Dharm ki paribhasha kya hai
धर्म की परिभाषा क्या है ?
धर्म तथा पारिवारिक-सामाजिक नियम बिलकुल अलग अलग होते हैं, पर लोग धर्म के साथ सामाजिक या पारिवारिक नियमो का घालमेल कर देते हैं। जब भी कोई धर्मविरोधी धर्म के विरूद्ध तर्क देते हैं , इन सामाजिक और पारिवारिक नियमों को भी धर्म के अंदर समाहित मानते हैं, जबकि ये जो वास्तव से धर्म से नहीं जुडे है। ये नियम अलग अलग क्षेत्र और माहौल के अनुरूप उपजी आवश्यकताओं से जुड़े हैं । इनमें से कुछ नियमों का आज कोई महत्व नहीं, पर धर्मभीरू भी इन नियमों का पालन करने को बाध्य है।
हमें इन नियमों का पालन करते वक्त आज के संदर्भ में इसके परिणामों को सोंचना चाहिए। यदि ये उचित जान पडे, यानि आज भी उससे व्यक्तिगत तौर पर नहीं , सामाजिक लाभ हो रहा हो तो नियम पालन में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए , पर अगर आज उससे किसी तरह का नुकसान हो तो पालन नहीं करने की कडाई दिखयी जानी चाहिए। बहुत लोगों को इस बात से भय होता है कि समाज या परिवार में चलती आ रही परंपराओं का पालन न किया जाना किसी बडे नुकसान की वजह बनती है। पर ऐसा नहीं है , कभी कभी यूं ही संयोग से कुछ घटनाएं हो जाया करती हैं , जिसे हम इसकी वजह मान लेते हैं और कमजोर पडकर पुन: नियम पालन को आवश्यक समझ बैठते हें।
हमारे परिवार में मुंडन के वक्त एक बकरे की बलि चढाने की प्रथा है और मेरा मुंडन इसके बिना किया गया। मेरे साथ तो कोई अनहोनी नहीं हुई , पर मेरे बाद एक भाई जन्म के छठे दिन ही भगवान को प्यारा हो गया। ज्योतिष के जानकार मेरे पिताजी पूरे आत्मविश्वास में बनें रहें कि यह सामान्य सी घटना है। चिकित्सीय सुविधाओं के अभाव में ऐसा अक्सर हो जाया करता था, पर आगे मेरे साथ ऐसी कोई दुर्घटना नहीं घटेगी। इसी सोंच से प्रभावित मेरे यहां पुन: बलि की शुरूआत नहीं की गयी । हमारे सभी भाई बहनों का मुंडन तो बिना बलि के हुआ ही, अब दूसरी पीढ़ी का भी वैसे ही चल रहा है और सभी स्वस्थ और सानंद है।
मैं यही समझने लगी हूं कि अपने विचारों के अनुरूप ही काम किया जाना श्रेयस्कर होता है। ऐसी हालत में प्रकृति आपका साथ अवश्य देती है , पर यदि आपने नियम तोडकर काम करना आरंभ किया है तो अपने दिल को थोडा मजबूत बनाए रखें , क्योंकि जीवन में कभी भी किसी प्रकार की घटना घट जाया करती हें और इसके लिए आप अपने धार्मिक क्रियाकलापों को दोषी न मानें।
2 comments:
लगभग पूरे मिथिलांचल , बंगाल सहित बहुत सारे प्रदेशों में अब ये प्रथाएं धीरे धीरे दम तोड़ रही हैं जो की अच्छा ही है | हमारे परिवार में तो दशकों पहले ही इनका स्थान मिठाइयों ने ले लिया | लेकिन इस दिशा में अभी बहुत काम किया जाना बाकी है | सही मुद्दे को उठाती हुई पोस्ट
मोडरेशन की व्यवस्था को हटाइये तो और भी बेहतर हो एक पाठक के नज़रिए से
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