वर कन्या को गहने जेवर और कपडे वगैरह के रूप में उपहार देने के क्रम में और रिश्तेदारों की उपस्थित भीड को संभालने और खिलाने पिलाने में दोनो पक्षों का खर्च हुआ करता था। चूंकि कन्या के यहां वर पक्ष का आगमन होता था , इसलिए उनके स्वागत के लिए उनके संबंधियों को भी उपहार देने की परंपरा बनी थी। इसके अतिरिक्त कन्या दान के वक्त फर्नीचर तथा बरतन वगैरह दान किए जाने के कारण उनका कुछ अधिक खर्च हो जाता था। इस तरह वर पक्ष की तुलना में कन्या पक्ष का कुछ ही अधिक खर्च होता था। पर वर पक्ष के द्वारा दिए गए उपहार अपने घर में रह जाते थे , जिसका मौके बेमौके उपयोग किया जा सकता था , जबकि कन्या पक्ष के द्वारा दिया गया उपहार बेटी के साथ उसके ससुराल चला जाता था , जिसपर उनका कोई अधिकार नहीं रह जाता था , शायद इसलिए ही बेटियों को उपहार देना भी कन्या पक्ष वालों को भारी लगता होगा।
लेकिन कालांतर में सुविधाभोगी मानसिकता के कारण कमोवेश सभी परिवारो में अपनी पुत्रियों का विवाह अपने से संपन्न घराने में योग्य वर से करने की प्रवृत्ति बढने लगी और इसके लिए कन्या पक्ष वाले वर पक्ष वालों को लालच देने लगें। यदि कोई लालच न दिया जाए तो वर पक्ष वाले अपने से निम्न हैसियत वालों की कन्या से विवाह करने को कैसे राजी हो सकते थे ? कभी कभी अपने समान हैसियतवाले घराने में भी शक्ल सूरत से कमजोर या किसी प्रकार की अपंगता की शिकार कन्या के विवाह के लिए वर पक्ष को लालच देना कन्या पक्षवालों की मजबूरी रही और हालात की कमजोरी ने वर पक्ष को इसे स्वीकारने को बाध्य किया। इन्हीं सब बातों से क्रमश: दहेज की प्रथा बढती चली गयी। बाद में कन्या पक्ष द्वारा पढाई लिखाई और नौकरी प्राप्त करने के बाद बेहतर जीवन जी पाने वाले वरों की मांग बडे रूप में बढी और दहेज प्रथा का और वीभत्स रूप होता चला गया। पर यह तो हमें मानना ही होगा कि कन्याओं के पिता की स्वार्थी प्रवृत्ति ने ही दहेज प्रथा को जन्म दिया है।
आज भी वर या कन्या दोनो की हैसियत और उनके माता पिता की हैसियत समान हो तो विवाह के पहले दहेज का कोई प्रश्न ही नहीं उठता, चाहे वे अपनी पसंद से विवाह करें या माता पिता की पसंद से या किसी मध्यस्थ के माध्यम से। दोनो की ओर से यथासंभव उपहार खरीदे जाएंगे , खर्च किए जाएंगे , पर यह कितना होगा , इसे पहले से तय करने की कोई आवश्यकता नहीं। पर कन्या अधिक पढी लिखी न हो और आप अच्छे से अच्छा वर ढूंढेंगे , तो इस कमी की क्षतिपूर्ति के लिए माता पिता को कुछ करना ही पडेगा। पर कई दशक पूर्व से ही जहां लडकी भी कमाउ होती थी , वहां दहेज की अधिक समस्या नहीं उपस्थित हुआ करती थी।
जहां नई नई सरकारी नौकरी ज्वाइन करने वाले छोटी छोटी आवश्यकता को पूरी करने में ही कुछ दिनों से अपनी सारी तनख्वाह समाप्त कर रहे हों , दान दहेज के रूप में लाखों कैश और गृहस्थी का छोटा बडा सामान एक साथ मिल जाने में क्यों आपत्ति कर सकते थे ? उसके लिए कन्या की शक्ल सूरत या पारिवारिक स्तर में थोडा समझौता भी अधिक मायने नहीं रखता था। पर आज मल्टीनेशनल कंपनी में लाखों के पैकेज की नौकरी कर रहे युवा दहेज के विरोध में ही दिखाई दे रहे हैं। कारण यह है कि कन्या के माता पिता अपने पूरे जीवन की बचत भी दे दें , तो उसके एक वर्ष के पैकेज के बराबर होगा। इस कारण इसे महत्व न देकर वह उपयुक्त पात्र चुनना अधिक पसंद कर रहे हैं।यह समाज के लिए शुभ हो सकता है , पर ऐसे में सामान्य से कम शक्ल सूरत या प्रोफेशनल डिग्री न रखने वाली कन्याओं के विवाह में बहुत बाधा उपस्थित हुई है। ऐसी कन्याओं के माता पिता काफी लाचार परेशान दिख रहे हैं। वैसे हाल के दिनों में आयी कन्याओं की संख्या में गिरावट से थोडी राहत अवश्य हुई है , अन्यथा स्थिति और भयावह हो सकती थी।
10 comments:
संगीता जी, अच्छा विषय उठाया है आपने ! एक और बात कहूंगा कि अगर हम गौर करे , यूँ तो यह कुप्रथा पूरे देश में कैंसर की तरह फैली हुई है, मगर दो राज्य , बिहार और आंध्रा ( साथ में लगते कुछ और राज्यों के क्षेत्र भी ) इस बीमारी से सबसे ज्यादा प्रभावित है और इसी का सीधा असर यह देखने को मिलता है कि भ्रष्टाचार और घूसखोरी में इन्ही दो राज्यों और इस्से लगे अन्य राज्यों के क्षेत्रो में सबसे अधिक है ! यानी कहने का मतलब है दहेज़ और भ्रष्टाचार सगे है ! कहने का मतलब घर में अगर दो बेटियों ने जन्म ले लिया तो बाप लगा घूस खाने ! तो भ्रष्टाचार भी तभी काफी हद तक ख़त्म हो सकता है जब दहेज़ कुप्रथा ख़त्म हो !
यह शुभ संकेत नहीं है जैसा आपने लिखा है"हाल के दिनों में आयी कन्याओं की संख्या में गिरावट से थोडी राहत अवश्य हुई है , अन्यथा स्थिति और भयावह हो सकती थी।""
विचारणीय एवं बढियां पोस्ट .
यह सत्य है कि यदि कन्या के माता-पिता न चाहे तो दहेज के बिना विवाह सम्पन्न हो सकता है लेकिन उनका लालच ही दहेज प्रथा को बढ़ावा दे रहा है। समाज में कोई भी परम्परा बनती है तो उसके पीछे लाभ और हानि दोनों ही रहते हैं। लेकिन जब समाज ही ऐसी प्रथाओं से दूषित होने लगे तब चिन्तन अवश्य करना चाहिए। पैसे देकर खरीदा गया दूल्हा कभी भी समाज हित में नहीं होता है।
सही बात..समस्या होना लाजमी है क्योंकि वैसे तो लोग दहेज की आड़ में मान लेते थे..अब दिक्कत आ सकती है
यह समस्या शायद हो सकती है किन्तु दहेज फिर भी अभिशाप है.
सन्गीता जी आपने दहेज के इतिहास और उसके चलन को तो बहुत खूबी से लिखा है लेकिन जिसे आप समस्या बता रही है बह सहज स्थिति है. बडे लोगो की साधारण गुणवान कन्याओ का विवाह असाधारण लडको से क्यो हो. आओ हम एक अभिशाप से मुक्ति का जश्न मनाये.
Isee samasya ke chalte aajkal shikshit ladkiyan bhee apna kaam chhodna nahee chahti..chahe byah ko der ho jaye..pariwaar me bachhon ka aagman bhi soch vichar ke saath hota hai..
इस समस्या से इंकार नहीं किया जा सकता फिर भी दहेज का समर्थन नहीं करना चाहिए। यह अभिशाप है।
आपसे एकमत हूं।
बहुत अच्छे प्रकार से आपने दहेज के जन्म के बारे में लिखा है,में शमा जी से तो सहमत हूँ,यह कुप्रथा समाप्त होनी चाहिये,इस कुप्रथा के विरूद्ध कानुन तो बन गयें है,लेकिन अभी भी यह कुप्रथा चोरी छिपे चल रही है,दहेज लोभी अभी भी अपनी बहुओं पर अत्याचार कर रहें हैं,इस प्रथा के विरूद्ध सामाजिक चेतना की आवशयक्ता है,और पुर्ण रूप से इसका सामाजिक बहिष्कार बान्छित है ।
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