ईसा से 600 वर्ष पूर्व जब भारतवर्ष अंधविश्वासों के अंधेरे में डूब चुका था , ईर्ष्या और द्वेष की बहुलता थी, समाज जातिवाद के झमेले में फंसा था , धर्म पुस्तकों में सिमट कर रह गया था , धर्म के नाम पर लड़ाई-झगड़े, दंगा-फसाद एवं अत्याचार चरम पर थे , धर्म के नाम पर पशुबलि और हिंसा का प्रचलन बढ़ रहा था , आध्यात्म समाप्त था , तब देश में अहिंसा, सत्य, त्याग और दया की किरणें ले आना बहुत बडी बात थी। भगवान महावीर ने जगह-जगह घूमकर धर्म को पुरोहितों के शोषण , कर्म-कांडों के जकडन , अंधविश्वासों के जाल तथा भाग्यवाद की अकर्मण्यता से बाहर निकाला। उन्होने कहा कि धर्म स्वयं की आत्मा को शुद्ध करने का एक तरीका है।
महावीर का पहला सिद्धांत अहिंसा का है , प्राणियों को मारना या सताना नहीं चाहिए । जैसे हम सुख चाहते हैं, वैसे ही सभी प्राणी सुख चाहते हैं, और जीना चाहते हैं। अहिंसा से अमन चैन का वातावरण बनता है। उन्होने किसी के शरीर को कष्ट देने को ही अहिंसा नहीं माना , बल्कि मन, वचन , कर्म से भी किसी को आहत करना उनकी दृष्टि से अहिंसा ही थी। उन्होने कहा कि दूसरों के साथ वह व्यवहार कभी मत करो जो स्वयं को अच्छा ना लगे। ‘स्वयं जीओ और औरों को जीने दो।‘ किसी भी प्राणी को मार कर बनाये गये प्रसाधन प्रयोग करने वाले को भी उतना ही पाप लगता है जितना किसी जीव को मारने में। उन्होने यहां तक माना कि बड, ऊमर, कठूमर, अंजीर, मधु , दही-छाछ , दही बडा आदि को खाने में भी मांस भक्षण का पाप लगता है। आज तो विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया है कि वनस्पति सजीव है, पर महावीर ने आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व ही कह दिया था कि वनस्पति भी मनुष्य की भांति सुख-दुःख का अनुभव करती है।
महावीर का दूसरा सिद्धांत अनेकांत का है , संसार के सभी प्राणी समान हैं, कोई भी छोटा या बडा नहीं है। पर वस्तु और व्यक्ति विविध धर्मी हैं , सबका स्वभाव एक सा नहीं हो सकता। एक के लिए जो सही है, वह दूसरे के लिए भी सही हो, यह आवश्यक नहीं है। किसी को भी उसके स्वभाव से दूर नहीं किया जा सकता, ऐसा करने से वे रोगों से आक्रान्त हो जाते हैं। ये रोग पहले मन पर आक्रमण करते हैं, फिर शरीर को धर दबोचते हैं। मन सहज ही एक पक्ष को लेकर विरोधी पक्ष का खण्डन करने को आतुर रहता है। क्या दर्शन और क्या राजनीति, सर्वत्र यही दुराग्रह-पूर्ण पक्षपात दिखाई पडता है। सत्य पक्षपात में नहीं, निष्पक्षता में है। एक ही राय को सब को मानने के लिए बाध्य करना मानवाधिकार हनन की श्रेणी में आता है। हम समन्वय का मार्ग लें, अति का मार्ग नहीं। हर वक्त दो विरोधी द्रव्यों अथवा विरोधी धर्मों के बीच सही अस्तित्व स्थापित करने वाले नियम को खोजा जाना चाहिए।
भगवान महावीर का तीसरा सिद्धांत अपरिग्रह का है। उनका मानना था कि संग्रह मोह का परिणाम है। जो हमारे जीवन को सब तरफ से घेर लेता है, जकड लेता है। धन पैसा आदि लेकर प्राणी के काम में आने वाली तमाम वस्तु/सामग्री परिग्रह की कोटि में आती है। मान, माया, क्रोध, लोभ.. इन चार से जो जितना मुक्त होगा, वह उतना ही निरोग होगा।
भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित चौथा सिद्धांत आत्म स्वातंत्र्य का है, इसे ही अकर्तावाद या कर्मवाद कहते हैं। यह ‘ किसी ईश्वरीय शक्ति/सत्ता से सृष्टि का संचालन नहीं मानना।‘ यानि हमें अपने किये गये कर्म पर विश्वास हो और उसका फल धैर्य, समता के साथ सहन करें। हम पर कोई कष्ट, विपत्ति या संकट आ पड़े तो उससे बचने के लिए देवी-देवता या ईश्वर के आगे सहायता के लिए भीख न मांगनी पड़े। बल्कि अपने आत्मबल को एकत्र कर उसका सामना करें। व्यक्ति जन्म से नहीं कर्म से महान बनता है, यह उद्घोष भी महावीर की चिंतन धारा को व्यापक बनाता है। मानव से महामानव, कंकर से शंकर, भील से भगवान और नर से नारायण बनने की कहानी ही महावीर का जीवन दर्शन है।
वे प्रकृति में मौजूद छोटे छोटे कण तक को समान मानते थे और किसी को भी कोई दु:ख देना नहीं चाहते थे। उन्होने अपने इसी सोच पर आधारित एक नया विज्ञान विश्व को दिया। यह था परितृप्ति का विज्ञान। वास्तव में विज्ञान ने जब-जब कोई नई खोज अथवा नया आविष्कार किया है , मानव की प्यास बढती गयी है। जब व्यक्ति अपने जीवन को इच्छा से संचालित करता है तो निरन्तर नई आवश्यकताएँ पैदा होने का सिलसिला चल निकलता है, जो मानव के लिए कष्टों का घर होता है। इच्छा आवश्यकता को और आवश्यकता इच्छा को जन्म देती है। भोग की अनियंत्रित इच्छा सामाजिक जीवन को विषाक्त कर देती है। भगवान महावीर इस अन्तहीन सिलसिले को समाप्त करना चाहते थे। जो अपने को जीत ले, वह जैन है। भगवान महावीर ने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया और जितेन्द्र कहलाए। एक राजकुमार सुख सुविधाएं , ऐश्वर्य स्वेच्छा से त्यागकर वैराग्य धारण कर लेता है , तो वह घटना अविस्मरणीय और अनुकरणीय है ही। आत्मज्ञान प्राप्त करने वाले ऐसे राजकुमार वर्धमान से महावीर हो जाते हैं और ऐसे महामानव के लिए देश के कोने कोने में मनाई जाती है महावीर जयंती।
आज भगवान महावीर हमारे बीच नहीं है पर यह हमारा सौभाग्य है कि उनके विचार हमारे पास सुरक्षित हैं। उनका मानना था कि जीवन में आर्थिक, मानसिक और शारीरिक विकास तीनों एक साथ चलने चाहिए। भगवान महावीर का दर्शन अहिंसा और समता का ही दर्शन नहीं है, क्रांति का दर्शन है। उनके विचारों को किसी काल, देश अथवा सम्प्रदाय की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। यह प्राणी मात्र का धर्म है। ईसा से छह सौ वर्ष पूर्व उन्होने जो कहा , आज भी अनुकरणीय है।
आज विश्व हिंसा की ज्वाला में झुलस रहा है। पूंजीवादी मानसिकता के कारण बडे छोटे का भेदभाव बढता जा रहा है। धर्म के नाम पर तरह तरह की कुरीतियां व्याप्त हैं। पेड पौधों , पशु पक्षियों की अवहेलना से प्रकृति में असंतुलन बढता जा रहा है , महावीर के विचार को माने जाने से ही संसार को राहत मिल सकती है। पर आज कठिनाई यह हो रही है कि महावीर का भक्त भी उनकी पूजा करना चाहता है , पर उनके विचारों पर नहीं चलता। कई जैन मंदिरों में महावीर की प्रतिमा बहुमूल्य आभूषणों से आभूषित मिलती है। यह महावीर का सही चित्रण नहीं है। यदि हम उनके चिंतन को जन-जन तक पहुंचा सकें, तभी उनके जन्म के इस महोत्सव को सच्ची सार्थकता प्राप्त होगी।
9 comments:
Sundar Varnan!!! aur mahtvapurna Chintan...
Once Munishri Tarun Sagar said- Mahaveer ko humne mandiron me qaid kar dia hai, unko bahar nikalne ki zururat hai, aur jeevan me utarne ki zururat hai
अदभुत चिंतन सार……
आपकी कलम से भगवान् महावीर के विचार जानकर अच्छा लगा , कई तथ्य पहली बार ज्ञान में आये ...
आभार संगीता जी !
आपकी कलम से भगवान् महावीर के विचार जानकर अच्छा लगा , कई तथ्य पहली बार ज्ञान में आये ...
आभार संगीता जी !
भगवान् महावीर के उपदेशों का सार्थक चिंतन निरूपित हुआ है।
@ कई जैन मंदिरों में महावीर की प्रतिमा बहुमूल्य आभूषणों से आभूषित मिलती है। यह महावीर का सही चित्रण नहीं है।
वास्तव में यह विरोधाभासी प्रवृति है, फोलोअर को इस प्रकार के विरोधाभास से बचना चाहिए।
संगीता जी, गहन चिंतन युक्त आलेख के लिए बधाई।
महावीर जयन्ति की शुभकामनाएँ!!
सुन्दर जानकारी, बधाई और आभार!
Thanx mere blog ke follower manane hetu. sdaev svagat hae aapki samiksha ka .
Thanx mere blog ke follower manane hetu. sdaev svagat hae aapki samiksha ka .
बहुत प्रेरक है आपका आलेख.
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