पिछले अंक में आपने पढा कि कितनी माथापच्ची के बाद हमने आखिरकार बच्चों का बोकारो में एडमिशन करवा ही लिया। 1998 के फरवरी के अंत में बच्चों के दाखिले से लेकर स्कूल के लिए अन्य आवश्यक सामानों की खरीदारी , जो आजकल आमतौर पर स्कूलों के द्वारा ही दी जाती है , सब हो गयी थी और 2 अप्रैल से क्लासेज शुरू होने थे , जिससे पहले हमें मार्च के अंत में बोकारो में किराये का मकान लेकर शिफ्ट कर जाना था। हमने अपने सारे परिचितों को बोकारो में एक किराए के मकान के लिए कह दिया था , पर पूरा बोकारो शहर SAIL के अंदर आता है , वहां उनके अपने कर्मचारियों के लिए क्वार्टर्स बने हैं , जिसमें वो रहते हैं। शहर के एक किनारे बी एस एल के द्वारा ही एकमात्र प्राइवेट कॉलोनी 'कॉपरेटिव कॉलोनी' बनायी गयी है , जिसमें बिजली और पानी की सप्लाई बी एस एल के द्वारा की जाती है , पर मांग की तुलना में मकान की कमी होने से ये भी सर्वसुलभ नहीं। बैंक , एल आई सी या अन्य छोटी बडी कंपनियों के कर्मचारी वहां रहा करते है। बडे बडे व्यवसायियों के रहने के लिए मार्केट कांप्लेक्स में उनके अपने मकान हैं।
यहां के छोटे व्यवसायी या बाहरी लोग विस्थापित चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को एलॉट किए गए छोटे छोटे क्वार्टर्स को किराये में ले लेते हैं , जरूरत हो तो उसी कैम्पस में एक दो कमरे बना लेते हैं , क्यूंकि ऐसे कर्मचारी अपने गांव में रहते हैं और उनके क्वार्टर्स खाली पडे होते हें। BSL के अनुसार यह गैरकानूनी तो है , पर आम जनों के लिए इसके सिवा कोई विकल्प नहीं। मुझे अकेले ही दोनो बच्चों को लेकर रहना था , इसलिए मैने वैसे ही किसी कर्मचारी की खोज आरंभ कर दी। जान पहचान के लोगों को फोन करने पर जबाब मिलता ... बोकारो में जीने खाने के लिए नौकरी मिल जाती है , विवाह करने के लिए छोकरी भी मिल जाती है , पर घर बसाने के लिए कोठरी क्या , झोपडी भी नहीं मिलती , सुनकर मन परेशान हो जाया करता था। देखते देखते मार्च का अंतिम सप्ताह आ गया , दो चार दिनों में क्लासेज शुरू होने थे और रहने के लिए मकान का अता पता भी नहीं था। वास्तव में बोकारो के इर्द गिर्द के शहर या अन्य कॉलोनी में पानी की व्यवस्था मकानमालिकों को खुद करनी पडती है , जबकि बिजली के लिए वे राज्य सरकार पर निर्भर रहते हैं , दोनो असुविधाजनक है , किराएदार वहां रहना पसंद नहीं करते , इसलिए बोकारो के सभी सेक्टरों की मुख्य कॉलोनी पर पूरा दबाब बना होता है।
हारकर हमने बोकारो से बिल्कुल सटे शहर चास में डेरा लेने का निश्चय किया । बोकारो और चास के मध्य एक छोटी सी नदी बहती है और दोनो के मध्य दो चार सौ मीटर की एक पुल का ही फासला है। स्कूल की बस वहां तक आती थी , इसलिए अधिक चिंता नहीं थी , कुछ लोगों ने वहां के पीने के पानी की शिकायत कर हमें भयभीत जरूर कर दिया था। चास में डेरा मिलने में देर नहीं लगी और 1 अप्रैल को हमलोग कामचलाऊ सामान के साथ इसके गुजरात कॉलोनी के एक मकान में शिफ्ट कर गए। पता नहीं , किसने घर का नक्शा तैयार किया था , इस घर के एक कमरे में एक भी खिडकी नहीं थी , जबकि दूसरे में चारो ओर खिडकियां ही खिडकियां , वो भी बिना ग्रिल या रॉड की अनफिट दरवाजे वाली। कम सामान के कारण दो चार घंटे में ही घर व्यवस्थित हो गया , पर पहले ही दिन खाना खाने से भी पहले हुई बारिश ने न सिर्फ इस घर का पूरा पोल खोलकर रख दिया , वरन् हमें अप्रैलफूल भी बना दिया। थोडी ही देर में पूरा कमरा बारिश के पानी से भरा था और भीगने से बचाने के क्रम में सारा सामान कमरे के बीचोबीच। 'मैं इस घर में नहीं रह सकती , बरसात से पहले पहले दूसरा घर देखना होगा' मैने निश्चय कर लिया था , पर बाद में अन्य कठिनाइयों को देखते हुए महसूस हुआ कि इस कॉलोनी मे मकान बदलने से भी कोई फायदा नहीं होनेवाला।
दूसरे दिन से बच्चों ने स्कूल जाना शुरू कर दिया था , पर शाम को चार घंटे बिजली गुल , न तो होमवर्क करना संभव था और न ही खाना बनाना। कई दिन तो बच्चे बिना होमवर्क के भूखे सो गए , सुबह जल्दी उठाकर उन्हें होमवर्क कराने पडते। फिर मैने एक उपाय निकाला , उन्हे दिन में सुलाना बंद कर दिया , स्कूल से आने के बाद खिलाकर होमवर्क करवाती , शाम को फिर से नाश्ता और नींद आने के वक्त हॉर्लिक्स पिलाकर सुला देती , दूध तो तब लेना भी नहीं शुरू किया था। पर समस्या एक नहीं थी , शाम बिजली के जाते ही जेनरेटरों की आवाज से जीना मुश्किल लगने लगता। कुछ दिनों तक एक छोटा भाई मेरे साथ था , छोटी सी बालकनी में मुश्किल से दो कुर्सियां डालकर हम दोनो बैठे रहते , कुर्सियों के हत्थे पर थोडी देर बच्चे बैठते , फिर थककर सो जाते।10 बजे रात में लाइट आने से पहले तक हमलोग दोनो सोए बच्चों को पंखा झलते , लाइट आने के बाद खाना बनाते , तब खाते। अंधेरे , गर्मी और होहल्ले की वजह से मेरे सर मे दर्द रहने लगा था।
परेशान हो गए थे हमलोग इस रूटीन से , हमलोग समझ चुके थे कि चास में रहकर बच्चों को पढा पाना मुश्किल है , इसलिए प्रतिदिन बोकारो आकर अपने परिचितों के माध्यम से क्वार्टर्स के बारे में पता करते। इतने आसपास में बसे दो शहर और दोनो में इतना फर्क , हमें ऐसा महसूस होता , मानो दोनो शहरों के मध्य बहती नदी पर बना वह पुल स्वर्ग और नरक को जोडता हो। ऐसे ही तनावपूर्ण वातावरण में एक महीने व्यतीत हो गए और 4 मई का दिन आ गया , जहां से 45 दिनों की गर्मियों की छुट्टियां थी , हमलोग वापस अपने घर आ गए। हमें 45 दिन पुन: मकान ढूंढने के लिए मिल गए थे , जिससे काफी राहत हो गयी थी। तबतक हमने फर्नीचर भले ही यहां छोड दिए हों , पर मन ही मन तैयार थी कि यदि बोकारो मे घर नहीं मिला तो यहां दुबारा नहीं आऊंगी , क्यूंकि मुझे बच्चों को पढाने के लिए ही यहां रहना था और ऐसे वातावरण्ा में जब बच्चे पढ ही नहीं पाएंगे , तो फिर यहां रहने का क्या फायदा ?? बोकारो के खट्टे मीठे अनुभवों से संबंधित पोस्ट आगे भी चलती ही रहेगी।
7 comments:
रोचक संस्मरण
प्रणाम
मकान की समस्या भी कानून ने खडी की है
यह तो विकट समस्या है।
रोचक संस्मरण
यहाँ भिलाई में भी रेल्वे लाईन की वैसी ही सीमारेखा है जो आपके पास उस नदी के पुल की है
बी एस पाबला
हमारे यहां भी रेल्वे लाईन की समस्या है।
पाबला जी के भिलाई जैसे। सुविधाएं रेल्वेक्रासिंग तक आकर ठहर जाती हैं कि पार कैसे जायें।
रोचकता से लिख रही हैं बोकारो संस्मरण ....संघर्ष के दिन बीतने के बाद सहज लगने लगते हैं ...
बहुत अच्छी चल रही है संस्मरण यात्रा...हम साथ ही चल रहें हैं...
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