Friday 30 December 2011

जन्‍म दिन की बहुत बहुत बधाई !!!!!!!!!!

कैलेण्‍डर में 30 दिसंबर का दिन दिखाई देते ही मन मस्तिष्‍क 1988 की यादों में जा बसता है , जहां लगभग मई के बाद से पूरे ही वर्ष विभिन्‍न पत्रिकाओं के 'गर्भावस्‍था और मातृत्‍व विशेषांक' पढते और उसके अनुसार खुद की जीवनशैली को ढालते ही व्‍यतीत कर दिए थे। ऐसा करती भी क्‍यूं न ? इसी वर्ष के अंत अंत तक मातृत्‍व सुख प्राप्‍त करने की पूरी संभावना बनी हुई थी। पर 10 दिसंबर के आसपास ऐन मौके पर हमारे ही साथ रहनेवाली जिठानी जी के जीजाजी के असमय गुजर जाने की सूचना ने घर के माहौल को पूरा गमगीन कर डाला था। अधिक पान चबाने की आदत से मजबूरी का अपने छोटे छोटे पांच बच्‍चों को अनाथ छोडने का उन्‍हें बडा मूल्‍य चुकाना पडा था। भाभी जी रोती पीटती मुझे वैसी ही दशा में छोडकर वहां जाने को मजबूर थी और गर्भावस्‍था के अंतिम महीनों में मैं अकेली डरती रहती।

ससुर जी की तबियत खराब होने से सासू मां का आना भी संभव नहीं था, और मम्‍मी भी परिवार को छोडकर आने की स्थिति में नहीं थी, मैने साथ देने के लिए उसी वर्ष मैट्रिक पास किए अपनी छोटी बहन को जरूर बुलवा लिया था। दिसंबर के अंत में अंत में भाभीजी की वापसी के बाद मन कुछ निश्चिंत होने ही को था कि पतिदेव के अभिन्‍न मित्र की पत्‍नी भी दूसरे बच्‍चे के जन्‍म के दो दिन बाद काल कवलित हो गयी। सूचना मिलते ही 27 दिसंबर को मुझे वैसी हालत में छोडकर पतिदेव वहां रवाना हो गए।

लगभग एक महीने पूर्व ही 'लेबर पेन' की परिभाषा समझ में आयी थी , एक विशेषज्ञा डॉक्‍टर का लेख किसी पत्रिका में पढने को मिला था। अंतिम दिनों में अक्‍सर महिलाएं गैस या किसी अन्‍य प्रकार के दर्द को लेकर भ्रम में आ जाती हैं , हर प्रकार के दर्द से यह दर्द किस प्रकार होता है , इसे अच्‍छी प्रकार समझाया गया था। चूंकि 'लेबर पेन' गर्भ गृह के मांसपेशियों के संकुचन और फैलाव के कारण होता है , इसलिए इसकी तीव्रता खास अंतराल में अधिक या कम होती है। घडी की सूई के साथ इस दर्द का तालमेल देखा जा सकता है।बडे अंतराल का दर्द धीरे धीरे छोटे अंतराल में और तेज रूप में बदलता चला जाएगा।

30 दिसंबर 1988 , भाभी आ चुकी थी , बहन भी घर में थी , मेरा ध्‍यान मित्र की पत्‍नी के गुजर जाने की ओर था , इसलिए घरेलू काम के प्रति जिम्‍मेदारी कम थी।एक स्‍वेटर बुन रही थी , जिसे एक दो दिन में पूरा करने का लक्ष्‍य था, इसलिए डाइनिंगटेबल पर सुबह की चाय वाय पीते हुए सीधा स्‍वेटर हाथ में आ गया। पर यह क्‍या , आज पेट में मीठा मीठा दर्द , बांरबरता लेकर आ रही थी। मैने घडी पर ध्‍यान देना आरंभ किया , ठीक दस मिनट पर एक बार पेट में कुछ खिंचाव सा महसूस होता। मैने उम्‍मीद लगायी कि शायद यही लेबर पेन है। मेरा अनुमान सही निकलता गया , अंतराल कमने लगा और दर्द बढने , 1 बजे के बाद कुछ खास ही , पर इतना भी नहीं कि अस्‍पताल पहुंच ही जाया जाए।

पतिदेव पटना में अपने मित्र को दुख से उबारने में व्‍यस्‍त थे , प्‍लांट के ऑपरेशन में होने से ही जेठ जी की शिफ्ट डृयूटी होती थी , 3 बजे देवर जी को भी दुकान जाना होता था। अस्‍पताल में कागजी कार्यवाही भी कम नहीं होती है , आज की तरह फोन की सुविधा नहीं कि किसी को कहीं से तुरंत बुलवा लो , मैने निश्‍चय किया कि भाइयों के ड्यूटी जाने से पहले अस्‍पताल में एडमिट हो ही जाया जाए। इसलिए दो बजे भैया के ड्येटी में निकलने से पहले अस्‍पताल को फोन कर गाडी मंगवा ली , मुझे वहां छोडकर सब अपने अपने काम पर चले गए। अस्‍पताल पहंचने के बाद मुझे लेकर डॉक्‍टर को कुछ खास गंभीर नहीं देखा , तो मुझे लगा कि शायद मैं यहां बहुत पहले आ गयी। सबको अपने अपने काम पर भेज दिया।

पर यह क्‍या , दो तीन घंटे भी नहीं हुए कि सबको फटाफट खबर गयी , मुझे लेबररूम में ले जाने की जरूरत थी , इसलिए मेरे लिए उसके पहले का अल्‍पाहार मंगवाया गया। सबको जल्‍दी जल्‍दी अस्‍पताल में बुलवाया गया । पांच बजकर पैंतीस मिनट पर एक स्‍वस्‍थ बालक मेरी गोद में था , घर के सभी सदस्‍यों को नए नए रिश्‍तो से महकाता हुआ , और मेरी तबियत भी बिलकुल सामान्‍य थी यानि मैं भी अपनी खुशी को पूरी तरह महसूस कर रही थी। मैके और ससुराल के सारे सदस्‍य एक दूसरे को बधाई देने में व्‍यस्‍त थे , ऐसा खुशनुमा शाम भूला भी जा सकता है ?????

बेटे , तुम्‍हें जन्‍म दिन की बहुत बहुत बधाई  !!!!!!!!!!
आपकी शुभकामनाओं का भी इंतजार है !!!!!!

Wednesday 26 October 2011

भला बिना बच्‍चों के कैसी दीपावली ??

वैसे तो पूरी दुनिया में हर देश और समाज में कोई न कोई त्‍यौहार मनाए जाते हैं , पर भारतीय संस्‍कृति की बात ही अलग है। हर महीने एक दो पर्व मनते ही रहते हैं , कुछ आंचलिक होते हैं तो कुछ पूरे देश में मनाए जानेवाले। दीपावली , ईद और क्रिसमस पूरे विश्‍व में मनाए जाने वाले तीन महत्‍वपूर्ण त्‍यौहार हैं , जो अलग अलग धर्मों के लोग मनाते हैं। भारतवर्ष में पूरे देश में मनाए जानेवाले त्‍यौहारों में होली , दशहरा , दीपावली जैसे कई त्‍यौहार हैं। त्‍यौहार मनाने के क्रम में लगभग सभी परिवारों में पति खर्च से परेशान होता है , पत्‍नी व्रत पूजन , साफ सफाई और पकवान बनाने के अपने बढे हुए काम से , पर बच्‍चों के लिए तो त्‍यौहार मनोरंजन का एक बडा साधन होता है। स्‍कूलों में छुट्टियां है , पापा के साथ घूमघूमकर खरीदारी करने का और मम्‍मी से मनपसंद पकवान बनवाकर खाने की छूट है , तो मस्‍ती ही मस्‍ती है। मम्‍मी और पापा की तो बच्‍चों की खुशी में ही खुशी है। सच कहं , तो बच्‍चों के बिना कैसा त्‍यौहार ??

पर आज सभी छोटे छोटे शहरों के मां पापा बिना बच्‍चों के त्‍यौहार मनाने को मजबूर हैं। चाहे होली हो , दशहरा हो या दीपावली , किसी के बच्‍चे उनके साथ नहीं। इस प्रतियोगिता वाले दौर में न तो पढाई छोटे शहरों में हो सकती है और न ही नौकरी। दसवीं पास करते ही अनुभवहीन बच्‍चों को दूर शहरों में भेजना अभिभावकों की मजबूरी होती है , वहीं से पढाई लिखाई कर आगे बढते हुए कैरियर के चक्‍कर में वो ऐसे फंसते हैं कि पर्व त्‍यौहारों में दो चार दिन की छुट्टियों की व्‍यवस्‍था भी नहीं कर पाते। मैं भी पिछले वर्ष से हर त्‍यौहार बच्‍चों के बिना ही मनाती आ रही हूं। दशहरे में गांव चली गयी , भांजे भांजियों को बुलवा लिया , नई जगह मन कुछ बहला। पर दीपावली में अपने घर में रहने की मजबूरी थी , लक्ष्‍मी जी का स्‍वागत तो करना ही पडेगा। पर बच्‍चों के न रहने से भला कोई त्‍यौहार त्‍यौहार जैसा लग सकता है ??

पहले संयुक्‍त परिवार हुआ करते थे , तीन तीन पीढियों के पच्‍चीस पचास लोगों का परिवार , असली त्‍यौहार मनाए जाते थे। कई पीढियों की बातें तो छोड ही दी जाए , अब तो त्‍यौहारों में पति पत्‍नी और बच्‍चों तक का साथ रह पाना दूभर होता है। जबतक बच्‍चों की स्‍कूली पढाई चलती है , त्‍यौहारों में पति की अनुपस्थिति बनी रहती है , क्‍यूंकि बच्‍चों की पढाई में कोई बाधा न डालने के चक्‍कर में वे परिवार को एक स्‍थान पर शिफ्ट कर देते हैं और खुद तबादले की मार खाते हुए इधर उधर चक्‍कर लगाते रहते हैं। हमारे मुहल्‍ले के अधिकांश परिवारों में किराए में रहनेवाली सभी महिलाएं बच्‍चों की पढाई के कारण अपने अपने पतियों से अलग थी। पर्व त्‍यौहारों में भी उनका सम्मिलित होना कठिन होता था , किसी के पति कुछ घंटों के लिए , तो किसी के दिनभर के लिए समय निकालकर आ जाते। मैने खुद ये सब झेला है , भला त्‍यौहार अकेले मनाया जाता है ??

बच्‍चों की शिक्षा जैसी मौलिक आवश्‍यकता के लिए भी सरकार के पास कोई व्‍यवस्‍था नहीं है। पहले समाज के सबसे विद्वान लोग शिंक्षक हुआ करते थे , सरकारी स्‍कूलों की मजबूत स्थिति ने कितने छात्रों को डॉक्‍टर और इंजीनियर बना दिया था। पर समय के साथ विद्वान दूसरे क्षेत्रों में जाते रहें और शिक्षकों का स्‍तर गिरता चला गया। शिक्षकों के हिस्‍से इतने सरकारी काम भी आ गए कि सरकारी स्‍कूलों में बच्‍चों की पढाई पीछे होती गयी।सरकार ने कर्मचारियों के बच्‍चों के पढने के लिए केन्‍द्रीय स्‍कूल भी खोलें , उनमें शिक्षकों का मानसिक स्‍तर का भी ध्‍यान रखा , पर अधिकांश क्षेत्रों में खासकर छोटी छोटी जगहों के स्‍कूल पढाई की कम राजनीति की जगह अधिक बनें।  इसका फायदा उठाते हुए प्राइवेट स्‍कूल खुलने लगे और मजबूरी में अभिभावकों ने बच्‍चों को इसमें पढाना उचित समझा। आज अच्‍छे स्‍कूल और अच्‍छे कॉलेजों की लालच में बच्‍चों को अपनी उम्र से अधिक जबाबदेही देते हुए हम दूर भेज देते हैं। अब नौकरी या व्‍यवसाय के कारण कहीं और जाने की जरूरत हुई तो पूरे परिवार को ले जाना मुनासिब नहीं था। इस कारण परिवार में सबके अलग अलग रहने की मजबूरी बनी रहती है।

वास्‍तव में अध्‍ययन के लिए कम उम्र के बच्‍चों का माता पिता से इतनी दूर रहना उनके सर्वांगीन विकास में बाधक है , क्‍यूंकि आज के गुरू भी व्‍यावसायिक गुरू हैं , जिनका छात्रों के भविष्‍य या चरित्र निर्माण से कोई लेना देना नहीं। इसलिए उन्‍हें अपने घर के आसपास ही अध्‍ययन मनन की सुविधा मिलनी चाहिए।  यह सब इतना आसान तो नहीं , बहुत समय लग सकता है , पर पारिवारिक सुद्ढ माहौल के लिए यह सब बहुत आवश्‍यक है। इसलिए आनेवाले दिनों में सरकार को इस विषय पर सोंचना चाहिए।  मैं उस दिन का इंतजार कर रही हूं , जब सरकार ऐसी व्‍यवस्‍था करे , जब प्राइमरी विद्यालय में पढने के लिए बच्‍चे को अपने मुहल्‍ले से अधिक दूर , उच्‍च विद्यालय में पढने के लिए अपने गांव से अधिक दूर , कॉलेज में पढने या कैरियर बनाने के लिए अपने जिले से अधिक दूर जाने की जरूरत नहीं पडेगी। तभी पूरा परिवार साथ साथ रह पाएगा और आनेवाले दिनों में पर्व त्‍यौहारों पर हम मांओं के चेहरे पर खुशी आ सकती है , भला बिना बच्‍चों के कैसी दीपावली ??

Monday 24 October 2011

आपको जन्‍मदिन की बहुत बहुत बधाई मम्‍मी !!

meri adarsh mahila


ज्योतिष से जुड़े होने के कारण पापाजी की चर्चा अक्सर कर लेती हूँ , पर मम्मी को आज पहली बार याद कर रही हूँ . बिहार के नवादा जिले के एक गांव खत्रिया माधोपुर के एक समृद्ध परिवार में सत्‍तर वर्ष पूर्व कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी यानि धनतेरस की संध्या  स्व करतार नारायण कपूर की पुत्री के रुप में साक्षात लक्ष्मी का जन्‍म हुआ। बचपन से विवाह होने तक पांच भाइयों और पांच भतीजों के मध्य अकेली होने के कारण काफी लाड प्यार से पालन पोषण होता रहा . किन्तु जैसा कि हर बेटियों का प्रारब्ध है, उन्‍होने जन्म वहां लिया , परंतु रोशनी फैलाने वह हमारे घर पहुच गयी।


शायद ही किसी दार्शनिक या विचारक का दाम्पत्य जीवन इतना सफल रहता है , जितना कि मेरे पापाजी का रहा । इसका सारा श्रेय मेरी मम्मी की कर्तब्यपरायणता , सहनशीलता , उदारता और त्याग को ही जाता है। पापाजी चालीस वर्षों तक अपनी ज्योतिष की साधना में लीन रहें , उनको कोई व्यवधान न देकर उन्होनें घर-गृहस्थी की सारी जवाबदेही अपने कंधों पर उठायी। सारे जीवन में अधिकारों की कोई चिंता नहीं , केवल कर्तब्य निभाती रही , चाहे सास-ससुर हों या देवर-ननद या देवरानिया-जिठानिया । भतीजे-भतीजीयों और बेटे-बेटियों की जिम्‍मेदारी तो थी ही उनकी। 




सभी बच्चों के उचित लालन-पालन करने , शिक्षा-दीक्षा देने में वे सफल हुईं। मैं जैसा समझती हॅ , इसका सबसे बड़ा कारण माना जा सकता है , उनके गजब के दृष्टिकोण को । सकारात्मक दृष्टिकोण के बारे में लोग कहते हैं - ‘गिलास में आधा पानी हो तो उसे आधा गिलास खाली न कहकर आधा गिलास भरा कहो।’ पर मेरी मम्मी तो दस प्रतिशत भरे गिलास को भी गिलास में पानी है , कहना पसंद करेगी। फूल की प्रशंसा तो हर कोई करता है , काटों की भी प्रशंसा करना कोई मेरी मम्मी से सीखे। किसी के हजारो खामियों को छोड़कर उसके गिने-चुने गुणों की प्रशंसा करते ही मैंने उन्हें देखा और सुना है। 

गाँव में न जाने कितने सास-ससुर इनकी जैसी बहू पाने , कितने ही नौजवान इनकी जैसी पत्नी या भाभी पाने , कितने बच्चे इनकी जैसी माँ और चाची , मामी पाने के लिए आहें भरते रह गए , पर जिन्हें आसानी से सुख मिल जाता है , वो कहाँ कभी उसकी कद्र कर पाता है। आज जब उम्र के उस मोड़ पर मैं खड़ी हूँ , जहाँ वे बीस वर्ष पूर्व वे खड़ी थीं , मैं उनकी महानता को नजरअंदाज नहीं कर पा रही । मेरा आदर्श मेरी माँ है और कोई नहीं , मैं उनके जैसी मेहनती, सहनशील और कर्तब्यपरायण बनना चाहती हूँ । मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि मुझे उतनी शक्ति प्रदान करे। ईश्‍वर आपको लंबी आयु और हर सुख दे मम्‍मी , आपको जन्‍म दिन की बहुत बहुत बधाई !!

(अब मेरी मम्मी इस दुनिया में नहीं रही, २३ दिसंबर 2018 को हमसे सारा मोह माया समाप्त कर ईश्वर में समाहित हो गयीं)

माँ पर मेरे अन्य लेख :-----


माँ के लिए दो शब्द
माँ के लिए सुविचार




Tuesday 18 October 2011

मात्र 20 वर्ष व्‍यतीत हुए ... और इनका जमाना आ गया !!

अभी कुछ दिन पूर्व ही एलबम देखते हुए 20 वर्ष पुराने इस चित्र पर नजर पडी , इसमें रोता हुआ बच्‍चा मेरा बडा सुपुत्र है , जो अभी इंजीनियरिंग के तृतीय वर्ष का छात्र है ,  साथ में  हमारे दो घनिष्‍टतम मित्र की दोनो बच्चियां हैं , जिसमें से एक डीवीसी में ही इंजीनियर है , इसी वर्ष फरवरी माह में उसका विवाह हुआ है और पति के साथ बंगलौर में निवास कर रही है। दूसरी का विवाह बी कॉम करने के बाद हुआ , एक बेटे की मां है और अपने पति के साथ दिल्‍ली में है ।

इस चित्र में जो दो लडके सबसे बडे दिखाई दे रहे हैं , वो जेठ जी के बच्‍चे हैं , बडा अभी दुबई के किसी कंपनी में कार्यरत है ,  जबकि दूसरा बंगलौर में ही है। चित्र में मौजूद अन्‍य दोनो लडके उस समय हमारे पडोस में रह रहे एक पडोसी के बच्‍चे हैं , जिनमें से एक बंगाल सरकार के किसी विभाग में कार्यरत है और दूसरा इंजीनियरिंग करने के बाद ऑस्‍ट्रेलिया में किसी फर्म में काम कर रहा है। समय कितनी तेज गति से आगे बढता है , मात्र 20 वर्ष व्‍यतीत हुए और इन बच्‍चों का जमाना आ गया .............

Saturday 20 August 2011

बाबा नागेश्वर नाथ के दर्शन और पूजन से भक्‍तों की मनोकामनाएं पूरी होती हैं !!

पिछली बार गांव गयी तो सीतामढी जिले के एक प्रखंड पुपरी में स्थित बाबा नागेश्‍वर नाथ धाम जाने का मौका मिला। शहर के बाजार के बीचोबीच एक छोटे से प्रांगन में स्थित इस मंदिर की महत्‍ता दूर दूर तक फैली हुई है। कहते हैं कि लगभग 40 वर्ष पूर्व यहां एक खेल का मैदान था। कुछ बच्‍चे मैदान में खेल रहे थे कि छोटा सा कंचा पेड के नीचे एक दरार में  फंस गया। बच्‍चे ज्‍यों ज्‍यों इस कंचे को निकालने की कोशिश करते , यह और नीचे गहरे चला जाता। बच्‍चों ने खुरपी लाकर वहां से कंचा निकालना चाहा तो अंदर से पत्‍थर टकराने की आवाज आयी। उस आवाज की दिशा में खोदते हुए बच्‍चों ने जब अच्‍छी खासी मिट्टी निकाल ली , तो वहां एक शिवलिंग मिला ।  इसे संयोग ही कह सकते हैं कि जिस बच्‍चे को यह मिला , उसका नाम नागेश्‍वर था । खबर पूरे कस्‍बे तक आग की तरह फैली , सबने इनके लिए एक मंदिर का निर्माण किया। इस तरह यह  माना जाने लगा कि इस स्‍थान पर बाबा नागेश्वर नाथ के रूप में शंकर भगवान ने स्‍वयं को यहां स्‍थापित किया है , तो इसकी महत्‍ता निर्विवाद होनी ही थी। माना जाता है कि बाबा नागेश्वर नाथ के दर्शन और पूजन से भक्‍तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।







सावन के महीने में शिव शंकर की भक्ति में रमे शिव भक्तों की भक्ति यहां देखते ही बनती है। लाल पीले परिधान में कहीं कांवर लेकर जाते, तो कहीं बोल बम की जयकार लगाते ओम नम: शिवाय का जाप के साथ जलाभिषेक करते पूरे दिन विभिन्न नदी घाटों से जल लेकर पहुंचते है और बाबा नागेश्वर नाथ महादेव का जलाभिषेक करते हैं। 

Friday 12 August 2011

तभी तो धूम होती है ... मेहंदी लगाके रखना !!

मेहंदी लिथेसिई कुल का काँटेदार आठ दस फुट तक ऊंचा झाडीनुमा पौधा होता है , जिसका वैज्ञानिक नाम लॉसोनिया इनर्मिस है। इसे त्वचा, बाल, नाखून, चमड़ा और ऊन रंगने के काम में प्रयोग किया जाता है। जंगली रूप से यह ताल तलैयों के किनारे उगता है , पर इसकी टहनियों को काटकर भूमि में गाड़ देने से भी बाग बगीचे में नए पौधे लगाए जाते हैं। हमारे यहां मेहंदी के बिना श्रृंगार अधूरा माना जाता है, विवाह के अवसर पर भी मेहंदी की रस्‍म होती है। इसे प्रेम व सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है. मेहंदी के महत्‍व को ध्‍यान में रखते हुए हल्‍के हरे रंग का नाम ही मेहंदी रंग दिया गया है। यहां तक कि एक जलप्रपात को इसलिए मेहंदी कुंड के नाम से बुलाया जाता है , क्‍यूंकि जल प्रपात (झरने) के आसपास की पहाडियां हरी-भरी होने से उनकी परछाई के कारण कुंड का रंग हरा दिखाई देता है।

मेहंदी को शरीर को सजाने का एक साधन के रूप में दक्षिण एशिया में उपयोग किया जाता रहा है। यह परंपरा ग्यारहवीं सदी से पहले से भारतीय समाज में चली आ रही है. १९९० के दशक से ये पश्चिमी देशों में भी चलन में आया है। इसकी छोटी चिकनी पत्तियों को पीसकर एक प्रकार का लेप बनाते हैं, जिसे स्त्रियाँ नाखून, हाथ, पैर तथा उँगलियों पर लगा लेती हैं। कुछ घंटों के बाद धो देने पर लगाया हुआ स्थान मैरून लाल रंग में रंग जाता है जो तीन चार सप्ताह तक नहीं छूटता। पत्तियों को पीसकर रखने से भी रंग देने वाला लेप तैयार किया जा सकता है। 16 श्रंगार में मेहंदी का विशेष महत्व है.


सावन का महीना तो मेहंदी के लिए खास है , चूंकि श्रावण माह को मधुमास भी कहा जाता है, इसलिए इस माह में महिलाएं विशेषकर मेहंदी लगाती हैं. इसका धार्मिक, सामाजिक महत्व के साथ-साथ आयुर्वेद से भी संबंध है. आध्यात्मिक आख्यान के अनुसार पार्वती ने इसी माह में शंकर को प्रसन्न कर उन्हें पति रूप में प्राप्त किया था. करीब एक दशक पूर्व गांवों में मेहंदी की पत्तियां तोड़ कर जमा कर इसे सिलौटी-लोढ़ी से पीसा जाता था , अधिक रंग आने के लिए इसमें कत्था, चाय का पानी , नींबू का रस आदि‍ मिलाया जाता था, मेहंदी लगाने के दौरान मेहंदी के गीत गाये जाते थे. सावन में बरसात के कारण उत्पन्न होने वाली कई प्रकार की बीमारियों में मेहंदी का उपयोग काफी लाभदायक होता है. बरसात के दिनों में पैर-हाथ में पानी लग जाने पर अभी भी गांव में जानकार किसान व मजदूर मेहंदी लगाते हैं.


मेहंदी लगाना एक कला है। इस कला ने राजस्थान और उत्तर भारत में काफी उन्नति की है। लगभग हर शहर में मेहंदी लगाने की प्रतियोगिता होती है। आजकल इस क्षेत्र में भी रोजगार उपलब्‍ध हो गए हैं। पहले यह सिर्फ महिलाओं का काम हुआ करता था , अब पुरूष भी इस क्षेत्र में आ गए हैं। आजकल मेहंदी पार्लरों में विशेषज्ञों की फी बहुत अधिक होती है। पहले बारीक पिसी हुई गीली मेहंदी में सीक डुबोकर हाथों में सुंदर डिजाइन बनाए जाते थे , कुछ दिन बाजार में प्‍लास्टिक के सॉचे मिलने लगे , जिसमें मेहंदी को लगाने से डिजाइन अपने आप उग आती थी। उसके बाद कुप्पियां बनाकर मेहंदी लगाने की परंपरा चली। अब बाजार में बनी बनायी कुप्पियां मिलती हैं , जिससे मेहंदी लगाना काफी आसान हो गया है। बाजार में डिजाइन की पुस्‍तकों के भी भंडार हैं।


आयुर्वेद के हिसाब से मेहंदी कफ-पित्त शामक होती है. मसूड़े के ऐसे असाध्य रोग, जो दूसरी औषधियों से न मिटते हों, मेहंदी के पत्तों के उबले हुए पानी से कुल्ला करने से मिट जाते हैं। मेहंदी को उबालकर उसके पानी से कुल्ले करने से जहां मुंह के छाले मिटते हैं , वहीं धोने से फोड़े-फुन्सी में लाभ होता है। गर्मी और बरसात के उमस भरे मौसम में पीठ और गले पर व शरीर की नरम त्वचा पर घुमौरियां होने लगती हैं। मेहंदी के लेप से एकदम उनकी जलन मिटकर लाभ हो जाता है। मेहंदी के पत्ते, आंवला, जरा-सी नील दूध में पीसकर बालों पर लगाने से लाभ होता है। इसके फूलों को सुखाकर सुगंधित तेल भी निकाला जाता है। इसपौधे की छाल तथा पत्तियाँ दवा में प्रयुक्त होती हैं।


पिछले कुछ वर्षो में बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा तैयार रेडीमेड मेहंदी ने बाजार पर कब्‍जा कर लिया है। दुकानों में उपलब्ध मेहंदी केमिकल का बना होता है. इसका शरीर को कोई लाभ नहीं मिलता. रंग भी बनावटी होता है. अर्थात गाढ़ा लाल, जो काले रंग के करीब होता है.पीसी हुई मेहंदी लगाने का जो शरीर पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता था, वह आज की मेहंदी में नहीं है।.प्राकृतिक मेहंदी की ललाई में जो नजर को खींचने की ताकत थी, वह रेडीमेड मेहंदी की कालिमायुक्त लाली में कहां से होगी , पर आसान उपलब्धता तथा लगाने में सुगमता रेडीमेड मेहंदी को सर्वप्रिय बना रहा है.


आजकल रेग्युलर मेहंदी की जगह ज्‍वेलरी मेहंदी भी प्रचलन में हैं , जिसे ज्‍वेलरी और मेहंदी से मिलाकर बनाया गया है। इसमें आर्टिस्ट आपकी ड्रेस के डिजाइन का खास हिस्सा कॉपी करके हूबहू आपके हाथों पर बना सकता है। इसके लिए मेहंदी, स्पार्कल, कलर्स, सितारे, मोती, चांदी व सोना वगैरह यूज किया जाता है। अगर आपकी ड्रेस पर सितारे व मोती हैं, तो इन्हें भी मेहंदी में लगवा सकती हैं। इसे किसी विशेष पार्टी या शादी के मौके पर बनवाया जा सकता है। इसे लगाने के लिए हाथों पर स्किन से मैच करता हुआ बेस कोट लगाया जाता है। फिर इसे सीलर से सील कर दिया जाता है, ताकि आपका डिजाइन देर तक टिका रहे। तभी तो धूम होती है ... मेहंदी लगाके रखना !!

Thursday 11 August 2011

इतने दिनो बाद भी दिलों के मध्‍य फासला न बना ..यही क्‍या कम है ??

हमने तो बहुत दिनों तक अपने हाथो से भाइयों को राखी बांधी , आजकल की बहनें तो शुरू से ही पोस्‍ट से राखी भेजने या ग्रीटींग्स कार्ड के द्वारा राखी मनाने को मजबूर हैं, भाई साथ रहते ही कितने दिन हैं ??  बहनों के लिए वो दिन तो अब लौट नहीं सकते , जब संयुक्‍त परिवार हुआ करते थे और राखी बंधवाने के लिए भाई क्‍यू में खडे रहते थे। जहां एक ओर सुबह से स्‍नान कर पूजा कर भूखी  प्‍यासी बहने राखी की तैयारी में लगी होती , वहीं दूसरी ओर भाई भी स्‍नान कर बिना खाए पीए ही राखी के इंतजार में बैठे होते। एक एक कर सभी बहनें सभी भाइयों को , चाहे वो संख्‍या में कितने भी क्‍यूं न हों , टीके लगाती , राखी बांधती और मिठाईयां खिलाती। बदले में भाई बहनों को वो नोट थमाते , जो एक एक भाइयों के लिए उनकी माताओं ने उन्‍हें दिए होते। आज के दिन मिठाइयों की खपत की तो पूछिए मत , एक एक भाई के हिस्‍से दस , बारह , पंद्रह मिठाइयां तो होनी ही चाहिए।  यहां तक कि पडोसी के बच्‍चे भी राखी बंधवाने आ जाया करते , इसलिए आज घर में भरपूर मिठाई रखनी पडती थी। भाइयों को इतनी मिठाइयां खाते देख बहनें और बहनों को नोट गिनते देख भाई ललचते रहते।

गांव में तो बढे हुए ऑर्डर को पूरा करने के लिए खोए की कमी हो जाती और हलवाई इस खास त्‍यौहार पर मिठाइयों के साइज और क्‍वालिटी में काफी कटौती करते। इसलिए महिलाएं कई दिनों से ही घर मे खपत होनेवाले दूध के खोए बनाकर हल्‍की फुल्‍की मिठाइयां या पेडा बना लिया करती थी। चूंकि घर में पेडे का सांचा नहीं होता , गोल पेडे बनाकर उसे गुल के डब्‍बे के ढक्‍कन से दबा दिया जाता , जिससे उसके ऊपर  कलात्‍मक डिजाइन बन जाता। उस जमाने में मंजन के रूप में गुल का प्रयोग लगभग हर घर के मर्द करते थे ।  मिठाई की कमी के कारण ही बाजार का कम से कम सामान प्रयोग करनेवाले हमारे परिवार में गुलाबजामुन बनाने वाली गिट्स की पैकेट का उसी जमाने से उपयोग आरंभ कर दिया गया था। इसके साथ ही मिठाइयों के लिए हलवाई पर निर्भर रहने की बाध्‍यता कम हो गयी थी।

शादी के बाद शायद एकाध बार राखी में मायके में रहना हो सका हो , पर कई वर्षों तक ससुराल में कोई न कोई भाई आक‍र राखी बंधवा ही लेता था , दूरी भी तो अधिक नहीं थी , 30 कि मी होते ही कितने हैं ?? पर अब हमारे शहरों के मध्‍य का फासला जितना है , उससे अधिक दूरी रोजगार के क्षेत्र में चलने वाली प्रतिस्‍पर्धा ने बना रखी है। पिछले कई वर्षों से राखी का त्‍यौहार यूं ही आता और चला जाता है , डाक विभाग या कूरियर सर्विस के द्वारा राखी भाइयों तक पहुंचाकर जहां एक ओर मै , वहीं दूसरी ओर सभी भाई भी राखी वाले दिन एक फोन कर औपचारिकता पूरी कर लेते हैं। राखी के दस दिन पहले मैं खुद भाइयों के पास से चली आयी , उन्‍हें क्‍या कहूं ?? शादी विवाह और घर गृहस्‍थी के बाद अपनी अपनी जबाबदेही में व्‍यस्‍त रहना ही पडेगा । कोई जरूरत आ पडी तो हम एक दूसरे को समय दे देते हैं , यही बहुत है। इतने दिनो बाद भी दिलों के मध्‍य फासला न बना , यही क्‍या कम है ??

Wednesday 10 August 2011

सच ही कहा गया है ..... भगवान केवल भक्‍त भाव के भूखे होते हैं !!

इस वर्ष के चारो सोमवार व्‍यतीत हो गए और मैं एक भी सोमवारी व्रत न कर सकी। इधर कुछ वर्षों से ऐसा ही हो रहा है , कभी काम की भीड और कभी तबियत के कारण सोमवारी व्रत नहीं कर पा रही हूं। हमारे धर्म में सावन महीने के सोमवार का बहुत म‍हत्‍व है। सावन के सोमवार को भगवान शिव और देवी पार्वती की पूजा की जाती है। भारत के सभी द्वादश शिवलिंगों पर इस दिन खास पूजा-अर्चना की जाती है. कहा जाता है सावन के सोमवार का व्रत करने से मनचाहा जीवनसाथी मिलता है और दूध की धार के साथ भगवान शिव से जो मांगो वह वर मिल जाता है. यही कारण है कि इस व्रत को कुंवारी कन्‍याएं काफी उत्‍साहित होकर करती हैं।

प्राचीन शास्त्रों के अनुसार सोमवार के व्रत तीन तरह के होते हैं। सोमवार, सोलह सोमवार और सौम्य प्रदोष। सोमवार के व्रत की चाहे जितनी भी सामग्रियां इकट्ठी कर ली जाएं , व्रत में अधिक नियम की जरूरत नहीं। भोले भाले शिव जी की पूजा का यह सोमवार व्रत भी बिल्‍कुल अपने मन मुताबिक किया जा सकता है। यही कारण है कि सावन का सोमवारी व्रत छोटी छोटी बच्चियां भी कर लेती हैं। हमारे गांव में सावन का सोमवारी व्रत लडकियों के लिए काफी उत्‍साह का त्‍यौहार होता था। गांव के पंडितों की मानने के कारण हमें काफी तैयारी करनी होती थी।

शनिवार का गांव में हाट लगता था , इसलिए इस दिन से ही तैयारी शुरू हो जाती थी। पूजा के लिए कम से कम पांच प्रकार के फल तो होने ही चाहिए। एक दो घर में मिल जाते , बाकी तो हमें खरीदने ही होते थे। अपने घर में दूध का इंतजाम न हो , तो ग्‍वाले के घर जाकर गाय के कच्‍चे दूध का इंतजाम करना होता। बाजार से भांग , कपूर आदि खरीदकर लाने होते। रविवार को सुबह सुबह अच्‍छी तरह नहाकर एक लोटे में जल , दूध और पुष्‍प लेकर मंदिर जाकर भगवान शिव और पार्वती जी पर चढाना होता था। उसके बाद दिनभर बिना प्‍याज लहसुन का शुद्ध खाना खाना होता था। 

हमारे गांव में भले ही सोमवार को शिवमंदिर का कपाट दो बजे के बाद ही खुलता था , सुबह से ही हमलोग पूजा की तैयारी में लग जाते थे। पूजा में कोई कमी न रह जाए , सुबह से ही बेलपत्र , धतुरे और धतूरे के फूल और अन्‍य फूल , जो हमारे बगीचे में नहीं होती , के लिए हमलोग भूखे प्‍यासे भटकते रहते। दो बजे के बाद स्‍नान कर हम पूजा का थाल सजाते। उसके बाद नए कपडे पहनकर शिवालय जाते। शिव परिवार को जलधारा , दूध, दही, शहद, शक्कर, घी से स्नान कराकर, गंध, चंदन, फूल, रोली, सिंदूर के साथ साथ धूप अगरबत्‍ती दिखाते हुए फलों का भोग लगाते। मंदिर में एक बूढी ब्राह्मणी होती , जो अस्‍पष्‍ट मंत्रों का उच्‍चारण करती जाती। शिव जी को अर्पित करने से पहले वे थोडा दूध अपने घर से लाई बाल्‍टी में जमा करती जातीं। प्रसाद तो हम उनके लिए अलग से ले जाते थे। मंदिर से बाहर निकलते ही प्रसाद के आस में बहुत महिलाएं और बच्‍चे खडे मिलते। उन्‍हें प्रसाद देकर हम वापस लौटते।

दिनभर के भूखे प्‍यासे हम बच्चियों की सेवा के लिए सबकी मम्‍मी पूरी तैयारी में होती। हमारे गांव में सोमवारी व्रत में दिनभर में एक बार ही बिना नमक का शुद्ध खाना खाने का विधान है , यहां तक की चाय पानी भी एक ही बैठकी में ले लेना होता। छोटी छोटी बच्चियां भी पूजा से पहले तो नहीं, पूजा के बाद भी दुबारा पानी नहीं पीती। दूसरे दिन भी हमें सुबह सुबह खाने की आजादी नहीं थी , स्‍नानकर पहले शिव पार्वती जी की पूजा कर उनसे इजाजत लेकर ही खाने की छूट होती। इस तरह हमलोगों का तीन दिन का नियम चलता। पर तीसरे दिन हमारे लिए खाने पहने की विशेष व्‍यवस्‍था कि जाती।

एक बार सावन के महीने में मामाजी के यहां थी , तो वहां महिलाओं को इतने नियम से सोमवारी का व्रत करते नहीं पाया। वहां सालोभर बिना प्‍याज लहसून के खाना बनता था , इसलिए रविवार को नियम से खाने की कोई जरूरत नहीं होती। सोमवार को दिनभर सबका फलाहार ही चलता , बस दोनो भाइयों के लिए खाना बनाने की जरूरत होती। वहां सुबह से ही शिवमंदिरों में भीड लगती थी , इसलिए सुबह ही सब पूजा कर लेते , पूजा के बाद प्रसाद और चाय ले लेते , फिर फलाहार तैयार करते।

भाइयों का खाना निबटाकर हमलोग तीन बजे के लगभग फलाहार करते। दिनभर पानी चाय की कोई मनाही नहीं थी। सबसे छोटी बहन तो फलाहार कर टिफिन में फलाहार लेकर स्‍कूल जाती आकर फिर दो तीन बार फलाहार ही करती। यानि जिसको जैसे इच्‍छा हो , वैसे खाओ पीओ। एक बार रांची में भी एक रिश्‍तेदार के यहां रूकने का मौका मिला , वहां भी ऐसे ही व्रत होते देखा। बहुत परिवारों में तो कुट्टू के आटे और सेंधा नमक का प्रयोग करते हुए पूरा फलाहार खाना बना लिया जाता है।

ससुराल में एक बार सावन के सोमवारी व्रत को करने को पूरा घर तैयार हो गया। मेरे ससुराल में चाय पी पीकर दिन काटने में किसी को दिक्‍कत नहीं है , पूजा करके चाय के सहारे दिनभर काट लिया। शाम को मेरे पूछने पर कि खाना क्‍या बनाऊं , दोनो भाइयों ने बिना प्‍याज लहसून के चावल दाल सब्‍जी बनाने को कहा। सोमवारी व्रत में चावल दाल ?? मैं तो चौंक गयी। इनलोगों ने बताया कि दिनभर के भूखे प्‍यासे इनलोगों की भूख फलाहार से शांत नहीं होती थी , इसलिए ये हॉस्‍टल में चावल दाल ही खाते आए हैं। भोले भाले शंकर बाबा की पूजा और व्रत हर जगह अलग अलग यानि मनमाने ढंग से ही होती आ रही है। भोले बाबा को इससे कोई अंतर नहीं पडता , सच ही कहा गया है , भगवान केवल भक्‍त भाव के भूखे होते हैं !!

Thursday 23 June 2011

अपने हिस्‍से का सुख (कहानी) .... संगीता पुरी

मात्र एक खबर से पूरे घर में सन्‍नाटा पसर गया था। सुबह एक्‍सीडेंट के बाद से ही सबके कान समय समय पर फोन पर होनेवाले बातचीत में ही लगे थे , इसलिए फोन रखते हुए 'मामाजी नहीं रहें' कहनेवाले पुलकित के धीमे से स्‍वर को सुनने में मां को तनिक भी देर न लगी और वह तुरंत बेहोश होकर गिर पडी। हमारे बहुत कोशिश करने पर ही वह होश में आ सकी , अपने इकलौते भाई की मौत का सदमा झेल पाना आसान तो न था। अभी उम्र ही क्‍या हुई थी , अभी नौकरी के भी दस साल बचे ही थे यानि मात्र 50 के ही थे वे। मेरे हाथ भले ही मम्‍मी को पंखा झल रहें हो , पर मन में विचारों का द्वन्‍द्व चल ही रहा था।

चार वर्ष पूर्व बोर्ड की परीक्षा पास करने के बाद मेरे समक्ष आगे की पढाई जारी रखने का कोई उपाय न था। ऐसे में मामाजी ने मुझे अपने पास शहर में बुलवाकर एक कॉलेज में मेरा नामांकन करवा दिया था। इस तरह अपनी पढाई के सिलसिले में मामाजी के परिवार से पिछले चार वर्षों से जुडी हुई थी मैं। उस घर की एक एक परेशानी से वाकिफ। वे शहर में रहते थे , बस इस बात को लेकर गांव वालों को भले ही उनसे प्रतिस्‍पर्धा रहती हो , पर वास्‍तव में उनकी स्थिति उतनी मजबूत भी नहीं थी। सरकारी नौकरी करने वाले सामान्‍य कर्मचारियों को तनख्‍वाह ही कितनी मिलती है ??

उतने में ही मामाजी तीन बच्‍चों के अपने पांच सदस्‍यीय परिवार को ही नहीं , साथ साथ नाना जी और नानी जी की जबाबदेही हमेशा संभालते आए थे। मेरे सामने ही चार वर्ष पहले नाना जी और दो वर्ष पहले नानी जी गुजर चुके थे , परिवार कुछ छोटा तो हो गया था , पर मामाजी के स्‍वास्‍थ्‍य की गडबडी तथा बच्‍चों की पढाई लिखाई के बढते भार से जीवन की गाडी खींचने में खासी परेशानी हो रही थी। महीने के अंत तक इतनी देनदारी हो जाती कि महीने का तनख्‍वाह शुरूआत के चार दिन में ही समाप्‍त हो जाता। अन्‍य आवश्‍यकताओं के लिए पूरे महीने खिचखिच होती रहती। अभी एक महीने पहले ही तो परीक्षा देकर मैं उनके यहां से वापस आयी थी।

ग्रेज्‍युएशन करने के बाद दो तीन वर्षों से बडे भैया नौकरी के लिए दिए जानेवाली परीक्षाओं में जुटे हुए थे। छह महीने के कोचिंग के फी के लिए घर में कितने दिनों तक हंगामा मचा रहा । भैया हर महीने कितने फार्म भरते और परीक्षा देने के लिए हमेशा शहर शहर भटकते ,  फिर अखबार में परीक्षाफल देखते और निराश सर झुका लेते। मामाजी इतने खर्च के व्‍यर्थ होने पर झुंझलाते। कर्मचारियों की छंटनी और रिक्तियों की कमी के इस दौर में सामान्‍य विद्यार्थियों को भला नौकरी मिल सकती है ?? व्‍यवसाय में रूचि रखनेवाले भैया को नौकरी करने की इच्‍छा भी न थी , पर व्‍यवसाय के लिए पूंजी कहां से लाते ?? मामाजी की मजबूरी वे समझते थे ,  दीदी की शादी भी तो करनी थी । दिन ब दिन तिलक दहेज की बढती मांग के कारण कहीं बात बढ भी नहीं पाती थी।

दो वर्षों से ग्रेज्‍युएशन करके बैठी दीदी अपने खाली दिमाग का शैतानी उपयोग ही कर रही थी। बात बात में भाइयों से झगड पडती।  छोटा भाई इंटर करने के बाद इंजीनियरिंग में एडमिशन लेना चाहता था , ताकि उसे भविष्‍य में कैरियर को लेकर इतना चिंतित न रहना पडे। पर आर्थिक समस्‍या यहां भी आडे आ रही थी। मामाजी की पहली प्राथमिकता दीदी की शादी थी , इस कारण इससे पहले वे कहीं भी बडा खर्च करने को तैयार न थे। छोटे भाई का भी एक वर्ष बर्वाद हो गया था , ऐसे दबाबपूर्ण वातावरण में मामाजी और बीमार रहने लगे थे , जिससे हर महीने दवाई का बोझ और बढता जा रहा था।

बढती महंगाई , मामाजी की बीमारी , दोनो भाइयों की महत्‍वाकांक्षा और दीदी की चिडचिडाहट ... ये सब घर के माहौल को बिगाडने के लिए काफी थे। अब तो किसी प्रकार घर को संभालनेवाले परिवार के एकमात्र कमानेवाले मामाजी ही नहीं रहें , तो अब घर का क्‍या हाल होगा ?? सोंचकर ही मैं परेशान थी। ऊपर नजर उठाया तो पापा खडे थे , उन्‍हें भी यह दुखद सूचना मिल चुकी थी। हमने तुरंत मामाजी के यहां निकलने का कार्यक्रम बनाया , उसके लिए पूरी तैयारी शुरू की। मां के बाद इस दुर्घटना का सर्वाधिक बुरा प्रभाव मुझपर ही पडा था , पर मां को लाचार देखते हुए मैने हिम्‍मत बनाए रखा। तीन चार घंटे का ही तो सफर था , हमें देखते ही मामीजी दहाड मारकर रो पडी। हमलोगों के पहुचने के बाद ही उनका दाह संस्‍कार हुआ। सारे क्रिया कर्म समाप्‍त होने तक लगभग सभी नजदीकी मेहमानों की मौजूदगी बनी रही , फिर धीरे धीरे सारे लोग चले गए। वहां की स्थिति को संभाले रहने की जिम्‍मेदारी मुझपर छोडकर मां भी चली गयी।

वहां रहने पर बातचीत से मालूम हुआ कि प्‍लांट में डृयूटी के दौरान ही एक एक्‍सीडेंट में मामाजी की मौत हुई थी , इसलिए कंपनी की ओर से उन्‍हें कुछ सुविधाएं मिलने की संभावना थी। कंपनी की ओर से एक बेटे को नौकरी देने के लिए ट्रेनिंग की वयवस्‍था की जानी थी , कंपनी की लापरवाही से हुए मौत के कारण परिवार को क्षतिपूर्ति के चेक भी मिलने थे। बीमा कंपनियों द्वारा भी एकमुश्‍त राशि मिलनेवाली थी और साथ में मामी जी को कुछ पेंशन भी। इसके लिए महीने दो महीने सबकी दौडधूप चलती रही , फिर धीरे धीरे सारा काम हो गया , छोटे भैया ने दो महीने की ट्रेनिंग के बाद आकर नौकरी ज्‍वाइन भी कर ली। दीदी के दहेज के लिए रूपए रख मामीजी ने बाकी रूपए बडे भैया को दे दिए। वे तो व्‍यवसाय करना ही चाहते थे , उनके मन की मुराद पूरी हो गयी। घर का माहौल सामान्‍य तौर पर ठीक ठाक देखकर मैं वापस लौट गयी।

समय समय पर मामा जी के यहां की खबर मिलती रहती थी , एक भाई व्‍यवसाय और एक नौकरी में सेट हो ही चुके थे , दहेज की वयवस्‍था हो जाने से दीदी के विवाह तय होने में देर नहीं लगी थी। हालांकि विवाह होने में अभी देर थी , पर विवाह का नाम सुनते ही मैं खुद को एक बार फिर से वहां जाने से नहीं रोक पायी। भैया का व्‍यवसाय चल पडा था , भैया की कमाई और दीदी की कुशलता से पूरे घर ही बदला बदला नजर आ रहा था। पूरे घर में हंसीखुशी का माहौल था , मामाजी सबके हिस्‍से का कष्‍ट लेकर इस दुनिया से चले गए थे। परिवार के एक एक सदस्‍य के पास पैसे थे , अभी से विवाह की तैयारी जोर शोर से हो रही थी। सबके चेहरे पर रौनक थी , सब अपने अपने हिस्‍से का सुख प्राप्‍त कर रहे थे। 

Friday 17 June 2011

ईश्‍वर से प्रार्थना है .. 'स्‍वीटी' दोनो बच्‍चों के लिए स्‍वीट बनी रहे !!

बच्‍चों के लिए मां का क्‍या महत्‍व है , यह उन बच्‍चों से पूछिए जिनकी माता नहीं और वे दूसरे बच्‍चों के सुख देखकर आहें भरते हैं। वैसे समय इतना गतिशील है कि किसी के होने न होने का इसपर कोई प्रभाव नहीं पडता। पिछले वर्ष 3 मई को हुई एक दुर्घटना ने एक परिवार का सब सुख तो लील लिया था , साथ ही छीन लिया था दो बच्‍चों से उनकी प्‍यारी मां को। समय के साथ हर घाव भरते हैं , भरने की कोशिश की जाती है , ताकि जो बचा है , उसके संभाला जा सके । इसी क्रम में अपने माता पिता की देखभाल और दो बच्‍चों की परवरिश के लिए घर का एकमात्र पुत्र को पुनर्विवाह के लिए तैयार होना पडा।


 8 जून 2011 को बोकारो के राम मंदिर में जमशेदपुर की एक कन्‍या के साथ विवाह बंधन में बंधकर श्री अमित रंजन श्रीवास्‍तव ने एक नए जीवन की शुरूआत की । मित्रों और रिश्‍तेदारों के मध्‍य वधू का स्‍वागत होटल रिलायंस में किया गया। पूरे परिवार को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं। अपनी नई मम्‍मी को देखकर दोनो बच्‍चे काफी खुश थे , बेटा घूमघूमकर कैमरे से फोटो लेने में व्‍यस्‍त था , तो बेटी नई मम्‍मी के साथ अपने अनुभव साझा कर रही थी। मैने बहू से नाम पूछा तो बेटे ने ही जबाब दिया 'स्‍वीटी' । ईश्‍वर से प्रार्थना है , 'स्‍वीटी' दोनो बच्‍चों के लिए स्‍वीट बनी रहे !!

Saturday 28 May 2011

नगों वाला सेट ...(कहानी)

बाजार जाने के लिए ज्‍योंहि मैं तैयार होकर बाहर निकली, बारिश शुरू हो चुकी थी। लौटकर बरामदे में एक कुर्सी डालकर एक पत्रिका हाथ में लेकर बारिश थमने का इंतजार करने लगी। बाजार के कई काम थे, बैंक से पैसे निकालने थे, राशन और सब्जियां भी लानी थी। कभी कभी बाजार निकल जाना मन लगाने के लिए तो अच्‍छा होता ही है, सेहत के लिए भी अच्‍छा रहता है। वास्‍तव में वक्‍त काटने के लिए घर में कोई काम भी तो नहीं , एक पत्रिका को इतनी बार पढ लेती हूं कि उसके एक एक शब्‍द रटे से लगते हैं। मैगजीन को एक ओर रखती हुई सामने नजर डाला , तो बारिश और तेज हो चुकी थी। पिछले तीन दिनों की तरह ही आज भी घर से निकल पाने की कोई संभावना नहीं दिख रही है। वो तो भला हुआ कि कुछ जरूरी सामान कई दिन पहले ही नौकर से मंगवा लिया था , नहीं तो आज खाने पीने की भी आफत हो जाती। कई दिनों से झमाझम बारिश जो हो रही है।

विजय को तो आफिस के लगातार प्रोमोशन के साथ ही साथ व्‍यस्‍तता इतनी बढती चली गयी थी कि अब घर के कार्यों के लिए या मेरा साथ देने के लिए उन्‍हें फुर्सत ही नहीं। जब भी उनकी इस व्‍यस्‍तता से मैं खीझ उठती हूं , मुझे किसी न किसी तरह मना ही लेते हैं। एक समय था , जब वे समय पर घर आया करते थे , जब तब ऑफिस से छुट्टी लेते थे , तब मैं ही अपनी घर गृहस्‍थी में उलझी रहती थी , तब विजय खीझ उठते थे मुझसे , अब उल्‍टा ही हो गया है। खैर, अब दो तीन वर्ष की ही तो बात है , सेवानिवृत्‍त होने के बाद आपस में सुख दुख बांटते हम दोनो दिन रात साथ साथ रह पाएंगे, मैने संतोष की सांस ली।

मानसून के आरंभ की ये बरसात भले ही किसानो के लिए वरदान हो , पर मुझे तो सारे कार्यों मे बाधा डालनेवाला असमय का बरसात नजर आ रहा था। तीन चार दिनों से ऐसा ही हो रहा था। सुबह नाश्‍ता के बाद विजय को विदा करती , तो बाई आ जाती। उसके बाद खाना बनाने का टाइम हो जाता। खाना खिलाकर जैसे ही विजय को ऑफिस भेजती , कभी मेरे तैयार होने से पहले ही बारिश आती , तो कभी मेरे तैयार होने के बाद। अजीब उलझन में फंस गयी हूं मैं , इस समय के अलावे कभी कहीं निकलने को समय ही नहीं मिलता, अकेले इतने बडे घर के देखरेख की जिम्‍मेदारी जो निभानी पड रही है।

कितने छोटे से क्‍वार्टर में मैने अपने जीवन का प्रारंभिक समय गुजार दिया था। जरूरत भर सामान भी उसमें नहीं आ पाता था। दो छोटे छोटे कमरों में ही अपनी आधी से अधिक जिंदगी काट दी थी मैने। सीमित मासिक तनख्‍वाह में अपनी जरूरतें पूरी करने में मैं हमेशा असमर्थ रहती थी। इसलिए तो एक आलोक के होने के बाद हमलोगों को किसी दूसरे बच्‍चे की इच्‍छा भी नहीं थी। हमलोग आलोक को पढा लिखाकर ऊंचे पद पर पहुंचाने का सपना देखते अपना जीवन काट रहे थे। पर इस सपने के अधूरे रहते ही हमारी लापरवाही से अचानक प्राची और प्रखर गर्भ में हलचल मचाने लगे थे। इस अहसास से मेरी हालत बहुत बुरी हो गयी थी, पर कोई उपाय न था और मुझे दोनों को एक ही साथ जन्‍म देना पडा था। आलोक तब पंद्रह वर्ष का हो चुका था और अपने अकेलापन को दूर होता देख प्राची और प्रखर के जन्‍म से बहुत खुश था।

लेकिन प्राची और प्रखर के जन्‍म के बाद भी हमने उसकी पढाई लिखाई में कोई बाधा न आने दी थी और उसने इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर इसी शहर में एक कंपनी ज्‍वाइन कर ली थी। कुछ ही दिनों में उसने हमलोगों से अपनी सहकर्मी अलका से प्रेम विवाह करने की स्‍वीकृति मांगी थी। अलका के व्‍यक्तित्‍व , पढाई लिखाई या पारिवारिक पृष्‍ठभूमि में कोई कमजोरी नहीं थी , जिसके कारण हमलोग इस विवाह को मंजूरी नहीं देते। सच तो यह था कि अलका को अपनी बहू के रूप में पाकर हम सब बहुत खुश थे , यही कारण था कि हमने पूरे उत्‍साह से भव्‍य आयोजन करते हुए उनका विवाह संपन्‍न कराया था।

उसने आते ही सारा घर संभाल लिया था। चाहे घर गृहस्‍थी का कोई मुद्दा हो या रसोई का काम , प्राची या प्रखर की पढाई हो या कोई और महत्‍वपूर्ण फैसला ... सबमें उसकी भूमिका अहम् होती। इसी कारण विजय , आलोक , प्राची और प्रखर उसे काफी महत्‍व देते। इस बात से मैं दुखी हो जाती , मुझे अक्‍सर महसूस होता कि इस घर में मेरा महत्‍व काफी कम हो गया है। समय पंख लगाकर उडता रहा , विजय ,आलोक और अलका को ऑफिस में प्रोमोशनो , प्रखर को व्‍यवसायिक सफलताओं और सबों के वैवाहिक सुखों के बौछार से , बच्‍चों के खिलखिलाहट से घर में रौनक आती गयी और सबके जीवनस्‍तर में काफी बढोत्‍तरी हुई। पर इससे परिवार के अन्‍य लोगों की तुलना मे वैचारिक दृष्टि से मैं काफी पीछे छूट गयी। मैं उसके बढते अधिकारों को देखकर चिंतित हो जाया करती, मुझे अपने अस्तित्‍व का भय सताने लगता था और इस भय के कारण ही मैं वैसे वैसे कार्यों में हस्‍तक्षेप करने लगी थी , जो एक मां की दृष्टि से अनुचित था।

फिर एक दिन वही हुआ , जिसका विजय को भय था। मेरे रोज रोज के उलाहने और बात बात पर हस्‍तक्षेप से तंग आकर आलोक और अलका किराए के एक फ्लैट में शिफ्ट कर गए। प्राची और प्रखर के लिए तो यह एक सदमा ही था। महीनों बाद ही वे सामान्‍य हो पाए, वैसे उनका भावनात्‍मक जुडाव तो उनके साथ अब भी बना हुआ है। उस दिन के बाद अकेलेपन से भयभीत मैं हमेशा विजय के सेवानिवृत्ति का इंतजार करती रही, ताकि मेरा समय भी आराम से कट सके। प्राची और प्रखर छुट्टियां व्‍यतीत करने भी अलका और आलोक के पास ही आते , इसलिए कभी कभार ही बेटी , बहू , दामाद , नाती , पोते मेरे पास आते थे , फिर दो चार घंटे में ही उनके लौटने का समय हो जाता और परिवार के वे सदस्‍य मुझे मेहमान से भी अधिक गैर नजर आते।

फोन की घंटी ने मुझे वर्तमान में लाकर खडा कर दिया था।

‘हलो’

’नमस्‍ते मम्‍मी’ फोन पर अलका ही थी।

’ओह बेटे, अभी मैं तुम्‍हें ही याद कर रही थी।‘

‘वाह, आपने तो मेरी उम्र ही बढा दी’

’वो कैसे?’

’कोई किसी को याद करे और वो उसी वक्‍त पहुंच जाए, तो उसकी उम्र बढ जाती है’

’अच्‍छा, तो बताओ, तुमलोग कैसे हो?’

’हमलोग तो अच्‍छे हैं, आप अपनी बताएं, पापा की तबियत कैसी है?’

’सबलोग अच्‍छे हैं’

’मम्‍मी, पापा के साथ कल बैंक में जाकर मेरा वो नगों वाला सेट निकालकर ले आइएगा, बुआजी के बेटे की शादी है, काफी दिनों से मैने उसे नहीं पहना है, कल शाम को आलोक जाकर ले आएंगे। परसों शाम की गाडी से हमें निकलना है।‘

’ठीक है, मुझे भी बाजार के कई काम निबटाने हैं। ऐसे तो ये व्‍यस्‍तता का बहाना बनाते हैं। तेरे नाम से छुट्टी ले ही लेंगे या ऑफिस से समय निकालकर थोडी देर पहले चल देंगे। मेरा भी टेंशन दूर हो गया। कई दिनों से बारिश की वजह से काम भी नहीं कर पा रही हूं।‘

बारिश अभी भी लगातार जारी थी , और उसके साथ मेरे विचारों की श्रृंखला भी। पता नहीं क्‍यूं , आज मन वर्तमान में टिक ही नहीं रहा था। किसी जगह पर कर्तब्‍यों का पालन करनेवालों को अधिकारों से तो वंचित नहीं किया जा सकता। पर सच ही कहा गया है , स्‍त्री की सबसे बडी दुश्‍मन स्‍त्री ही होती है। एक बच्‍ची को माता पिता अधिक लाड प्‍यार करें , तो बच्‍ची का भविष्‍य अंधकारमय नजर आने लगता है, बहू को अधिक प्‍यार देने का भी परिणाम घरवालों के लिए बुरा माना जाता है, यहां तक कि मां को अधिक प्‍यार मिले तो बहू के लिए अच्‍छा नहीं माना जाता है। सच तो यह है कि स्‍त्री के हक के विरूद्ध ये बातें स्‍त्री ही किया करती है। इस तरह पीढी दर पीढी किसी स्‍त्री को यह अधिकार ही नहीं मिल पाता , जिसकी वह हकदार है। लेकिन यह बात तो मेरे मन में आज आ रही थी , यही बात दस वर्ष पहले आ गयी होती , तो यह घर तो बिखरने से बच गया होता। मैने अलका को बहुत परेशान किया है , इसे तो मुझे स्‍वीकारना ही पडेगा। वो तो उन दोनों का बडप्‍पन ही है कि कुछ ही दिनों में सारी बातों को भूलकर वे हमारी गल्‍ती को माफ करते आए हैं।

बीती हुई घटनाएं मेरे दिमाग में चलचित्र की भांति घूमती रहती थी , अधिकांश जगहों पर दोष मेरा होता । मेरी आत्‍मा हमेशा मुझे धिक्‍कारा करती , क्‍या इस घर में अलका को प्राची सा अधिकार नहीं मिलना चाहिए था ? आखिर उसका दोष क्‍या था ? अचानक ही मेरे दिमाग ने अलका के दोषों पर ध्‍यान देना आरंभ किया। उसने क्‍या क्‍या गलतियां की थी ... एक , दो , तीन ........ गल्तियों से तो भगवान भी नहीं बच पाए , भला मनुष्‍य के जीवन में गल्तियां न मिले , बहुत सारी गल्तियां नजर आने लगी। अलका को जब भी इन गल्तियों के बारे में टोकती , आलोक और विजय उसका पक्ष लेकर मुझे ही चुप करवा देते। इन दोनो के प्‍यार से ही अलका का दिमाग चढ जाता था।

उन बातों को सोंचकर फिर मेरा तनाव घटने की बजाए बढ गया। हमारे बैंक के लॉकर में अलका का एकमात्र नगों वाला सेट ही तो बचा था , जो हमलोगों ने उसे उसके विवाह के लिए इतने चाव से खरीदा था। मायके से मिले सारे जेवर उसने धीरे धीरे मंगवा ही लिए थे, कभी किसी बहाने तो कभी किसी। आज यह सेट मंगवाकर मानो वह इस घर से रिश्‍ता ही तोड रही हो। आलोक भी कैसा मर्द है , अलका की सब हां में हां मिलाता है। खाली दिमाग शैतान का घर ही तो होता है, मेरे मन में इसी तरह की उलूल जुलूल बातें आती रही और मैं व्‍यथित होती रही। विजय के आते ही अलका के बारे में इधर उधर की बातें कहते हुए अपने मन की सारी भडास निकालने में जरा भी देर नहीं की। आलोक के दोषों को भी गिन गिनकर सुनाया। इन बातों से विजय भी परेशान और चिंतित हो गए। हम दोनों ने बेटे बहू के नालायक होने के गम में पलंग पर करवटें बदलते रात काटी। फिर विजय ने दूसरे दिन ऑफिस से छुट्टी ली और हमने सारा काम निबटाया और लौटते वक्‍त बैंक से बहू का नगों वाला सेट निकालकर ले आए।

शाम को ऑफिस से लौटता हुआ आलोक अकेले ही गेट से पापा , पापा पुकारता घर में घुसा , पर घर में बिल्‍कुल सन्‍नाटा था। सहमते हुए उसने ड्राइंग रूम में अपने कदम रखे। कोई और दिन होता , तो पापा उससे लिपट ही गए होते , पर आज हमलोग सोफे पर निर्विकार भाव से बैठे थे। इस शांति को देखकर किसी तूफान के होने के आशंका से उसका चेहरा भयभीत हो गया , पर इससे उसे जन्‍म देनेवाले हम मम्‍मी पापा के मन में कोई सहानुभूति नहीं थी । हमने उसे फटकारना आरंभ किया , एक के बाद एक ... अलका पर और उसपर तरह तरह के इल्‍जाम लगाते हुए, अपने शिकायतों का पुलिंदा खोलते हुए हमने जेवर का डब्‍बा उसके हाथ में दे दिया। ऑफिस से लौटते हुए थके हारे मूड पर इस अप्रत्‍याशित डॉट आलोक के क्रोध को कईगुणा भडका गया। वह इतने दिनों में अलका को नहीं समझ पाया था, ऐसी बात नहीं थी , अलका ने आजतक परिवार के मामले में सिर्फ सहयोग ही दिया था। पर अलका के पक्ष में कुछ कहने से तो वह ‘जोरू का गुलाम’ ही बनता, सो चुप रहना ही श्रेयस्‍कर था। उसके समझ में आ गया था कि लाख कोशिश कर‍के भी वह मम्‍मी और पापा को खुश नहीं रख सकता था, वह चुपचाप पल्‍टा, उसके कदम तेज गति से अपने घर की ओर चल पडे।

आलोक को उल्‍टा पांव लौटते देखने के बाद मैं अचानक होश में आयी , विजय के चेहरे पर परेशानी देख मेरी हालत खराब थी। मन ने कहा कि मैं आलोक से भी तेज गति से कदम बढाते हुए उसे लौटा लाऊं , पर कैसे ? आलोक से आंख या नजर मिलाने की शक्ति भी अब मुझमें नहीं बची थी। बहू के एक छोटे से नगों वाले सेट ने हमारे मध्‍य इतनी दूरी पैदा कर दी थी। एक बार फिर से मैने वह गल्‍ती दुहरायी है , जो अक्‍सर हमारे मध्‍य दूरियां पैदा करती है और जिसे न करने का संकल्‍प अक्‍सर करती आयी हूं। आज भी शायद अंत नहीं है , यह गल्‍ती मुझसे तबतक होती रहेगी ,जबतक मैं अलका और प्राची को बिल्‍कुल एक रूप में न देखूं।

Tuesday 24 May 2011

नसीब अपना अपना .......

समाज की विसंगतियों पर आधारित यह पोस्‍ट पूर्व में नुक्‍कड मे भी प्रकाशित हो चुकी है .. पर अपनी रचनाओं को एक स्‍थान पर रखने के क्रम में इसे पुन: यहां प्रकाशित कर रही हूं .... प्रथम दृश्‍य
‘अब तबियत कैसी है तुम्‍हारी’ आफिस से लौटते ही बिस्‍तर पर लेटी हुई पत्‍नी पर नजर डालते हुए पति ने पूछा। ‘अभी कुछ ठीक है, बुखार तो दिनभर नहीं था , पर सर में तेज दर्द रहा’ ’तुमने आराम नहीं किया होगा, दवाइयां नहीं खायी होगी, चलो डाक्‍टर के पास चलते हैं’ ’दिनभर आराम ही तो किया है , पडोसी ने खाना बनाने को मना कर रखा था , स्‍कूल से आते ही बच्‍चों को ले गए , खाना खिलाकर भेजा , डाक्‍टर के यहां जाने की जरूरत नहीं , अभी आराम है’ ’ठीक है, आराम ही करो, मैं होटल से खाना ले आता हूं’ ’इसकी जरूरत नहीं, फ्रिज में राजमें की सब्‍जी है , थोडे चावल कूकर में डालकर सिटी लगा लेती हूं , आपलोग खा लेंगे’ ’नहीं, हमें नहीं खाना चावल, आंटी ने बहुत खिला दिया है , हल्‍की भूख ही है हमें’ बच्‍चे चावल के नाम से बिदक उठे। ’ठीक है, तो चार फुल्‍के ही सेंक दूं , आटे भी गूंधे पडे हैं फ्रिज में’ ‘नहीं मम्‍मा, रोटी खाने की भी इच्‍छा नहीं’ ’तो फिर क्‍या खाओगे’ ’बिल्‍कुल हल्‍का फुल्‍का’ ‘ब्रेड का ही कुछ बना दूं’ ’नहीं, नूडल्‍स वगैरह’ ’ठीक है, दो मिनट में तो बन जाएगा, मैगी ही बना देती हूं’ ‘अरे, क्‍या कर रही हो’ पतिदेव बाथरूम से आ चुके थे। ’कुछ भी तो नहीं बच्‍चों के लिए मैगी बना दूं’ ’अरे नहीं, तुम्‍हें परेशान होने की क्‍या जरूरत, मैं ले आता हूं होटल से , तुम आराम करो भई’ उन्‍होने हाथ पकडकर पत्‍नी को बिस्‍तर पर लिटा दिया और सबका खाना होटल से ले आए।
द्वितीय दृश्‍य
सुबह से सर में तेज दर्द है , पर मजदूरी करने जाना जरूरी था। जाते वक्‍त मुहल्‍ले की दुकान से उधार ही सही , सरदर्द की दो दवाइयां ले ली थी , सबह और दोपहर दोनो वक्‍त उस दवाई को खा लेने का ही परिणाम था कि वह आज की दिहाडी कमा चुकी थी। कुल 60 रूपए हाथ में , पति की कमाई का कोई भरोसा नहीं , सारा पैसा शराब में ही खर्च कर देता है वह। 60 रूपए में क्‍या ले , क्‍या नहीं , 4 रूपए की दवा ले ही चुकी है वह। 18 रूपए वाले चावल ले तो उसमें कंकड नहीं होता , पर बाकी काम के लिए पैसे कम पड जाएंगे । 15 रूपएवाले चावल ही ले लें , कंकड तो चुने भी जा सकते हैं। दो किलो चावल लेने भी जरूरी हैं, थोडा भात बच जाए तो बासी भात के सहारे बच्‍चे दिनभर काट लेते हैं। घर में तेल भी नहीं , दाल भी नहीं , सब्‍जी भी नहीं , ईंधन भी नहीं , 26 रूपए में क्‍या ले क्‍या नहीं। नहीं आज तेल छोड देना चाहिए , थोडे दाल ले ले , थोडे साग है बगीचे में , आलू है घर में , कोयला लेना जरूरी है और किरासन तेल भी। काफी मशक्‍कत करके वह 56 रूपए में उसने आज की सभी जरूरतें पूरी कर ही ली। आकर चूल्‍हे जलाए , चावल बीने , साग चुने। खाने के लिए चावल , दाल , साग और आलू के चोखे बनाए। दिनभर के भूखे बच्‍चे गरम गरम खाना खा ही रहे थे कि झूमते झामते पति पहुंच गया। उसका खाना भी परोसा गया , पर यह क्‍या , पहला कौर खाते ही मुंह में कंकड। पति का गुस्‍सा सातवें आसमान पर , पूरी थाली फेक दी और जड दिए चार थप्‍पड उसकी गालों पर। ‘साली खाना बनाना भी नहीं आता , आंख की जगह पत्‍थर लगे हैं क्‍या ? ‘ बेसुध पति को जवाब देकर और मार खाने की ताकत तो उसकी थी नहीं , रोकर भी समय जाया नहीं कर सकती , बच्‍चों को खिलाकर खुद भी खाना है , बरतन साफ करने हैं तबियत ठीक करने के लिए सोना भी जरूरी है , सुबह फिर मजदूरी पर भी तो जाना है।

Saturday 14 May 2011

अफसोस है .. नहीं रहा अब हमारे मुहल्‍ले का पीपल का पेड !!

28 अप्रैल को दिल्‍ली के लिए निकलने से पहले अखबार में एक खबर पढते हुए मैं चौंक ही गयी। हमारे मुहल्‍ले का पीपल का विशालकाय पेड हल्‍की सी आंधी पानी में ही जड से उखड चुका था , खैरियत यही थी कि जानमाल की कोई क्षति नहीं हुई थी , बस एक दो गुमटियां टूट गयी थी। इसकी उम्र के बारे में कुछ कह पाना मुश्किल है , क्‍यूंकि गांव के सारे बडे बुजुर्ग कहते आ रहे हैं कि उन्‍होने बचपन से ही इस पीपल के पेड को उसी रूप में देखा है। हमारे घर से दो सौ मीटर की दूरी पर स्थित मुहल्‍ले के छोटे से चौक  पर स्थित इस पीपल के पेड से हमारी कितनी यादें जुडी थी। किसी को पता बताना हो तो यही पीपल का पेड , बच्‍चों को कोई खेल खेलना हो , तो यही पीपल का पेड , मुहल्‍ले का कोई कार्यक्रम हो तो यहीं , बडे बुजुर्गों के बैठक से लेकर ताश पतते खेलने की जगह भी यही , मेले लगाने की भी जगह यही। कुछ खाना पीना हो तो बस पीपल के पेड के पास चले जाइए !


चित्र में जिस छोटे से चौक में मेन रोड पेटरवार कसमार लिखा है , वहीं तरह तरह की पंक्षियों का बसेरा वह विशालकाय पीपल का पेड हुआ करता था । चारो ओर के लोगों का यहां जुटना आसान था ,  दो दो मंदिर भी आसपास थे , उसके सामने की जमीन खाली पडी थी , जगह काफी हो जाती , इसलिए पर्व त्‍यौहार की भीड भी यहीं जुटती। हमारे गांव की एक नई बहू ने जब इस पीपल के पेड के प्रति पूरे मुहल्‍लेवालों की दीवानगी देखी तो पूछ ही बैठी , 'इस मुहल्‍ले वालों के जन्‍म के बाद उनके  गर्भनाल वहीं गाडे जाते हैं क्‍या ?'

कुछ दिन पहले तक गूगल मैप में इस पेड को साफ तौर पर देखा जा सकता था , मै दिल्‍ली जाने की हडबडी में इसे सेव भी न कर सकी। काफी दिनों तक यह पेड गिरा पडा रहा , अभी भी गूगल के चित्र में यह गिरा पडा है। मेरे चाचाजी के घर जानेवाला रास्‍ता बंद हो गया था , 11 मई को मेरी बहन का विवाह होना था , इसलिए सप्‍ताह भर के अंदर रास्‍ता साफ करना पडा। हमलोग विवाह के लिए 11 को वहां पहुंचे तो काफी सूनापन का अहसास हुआ। वहां पीपल के पेड की निर्जीव लकडियां पडी थी , हमने उसकी ही फोटो खींच ली।


अफसोस है ... नहीं रहा अब हमारे मुहल्‍ले का पीपल का पेड !!

Tuesday 26 April 2011

अब बस दादी बनने का इंतजार है ......

वैसे भतीजी के विवाह के बाद सास तो मैं बारह वर्ष पूर्व ही बन गयी थी , 28 फरवरी 2011 को घोडी पर चढे दुल्‍हा बने अपने साले साहब को संभालते हमारे घर के इकलौते दामादजी ..... 


दस वर्ष पूर्व ही इस प्‍यारे से नाती की नानी बनने का भी मौका मिल गया , इसे सुंदर ड्रेस से ललचाकर वर के सहबाला बनने को तैयार किया गया हैं  ....


सारी तैयारी होने के बाद जयमाल , विधि व्‍यवहार और विवाह में आजकल देर थोडे ही लगती है , दूसरे दिन  10 बजे स्‍वागत के लिए तैयार थी भतीजे चि विनीत के साथ हमारी बहूरानी सौ भारती ....



ये दोनो हमेशा खुश रहें , आबाद रहे , बस यही कामना है .. अब बस दादी बनने का इंतजार है ......

Friday 4 February 2011

मिथ्‍या भ्रम (कहानी) ... संगीता पुरी


‘क्‍या हुआ, ट्रेन क्‍यूं रूक गयी ?’ रानी ने उनींदी आंखों को खोलते हुए पूछा। ’अरे, तुम सो गयी क्‍या ? देखती नहीं , बोकारो आ गया।‘ बोकारो का नाम सुनते ही वह चौंककर उठी। तीन दिनों तक बैठे बैठे कमर में दर्द सा हो रहा था। कब से इंतजार कर रही थी वह , अपने गांव पहुंचने का , इंतजार करते करते तुरंत ही आंख लग गयी थी। अब मंजिल काफी नजदीक आ गयी थी। उसने अपने कपडे समेटे , मोनू को संभाला और सीट पर एक नजर डालती हुई ट्रेन से उतरने के लिए क्‍यू में खडी हो गयी।

दस वर्षों बाद वह मद्रास से वापस आ रही थी। गांव आने का कोई बहाना इतने दिनों तक नहीं मिल रहा था। गांव का मकान भी इतने दिनों से सूना पडा था। अपने अपने रोजगार के सिलसिले में सब बाहर ही जम गए थे। पर इस बार चाचाजी की जिद ने उन सबके लिए गांव का रास्‍ता खोल ही दिया था। वे अपने लडके की शादी गांव से ही करेंगे। सबके पीछे वह सामानों को लेकर ट्रेन से उतर पडी। एक टैक्‍सी ली और गांव के रास्‍ते पर बढ चली।

टैक्‍सी जितनी ही तेजी से अपने मंजिल की ओर जा रही थी , उतनी ही तेजी से वह अतीत की ओर। मद्रास के महानगरीय जीवन को जीती हुई वह अबतक जिस गांव को लगभग भूल ही चली थी , वह अचानक उसकी आंखों के सामने सजीव हो उठा था। घटनाएं चलचित्र के समान चलती जा रही थी। उछलते कूदते , उधम मचाते उनके कदम .. कभी बाग बगीचे में तो कभी खेल के मैदानों में। अपना लम्‍बा चौडा आंगन भी उन्‍हें धमाचौकडी में मदद ही कर देता था।

खेलने का कोई साधन नहीं , फिर भी खेल में इतनी विविधता। जो मन में आया, वही खेल लिया। खेल के लिए कार्यक्रम बनाने में उसकी बडी भूमिका रहती। वास्‍तविक जीवन में जो भी होते देखती , खेल के स्‍थान पर उतार लेती थी। घर के कुर्सी , बेंच , खाट और चौकी को गाडी बनाकर यात्रा का आनंद लेने का खेल बच्‍चों को खूब भाता था। कोई टिकट बेचता , कोई ड्राइवर बनता , तो कोई यात्री। रूट की तो कोई चिंता ही नहीं थी , उनकी मनमौजी गाडी कहीं से कहीं पहुंच सकती थी।

तब सरकार की ओर से परिवार नियोजन का कार्यक्रम जोरों पर था। भला उनके खेल में यह कैसे शामिल न होता। कुर्सी पर डाक्‍टर , बेंच पर उसके सहायक और खाट चौकी पर लेटे हुए मरीज । चाकू की जगह चम्‍मच , पेट काटा , आपरेशन किया , फटाफट घाव ठीक , एक के बाद एक मरीज का आपरेशन। भले ही अस्‍पताल के डाक्‍टर साहब का लक्ष्‍य पूरा न हुआ हो , पर उन्‍होने तो लक्ष्‍य से अधिक काम कर डाला था।

इसी तरह गांव में एक महायज्ञ का आयोजन हुआ। यज्ञ के कार्यक्रम को एक दिन ही देख लेना उनके लिए काफी था। अपने आंगन में यज्ञ का मंडप तैयार बीच में हवन कुंड और चारो ओर परिक्रमा के लिए जगह । मुहल्‍ले के सारे बच्‍चे हाथ जोडे हवनकुंड की परिक्रमा कर रहे थे और ‘श्रीराम , जयराम , जय जय राम, जय जय विघ्‍न हरण हनुमान’ के जयघोष से आंगन गूंज रहा था। कितना स्‍वस्‍थ माहौल था , बच्‍चे भी खुश रहते थे और अभिभावक भी।

लेकिन इसी क्रम में उसे एक बच्‍चे दीपू की याद अचानक आ गयी। जब सारे बच्‍चे खेल रहे होते , वह एक किनारे खडा उनका मुंह तक रहा होता। ‘दीपू , तुम भी आ जाओ’ उसे बुलाती , तो धीरे धीरे चलकर उनके खेल में शामिल होता। पर दीपू को शामिल करके खेलना शुरू करते ही तुरंत रानी को कुछ याद आ जाता और वह दौडकर घर के एक खास कमरे में जाती। उसका अनुमान बिल्‍कुल सही होता। दीपू की मम्‍मी उस कमरे में फरही बना रही होती। अपनी कला में पारंगत वह छोटे छोटे चावल को मिट्टी के बरतन में रखे गरम रेत में तल तलकर निकाल रही होती।

उसकी दिलचस्‍पी चावल के फरही में कम होती , इसलिए वह अंदर जाकर चने निकाल लाती। ’काकी, इन चनों को तल दो ना’ वह उनसे आग्रह करती। ’इतनी जल्‍दी तलने से ये कठोर हो जाएंगे और इन्‍हे खाने में तुम्‍हारे दांत टूट जाएंगे, थोडी देर सब्र करो।‘ वह चने में थोडे नमक , हल्‍दी और पानी डालकर उसे भीगने को रख देती। अब भला उसका खेल में मन लग सकता था। हर एक दो मिनट में अंदर आती और फिर निराश होकर बाहर आती , लेकिन कुछ ही देर में उसे सब्र का सोंधा नमकीन फल मिल जाता और चने के भुंजे को सारे बच्‍चे मिलकर खाते। इस तरह शायद ही कभी दीपू को उनके साथ खेलने का मौका मिल पाया हो।

टैक्‍सी अब उसके गांव के काफी करीब आ चुकी थी। रबी के फसल खेतों में लहलहा रहे थे। बहुत कुछ पहले जैसा ही दिखाई पड रहा था। शीघ्र ही गांव का ब्‍लाक , मिड्ल स्‍कूल , बस स्‍टैंड , गांव का बाजार , सब क्रम से आते और देखते ही देखते आंखो से ओझल भी होते जा रहे थे। थोडी ही देर में उसका मुहल्‍ला भी शुरू हो गया था। बडे पापा का मकान , रमेश की दुकान, हरिमंदिर , शिवमंदिर , सबको देखकर खुशी का ठिकाना न था।

पर एक स्‍थान पर अचानक तीनमंजिला इमारत को देखकर उसके तो होश उड गए। यह मकान पहले तो नहीं था। फिर उसे दीपू की याद आ गयी। इसी जगह तो दीपू का छोटा सा दो कमरों का खपरैल घर था , जिसके बाहरवाले छोटे से कमरे को ड्राइंग , डाइनिंग या किचन कुछ भी कहा जा सकता था तथा उसी प्रकार अंदरवाले को बेडरूम , ड्रेसिंग रूम या स्‍टोर। यहां पर इस मकान के बनने का अर्थ यही था कि दीपू के पापा ने अपनी जमीन किसी और को बेच दी, क्‍यूंकि वे लोग काफी गरीब थे और इतनी जल्‍दी उनकी सामर्थ्‍य तीनमंजिला मकान बनाने की नहीं हो सकती थी।

घर पहुंचने से ठीक पहले उसका मन बहुत चिंतित हो गया था। पता नहीं वे लोग अब किस हालत में होंगे । दीपू के पापा तो बेरोजगार थे , उसकी मम्‍मी ही दिनभर भूखी , प्‍यासी , अपने भूख को तीन चार कप चाय पीकर शांत करती हुई लोगों के घरों में फरही बनाती अपने परिवार की गाडी को खींच रही थी। बृहस्‍पतिवार को वे भी बैठ जाती थी , क्‍यूंकि गांव में इस दिन चूल्‍हे पर मिट्टी के बरतन चढाना अशुभ माना जाता है। कहते हैं , ऐसा करने से लक्ष्‍मी घर से दूर हो जाती है , धन संपत्ति की हानि होती है।

एक दिन बैठ जाना दीपू की मम्‍मी के लिए बडी हानि थी। कुछ दिनों तक उन्‍होने इसे झेला , पर बाद में एक रास्‍ता निकाल लिया। अब वे बृहस्‍पतिवार को अपने घर में फरही बनाती मिलती , जो उनके घर से सप्‍ताहभर की बिक्री के लिए काफी होता। ’काकी , तुम अपने घर में बृहस्‍पतिवार को मिट्टी के बर्तन क्‍यू चढाती हो ? ‘ वह अक्‍सर उनसे पूछती। उनके पास जबाब होता ‘ बेटे , मुझे घरवालों के पेट भरने की चिंता है , मेरे पास कौन सी धन संपत्ति है , जिसे बचाने के लिए मुझे नियम का पालन करना पडे’ तब उसका बाल मस्तिष्‍क उनकी इन बातों को समझने में असमर्थ था।

पर अभी उसका वयस्‍क वैज्ञानिक मस्तिष्‍क दुविधा में पड गया था। ’क्‍या जरूरत थी , दीपू के मम्‍मी को बृहस्‍पतिवार को अपने घर में फरही बनाने की , लक्ष्‍मी सदा के लिए रूठ गयी , जमीन भी बेचना पड गया , अपनी जमीन बेचने के बाद न जाने वे किस हाल में होंगी , दीपू भी न जाने कहां भटक रहा होगा’ सोंचसोंचकर उसका मन परेशान हो गया था। टैक्‍सी के रूकते ही वे लोग घर के अंदर गए , परसों ही शादी थी , लगभग सारे रिश्‍तेदार आ चुके थे , इसलिए काफी चहल पहल थी। मिलने जुलने और बातचीत के सिलसिले में तीन चार घंटे कैसे व्‍यतीत हो गए , पता भी न चला।

अब थोडी ही देर में रस्‍मों की शुरूआत होने वाली थी। चूंकि घर में रानी ही सबसे बडी लडकी थी , उसे ही गांव के सभी घरों में औरतों को रस्‍म में सम्मिलित होने के लिए न्‍योता दे आने की जबाबदेही मिली। वह दाई के साथ इस काम को करने के लिए निकली। सबों के घर तो जाने पहचाने थे , पर सारे लोगों में से कुछ आसानी से पहचान में आ रहे थे , तो कुछ को पहचानने के लिए उसके दिमाग को खासी मशक्‍कत करनी पड रही थी।

एक मकान से दूसरे मकान में घूमती हुई वह आखिर उस मकान में पहुच ही गयी, जिसने चार छह घंटे से उसे भ्रम में डाल रखा था। इस मकान के बारे में उसने दाई से पूछा तो वह भाव विभोर होकर कहने लगी ‘अरे , दीपू जैसा होनहार बेटा भगवान सबको दे। उसने व्‍यापार में काफी तरक्‍की की और शोहरत भी कमाया। उसने ही यह मकान बनवाया है। इस बीच पिताजी तो चल बसे , पर अपनी मां का यह काफी ख्‍याल रखता है। अभी तीन चार महीने पूर्व इसका ब्‍याह हुआ है।

पत्‍नी भी बहुत अच्‍छे घर से है‘ दाई उसकी प्रशंसा में अपनी धुन में कुछ कुछ बोले जा रही थी और वह आश्‍चर्यचकित उसकी बातों को सुन रही थी। हां, उसके वैज्ञानिक मस्तिष्‍क को चुनौती देनेवाला एक मिथ्‍याभ्रम टूटकर जरूर चकनाचूर हो चुका था।

Tuesday 1 February 2011

आदर्शवादी सास की बहू ...


आज प्रस्‍तुत है .. मेरी छोटी बहन श्रीमती शालिनी खन्‍ना की एक रचना 'आदर्शवादी सास की बहू'.. पहले यह नुक्‍कड पर भी पोस्‍ट हो चुकी है ..


टी वी, फ्रिज, वाशिंग मशीन, स्‍कूटर,
क्‍या करूंगी ये सब लेकर,
बस एक अच्‍छी सी बहू चाहिए
और भला मुझे क्‍या चाहिए। 
ऐसी बहू जो हर वक्‍त करे बडों की सेवा,
और न चाहत रखे मिले किसी से मेवा।‘
बोली मां संपन्‍न घराने में बेटे का विवाह तय कर,
और फिर चल दी,
मित्रमंडली में अपनी आदर्शवादिता की छाप छोडकर।

पर दिल में काफी इच्‍छाएं थी,
काफी अरमान थे, 
हर समय सपने में बहू के दहेज में मिले
ढेर सारे सामान थे।
और जब बहू घर आयी,
उनकी खुशी का ठिकाना न था,
हर चीज साथ लेकर आयी थी,
उसके पास कौन सा खजाना न था।
हर तरफ दहेज का सामान फैला पडा था, 
पर सास का ध्‍यान कहीं और अडा था।




बहू ने बगल में जो पोटली दबा रखी थी ,
इस कारण उनकी निगाह
इधर उधर नहीं हो पा रही थी।
न जाने क्‍या हो इसमें ,
सोंच सोंच कर परेशान थी,
बहू ने अब तक बताया नहीं ,
यह सोंचकर हैरान थी।
हो सकता है सुंदर चंद्रहार,
जो हो मां का विशेष उप‍हार,
या हो कोई पर्सनल चीज,
या फिर किसी महंगी कार के एडवांस पैसे ,
शायद मां ने दिए हो इसे।
पर खुद से अलग नहीं करती,
इसमें अंटके हो प्राण जैसे।

काफी देर तक सास अपना दिमाग दौडाती रही,
और मन ही मन बडबडाती रही।
कैसी बहू है ,
सास से भी घुल मिल नहीं पा रही,
अपनी पोटली थमाकर बाथरूम तक नहीं जा रही।
अब हो रही थी बर्दाश्‍त से बाहर,
जी चाहता हूं दे दूं इसे जहर
समझ में नहीं आता मैं क्‍या करूं ?
कैसे इस दुल्‍हन के अंदर अपना प्‍यार भरूं।
बहुत हिम्‍मत कर करीब जाकर प्‍यार से बोली,
बहू से बहुत मीठे स्‍वर में अपनी बात खोली।
'इसमें क्‍या है' , मेरी राजदुलारी,
इसे दबाए दबाए तो थक जाओगी प्‍यारी।

बहू भी काफी शांत एवं गंभीर स्‍वर में बोली,
आदर्शवादी सास के समक्ष पहली बार अपना मुंह खोली।
’सुना है ससुरालवाले दहेज के लिए सताते हैं,
ये लाओ, वो लाओ मायके से ये हमेशा बताते हैं।
जो मेरे साथ ऐसा बर्ताव करने की कोशिश करेगा,
वही मुझसे यह खास सबक लेगा।
उसके सामने मैं अपनी यह पोटली खोलूंगी,
इसमें रखे मूंग को उसकी छाती पर दलूंगी।‘

Sunday 30 January 2011

सिक्‍के का दूसरा पहलू

एक झूठ के बाद पढें मेरी अगली कहानी ... सिक्‍के का दूसरा पहलू


आज इस व्‍हील चेयर पर बैठे हुए मुझे एक महीने हो गए थे। अपने पति से दूर बच्‍चों के सान्निध्‍य में कोई असहाय इतना सुखी हो सकता है , यह मेरी कल्‍पना से परे था। बच्‍चों ने सुबह से रात्रि तक मेरी हर जरूरत पूरी की थी। मैं चाहती थी कि थोडी देर और सो जाऊं , ताकि बच्‍चे कुछ देर आराम कर सके , पर नींद क्‍या दुखी लोगों का साथ दे सकती है ? वह तो सुबह के चार बजते ही मुझे छोडकर चल देती। नींद के बाद बिछोने में पडे रहना मेरी आदत न थी और आहट न होने देने की कोशिश में धीरे धीरे गुसलखाने की ओर बढती , पर व्‍हील चेयर की थोडी भी आहट बच्‍चों के कान में पड ही जाती और वे मां की सेवा की खातिर तेजी से दौडे आते , और मुझे स्‍वयं उठ जाने के लिए फिर मीठी सी झिडकी मिलती।


स्‍कूल जाने से पहले वे मेरे सारे काम समाप्‍त कर और मेरी सारी जरूरतों की चीजों को सहेजकर जाते , ताकि जरूरत पडने पर वह वस्‍तु उचित स्‍थान पर मिल जाए। स्‍कूल से आकर भी बच्‍चे मेरी सारी समस्‍याओं को सुनते और समाधान करते, रसोई के सारे कार्य और घर गृहस्‍थी के कार्य तो उनके हिस्‍से में थे ही। एक महीने से मैं अपनी लाचार हालतमें दोनो बच्‍चों के क्रियाकलापों को ही देख रही थी। क्‍यूंकि मेरे दोनो पैरों में प्‍लास्‍टर था और मैं उठने बैठने से भी लाचार हो गयी थी। ये तो व्‍हील चेयर की ही मेहरबानी थी कि घर के सभी हिस्‍सों में घूम घूमकर अपने शरीर के साथ ही साथ मन और दिमाग को भी चलायमान करने में मैं समर्थ हो पा रही थी , अन्‍यथा मेरी और भी बुरी हालत होती।

आज सिद्धांत के आने की प्रतीक्षा में बैठी बरामदे में बैठी जाडे के मीठी धूप का आनंद ले रही हूं। दोनो बच्‍चे ऋचा और ऋषभ पापा को लेने स्‍टेशन गए हुए हैं। दिल्‍ली से आनेवाली गाडी तो तीन बजे उसके शहर पहुंच जाती है , इस हिसाब से साढे तीन बजे उसे घर पहुंच जाना चाहिए था , पर अभी तो ढाई ही बजे हैं , इस तरह पूरे एक घंटे देर है , फिर गाडी का भी एकाध घंटे देर आना कोई नई बात नहीं , इस तरह पूरे दो घंटे का इंतजार करना पड सकता है मुझे। दो घंटे की देरी सोंचकर ही मेरे चेहरे पर उदासी छा गयी। इतना इंतजार करना व्‍हील चेयर पर बैठे किसी भी व्‍यक्ति के लिए बहुत मुश्किल है। यदि मैं अच्‍छी हालत में होती , तो रसोई में जाकर सिद्धांत का पसंदीदा व्‍यंजन ही बना लेती। वैसे वे खाने पीने के इतने शौकीन भी नहीं कि उनकी याद में थोडा समय रसोई में भी काटा जा सके।



कुछ सोंचकर मैं अंदर गयी और बुनाई का सामान लेकर बाहर आयी। इस एक महीने में बुनाई ही मेरी सच्‍ची सहेली बन गयी है। जब भी मन नहीं लग रहा होता है , बुनाई हाथ में आ जाती है। इस एक महीने में मैंने कितने ही स्‍वेटर बना डाले हैं। बेटे के लिए बन रहे स्‍वेटर में मेरे हाथ तेजी से चलने लगे। मुझे याद आया, सिद्धांत का ऐसा इंतजार मैंने कभी नहीं किया है। अबतक उनके घर में पहुंचने मात्र की खबर से ही मेरी स्‍वतंत्रता में खलल दिखाई पडती थी, चाहे मैं अपने मायके में होऊं , ससुराल में या फिर अपने घर पर।


ऐसी बात नहीं थी कि उनमें कोई अवगुण था या उनके चरित्र में कोई गडबडी थी , बात बस इतनी सी थी कि अभी तक उनके विचारों से मेरे विचारों का तालमेल नहीं हो सका था। सच तो यह है कि मैं ही अभी तक उन्‍हें कोसती आ रही थी, उन्‍हें जाहिल, गंवार या नीचले स्‍तर का समझती आ रही थी। पता नहीं , किस ढंग से माता पिता ने उनका पालन पोषण किया था , न खाने पीने का ढंग , न ही पहनने ओढने का सलीका , न घूमने फिरने या पिक्‍चर देखने की चाहत और न ही पत्‍नी या बच्‍चों को कोई उपहार देने का शौक। बात बात पर पैसे के महत्‍व को समझाता , आधुनिकता से संबंधित हर खर्च को फिजूलखर्ची समझता और हर प्रकार के खाते में पैसे जमा करने की चिंता में मेरे हर खर्च पर टोकाटोकी करनेकी आदत .. ऐसे पति से मुझे सामंजस्‍य बनाना होगा , मैंने सपने में भी नहीं सोंचा था।

हर कुंवारे दिल की तरह मेरे भी कुछ सपने थे। कोई राजकुमार मेरा पति होगा , जो मुझे जमीन पर पांव भी न धरने देगा, मेरे नाज नखरों को बर्दाश्‍त करेगा। मुझे नई नई जगहों पर घुमाएगा, फिराएगा, मैं नए स्‍टाइल के रंग बिरंगे कपडों और गहनों से सुसज्जित रहा करूंगी। मैने कुछ गलत भी तो नहीं सोंचा था , बचपन से ही पिताजी को मां की हर इच्‍छा पूरी करते पाया था। मां के मुंह से कुछ निकलने भर की देर होती , चाहे वो कपडे गहने हों, सौंदर्य प्रसाधन हों या घर गृहस्‍थी का समान, पापा को उसे खरीदने में थोडी भी देर नहीं होती। यहां तक कि मम्‍मी की हर इच्‍छा पापा इशारे सेसमझ जाते। बाजार में आयी नई से नई चीज भी हमारे घर में मौजूद रहती। पापा सिर्फ मम्‍मी की ही नहीं, हम दोनो भाई बहनों की भी इच्‍छा पूरी करते। शहर के स्‍तरीय स्‍कूल में हमारी शिक्षा पूरी हो रही थी और मम्‍मी पापा के सपने हमारे लिए बहुत ऊंचे थे। बेटा अफसर बनेगा और बेटी राज करेगी। पर्व, त्‍यौहार और छुट्टियों में हम सभी घूमते फिरते , बाजार करते , पिक्‍चर देखते और होटल से खाना खाकर ही घर लौटते थे। मम्‍मी के भाग्‍य से पडोसिनों को ईर्ष्‍या होती थी।

पापा की कमाई भी बहुत अधिक थी , ऐसी बात नहीं थी। वे भी एक बडे व्‍यवसायी नहीं , ईमानदार सरकारी अफसर ही थे। पर नौकरी करनेवालों को तनख्‍वाह तो इतनी मिल ही जाती है कि नियोजित परिवार आराम से गुजर बसर कर सके। परिवार के किन्‍हीं अन्‍य लोगों का दायित्‍व पापा पर नहीं था। दादाजी का पेंशन दादा जी और दादी जी के गांव में गुजारे के लिए काफी था। हमारे लिए गांव से भी आवश्‍यकता के बहुत सामान आ जाया करते थे। पापा और मम्‍मी दोनो ही खाओ पीओ और मौज करो’ के सिद्धांत पर विश्‍वास रखते थे। उनके विचारों का पूरा प्रभाव हम दोनों भाई बहनों पर भी पडा थी। हम दोनो खाने पीने के शौकीन नित्‍य नए नए व्‍यंजनों की फरमाइश करते और जो घर पर नहीं बन पाता , उसे खाने होटल में चल दिया करते थे। इसी प्रकार हम पहनने ओढने के लिए नए डिजाइन और फैशन के कपडों का चुनाव करते और मम्‍मी पापा उन कपडों को खरीदते हुए उनके चुनाव की प्रशंसा करते। छुट्टियों में भी हम लोग बडे उत्‍साह से घुमने फिरने का कार्यक्रम बनाते और इसमें भी उनका पूरा सहयोग मिलता। ऐसी हालत में हमलोग पढाई में कब सामान्‍य से अतिसामान्‍य होते चले गए , इसका किसी को ध्‍यान भी नहीं रहा , विशेष की तो महत्‍वाकांक्षा भी नहीं थी। सिर्फ अच्‍छे स्‍कूल में एडमिशन करवाकर और समय पर फी देकर मम्‍मी पापा अपने कर्तब्‍यों की इतिश्री समझते रहे।

जैसे ही मैंने बी ए की परीक्षा दी , मेरे विवाह की चर्चा जोर शोर से शुरू हुई। शीघ्र ही एक घर वर पापा को पसंद आ गया और मेरी शादी पक्‍की हो गयी। पढाई लिखाई के क्षेत्र में आगे कुछ कर पाने की क्षमता तो मुझमें थी नहीं, शीघ्र ही विवाह के लिए तैयार हो गयी और एक माह के अंदर दुल्‍हन बनकर ससुराल आ गयी। सिद्धांत भी उसी की तरह अपने घर का इकलौता था , विवाह में दोनो परिवार का उत्‍साह देखने लायक था। विवाह के कुछ दिनों बाद जब रिश्‍तेदारों की भीड छंट गयी , तो मैं सिद्धांत के साथ शहर आ गयी थी। पिताजी ने घर गृहस्‍थी बसाने के लिए जो भी उपहार दिए थे , सब मेरे साथ ही आ गए थे। पापा ने मेरी शादी में पूरा पी एफ खाली कर दिया गया था। जिस बेटी का पालन पोषण इतने नखरों के साथ किया गया था , उसके कपडे, गहने और गृहस्‍थी का अन्‍य सामान भी तो आधुनिकतम होने ही चाहिए। अपनी बन्‍नों की शादी में उन्‍होने कोई कसर नहीं छोडी थी। आखिर लडका भी तो उन्‍हें सर्वगुणसंपन्‍न मिला था। मम्‍मी और पापाजी की नजरों में पढा लिखा , सुंदर, शिष्‍ट , शालीन , चरित्रवान ,, सरकारी नौकरी करता हुआ अपने परिवार का इकलौता लडका था सिद्धांत।

विवाह के बाद बाजार से नई नई चीजें लाकर अपनी घर गृहस्‍थी को संवारने में मुझे बडा आनंद आता , पर शाम को घर आते ही सिद्धांत उन चीजों की प्रशंसा न कर व्‍यर्थ पैसे न बर्वाद करने की सलाह देते नजर आते। इससे कई दिनों तक मेरा मन उखडा रहता , पर आदतन फिर उत्‍साहित होकर बाजार करती और फिर नसीहत शुरू। कितनी कठिनाई से मैंने अपनी इस आदत पर काबू पाया था। उसके बाद तो बाजार में दिखाई पडनेवाली हर खूबसूरत वस्‍तु को देखकर सिर्फ मन मसोसकर ही रह जाती हूं। किसी पडोसन के घर नई टी वी , नए डिजाइन का फ्रिज या वाशिंग मशीन आया है , फोन लग गया है ... इस तरह की किसी भी चर्चा से सिद्धांत को सख्‍त नफरत है। इसमें से कुछ दिखावे की चीज है और कुछ शरीर को आलसी बनाने वाली। कभी कभी तो मैं रो ही पडती थी , पता नहीं लाड प्‍यार से पालन पोषण का यह चिन्‍ह था या मेरी उथली मानसिकता का।

पर दो वर्षों के अंतराल में मेरे दोनो बच्‍चों ने जन्‍म लेकर मेरी गोद खुशियों से भर दी थी। मेरे तो हर्ष का ठिकाना ही न था , सिद्धांत भी बडे उत्‍साहित थे। गर्भवती हालत में तो उन्‍होने मेरी देखभाल अच्‍छे से की ही , छोटे बच्‍चों की देख रेख में भी उन्‍होने मेरा पूरा हाथ बंटाया। इस कारण बच्‍चे तो खूबसूरत और तंदुरूस्‍त हुए ही , मेरा अपना स्‍वास्‍थ्‍य भी काफी अच्‍छा रहा। पर फिर भी वे मेरे दिल से अपने लिए कडुवाहट न निकाल सके। बच्‍चें की पढाई लिखाई पर भी पूरा ध्‍यान सिद्धांत ने ही दिया। शहर के सबसे अच्‍छे स्‍कूल में बच्‍चों का दाखिला और हर वर्ष कक्षा में अच्‍छे स्‍थान लाने का श्रेय सिद्धांत को ही जाता है। ऑफिस से आने के बाद दो घंटे बच्‍चों के साथ बैठकर उनकी समस्‍या सुलझाना वे नहीं भूलते। इसी कारण शाम को कहीं घूमने फिरने का भी कोई कार्यक्रम नहीं बन पाता। प्रारंभ में कभी कोई दंपत्ति घूमने आ भी जाते थे , पर धीरे धीरे उन्‍होने ये सिलसिला बंद ही कर दिया है। मनोरंजन , फिल्‍म , पर्यटन ... ये सब इनके लिए महत्‍वहीन है। बच्‍चों पर भी पिता के विचारों का पूरा प्रभाव है , यह सोंचकर मेरा क्षुब्‍ध और आशंकित रहा करना जायज भी था।

मुझे याद आया , एक शाम बच्‍चों ने जब नाश्‍ता मांगा था , मैंने फटाफट एक व्‍यंजन बनाया था। बच्‍चे खा ही रहे थे कि ये भी पहुंच गए थे। इनका हिस्‍सा भी निकालकर रख दिया था। बच्‍चों ने इतने चाव से नाश्‍ता किया कि मैं खुश ही हो गयी थी , मैने उनकी ओर भी प्‍लेट बढा दिया था और खुद भी खाने बैठ गयी थी। खाते हुए भी सिद्धांत की मुखमुद्रा गंभीर बनी रही , तो प्रशंसा सुनने की इच्‍छा से मैं पूछ बैठी .. ‘नाश्‍ता कैसा है ?’उन्‍होने उदासीनता पूर्वक जबाब दिया, ‘अच्‍छा है , पर बच्‍चों को ऐसी तली भूनी चीजें मत खिलाओ। उन्‍हें दूध में बनी या उबली चीजें ही खिलाया करो। इनका स्‍वास्‍थ्‍य अच्‍छा रहेगा।‘ यह सुनकर मुझपर तो मानो वज्रपात ही हो गया था। जरूर इनकी कंजूसी की भावना ने ही ऐसा जबाब दिया है , मुझे याद आया , जब यह व्‍यंजन बनाना मैंने अपनी सहेली के यहां सीखा था , दूसरे ही दिन घर में इसे बनाने की इच्‍छा प्रकट की थी , मां ने अनुमति भी दे दी थी , पहली ही बार यह इतना स्‍वादिष्‍ट बना था , परिवार में सबने एक साथ बैठकर इस व्‍यंजन का मजा लिया था और यहां इसी व्‍यंजन को बनाने पर उन्‍होने प्रशंसा में एक शब्‍द भी नहीं कहा। उसके बाद मैंने कोई विशेष व्‍यंजन बनाना तक छोड दिया था।

मैंने फिर से घडी पर नजर डाला , साढे तीन बज गए थे। अभी तक उन लोगों के नहीं पहुंचने का अर्थ यह था कि गाडी थोडी लेट ही होगी। उस दिन मैं कितनी खुश थी , जब सिद्धांत ने उसे बताया था कि वह एक महीने के लिए ट्रेनिंग पर बाहर जा रहा है। मैंने सोंचा था , कुछ दिन तो अपने ढंग से जीने को मिलेंगे। सुबह 8 बजे उन्‍हें रवाना होना था , खुशी खुशी उनके जाने की तैयारी में लग गयी। कुछ सूखे नाश्‍ते साथ में पैक भी कर दिए थे और बढिया खाना खिलाकर उन्‍हें विदा किया था। कभी कभार तो ऐसा मौका मिलता है , वैसे तो घर के एक एक काम में इनकी निगाह रहती है ,हर बात में टोकाटोकी की आदत। आज रविवार था , बच्‍चे अपने कमरे में पढ रहे थे। उन्‍हें स्‍टेशन से छोडकर आयी तो घर में बिल्‍कुल शांति थी। एक महीने मैं अपने ढंग से घर चलाऊंगी , रसोई में जाकर सारे डब्‍बों को चेक किया , समाप्‍त हुए सामानों की लिस्‍ट तैयार की , पूरे महीने का मीनू तैयार किया , घूमने फिरने का कार्यक्रम बनाया , आज मेरा उत्‍साह देखते ही बनता था।

इस तरह के मौकों को मैं कभी भी बर्वाद नहीं करती थी। मेरे जीवन में पहली बार ऐसा मौका विवाह से पहले ही आया था। पंद्रह दिनों के लिए मममी और पापा हम दोनो भाई बहनों को छोडकर बाहर चले गए थे , हमारी परीक्षा का समय था , इसलिए छोडना उनकी मजबूरी थी। पढने की चिंता तो मम्‍मी और पापा को थी , हमने तो पुस्‍तकों को हाथ भी नहीं लगाया। कॉलेज की क्‍लासेज एटेंड करने के अलावे सारा दिन टी वी पर प्रोग्राम या फिल्‍में देखतें , शहर के मशहूर जगहों पर घुमते फिरते और कभी होटल तो कभी घर पर ही बनाकर नए नए व्‍यंजनों का आनंद लेते। हम दोनों ने सारे राशन और पैसे पंद्रह दिनों में ही खत्‍म कर दिए थे। फिर कभी कभी ऐसा मौका जीवन में आता रहा। सुखद कल्‍पना में खोयी, काम में व्‍यस्‍त कपडे लेकर गुसलखाने में जाने के लिए आंगन की सीढियां उतर ही रही थी कि मेरा पांव फिसल गया और मैं विचित्र ढंग से गिर पडी।



चीख सुनकर दोनो बच्‍चे दौडे हुए आए , गाडी मंगवाई और मुझे लेकर अस्‍पताल पहुंचे। दोनो पैरों में फैक्‍चर होने के कारण प्‍लास्‍टर के अलावे कोई उपाय न था। कई दिनों तक अस्‍पताल में रहने के बाद ही मैं वापस घर आयी। मैं तो भावना शून्‍य हो गयी थी। इस दौरान बच्‍चों से कई बार पापा को बुलाने को कहा , पर बच्‍चे पापा की ट्रेनिंग में कोई खलल नहीं डालना चाहते थे। उन्‍होने अपनी पढाई के साथ साथ घर की अन्‍य व्‍यवस्‍था किस प्रकार की , कम से कम मेरी समझ के तो परे था। 17 वर्ष की बेटी और 15 वर्ष के बेटे के क्रियाकलापों से तो मैं दंग ही रह गयी थी। मम्‍मी पापा जब हमें छोडकर गए थे तो मेरी उम्र 21 वर्ष और भैया की 19 वर्ष की थी , पर हममें कितना बचपना था और इन दोनो बच्‍चों का बडप्‍पन , दायित्‍व का बोध .. निश्‍चय ही सिद्धांत के लालन पालन के ढंग का परिणाम था। पहले की बात होती , तो मैं इस बात से कुढ ही जाती , पर इन एक महीने में मुझे पति की हर सीख का अर्थ समझ में आ गया था।

पति के व्‍यवहार से जब भी मैं क्षुब्‍ध होती , मन का बोझ हल्‍का करने के लिए अलका के पास पहुंच जाया करती थी। वह मेरी बचपन की एकमात्र सहेली थी , जो हमारे ही शहर में रहती थी , इस कारण उससे अभी तक मेरा संपर्क बना हुआ था। उम्र में एक होने के बावजूद वह विचारों से परिपक्‍व थी और हमेशा सही राय दिया करती थी। सिद्धांत की सारी शिकायतें सुनने के बाद भी वह स्थि‍रता से एक ही जबाब देती ... ‘शालू , तुम सिक्‍के के एक ही पहलू को देखा करती हो, जब तुम्‍हारे पति में कोई कमजोरी नहीं, तो व्‍यर्थ परेशान
रहती हो। अपने परिवार के लिए समर्पित पति पर व्‍यर्थ का दोषारोपण करती हो। अगर वो पैसे जमा करता है , तो तुम्‍ही लोगों के लिए न। जिस दिन तुम्‍हें सिक्‍के का दूसरा पहलू दिखाई पडेगा, तुम्‍हारे जीवन में सुख ही सुख होगा।‘ पर उस समय मेरी समझ में अलका की कोई बात नहीं आ सकी थी। भला तिल तिल कर मरने के बाद भी सुख नसीब होता है क्‍या ? तब मुझे क्‍या पता था कि सिक्‍के के दूसरे पहलू के दर्शन के लिए उनकी अनुपस्थिति में इतनी विषम परिस्थितियां उपस्थित हो जाएंगी।

अचानक ऑटो की आवाज सुनकर मेरी तंद्रा भंग हुई। तीनो ऑटो से उतरकर तेजी से मेरी ओर बढे। सिद्धांत को बच्‍चों से ही सारी बाते मालूम हो चुकी थी, सहानुभूति जताते हुए बोले .. ‘इतनी बडी बात हो गयी और तुमलोगों ने मुझे खबर भी नहीं की।‘ ’बच्‍चों ने मेरी बात नहीं मानी, मैने उन्‍हें आपको खबर करने को कहा था।‘ मैने शांत होकर कहा। ’बच्‍चे तुम्‍हारी बात कहां से मानेंगे, कभी मैने मानने ही नहीं दिया।‘ बरामदे में पडी कुर्सी पर बैठते हुए उन्‍होने बच्‍चों की ओर देखा। ’अच्‍छा किया , जो आपने उन्‍हें मेरी बात मानने नहीं दी , मेरी बात मानकर बच्‍चे बर्वाद ही हो जाते। मैने सोंचा भी नहीं था कि आपके पालन पोषण का ढंग इन्‍हें इतना परिपक्‍व बना देगा। इनके एक महीने के क्रियाकलाप से न सिर्फ मैं , वरन् मुझे देखने के लिए यहां आने जाने वाले हर व्‍यक्ति प्रभावित हुए है। इन्‍होने मुझे कोई दबाब न देते हुए मेरे इलाज से लेकर घर गृहस्‍थी तक का काम कुशलता पूर्वक संभाला है, इसका श्रेय सिर्फ आपको जाता है, पर मैने आपको हमेशा गलत समझा, इसका मुझे अफसोस है‘ मेरा स्‍वर भर्रा गया। ’अब बस भी करो मम्‍मी, सुबह का भूला शाम को वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते।‘ मेरे द्वारा अपनी गल्‍ती स्‍वीकार किए जाने से बेटी ऋचा आज बहुत खुश थी। ‘उसे तो पाया कहते हैं’ दीदी की हर बात की टांग खींचने वाले ऋषभ ने शैतानी से कहा। और फिर तीनो हंस पडे। उन तीनों की हंसी में आज पहली बार मैं भी शामिल हो गयी।