बिहार और झारखंड का मुख्य त्यौहार है छठ , अभी चारो ओर इसकी धूम मची है। ब्लॉग में भी दो चार पोस्ट पढने को मिल ही जा रहे हैं। लोग छठ की खरीदारी में व्यस्त है , पडोस में मेहमानों की आवाजाही शुरू हो गयी है। दूर दूर से इसके खास धुन पर बने गीत सुनने को मिल ही रहे हैं , फिर भी वर्ष में एक बार इसकी सीडी निकालकर दो तीन बार अवश्य चला लिया करती हूं। छठ के बाद फिर सालभर इस गाने को नहीं बजाया जाता है , पडे पडे सीडी खराब भी तो हो जाएगी। गीत सुनते हुए न जाने कब मन बचपन में छठ की पुरानी यादों में खो जाता है।
कहते हैं , हमारे पूर्वज 150 वर्ष पूर्व ही पंजाब से आकर बोकारो जिले के पेटरवार नाम के गांव में बस गए थे। इनके नाम से गांव में एक 'खत्री महल्ला' कहलाने लगा था। आर्सेलर मित्तल ने अब अपने स्टील प्रोजेक्ट के लिए इस स्थान को चुनकर अब इसका नाम औद्योगिक शहरों में शुमार कर दिया है! हमलोगों के जन्म तक तो कई पीढियां यहां रह चुकी थी , इसलिए यहां की सभ्यता और संस्कृति में ये पूरे रच बस चुके थे। पर छठ का त्यौहार कम घरों में होता था और कुछ क्षेत्रीय लोगों तक ही सीमित था , खासकर उस समय तक हममें से किसी के घर में नहीं मनाया जाता था। सब लोग छठ मैय्या के नाम पर एक सूप या जोडे सूप के मन्नत जरूर रखते थे , उसकी खरीदारी या तैयारी भी करते , पर अर्घ्य देने या दिलवाने के लिए हमें किसी व्रती पर निर्भर रहना पडता था।
हमारे मुहल्ले में दूसरी जाति के एक दो परिवार में यह व्रत होता था , खरना में तो हमलोग निश्चित ही खीर और पूडी या रोटी का प्रसाद खाने वहीं पहुंचते थे। माना जाता है कि खरना का प्रसाद जितना बंटे , उतना शुभ होता है , इसलिए बच्चों के लिए रखकर बाकी पूरे मुहल्ले का गाय का दूध व्रती के घर चला जाता था । कभी कभार हमारा मन्नत वहां से भी पूरा होता। पर अधिकांश वर्ष हमलोग दादी जी के साथ अपनी एक दीदी के दोस्त के घर जाया करते थे। एक दिन पहले ही वहां हमलोग चढावे के लिए खरीदे हुए सामान और पैसे दे देते। दूसरे दिन शाम के अर्घ्य के दिन नहा धोकर घर के गाय का ताजा दूध लेकर अर्घ्य देने जाते थे।
वहां सभी लोग प्रसाद के रख रखाव और पूजा की तैयारी में लगे होते थे। थोडी देर में सब घाट की ओर निकलते। कुछ महिलाएं और बच्चे दंडवत करते जाते , तो कुछ मर्द और बच्चे माथा पर प्रसाद की टोकरी लिए हुए । प्रसाद के सूप में इस मौसम में होने वाले एक एक फल मौजूद होते हैं , साथ में गेहूं के आटे का ठेकुआ और चावल के आटे का कसार भी। बाकी सभी लोग पूरी आस्था में तथा औरते छठ का विशेष गीत गाती हुई साथ साथ चलती। हमारे गांव में कोई नदी नहीं , इसलिए पोखर पर ही छठ मनाया जाता। घाट पर पहुंचते ही नई सूती साडी में व्रती तालाबों में डुबकी लगाती , फिर हाथ जोडकर खडी रहती। सूर्यास्त के ठीक पहले व्रती और अन्य लोग भगवान को अर्घ्य देते। हमारे यहो सभी मर्द लडके भी उस वक्त तालाब में नहाकर अर्घ्य देते थे। महीने या सप्ताह भर की तैयारी के बाद कार्यक्रम थोडी ही देर में समाप्त हो जाता था। पर आधी पूजा तो सुबह के लिए शेष ही रह जाती थी।
पहले ठंड भी बहुत पडती थी , सूर्योदय के दो घंटे पहले घाट में पहुंचना होता है , क्यूंकि वहां पूरी तैयारी करने के बाद आधे घंटे या एक घंटे व्रती को जल में खडा रहना पडता है। इसलिए सूर्योदय के ढाई घंटे पहले हमें अपने घर से निकलना होता। वहां जाने का उत्साह इतना अधिक होता कि हमलोग अंधेरे में ही उठकर स्नान वगैरह करके वहां पहुंच जाते। वहां तैयारी पूरी होती , दो तीन दिन के व्रत और मेहनत के बाद भी व्रती के चेहरे पर एक खास चमक होती थी। शाम की तरह ही सारा कार्यक्रम फिर से दुहराया जाता , उसके बाद प्रसाद का वितरण होता , फिर हमलोग घर वापस आते।
विवाह के दस वर्ष बाद तक संतान न होने की स्थिति में खत्री परिवार की दो महिलाओं ने पडोसी के घरों में जाकर इस व्रत को शुरू किया और सूर्य भगवान की कृपा कहें या छठी मैय्या की या फिर संयोग ... दोनो के ही बच्चे हुए , और बाद में हमारे मुहल्ले में भी कई परिवारों में धूमधाम से यह व्रत होने लगा। इसलिए अब हमारे मुहल्ले के लोगों को इस व्रत के लिए गांव के दूसरे छोर पर नहीं जाना पडता है, उन्हे पूरे मुहल्ले की हर संभव मदद मिलती है। बचपन के बाद अभी तक कई जगहों की छठ पूजा देखने को मिली , हर स्थान पर इस व्रत और पूजा का बिल्कुल एक सा परंपरागत स्वरूप है , यह सिर्फ श्रद्धा और आस्था का त्यौहार है .. इसमें दिखावटीपना कुछ भी नहीं।
10 comments:
अच्छा लगा यह सब जानकर छठ के विषय में...... वैसे भी त्योंहार के सही मायने तो तभी हैं जब कोई आडम्बर ना हो...... आभार
सूर्य देवता सबके जीवन में प्रकाश भरें!
बहुत ही श्रद्धा से यह व्रत किया जाता है..परम आस्था का प्रतीक है यह व्रत
बिना आडम्बर की आस्था ही सत्य होती है,आपका कहना उचित है
छठ मेरी यादों में इस तरह से बसा हुआ पर्व है कि मेरे दोस्त कहते हैं कि तू बंगाली नहीं, पिछले जनम का बिहारी रहा होगा...! चाहे जो भी हो, इस त्यौहार का सबसे सशक्त पक्ष तो मुझे यह लगता है कि इसे मनाने वालों के मन में कंठ तक पानी में डूबकर सूर्य की उपासना करते समय किसी प्रकार की मलिनता जन्मा नहीं ले सकती है. छठ की असीम शुभकामनाएं...भगवान भास्कर का स्नेह सबका जीवन समृद्ध बनाए...!
बहुत अच्छी जानकारी देता लेख ....हर पूजा आस्था का ही प्रतीक होती है
sundar aalekh!
chhat parv ki haardik shubhkamnayen!
छठ पूजा का नाम ही सुना था, अब जानकारी भी मिल गई अच्छा लगा, धन्यवाद
प्रणाम
वैसे तो यह व्रत बिहार और यू पी वालों के लिए है , मगर घटती भोगौलिक दूरियों के कारण कई राज्यों तक पहुँच चुका है ... ...यहाँ के गलता घाट पर भारी भीड़ जुटती है ...शारदा सिन्हा के गए लोकप्रिय छठ गीतों को सुनते रात भर खुले आसमा के नीचे मेला सा लगा होता है ..
माँ , मौसी और भाभी पूरी श्रद्धा और विधि विधान से करती हैं यह व्रत ...
इसमें किसी आडम्बर की जरुरत नहीं है...अपने घर- परिवार से दूर कई लोगों को सिर्फ नारियल या केले लेकर अर्ध्य देते भी देखती हूँ ...
पर्व की शुभकामनाएं ...सूर्यदेव सभी के जीवन में उजाला भर दे !
.
छठ पर अच्छी जानकारी दी आपने। मेरे लिए बिलकुल नयी है। आभार आपका !
.
Post a Comment