पिछले दिनों सहारा इंडिया की विभिन्न प्रकार के बचत स्कीमों के लिए काम कर रहे एक एजेंट के बारे में जानकारी मिली। रोजी रोटी की समस्या से निजात पाने के लिए वह इसका एजेंट तो बन गया , पर यहां भी राह आसान न थी। पांच दस रूपए व्यर्थ में बर्वाद करनेवाले और कभी दस पंद्रह हजार रूपए की जरूरत पर महाजनों के यहों बडी ब्याज दर पर पैसे लेने वाले छोटे छोटे लोगों को वह गांव गांव , मुहल्ले मुहल्ले जाकर बचत के बारे में समझाता फिर रहा था। शहर से लेकर गांव तक की यात्रा में सब , खासकर महिलाएं उनकी बातों से प्रभावित होती , लोग प्रतिदिन पैसे जमा करना भी शुरू कर देते , पर महीने के अंत में जबतक एजेंट उनके पास पहुंचता , बचाए धन का कुछ हिस्सा खर्च हो जाया करता था। इससे जहां एक एक पैसे जमा करने वाले लोगों को भी तकलीफ होती ही थी , एजेंट का भी सारा मेहनत व्यर्थ हो रहा था। आखिर कुछ कमीशन न बचे , तो वो अपनी रोजी रोटी की समस्या कैसे हल कर सकता था ?
पर छोटी छोटी बात में भी मौलिक सोंच के सहारे कोई व्यक्ति आगे बढ सकता है , कुछ दिनों के चिंतन मनन के बाद उसने एक हल निकाल ही लिया। वह एक बढई के यहां गया, उसने सौ दो सौ बक्से बनवाए, सभी बक्सों के ऊपर रूपए डालने के लिए एक लंबा छिद्र करवाया। बाजार से छोटे छोटे सौ दो सौ ताले खरीदे, सभी बक्सों में ताला लगाया । सबको उठाया और गांव से लेकर शहर तक पैसे जमा करने के उत्सुक लोगों में से प्रत्येक के घर में एक एक बक्से रख दिए और सभी चाबियों में उस महिला या पुरूष का नाम लिखकर अपने बैग में रख लिया। ऐसी स्थिति में पुरूष या महिला द्वारा उस बक्से में पैसे तो डाले सकते थे , पर किसी मुसीबत में भी उसे नहीं निकाला जा सकता था और महीने भर किसी दूसरे विकल्प के सहारे ही काम चलाने को बाध्य होना पडता था।इस तरह सारी समस्या हल हो चुकी थी , महीने के अंत में वह उस बक्से को खोलकर जरूरत भर पैसे निकाल लेता और पुन: ताला बंद कर उसे वहीं छोड दिया करता था। जहां लोगों के पैसे बच रहे थे, वहीं उसकी रोजी रोटी की समस्या भी हल हो चुकी थी। इस सोंच को आप क्या कहेंगे ??
11 comments:
छोटी छोटी बातों में ही तो जीवन का सार छिपा है.
जी हाँ ..मौलिक सोच से कई वैकल्पिक मगर सरल साधन अपनाये जा सकते हैं बिना किसी अतिरिक्त दबाव के ...
अच्छी सोच ...अच्छा उदहारण ...!!
बिल्कुल सही जो काम जबरदस्ती करवाया गया यानि कि बचत, वह हमें आत्म अनुशासन से करनी चाहिये पर हमारा मन आजकल की भौतिकता से इस कदर प्रभावित है, कि भविष्य की बचत को भी हम खर्च कर देते हैं। जबकि अगर हम अपने हाथ उस बचत के लिये बाँधे रखेंगे तो कोई न कोई दूसरा रास्ता निकाला जा सकता है, पर अगर आसान सा तरीका अगर हमारे पास होगा तो हम क्यों अपने दिमाग को कष्ट देंगे।
बस तो बक्से ने भी वही कार्य किया और उन सभी लोगों को दिमाग चलाने पर मजबूर किया तो उनके कोई काम रुके नहीं, उन लोगों ने किसी न किसी तरह कार्य तो पूरा किया पर बचत भी हो गई।
सही कह रही हैं...........
इसे ही कहते हैं कि आवश्यकता अविष्कार की जननी होती है। और वही व्यक्ति जीवन में सफल होते हैं जो विवेक से काम लेते हैं।
दुनिया में हर बड़ा काम पहले ऐसी ही किसी छोटी सोच से शुरू हुआ....
जय हिंद...
सार्थक शब्दों के साथ अच्छी सलाह, अभिनंदन।
अच्छी सकारत्मक मौलिक सोच ।
बढ़िया तरकीब निकाली.
सभी लोग ऐसे सोचने लगे तो यक़ीनन आधी समस्याएँ तो दूर हो ही जाएगी..अच्छी सोच ...
आपने बिल्कुल सही कहा है! मैं आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ! बहुत ही बढ़िया और प्रेरक लेख हैं!
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