Saturday, 23 January 2010

आज के पूंजीपतियों को अपना दृष्टिकोण थोडी उदारता का बनाना होगा चाहिए !!





अति प्राचीन काल में कंद मूल खाते , गुफाओं में रहते ,वृक्ष की छाल लपेटते हुए लोगों को धीरे धीरे समझ में आ गया था कि इस धरती पर प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता के सही उपयोग से उनके लिए भोजन की व्‍यवस्‍था बहुत कठिन नहीं है, बहुत कम लोग भी मेहनत कर कुल जनसंख्‍या के लिए इसका प्रबंध कर सकते हैं। ऐसी सोंच विकसित होने के बाद बाकी जनसंख्‍या को भोजन के अलावे मनुष्‍य की अन्‍य मुख्‍य जरूरतों जैसे वस्‍त्र ,आवास , वस्‍त्र , सुरक्षा जैसे जरूरी कार्यों में लगाकर एक पूरा समाज बनाया गया। क्रमश: सभ्‍य होते हुए मनुष्‍य की आवश्‍यकताएं बढती चली गयी और हर प्रकार के कार्य को संभालने के लिए उस क्षेत्र की विशेषज्ञता रखने वाले लोगों को जिम्‍मेदारी दी गयी। उन सभी प्रकार के काम में लगे लोगों के लिए भोजन की व्‍यवस्‍था करना खेतिहरों की जिम्‍मेदारी होती थी।

 इसलिए भूस्‍वामी के घर में भले ही अनाज का ढेर दिखाई देता था , पर उसमें समाज के सभी वर्गों की हिस्‍सेदारी होती थी। यही कारण था कि मनुष्‍य की दूसरी आवश्‍यकताओं को पूरी करने वालों को अपने प्रतिदिन के भोजन या अन्‍य आवश्‍यकताओं के बारे में कुछ भी सोंचने की आवश्‍यकता नहीं होती थी। गृहस्‍थों को विभिन्‍न प्रकार के कर्मकांडों के बहाने से समाज के सभी वगों की जरूरत महसूस करवायी जाती थी और प्रत्‍येंक घर से उनके काम के बदले दिया जाने वाला अनाज वर्षभर यहां से वहां घूमता हुआ सभी वर्गों की आवश्‍यकताओं को पूरी करता था। उदार गृहस्‍थों , जिसमें भूमिपति, पूंजीपति और बलवान लोग शामिल थे को अपना सारा अनाज गंवा देने का कोई भय नहीं था , क्‍यूंकि वे जानते थे कि अगले वर्ष अनाज फिर से उनके पास आ जाएगा, उन्‍हें प्रकृति पर विश्‍वास था। अपनी आवश्‍यकताओं के प्रति निश्चिंत होने से समाज के सभी वर्ग के लोग अपने काम में और निष्‍णात होते जा रहे थे , इसी कारण प्राचीन भारत में इतने प्रकार की कलाएं विकसित हुईं।

पर इस उदार पीढी के बाद क्रमश: नौकरों चाकरों की बढती हुई भीड के मध्‍य गृहस्‍थों की  सुविधाभोगी अपने को 'तेज' कहने वाली पीढी ने कमान अपने हाथों में ली, जो अपने घर के सारे अनाज पर अपनी मिल्कियत समझने लगे। समाज के विभिन्‍न वर्गो को उनके कार्यों के लिए अनाज का इतना बडा हिस्‍सा देना उन्‍हें स्‍वीकार्य नहीं हुआ । उस अनाज में समाज के सभी वर्गों का हिस्‍सा मानने से उन्‍होने इंकार करना आरंभ किया ।  इस पीढी ने कर्मकांडों में कटौती करना , मजदूरों से अधिक से अधिक काम करवाना, कलाकारों को उनकी कला के पूरी कीमत नहीं देना , अपने को ऊंचा और उन्‍हें नीचा समझना आरंभ किया । इनकी बचत करने की प्रवृत्ति जैसे जैसे बढती गयी , समाज के अन्‍य वर्गों का नुकसान होना शुरू हुआ। जहां एक ओर कई वर्षों का अनाज सड रहा था , वहीं दूसरी ओर गरीबों के बच्‍चों को भूखों मरने की नौबत आ गयी थी। शुरूआती दौर में घर में अनाज की मात्रा की कमी के कारण वे अपने घर के गहने जेवर और बरतन तक बेचने को मजबूर हुए। फिर जब घर में कुछ न बचा , तो धीरे धीरे न सिर्फ वे ही भूमिपति, पूंजीपति और बलवान गृहस्‍थों के शोषण के शिकार होते चले गए, वरन् उनके बच्‍चे भी उन्‍हीं के बनाए जाल में फंसते चले गए। अपनी आवश्‍यक आवश्‍यकताओं को पूरी न कर पाने के कारण उनके जीवन स्‍तर में तेज गति से गिरावट आयी। इस तरह समाज के कमजोर वर्ग और कमजोर होते चले गए और इसका प्रभाव उनके काम पर भी पडा। उनकी कला में पहले वाली खासियत नहीं रह गयी। 

उसके बाद से आजतक तो लोगों की सुख सुविधा के लिए नए नए उपकरण भी इजाद होने लगी , जिससे लोगों का लालच और बढता चला गया और आज पूर्ण तौर पर सुविधा भोगी संस्‍कृति ने गरीब और अमीर वर्ग के मध्‍य बडा फासला बना दिया है। वास्‍तव में , चाहे कोई भी युग हो, कोई भी व्‍यापार हो , अपने 'लाभ' को प्राथमिकता देते हुए ही एक व्‍यापारी आगे बढता है , पर व्‍यवसाय का मुख्‍य लक्ष्‍य जनहित का होता है। आज के व्‍यापारियों की तरह स्‍वार्थ में अंधे होकर 'कोई भी' रास्‍ता उठाना एक व्‍यापारी के लिए उचित नहीं , इसलिए इससे परहेज करना चाहिए। अपने खर्चों में अधिक से अधिक कटौती कर सामान्‍य जनता के लिए सारी संभावनाओं को नष्‍ट कर देना एक सफल व्‍यवसायी का लक्ष्‍य नहीं होना चाहिए। अंधाधुंध पैसे कमाने के लिए आज प्रोफेशनल तक को इसी प्रकार की शिक्षा मिल रही है और बिना सोंचे समझे लगातार विकास का क्रम बनाए रखने के लिए कुछ भी किया जा रहा है , उसका फल आज भी कमजोर वर्ग की जनता को भुगतना पड रहा है। किसी कंपनी के पास क्‍या कहा जाए , एक व्‍यक्ति तक के पास करोडो अरबो रूपए और लाखों जनता को दो जून की रोटी में भी दिक्‍कत , आज का यह सच हो गया है। मुट्ठी भर लोगों के हाथ में सारे संसाधनों का आ जाना समाज के लिए बिल्‍कुल उचित नहीं , इसी का बुरा परिणाम कई सामाजिक समस्‍याओं के रूप में हमें देखने को मिल रहा है। आज के पूंजीपतियों को अपना दृष्टिकोण थोडी उदारता का बनाना होगा , तभी समाज के सभी वर्गों का कल्‍याण हो सकता है। देश के स्‍थायी आर्थिक विकास के लिए ये सबसे महत्‍वपूर्ण बात है , पर आज इसे सोंचनेवाला कोई भी नहीं। आज गरीबों का तो भगवान ही मालिक रह गया है !!






5 comments:

विनोद कुमार पांडेय said...

ग़रीब लोग और ग़रीब होते जा रहे है और धनी लोग धनी इस बारे में सरकार तो कुछ सोच ही नही पा रही है तो यह ज़्यादा सार्थक होगा यदि कुछ सच्चे समाजसेवी,पूंजीपति आयेज आए और अपने ग़रीब भाइयों की भी देखभाल करें...बढ़िया प्रसंग संगीता जी..धन्यवाद

निर्मला कपिला said...

मगर पूँजी4 पति ऐसा नहीं करेंगे वो तो बस अपनी सम्पति बढाने के चक्कर मे रहते हैं उन्हें गरीब जन्ता से कुछ लेना देना नहीं । गरीबी का एक कारन ये पूँजी पति ही हैं धन्यवाद बहुत अच्छा लगा आलेख्

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

कमेंट करने के लिए हुक्का बिजनौरी की दो लाइन लिख रहा हूँ-
"आप भी क्या बात करते हैं श्रीमान!
सरदारों के मुहल्ले में नाई की दुकान!!"

मनोज कुमार said...

धन्यवाद बहुत अच्छा लगा आलेख|

شہروز said...

आप दे सहमत!!महात्मा गांधी ने ट्रस्टी शिप का सिन्धांत इसी लिए माना था.और हमारे कर्णधारों ने मिश्रित अर्थव्यवस्था जभी अपनाया.लेकिन पालन कहाँ हुआ,और कितना होता है हम-सब जानते हैं.गरीब और गरीब और अरबपतियों की संख्या लगातार बढती जा रही है.

कहने में कोई संकोच या भय नहीं कि इस मायाजाल को रचने में भ्रष्टाचार का महत्वपूर्ण योग है.