ सहने को विवश हो जाती हैं। ऐसी हालत में स्‍वाभाविक है कि जिसने गलती की , उसकी हौसला अफजाई होगी।

प्राचीन काल में महिलाओं के घर के अंदर सीमित होने से उनके प्रताडित होने की भी कोई सीमा थी , अभी भी घर के अंदर एक सीमा में ही सही , उनको प्रताडित किए जाने में महिलाओं की ही भागेदारी होती है। पढाई लिखाई और कैरियर से जुडने के बाद महिलाओं की प्रताडना का दायरा भी असीमित होता जा रहा है। पर अधिकांश समय महिलाओं को इसलिए ही प्रताडित किया जाता है , क्‍यूंकि महिलाओं को कमजोर समझा जाता है और महिलाओं को इसलिए कमजोर माना जाता है , क्‍यूंकि वे एकजुट नहीं हैं । वे स्‍वयं एक दूसरे की खामियां निकालने में लगी होती हैं और एक दो ही सही, पर पुरूष निरंकुश होकर पूरे पुरूष वर्ग को बदनाम करते जा रहे हैं। आइए, आज हम महिलाएं मिलकर प्रण लें कि किसी भी महिला को प्रताडना से बचाने के लिए , उसके हक के लिए हम एकजुट हो जाएं , क्‍यूंकि आज जो समस्‍या कहीं और दिखाई देती है, वो किसी भी क्षण हमारे साथ घट सकती है, हमारे खुद के साथ, अपनी मित्र के साथ, अपनी बहन या बेटी के साथ, क्‍यूं न हम समाज से ही इस समस्‍या को ही दूर करें।

माँ के लिए सुविचार

Maa par suvichar 

माँ के लिए सुविचार 

मॉ शब्‍द को सुनते ही सबसे पहले परंपरागत स्‍वरूपवाली उस मॉ की छवि ऑखो में कौंधती है , जिसके दो चार नहीं , पांच छह से आठ दस बच्‍चे तक होते थे , पर उन्‍हें पालने में उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आती थी। हमारे यहां 90 के दशक तक संयुक्‍त परिवार की बहुलता थी। अपने सारे बच्‍चों की देखभाल के साथ ही साथ उन्‍हें अपनी पूरी युवावस्‍था ससुराल के माहौल में अपने को खपाते हुए सास श्‍वसुर के आदेशों के साथ ही साथ ननद देवरों के नखरों को सहनें में भी काटना पडता था।

दिनभर संयुक्‍त परिवार की बडी रसोई के बडे बडे बरतनों में खाना बनाने में व्‍यस्‍त रहने के बाद जब खाने का वक्‍त होता , अपने प्‍लेट में बचा खुचा खाना लेकर भी वह संतुष्‍ट बनीं रहती, पर बच्‍चों की देखभाल में कोई कसर नहीं छोडती थी। पर युवावस्‍था के समाप्‍त होते ही और वृद्धावस्‍था के काफी पहले ही पहले ही उनके आराम का समय आरंभ हो जाता था। या तो बेटियां बडी होकर उनका काम आसान कर देती थी या फिर बहूएं आकर। तब एक मालकिन की तरह ही उनके आदेशों निर्देशों का पालन होने लगता था और वह घर की प्रमुख बन जाया करती थी। अपनी सास की जगह उसे स्‍वयमेव मिल जाया करती थी।

maa par suvichar

पर आज मां का वह चेहरा लुप्‍त हो गया है। आज की आधुनिक स्‍वरूपवाली मां , जो अधिकांशत: एकल परिवार में ही रहना पसंद कर रही हैं , के मात्र एक या दो ही बच्‍चे होते हैं , पर उन्‍हें पालने में उन्‍हें काफी मशक्‍कत करनी पडती है। आज की महत्‍वाकांक्षी मां अपने हर बच्‍चे को सुपर बच्‍चा बनाने की होड में लगी है। इसलिए बच्‍चों को भी नियमों और अनुशासन तले दिनभर व्‍यस्‍तता में ही गुजारना पडता है। आज के युग में हर क्षेत्र में प्रतियोगिता को देखते हुए आधुनिक मां की यह कार्यशैली भी स्‍वाभाविक है , पर आज की मॉ एक और बात के लिए मानसि‍क तौर पर तैयार हो गयी है। अपने बच्‍चे के भविष्‍य के निर्माण के साथ ही साथ यह मां अपना भविष्‍य भी सुरक्षित रखने की पूरी कोशिश में रहती है , ताकि वृद्धावस्‍था में उन्‍हे अपने संतान के आश्रित नहीं रहना पडे यानि अब अपने ही बच्‍चे पर उसका भरोसा नहीं रह गया है।

मात्र 20 वर्ष के अंदर भारतीय मध्‍यम वर्गीय समाज में यह बडा परिवर्तन आया है , जिसका सबसे बडी शिकार रही हैं वे माएं , जिनका जन्‍म 50 या 60 के दशक में हुआ है और 70 या 80 के दशक में मां बनीं हैं। उन्‍होने अपनी युवावस्‍था में जिन परंपराओं का निर्वाह किया , वृद्धावस्‍था में अचानक से ही गायब पाया है। इन मांओं में से जिन्‍हें अपने पति का सान्निध्‍य प्राप्‍त है या जो शारीरिक , मानसिक या आर्थिक रूप से मजबूत हैं , उनकी राह तो थोडी आसान है , पर बाकी के कष्‍ट का हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। संयुक्‍त परिवार मुश्किल से बचे हैं ,विवाह के बाद बहूएं परिवार में रहना नहीं पसंद करने लगी हैं। सास की मजबूरी हो , तो वह बहू के घर में रह सकतीं हैं , पर वहां उसके अनुभवों की कोई पूछ नही है , वह एक बोझ बनकर ही परिवार में रहने को बाध्‍य है , अपने ही बेटे बहू के घर में उसकी हालत बद से भी बदतर है। कहा जाता है कि प्रकृति को भूलने की आदत नहीं होती है , जो जैसे कर्म करता है , चाहे भला हो या बुरा , वैसा ही फल उसे प्राप्‍त होता है , एक कहावत भी है ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ यदि यह बात सही है , तो प्रकृति इन मांओं के साथ क्‍यो अन्‍याय कर रही हैं ?

मातृ दिवस मनाने का  दिवस नहीं, माँ के प्रति अपने कर्तव्यों को स्वीकार करने का दिवस है।  यदि आपके सामने आपकी माँ है तो आप भाग्यशाली हो, जिस दिन वे नहीं रहेंगी, आप खुद को अभागे से महसूस करोगे।

माँ और बच्चों दोनों को मातृ दिवस की अनंत शुभकामनाएँ ! 

माँ के लिए दो शब्द

Maa ke liye do shabd

माँ के लिए दो शब्द

दुनिया का सबसे खूबसूरत शब्‍द, सबसे प्‍यारा शब्‍द है मां। किसी एक महिला के मां बनते ही पूरा घर ही रिश्‍तों से सराबोर हो जाता है। कोई नानी तो कोई दादी , कोई मौसी तो कोई बुआ , कोई चाचा तो कोई मामा , कोई भैया तो कोई दीदी , नए नए रिश्‍ते को महसूस कराती हुई पूरे घर में उत्‍सवी माहौल तैयार करती है एक मां। लेकिन इसमें सबसे बडा और बिल्‍कुल पवित्र होता है अपने बच्‍चे के साथ मां का रिश्‍ता। यह गजब का अहसास है , इसे शब्‍दों में बांध पाना बहुत ही मुश्किल है।

प्रसवपीडा से कमजोर हो चुकी एक महिला सालभर बाद ही सामान्‍य हो पाती है। मां बनने के बाद बच्‍चे की अच्‍छी देखभाल के बाद अपने लिए बिल्‍कुल ही समय नहीं निकाल पाती है। बच्‍चा स्‍वस्‍थ और सानंद हो , तब तो गनीमत है ,पर यदि कुछ गडबड हुई , जो आमतौर पर होती ही है, बच्‍चे की तबियत के अनुसार उसे खाना मिलता है , बच्‍चे की नींद के साथ ही वह सो पाती है , बच्‍चे की तबियत खराब हो , तो रातरातभर जागकर काटना पडता है , परंतु इसका उसपर कोई प्रभाव नहीं पडता , मातृत्‍व का सुखद अहसास उसके सारे दुख हर लेता है।

maa ke liye do shabd

परंपरागत ज्‍योतिष में मां का स्‍थान चतुर्थ भाव में है। यह भाव हर प्रकार की चल और अचल संपत्ति और स्‍थायित्‍व से संबंध रखता है। यह भाव सुख शांति देने से भी संबंधित है। हर प्रकार की चल और अचल संपत्ति का अर्जन अपनी सुख सुविधा और शांति के लिए ही लोग करते हैं । भले ही उम्र के विभिन्‍न पडावों में सुख शांति के लिए लोगों को हर प्रकार की संपत्ति को अर्जित करना आवश्‍यक हो जाए , पर एक बालक के लिए तो मां की गोद में ही सर्वाधिक सुख शांति मिल सकती है , किसी प्रकार की संपत्ति का उसके लिए कोई अर्थ नहीं।

यूं तो एक बच्‍चा सबसे पहले ओठों की स‍हायता से ही उच्‍चारण करना सीखता है , इस दृष्टि से प फ ब भ और म का उच्‍चारण सबसे पहले कर सकता है। पर बाकी सभी रिश्‍तों को उच्‍चारित करने में उसे इन शब्‍दों का दो दो बार उच्‍चारण करना पडता है , जो उसके लिए थोडा कठिन होता है , जैसे पापा , बाबा , लेकिन मां शब्‍द को उच्‍चारित करने में उसे थोडी भी मेहनत नहीं होती है , एक बार में ही झटके से बच्‍चे के मुंह से मां निकल जाता है यानि मां का उच्‍चारण भी सबसे आसान।

मां शब्‍द के उच्‍चारण की ही तरह मां के साथ रिश्‍ते को निभा पाना भी बहुत ही आसान होता है। शायद ही कोई रिश्‍ता हो , जिसे निभाने में आप सतर्क न रहते हों , हिसाब किताब न रखते हों , पर मां की बात ही कुछ और है। आप अपनी ओर से बडी बडी गलती करते चले जाएं , माफी मांगने की भी दरकार नहीं , अपनी ममता का आंचल फैलाए अपने बच्‍चे की बेहतरी की कामना मन में लिए बच्‍चे के प्रति अपने कर्तब्‍य पथ पर वह आगे बढती रहेगी।

पर कभी कभी मां का एक और रूप सामने आ जाता है , बच्‍चे को मारते पीटते या डांट फटकार लगाते वक्‍त प्रेम की प्रतिमूर्ति के क्रोध को देखकर बडा अजूबा सा लगता है। पर यह एक मां की मजबूरी होती है , उसे दिल पर पत्‍थर रखकर अपना वह रोल भी अदा करना पडता है। इस रोल को अदा करने के लिए उसे अंदर काफी दर्द झेलना पडता है , पर बच्‍चे के बेहतर भविष्‍य के लिए वह यह दर्द भी पी जाती है।

पर हम उनकी इस सख्‍ती , इस कठोरता को याद रखकर अपने मन में उनके लिए गलत धारणा भी बना लेते हैं। साथ ही कर्तब्‍यों के मार्ग पर चलती आ रही मांओं को अधिकारों से वंचित कर देते हैं। जब उन्‍हें हमारी जरूरत होती है , तो हम वहां पर अनुपस्थित होते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि कोई हमारे साथ भी यही व्‍यवहार करे तो हमें कैसा लगेगा ?

मातृ दिवस मनाने का  दिवस नहीं, माँ के प्रति अपने कर्तव्यों को स्वीकार करने का दिवस है।  यदि आपके सामने आपकी माँ है तो आप भाग्यशाली हो, जिस दिन वे नहीं रहेंगी, आप खुद को अभागे से महसूस करोगे।

माँ और बच्चों दोनों को मातृ दिवस की अनंत शुभकामनाएँ !

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