अभी तक आपने पढा .... वैसे तो बोकारो बहुत ही शांत जगह है और यहां आपराधिक माहौल भी न के बराबर , कभी कभार चोरी वगैरह की घटनाएं अवश्य हुआ करती हैं , जिसके लिए आवश्यक सावधानी बरतना आवश्यक है। यहां किसी क्वार्टर को खाली छोडकर छुट्टियां मनाने जाना खतरे से खाली नहीं। जबतक आप लौटेंगे , ताला तोडकर सारा सामान ढोया जा चुका होगा। भले ही ऐसी घटनाएं एक दो के साथ ही घटी हो , पर सावधान सबको रहना आवश्यक हो जाता है। इसलिए छुट्टियों में पूरे परिवार एक साथ कहीं जाते हैं , तो क्वार्टर में किसी को रखकर जाना आवश्यक होता है , खासकर रात्रि में तो घर में किसी का सोना बेहद जरूरी है। स्कूल बंद होने पर हम तीनों मां बंटे अक्सर कहीं न कहीं चले जाते। वैसे में घर की चाबी अपने सामने रह रहे पडोसी को देकर जाते , उनलोगों ने पूरी जिम्मेदारी से अपना दायित्व निभाया और कभी भी हमारे घर से कोई वस्तु गायब नहीं हुई। इसके अलावे अखबार में कभी कभार कुछ घटनाएं देखने या सुनने को मिलती भी तो उसकी अधिक चिंता नहीं होती।
पर कुछ घटनाओं का प्रभाव हमारे सामने स्पष्ट दिखाई पडा , इसलिए वहां रहते हुए जीवन जीने के प्रति हम निश्चिंत नहीं रह सके। खासकर यहां आने के बाद पहले ही वर्ष यानि 1998 के बडे दिन की छुट्टियों में बडे बेटे के कक्षा में साथ साथ बैठनेवाले दोस्त के अपहरण और हत्या के बाद हमलोग बहुत ही दुखी हो गए थे। बेटे के दिलोदिमाग से ये घटना भूली नहीं जाती , और मैं स्कूल से लौटने पर प्रतिदिन उस बच्चे के बारे में जानकारी लेती , तो वह और दुखी हो जाता। उस समय तक उसकी हत्या के बारे में हमने कल्पना भी न की थी । उसके न लौटने की खबर से ही हम मां बेटे थोडी देर अवश्य रोते। प्रतिदिन मुझे रोते देख बेटे ने ही एक दिन हिम्मत दिखायी और मुझसे झूठमूठ ही कह दिया कि उसका वह दोस्त लौट आया है। पुलिस ने अपहरणकर्ताओं को गिरफ्तार कर उसे छुडा लिया है। बाद में मुहल्ले के अन्य लोगों से मालूम हुआ कि ऐसी बात नहीं है , कल उस लडके की लाश मिली है। मैं समझ गयी , मुझे खुश रखने के लिए बेटे ने अपने दोस्त के जाने का गम झेलते हुए मुझसे झूठ बोला था।
कुछ ही दिनों में यानि अप्रैल 1999 में एक बच्ची के साथ हुए हादसे ने बोकारो में कर्फ्यू लगाने तक की नौबत ला दी थी। आजतक समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में पढे और सुने शब्द 'कर्फ्यू' का पहली बार झेलने का मौका मिला था। ऐसे में डर स्वाभाविक तौर पर उत्पन्न हो गया था , कर्फ्यू में ढील के बावजूद भी मैं भय से कोई भी सामन लेने बाहर न निकलती। जो भी घर में मौजूद होता , उसे बनाकर खिला देती। यहां तक कि इस घटना के बाद मैं बच्चों का जरूरत से अधिक ख्याल रखने लगी थी। खुद से स्कूल बस तक बच्चों को पहुंचाना और लाना तो हर अभिभावक का फर्ज ही है , पर मैं शाम को खेलने वक्त भी इनके साथ जाती , ये जबतक खेलते , तबतक टहलती और इनके साथ ही दूध लेते हुए वापस आती। दो चार वर्षों तक खेलते वक्त , साइकिल सीखते वक्त हमेशा मैं इनके साथ होती , इस तरह बोकारो में भयमुक्त होकर जीने में मुझे बहुत समय लग गए। हां , सुरक्षा की दृष्टि से कॉपरेटिव कॉलोनी आने के बाद अच्छा लगा , यह बहुत ही अच्छी जगह है ,यहां मैने बाहर में रखी साइकिल और अन्य कपडों को उठाकर ले जाने से आगे बढने की किसी भी चोर को हिम्मत करते नहीं देखा।
9 comments:
अब तो सभी शहरों में ये सब बातें सामान्य हैं। कब तक डर-डर कर जिया जाए?
वैसे तो बोकारो बहुत ही शांत जगह है और यहां आपराधिक माहौल भी न के बराबर है!
शहरीकरण ने हमसे सामाजिकता छीनी है और हम आत्मकेंद्रित होते गए हैं। इसका यही दुष्परिणाम होना था।
इन दिनों संस्मरण मोड़ में हैं !
बच्चों के मामले में थोडा भय तो सभी जगह बना ही रहता है जी
प्रणाम
झारखंड में हर जगह ऐसा ही माहौल हो गया है ...पर कॉलोनी सुरक्षित रहती हैं ..
आपके संस्मरण प्रभावी हैं ..
अच्छा चल रहा है,संसमरण आगे की प्रतीक्षा है ।
अच्छा चल रहा है,संसमरण आगे की प्रतीक्षा है ।
सुन्दर संस्मरण ।
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