वर्ष 2002 तक या उसके बाद भी मैं कुछ घरेलू पत्रिकाएं पढा करती थी। 2002 के दिसंबर माह में एक पत्रिका 'मेरी सहेली' के साथ 'वेद अमृत' नाम की पत्रिका का लघु संस्करण प्राप्त किया था। उस छोटे संस्करण में नाम मात्र के कई लेख और कहानियां होने के बावजूद मैं इस पत्रिका के लक्ष्य को समझ गयी थी और अगले ही महीने इसका प्रवेशांक बाजार से मंगवा लिया था। प्रवेशांक पढने के बाद मेरी प्रतिक्रिया इन शब्दों में संपादक जी के पास पहुंची थी , जिसे उन्होने 'वेद अमृत' के फरवरी माह के अंक में 'आपके विचार' में प्रकाशित भी किया था .....
पिछले महीने मेरी सहेली के साथ वेद अमृत का लघु संस्करण प्राप्त किया उसे पढने के बाद वेद अमृत के प्रवेशांक को खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर पायी। आज बाजार में फैली अधिकांश पत्रिकाएं धर्म , ज्ञान , ज्योतिष और वास्तु के नाम पर कुछ भी छापती जा रही है और कुछ पत्रिकाएं तो पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर धर्म की टांग ही तोड देने को उद्दत हैं। ऐसी परिस्थितियों में आपके संपादकीय के समन्वयवादी दृष्टिकोण ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। शायद आपकी पत्रिका का लक्ष्य उन पुराने मोतियों को चुनकर पिरोकर वह माला तैयार करनी है , जो नयी पीढी के नए दृष्टिकोण के अनुरूप हों। सभी लेख संपादकीय में कहे गए लक्ष्य को पूरा करने में समर्थ हैं। शास्त्र को शस्त्र न बनाओ , सत्य की रक्षा , अभिशाप या वरदान जैसी कहानियां जहां कम उम्र के पाठकों तक को प्राचीन कथाओं के माध्यम से संदश देने में समर्थ हैं , वहीं जीवन पथ जैसी कहानी आज के युग की जरूरत। अन्य लेख भी जितने सहज ढंग से ज्ञान का भंडार मस्तिष्क में उंडेलते हैं , उसे देखकर आपकी पूरी टीम के लेखन और संपादन पर गर्व होता है।
सृष्टि निर्माता ,प्रकृति , अल्लाह या भगवान ... जो भी कह दिया जाए , पर एक नियम या व्यवस्था के आगे हम सब नतमस्तक हैं। कितने ही तरह की प्राकृतिक आपदाओं को हम आज के युग में भी नहीं रोक पाए हैं और जब भी किसी घटना पर हमारा वश नहीं चलता , उसे प्रकृति की इच्छा मान लेते हैं। आखिर यह कमजोरी हर मनुष्य के पास कभी कभी क्यूं उपस्थित होती हैं , जब किसी संयोग की कमी से उसका काम नहीं होता और कभी वहीं संयोग दूसरों को काम कर डालता है।
धर्म की उत्पत्ति कभी भी सार्वदेशिक और सार्वकालिक नहीं हुई। इसलिए दूसरे देश या काल में भले ही वह अनुपयोगी हो , पर जिस युग और देश में इसकी संहिताएं तैयार की जाती हैं , यह काफी लोकप्रिय होता है। यह बात अलग है कि धर्म हमेशा मध्यमवर्गीय लोगों की जरूरतों को घ्यान में रखकर बनाया जाता है , क्यूंकि उच्चवर्गीय लोगों की संख्या और निम्नवर्गीय लोगों की भी समस्याएं नाममात्र की होती हैं। सभ्यता और संस्कृति मध्यमवर्गीय लोगों से अधिक प्रभावित होती हैं, इसी कारण मध्यम वर्ग ही हमेशा दबाब में होता है और इस दबाब से बचाने के लिए कोई भी विकल्प तैयार किया जाए , तो उसे अपनाने के लिए पूर्ण तौर पर तैयार होता है। कालांतर में इसे ही उनका धर्म मान लिया जाता है।
धर्माचरण का नकल करनेवाले कुछ पाखंडियों , धोखेबाजों और कपटी लोगों की पोल कुछ ही दिनों में खुल जाती है , जबकि महात्मा गांधी , मदर टेरेसा , ईसा मसीह , दयानंद सरस्वती , स्वामी विवेकानंद , गौतम बुद्ध , महावीर , गुरू नानक , चैतन्य महाप्रभु आदि अनेकानेक लोग धर्माचरण द्वारा युगों युगो तक पूजे जाते हैं। यदि उनके विचारों में अच्छाई नहीं होती , समाज के लिए सोंचने का संदेश नहीं होता , तो ऐसा क्यूं होता ??
आज कुछ पुस्तको को व्यवस्थित करने के क्रम में मुझे वेद अमृत के सभी पुराने अंक मिले। फरवरी 2006 तक का अंक मेरे पास मौजूद है , जिसमें से प्रत्येक की कीमत मात्र 15 रूपए लिखी गयी है। उसके बाद के अंक भी कहीं पर छुपे हो सकते हैं , जो बाद में मिल जाए। पर इसके कुछ ही दिनों बाद वेद अमृत का प्रकाशन बंद हो गया, जाहिर सी बात है कि पत्रिकाएं बिक नहीं पा रही होंगी। इतने कम कीमत में बडों के लिए यह पत्रिका तो लाभप्रद थी ही , इसमें बाल जगत के अंतर्गत आनेवाली कहानी को मैं बच्चों को अवश्य पढाया करती थी , प्रत्येक में कुछ न कुछ संदेश छुपा होता था। समाज में कोई अच्छी शुरूआत हो और विद्वान लोगों द्वारा उसका यही हश्र हो , तो हमारे समाज के लोग तो भटकेंगे ही ।
आज के आर्थिक युग में लोगों की सोंच बिल्कुल बदल गयी है , विज्ञान के बडे बडे आविष्कारों का उपयोग करना मात्र उनका लक्ष्य हो गया है , साधन ही साध्य बन गया है। वे न तो खुद अच्छा साहित्य पढना चाहते हैं और न ही बच्चों को पढाना चाहते हैं।बाद में आनेवाली पीढी को दोष देते हम नहीं थकते। बस प्रोफेशनल सफलता ही हर बात का मापदंड बन गया है , लोगों ने अपने को इतना सिमटा लिया है कि जीवन के अंतिम चरणों में भी बिल्कुल अनुभवहीन दिखते हैं। आज धर्म को भले ही गलत मान लिया जाए और इसकी आवश्यकता को नकारा जाए , पर आज के युग में भी एक धर्मगुरू की आवश्यकता है ही , जो लोगों के भटकते दिलोदिमाग को शांत करने की कोशिश करे , ताकि पूरी दुनिया चैन से जी सके। सही कहा गया है , गुरू के बिना ज्ञान मुश्किल ही होता है।
15 comments:
एक उम्दा लेख संगीता जी , आजकल लोग अगर इनका इस्तेमाल करते भी है तो गलत ढंग से ! खैर, आइसलैंड का धुंए का गुबार यह अहसास दिला ही गया है कि इंसान प्रकृति के आगे कुछ भी नहीं चाहे लाख विज्ञान के दावे कर ले !
बहुत सार्थक चर्चा...बढ़िया प्रसंग है संगीता जी आज कल लोगों के पसंद इस तरह बदल रहे है कि कुछ कहा ही नही जाता...पढ़ने पढ़ाने के नाम पर बस मूवी मसाला चाहिए ऐतिहासिक और धार्मिक बातें सुनने वाले थोड़े कम हैं....
सामयिक चर्चा के लिए धन्यवाद
बिल्कुल ठीक कहा है .....
पढ़ना सब जानते है, क्या पढ़ना कोई नही जानता |
इस एक और बेहतरीन लेख के लिये धन्यवाद देता हूँ संगीता जी |
अच्छा आलेख।
सत्य वचन. पूर्ण सहमति.
संगीता जी बहुत सही ढंग से आप ने एक अच्छी बात कही, वेसे धार्मिक पुस्तके मेरे ख्याल मै इस लिये भी नही चलती क्योकि आज कल धर्म के नाम पर बहुत सी बेकार पत्रिकाये सिर्फ़ पेसा कमाने के लिये भी उल जलूल लिखती है, ओर लोगो का विशवास खत्म हो जाता है, वेसे अच्छी पत्रिकाये, अच्छी बाते मेरे ख्याल मै सभी को अच्छी लगती होंगी
Aaz kal logon ko sirf masala chahiye. Khane me bhi aur padhne me bhi. Jab vichar dooshit honge to pasand bhi vaisi hi hogi.
bahut badhiya jagrit karne wala aalekh.
मैंने यह पुस्तक तो नहीं पढ़ी. कल्याण अवश्य पढ़ता हूं...
बहुत बढ़िया चिंतन,काश लोंगो में कुछ सुधार आ पाता.
बिल्कुल ठीक कहा है .....
shkehar kumawat
sangeeta ji aapke comment se mera manobal badha hai...koshish karunga ki kuchh istariya likhata rahoon..
aapka blog dekha
jyotish aisa vishay hain jis par hamesha se hi positiv aur negative charchayien hoti rahi hain. Last month electronic media ne is par lambi live charcha dikhayi thi. aapka lekh achha laga.
आ गया है ब्लॉग संकलन का नया अवतार: हमारीवाणी.कॉम
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http://hamarivani.blogspot.com
बहुत ही सार्थक प्रेरणा स्वरूप लेख ।
सार्थक बात...धर्म की सच्छी बातें जानने के बजाय पाखंड अपनाना शुरू हो गया है...अच्छी किताबें शायद मानसिकता को बदल सकें
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