बेटे के एडमिशन के सिलसिले में एक सप्ताह से नेट से , ब्लॉग जगत से दूर थी , कुछ भी लिखना पढना नहीं हो पाया। दो वर्ष पहले जब बडे बेटे ने अपनी पढाई के लिए घर से बाहर कदम बढाया था , छोटे की घर में मौजूदगी के कारण बनी व्यस्तता ने इसका अहसास भी नहीं होने दिया था। पर इस बार छोटे का कॉलेज में दाखिले के बाद घर लौटना हुआ तो घर इतना खाली लग रहा है कि यहां रहने की इच्छा नहीं हो रही। वैसे रहने की बाध्यता भी इस घर में , इस शहर में नहीं है , क्यूंकि ये शहर तो मैने बच्चों की 12वीं तक की पढाई लिखाई के लिए ही चुना था , जो पूरा हो चुका। पर जहां की मिट्टी में एक बार घुलना मिलना हो जाता है , तुरंत पीछा छुडा पाना इतना आसान भी तो नहीं होता। 12 वर्षों का समय कम भी तो नहीं होता , शहर के एक एक गली से ,घर के एक एक कोने से ऐसा जुडाव हो जाता है कि उससे दूर होने का जी भी नहीं करता। किसी नई जगह जाना हो , तो एक उत्सुकता भी मन में होती है , पर उसी पुरानी छोटी सी जगह में लौटना , जिसे 12 वर्षों पहले छोडकर आयी थी , मन में कोई उत्साह नहीं पैदा करता है। वैसे तो उस छोटी सी कॉलोनी के अंदर भी सुख सुविधा की तो कोई कमी नहीं , पर जो बात इस शहर में है , वो भला कहीं और कहां ??
12 वर्ष पहले की एक एक बात हमें याद है , सभी जागरूक अभिभावकों की तरह ही हमें भी यह अहसास होने लगा था कि बच्चों को पढाई लिखाई का अच्छा माहौल दिया जाए , तो उनके कैरियर को मजबूती दी जा सकती है। बच्चों को लकर हमारी महत्वाकांक्षा बढती जा रही थी और हमारी कॉलोनी के जिस स्कूल में बच्चे पढ रहे थे , उसमें पढाई लिखाई के वातावरण का ह्रास होता जा रहा था। राज्य सरकार के विद्यालयों को तो छोड ही दें , बिहार और झारखंड के केन्द्रीय विद्यालय का तो हाल भी किसी से छुपा न होगा। पढाई के ऐसे वातावरण से ऊबकर हमलोग अच्छे अच्छे अवासीय स्कूलों का पता करने लगें। पर उनमें दो बच्चों की पढाई का बजट हमारी क्षमता से अधिक था। कुछ दिनों तक दौड धूप करने के बाद हम निराश बैठे थे कि अचानक बोकारो के 'दिल्ली पब्लिक स्कूल' में हर कक्षा में एक नए सेक्शन के शुरूआत की घोषणा की खबर हमें मिली। हमने स्कूल से दो फार्म मंगवा तो लिए , पर स्कूल में होस्टल की व्यवस्था नहीं थी , बच्चे छोटे थे , इसलिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था भी नहीं की जा सकती थी , यह सोंचकर हमलोग दाखिले के लिए अधिक गंभीर नहीं थे।
पर बोकारो के इस स्कूल की सबने इतनी प्रशंसा सुनी थी कि फॉर्म जमा करने के ठीक एक दिन पहले परिवार के अन्य सदस्यों के बातचीत के बाद निर्णय हुआ कि फार्म भर ही दिया जाए , रिजल्ट से ये तो पता चलेगा कि बच्चे कितने पानी में हैं। जहां तक एडमिशन कराने की बात है , कोई बाध्यता तो नहीं है , रिजल्ट के बाद ही कुछ सोंचा समझा जाएगा। पर दूसरे दिन दिसंबर का अंतिम दिन था , कंपकंपाती ठंड महीने में लगातार बारिश , मौसम के बारे में सब अंदाजा लगा सकते हैं, फार्म जमा करने की हमलोगों की इच्छा समाप्त हो गयी थी , पर अपने भांजे के बेहतर भविष्य के लिए वैसे मौसम में भी बस से लंबी सफर करते हुए दिनभर क्यू मे खडा रहकर मेरा भाई फॉर्म जमा करके आ ही गया , साथ में परीक्षा की तिथि लेकर भी। बच्चों को हमने एक सप्ताह तक परीक्षा की तैयारी करायी , परीक्षाभवन में भीड की तो पूछिए मत , बोकारो के अभिभावकों के लिए डी पी एस पहला विकल्प हुआ करता है । पर दोनो भाइयों ने लिखित के साथ साथ मौखिक परीक्षा और इंटरव्यू तक में अच्छा प्रदर्शन किया और क्रमश: तीसरी और पहली कक्षा में एडमिशन के लिए दोनो का चयन कर लिया गया।
दोनो में से किसी एक के चयन न होने से हमारे सामने बोकारो न जाने का अच्छा बहाना हो जाता , पर दोनो के चयन के बाद हमारी मुश्किल और भी बढ गयी। एडमिशन तक के दस दिनों का समय हमलोगों ने किंकर्तब्यविमूढता में गुजारे। ये नौकरी छोडकर बोकारो आ नहीं सकते थे , बच्चों को दूसरी जगह छोडा नहीं जा सकता था , एकमात्र विकल्प था , मैं उनको लेकर यहां रहूं , एक दो वर्ष नहीं , लगातार 12 वर्षों तक । पर बडे होने पर बच्चे मेरी आज्ञा की अवहेलना करें , पिता के घर में नहीं होने से पढाई न करें , बिगड जाएं तो सारी जबाब देही मेरे माथे पर ही आएगी , सोंचकर मैं परेशान थी। लेकिन एडमिशन के डेट के ठीक दो दिन पहले यहां भी निर्णय हुआ।
इनके एक मित्र के भाई बोकारो में रहते थे , डी पी एस की पढाई और व्यवस्था के बारे में उन्हें जानकारी थी। वो संयोग से हमारे यहां आए , जब सारी बातों की उन्हें जानकारी हुई , तो उन्होने तुरंत एडमिशन कराने को कहा। भविष्य के प्रति हमारी आशंका को देखते हुए उन्होने कहा .. 'अपने घर लौटने के लिए तो आपका रास्ता हमेशा खुला होता है , किसी प्रकार के रिस्क लेने में भय कैसा ?? दूसरी जगह जाने के लिए मौका कभी कभार ही मिलता है , वहां कोई परेशानी हो , उसी दिन वापस लौट जाइए। हां , इसमें कुछ पैसे भले ही बर्वाद होंगे , पर इसे अनदेखा किया जाना चाहिए।' उनका इतना कहना हमें बहुत कुछ समझा गया । पुरानी व्यवस्था को बिना डगमग किए सफलता की ओर जाने का कोई चांस मिले तो वैसे रिस्क लेने में भला क्या गडबडी ?? हमलोगों ने तुरंत एडमिशन का मन बना लिया और दूसरे ही दिन बोकारो आ गए। आगे की पोस्टों में भी चलता ही रहेगा .. बोकारो के 12 वर्षों के सफर के खट्टे मीठे अनुभव !!
12 comments:
कभी ना कभी रोशनी की किरण दिखाई दे जाती है ।
कभी ना कभी रोशनी की किरण दिखाई दे जाती है ।
कभी ना कभी रोशनी की किरण दिखाई दे जाती है ।
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ऐसे समय मुझे एक कविता याद आती है ....आपने भी पढ़ी होगी ...
ज्यों निकल कर
बादलों से
थी एक बूँद आगे बढ़ी
पहली और तीसरी कक्षा में प्रवेश के लिये लिखित परीक्षा और इंटरव्यू...तौबा है इलाही...
हमारा बचपन तो बस खेलते कूदते ही बीत गया था।
बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिये यह संघर्ष गाथा,
अनुकरणीय बन पडती है।
अच्छी प्रस्तुति भी।
अगली कडी की प्रतिक्षा
अच्छी पोस्ट।
सुनाते चलिए अपने अनुभव...सीख ही मिलेगी कुछ न कुछ!!
नितांत व्यक्तिगत अनुभव ...एक एक लाइन पढ़े बिना नहीं छोड़ पाया ! आपकी लेखन क्षमता गज़ब की है संगीता जी ! शुभकामनायें !
बिना रिस्क लिए जिंदगी में कोई काम नहीं होता।
…………..
अंधेरे का राही...
किस तरह अश्लील है कविता...
बच्चों के अच्छे भविष्य के लिएऐसे निर्णय लेने ही पड़ते हैं....प्रतीक्षा रहेगी अगली कड़ियों की
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