जब मैं बालपन में थी , रेडियो पर गाने बजते देखकर आश्चर्यित होती थी । फिर कुछ दिनों में इस बात पर ध्यान गया कि रेडियो में लोग अपनी अपनी रूचि के अनुसार गाने सुनते हैं। पहले तो मैं समझती थी कि हमारा रेडियो पुराना है और पडोस के भैया का नया, इसलिए अपने घर में मेरे पापाजी , मम्मी और चाचा वगैरह पुराने गाने सुना करते हैं और वो लोग नए , पर एक दिन आश्चर्य मुझे इस बात से हुआ कि मेरे ही रेडियो में भैया अपने पसंदीदा गीत सुन रहे थे। तब पापाजी ने ही मुझे जानकारी दी कि रेडियो के विभिन्न चैनलों से हर प्रकार के गीतों और कार्यक्रमों का प्रसारण होता रहता है और जिसकी जैसी पसंद और आवश्यकता हो उसके अनुरूप गीत या कार्यक्रम सुन सकता है।
इसके बाद चौथी या पांचवीं कक्षा में एक पाठ में टेलीविजन के बारे में जानकारी मिली , रेडियो में जो कुछ भी हम सुन सकते हैं , टेलीविजन में देखा जा सकता है। यानि गीत , संगीत , समाचार या अन्य मनोरंजक कार्यक्रमों का आस्वादन कामों के साथ साथ आंख भी कर पाएंगा । इस पाठ को समझाते हुए पापाजी बतलाते कि टेलीविजन के आने के बाद हर प्रकार के ज्ञान विज्ञान का तेजी से प्रचार प्रसार होगा , बहुत सी सामाजिक समस्याएं समाप्त हो जाएंगी। वैज्ञानिकों के द्वारा किए गए इस प्रकार के शोध को सुनकर मेरे आश्चर्य की सीमा न थी।
कल्पना के लोक में उमडते घुमडते मन को पहली बार 1984 में टी वी देखने का मौका मिला। उस वर्ष पहली बार स्वतंत्रता दिवस , गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम के साथ ही इंदिरा गांधी की अंत्येष्टि तक को देखने का मौका मिला , जिसके कारण इस बडी वैज्ञानिक उपलब्धि के प्रति मैं नतमस्तक थी और भविष्य में समाज को बदल पाने में टी वी के सशक्त रोल होने की कल्पना को बल मिल चुका था।
आज समय और बदल गया है। हर घर में टेलीवीजन हैं , रेडियो की तरह ही इसमें भी चैनलों की कतार खडी हो गयी है , रिमोट से ही चैनल को बदल पाने की सुविधा हो गयी है , पर किसी चैनल में ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं , जो हमारी आशा के अनुरूप हो। समाचार चैनल राष्ट्र और समाज के मुख्य मुद्दे से दूर छोटे छोटे सनसनीखेज खबरों में अपना और दर्शकों का समय जाया करते हैं। मनोरंजक चैनल स्वस्थ मनोरंजन से दूर पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों के विघटन के कार्यक्रमों तथा अश्लील और फूहड दृश्यों में उलझे हैं। इसी प्रकार धार्मिक चैनल आध्यात्म और धर्म को सही एंग से परिभाषित करने को छोडकर अंधविश्वास फैलाने में व्यस्त हैं।
ऐसी स्थिति में हम सोचने को मजबूर है कि क्या इसी उद्देश्य के लिए हमारे वैज्ञानिकों की इतनी बडी उपलब्धि को घर घर पहुंचाया गया था ।
7 comments:
क्या इसी उद्देश्य के लिए हमारे वैज्ञानिकों की इतनी बडी उपलब्धि को घर घर पहुंचाया गया था ।
शायद नहीं, पर ... बदलते समय ने धारा ही बदल दिया है।
खान-पान ठीक नही है!
जैसा खाये अन्न!
वैसा बने मन!!
सहमत हूँ,आपसे।
बहुत अच्छा लगा यह लेख....
बधाई...
आपसे सहमत हूं।
आने वाला वक्त ब्लॉगिंग का है...इसलिए छोटी सी आशा...
जय हिंद...
सही लिखा है आपने
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