एक बच्चे का हंसता खिलखिलाता मुस्कराता चेहरा जहां हमें खुशियों से सराबोर करता है , उसके साथ खेलते हम खुद अपने भूले हुए बचपन को जी लेते हैं, कुछ क्षणों के लिए सारे गम को भूल जाते हैं , वहीं अतिवृद्धावस्था को झेल रहे लोगों का जीवन हमारे सामने एक भयावह सच उपस्थित करता है, जिसे देखकर हम कांप से जाते हैं। इतना ही नहीं , उनकी तनावग्रस्त बातों को सुनकर चिडचिडाहट उपस्थित पाते हैं । समय और परिस्थिति के अनुसार इन सभी जगहों पर थोडा बहुत परिवर्तन भले ही मिल जाए , पर यह सत्य है कि सभी मनुष्य बचपन से लेकर बुढापे तक के इस यथार्थ के जीवन को झेलने को मजबूर है।
अपनी अपनी परिस्थिति में उम्र के साथ सभी व्यक्ति के जीवन के अनुभव क्रमश: बढते ही जाते हैं , आगे चलकर खास खास क्षेत्रों में भी उम्र में बडे लोगों के अनुभव हमारे लिए बहुत सीख देने वाला होता है। 50 से 70 वर्ष की उम्र तक अपने से बडों की सीख के महत्वपूर्ण होने से इंकार नहीं किया जा सकता। इसलिए इस उम्र के लोगों के अनुभव से लाभ उठाते हुए उनकी हर बात में से कुछ न कुछ सीखने की प्रवृत्ति व्यक्ति को विकसित करनी चाहिए । पर जब हम स्वयं 50 वर्ष के हो जाते हैं , तो बडों के समान हमारे विचारों का भी पूरा महत्व हो जाता है , हां 60 वर्ष की उम्र तक के व्यक्ति से उन्हें कुछ सीख अवश्य लेनी चाहिए। पर 60 वर्ष की उम्र के बाद धर्म , न्याय आदि गुणों की प्रधानता उनमें दिख सकती है , पर सांसारिक मामलों की सलाह लेने लायक वे नहीं होते हैं।
पर जब उम्र बढती हुई 70 वर्ष के करीब या पार कर जाती है , तो व्यक्ति के स्वास्थ्य के साथ ही साथ उसकी मानसिकता बहुत अधिक बदल जाती है। छोटी छोटी बातों में वे इतना अधिक उलझने लगते हैं कि उनके साथ समायोजन कर पाना कठिन हो जाता है। उनका कोई अनुभव इस बदलती हुई जीवनशैली के अनुरूप नहीं होने से छोटी छोटी बातों में बहस की नौबर आ जाती है। प्रतिष्ठा को प्रश्न बना लेना भी इस उम्र में चरम सीमा पर होता है , सो बात का बतंगड बनाने की कोशिश भी ये करते हैं। कभी कभी दवाब की हालत में या किसी प्रकार की लाचारी की हालत में तनारवपूर्ण बातें करके परिवार में सबों का जीना भी मुश्किल कर देते हैं। समझाने बूझाने या राहत देने के लिए कही गयी कोई भी बात का उनपर कोई असर नहीं होता , जिससे उनके साथ रहनेवाले भी अक्सर तनाव में आ जाते हैं। हां, यदि इस समय उनका कोई शौक हो तो उनका जीवन पूर्ववत बना रहता है और वे शरीर या विचार से अपने घरवालों को कोई दबाब नहीं देते हैं।
बचपन को भी हममें से हरेक ने जीया और बुढापे को भी हममें से सबको जीना पडेगा , इस तरह आज उनका जो जीवन है वह कल हमारा भी हो सकता है। जब आज हर घर में अतिवृद्धों की यही स्थिति है , तो हमारे बुढापे के समय में भी ऐसा ही होगा। इसलिए आज हम जो करेंगे , उसे देखकर हमारे बच्चों में भी वैसे ही संस्कार जाएंगे। इन अतिवृद्धों के शारीरिक या मानसिक कमजोरियों के बोझ को न उठाना हमारी कायरता ही मानी जाएगी। आखिर बचपन में उन्होने हमें उससे भी अधिक लाचार स्थिति में संभाला है। ऐसे बुजुर्गों को उनके किसी रूचि के कार्य में उलझाए रखना अति उत्तम होता है। पर यदि वे कुछ करने से भी लाचार हो , तो उनका ध्यान रखना हमारा कर्तब्य है। यदि वे दिन भर सलाह देने का काम करते हों , जिनकी आज कोई आवश्यकता नहीं , तो बेहतर होगा कि हम एक कान से उनकी बात सुने और दूसरे ही कान से निकाल दें , पर किसी प्रकार की बहस कर उनका मन दुखाना उचित नहीं है , बस उनकी आवश्यकता की पूर्ति करते रहें , वे खुश रहेंगे !!
12 comments:
यदि वे दिन भर सलाह देने का काम करते हों , जिनकी आज कोई आवश्यकता नहीं , तो बेहतर होगा कि हम एक कान से उनकी बात सुने और दूसरे ही कान से निकाल दें , पर किसी प्रकार की बहस कर उनका मन दुखाना उचित नहीं है , बस उनकी आवश्यकता की पूर्ति करते रहें , वे खुश रहेंगे !!
सच और सही - आभार.
ek sargarbhit lekh.
एक बार एक रिश्तेदार से बात हो रही थी. उस समय उन्होंने भी कुछ ऐसे ही शब्द कहें थे. उनके वृद्ध पिता की हर काम में सलाह देने की आदत थी . मुझे किसी भी बुजुर्ग के साये में रहने का मौका नहीं मिला हैं अभी तक. उनकी बात से मुझे लगा कि शायद वो अपने पिता का अपमान कर रहें हैं. सो में उनसे रुष्ट हो गया. परन्तु आपका लेख पढके लगा कि शायद वो सही कह रहे थे.
"""यदि वे दिन भर सलाह देने का काम करते हों , जिनकी आज कोई आवश्यकता नहीं , तो बेहतर होगा कि हम एक कान से उनकी बात सुने और दूसरे ही कान से निकाल दें , पर किसी प्रकार की बहस कर उनका मन दुखाना उचित नहीं है , बस उनकी आवश्यकता की पूर्ति करते रहें , वे खुश रहेंगे !!..."""
......ऐसा नहीं है ,हम उनकी बातों पर गौर भी फरमाएं , वे हमसे अनुकरण चाहते हैं .
ांअपसे सहमत हूँ आपको मकर संक्रांति की शुभकामनायें
70 वर्ष की उम्र से अधिक के वृद्ध की बातें : एक कान से सुनना दूसरे से निकाल देना ही अच्छा है !
इसमें एक वाक्य और जोड़ना जाहता हूँ-
किन्तु,
सारी बातें एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देना ही अच्छा नही है!!
रूपचंद्र शास्त्री जी .. पूर्व की टिप्पणी में डा मनोज मिश्रा जी ने भी इस बात पर आपत्ति दर्ज की है .. आपलोगों ने मेरे आलेख को ध्यान से पढा नहीं .. मैंने तो वैसा शीर्षक जानबूझकर रखा था .. ताकि लोग आकृष्ट होकर अंदर की बातें पढे .. मैं लिखा है...
हां, यदि इस समय उनका कोई शौक हो तो उनका जीवन पूर्ववत बना रहता है और वे शरीर या विचार से अपने घरवालों को कोई दबाब नहीं देते हैं।
ऐसे बुजुर्गों को उनके किसी रूचि के कार्य में उलझाए रखना अति उत्तम होता है। पर यदि वे कुछ करने से भी लाचार हो , तो उनका ध्यान रखना हमारा कर्तब्य है। यदि वे दिन भर सलाह देने का काम करते हों , जिनकी आज कोई आवश्यकता नहीं , तो बेहतर होगा कि हम एक कान से उनकी बात सुने और दूसरे ही कान से निकाल दें , पर किसी प्रकार की बहस कर उनका मन दुखाना उचित नहीं है , बस उनकी आवश्यकता की पूर्ति करते रहें , वे खुश रहेंगे
रूपचंद्र शास्त्री जी ..
सादर नमस्कार !!
पूर्व की टिप्पणी में डा मनोज मिश्रा जी ने भी इस बात पर आपत्ति दर्ज की
है .. आपलोगों ने मेरे आलेख को ध्यान से पढा नहीं ..
बात समझ में आ गयी है जी!
आपका आलेख शिक्षाप्रद है!
बिल्कुल सही कह रही हैं आप!!
कहते ही हैं की बच्चे बूढ़े एक समान होते हैं..इस उम्र में उनकी इच्छा सिर्फ यही होती है की कोई उन्हें सुन ले..सुनने में और स्वीकार किये जाने योग्य बातें अपनाने में क्या हर्ज़ है ...
सार्थक आलेख ...!!
बिल्कुल सही कहा आपने हम जो कुछ भी करते है हमारे बच्चे अक्सर उसी को करने की कोशिश करते है । बढिया लगा आपका ये लेख पढकर , एक बार फिर आपने अपने सार्थक लेख से मन मोह लिया ।
बहुत अच्छा सन्देश संगीता जी ।
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