Wednesday, 10 August 2011

सच ही कहा गया है ..... भगवान केवल भक्‍त भाव के भूखे होते हैं !!

इस वर्ष के चारो सोमवार व्‍यतीत हो गए और मैं एक भी सोमवारी व्रत न कर सकी। इधर कुछ वर्षों से ऐसा ही हो रहा है , कभी काम की भीड और कभी तबियत के कारण सोमवारी व्रत नहीं कर पा रही हूं। हमारे धर्म में सावन महीने के सोमवार का बहुत म‍हत्‍व है। सावन के सोमवार को भगवान शिव और देवी पार्वती की पूजा की जाती है। भारत के सभी द्वादश शिवलिंगों पर इस दिन खास पूजा-अर्चना की जाती है. कहा जाता है सावन के सोमवार का व्रत करने से मनचाहा जीवनसाथी मिलता है और दूध की धार के साथ भगवान शिव से जो मांगो वह वर मिल जाता है. यही कारण है कि इस व्रत को कुंवारी कन्‍याएं काफी उत्‍साहित होकर करती हैं।

प्राचीन शास्त्रों के अनुसार सोमवार के व्रत तीन तरह के होते हैं। सोमवार, सोलह सोमवार और सौम्य प्रदोष। सोमवार के व्रत की चाहे जितनी भी सामग्रियां इकट्ठी कर ली जाएं , व्रत में अधिक नियम की जरूरत नहीं। भोले भाले शिव जी की पूजा का यह सोमवार व्रत भी बिल्‍कुल अपने मन मुताबिक किया जा सकता है। यही कारण है कि सावन का सोमवारी व्रत छोटी छोटी बच्चियां भी कर लेती हैं। हमारे गांव में सावन का सोमवारी व्रत लडकियों के लिए काफी उत्‍साह का त्‍यौहार होता था। गांव के पंडितों की मानने के कारण हमें काफी तैयारी करनी होती थी।

शनिवार का गांव में हाट लगता था , इसलिए इस दिन से ही तैयारी शुरू हो जाती थी। पूजा के लिए कम से कम पांच प्रकार के फल तो होने ही चाहिए। एक दो घर में मिल जाते , बाकी तो हमें खरीदने ही होते थे। अपने घर में दूध का इंतजाम न हो , तो ग्‍वाले के घर जाकर गाय के कच्‍चे दूध का इंतजाम करना होता। बाजार से भांग , कपूर आदि खरीदकर लाने होते। रविवार को सुबह सुबह अच्‍छी तरह नहाकर एक लोटे में जल , दूध और पुष्‍प लेकर मंदिर जाकर भगवान शिव और पार्वती जी पर चढाना होता था। उसके बाद दिनभर बिना प्‍याज लहसुन का शुद्ध खाना खाना होता था। 

हमारे गांव में भले ही सोमवार को शिवमंदिर का कपाट दो बजे के बाद ही खुलता था , सुबह से ही हमलोग पूजा की तैयारी में लग जाते थे। पूजा में कोई कमी न रह जाए , सुबह से ही बेलपत्र , धतुरे और धतूरे के फूल और अन्‍य फूल , जो हमारे बगीचे में नहीं होती , के लिए हमलोग भूखे प्‍यासे भटकते रहते। दो बजे के बाद स्‍नान कर हम पूजा का थाल सजाते। उसके बाद नए कपडे पहनकर शिवालय जाते। शिव परिवार को जलधारा , दूध, दही, शहद, शक्कर, घी से स्नान कराकर, गंध, चंदन, फूल, रोली, सिंदूर के साथ साथ धूप अगरबत्‍ती दिखाते हुए फलों का भोग लगाते। मंदिर में एक बूढी ब्राह्मणी होती , जो अस्‍पष्‍ट मंत्रों का उच्‍चारण करती जाती। शिव जी को अर्पित करने से पहले वे थोडा दूध अपने घर से लाई बाल्‍टी में जमा करती जातीं। प्रसाद तो हम उनके लिए अलग से ले जाते थे। मंदिर से बाहर निकलते ही प्रसाद के आस में बहुत महिलाएं और बच्‍चे खडे मिलते। उन्‍हें प्रसाद देकर हम वापस लौटते।

दिनभर के भूखे प्‍यासे हम बच्चियों की सेवा के लिए सबकी मम्‍मी पूरी तैयारी में होती। हमारे गांव में सोमवारी व्रत में दिनभर में एक बार ही बिना नमक का शुद्ध खाना खाने का विधान है , यहां तक की चाय पानी भी एक ही बैठकी में ले लेना होता। छोटी छोटी बच्चियां भी पूजा से पहले तो नहीं, पूजा के बाद भी दुबारा पानी नहीं पीती। दूसरे दिन भी हमें सुबह सुबह खाने की आजादी नहीं थी , स्‍नानकर पहले शिव पार्वती जी की पूजा कर उनसे इजाजत लेकर ही खाने की छूट होती। इस तरह हमलोगों का तीन दिन का नियम चलता। पर तीसरे दिन हमारे लिए खाने पहने की विशेष व्‍यवस्‍था कि जाती।

एक बार सावन के महीने में मामाजी के यहां थी , तो वहां महिलाओं को इतने नियम से सोमवारी का व्रत करते नहीं पाया। वहां सालोभर बिना प्‍याज लहसून के खाना बनता था , इसलिए रविवार को नियम से खाने की कोई जरूरत नहीं होती। सोमवार को दिनभर सबका फलाहार ही चलता , बस दोनो भाइयों के लिए खाना बनाने की जरूरत होती। वहां सुबह से ही शिवमंदिरों में भीड लगती थी , इसलिए सुबह ही सब पूजा कर लेते , पूजा के बाद प्रसाद और चाय ले लेते , फिर फलाहार तैयार करते।

भाइयों का खाना निबटाकर हमलोग तीन बजे के लगभग फलाहार करते। दिनभर पानी चाय की कोई मनाही नहीं थी। सबसे छोटी बहन तो फलाहार कर टिफिन में फलाहार लेकर स्‍कूल जाती आकर फिर दो तीन बार फलाहार ही करती। यानि जिसको जैसे इच्‍छा हो , वैसे खाओ पीओ। एक बार रांची में भी एक रिश्‍तेदार के यहां रूकने का मौका मिला , वहां भी ऐसे ही व्रत होते देखा। बहुत परिवारों में तो कुट्टू के आटे और सेंधा नमक का प्रयोग करते हुए पूरा फलाहार खाना बना लिया जाता है।

ससुराल में एक बार सावन के सोमवारी व्रत को करने को पूरा घर तैयार हो गया। मेरे ससुराल में चाय पी पीकर दिन काटने में किसी को दिक्‍कत नहीं है , पूजा करके चाय के सहारे दिनभर काट लिया। शाम को मेरे पूछने पर कि खाना क्‍या बनाऊं , दोनो भाइयों ने बिना प्‍याज लहसून के चावल दाल सब्‍जी बनाने को कहा। सोमवारी व्रत में चावल दाल ?? मैं तो चौंक गयी। इनलोगों ने बताया कि दिनभर के भूखे प्‍यासे इनलोगों की भूख फलाहार से शांत नहीं होती थी , इसलिए ये हॉस्‍टल में चावल दाल ही खाते आए हैं। भोले भाले शंकर बाबा की पूजा और व्रत हर जगह अलग अलग यानि मनमाने ढंग से ही होती आ रही है। भोले बाबा को इससे कोई अंतर नहीं पडता , सच ही कहा गया है , भगवान केवल भक्‍त भाव के भूखे होते हैं !!

6 comments:

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

बिलकुल सही कहा।

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बारात उड़ गई!
ब्‍लॉग के लिए ज़रूरी चीजें!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सच है भगवान तो भक्ति भाव के भूखे हैं ..बाकी सारे नियम तो इंसान ने अपनी सुविधानुसार बनाये हैं ... अच्छा लगा संस्मरण

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

जी हाँ!
भगवान केवल भक्त के भाव के ही भूखे होते हैं!

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

बच्चे थे तो फ़लाहार के लिए व्रत कर लेते थे, फ़िर शाम को खाना भी खा लेते थे।

भोले बाबा का व्रत ऐसा ही होता है। जैसा चाहो वैसा कर लो। बाबा भी प्रसन्न भक्त भी प्रसन्न

मनोज कुमार said...

इस ओस्ट को पढ़कर ... कई बातें याद आ गईं ...
१. हम जब बिहार में होते थे तो उपवास रखते थे।
२. लगभग हर दूसरे तीसरे घर में साज-सज्जा के साथ सोमवारी मनाई जाती थी। कुन्नी को रंगा जाता था, विभिन्न रंगों में। और फिर उससे तरह के चित्र बनाए जाते थे।
३. एक फ़व्वारा ज़रूर बनाया जाता था।
४. घर परिवार से कोई न कोई बोल बम ज़रूर जाता था।

आह! सब छूट गया। हम भी कहां कुछ रख पाए।

वाणी गीत said...

सही है , हम तो कई बार मंदिर भी नहीं जा पाते...
सर झुककर याद कर लेते हैं उस ऊपर वाले को !