सकारात्मक का मतलब क्या होता है, सकारात्मक और नकारात्मक सोच क्या है, सकारात्मक सोच कैसे बनाये, सकारात्मक सोच के फायदे क्या हैं, सकारात्मक सोच के उपाय क्या कर सकते हैं, खुद को, दिमाग को पॉजिटिव कैसे रखें - कुल मिलाकर इस ब्लॉग में पॉजिटिव थिंकिंग टिप्स यानि सकारात्मक सोच पर निबंध और सकारात्मक दृष्टिकोण मिलेगा आपको !
Thursday 29 April 2010
व्यवसायी के इलाज के लिए रखे गए 65 लाख रूपए बचे ही थे .. उसका उपयोग क्यूं नहीं हुआ ??
चार वर्ष पूर्व एक व्यवसायी को कैंसर हो गया , उन्होने व्यवसाय में से एक करोड रूपए निकालकर अलग रखे। इस एक करोड रूपयों को निकाल देने से उनके व्यवसाय में रत्तीभर का भी फर्क न पडनेवाला था , इसलिए पूरी निश्चिंति से इलाज करवाते रहें । तीन वर्ष तक नवीनतम दवाइयों और ऑपरेशन के बल पर वे सामान्य जीवन जी सकने में समर्थ रहें , इन तीन वर्षों में अनुमानत: 35 लाख रूपए खर्च हो चुके थे , पर उसके बाद वे स्वर्ग सिधार गए। लोगों का मानना है कि दूसरा कोई होता तो कब उसके प्राण चले गए होते , इन्होने तो पैसों के बल पर तीन वर्ष काट लिए। पर मुझे ये बात पच नहीं रही , यदि वे पैसों के बल पर जीवित रहे , तो उनके पास तो इलाज के लिए रखे गए 65 लाख रूपए बचे ही थे , उसका उपयोग क्यूं नहीं हुआ ??
Thursday 22 April 2010
झूठ और सच
झूठ के पांव होते ही नहीं हैं ,
कभी कहीं भी पहुंच सकता है।
पर बिना पांव के ही भला वह ,
फासला क्या तय कर सकता है ?
भटकते भटकते , भागते भागते ,
उसे अब तक क्या है मिला ?
मंजिल मिलनी तो दूर रही ,
दोनो पांव भी खोना ही पडा !!
सच अपने पैरों पर चलकर ,
बिना आहट के आती है।
निष्पक्षता की झोली लेकर ,
दरवाजा खटखटाती है।
न्याय, उदारता की इस मूरत को ,
इस कर्तब्य का क्या न मिला ?
हर युग में पूजी जाती है ,
हर वर्ग में इसे सम्मान मिला !!
सत्य पर कदम रखने वालों को,
कठिन पथ पे चलना ही पडेगा।
विघ्न बाधाओं पर चल चल कर,
मार्ग प्रशस्त करना ही पडेगा।
राम , कृष्ण , बुद्ध और गांधी को,
बता जीवन में क्या न मिला ?
आत्मिक सुख, शांति नहीं बस,
जीवन को अमरत्व भी मिला !!
कभी कहीं भी पहुंच सकता है।
पर बिना पांव के ही भला वह ,
फासला क्या तय कर सकता है ?
भटकते भटकते , भागते भागते ,
उसे अब तक क्या है मिला ?
मंजिल मिलनी तो दूर रही ,
दोनो पांव भी खोना ही पडा !!
सच अपने पैरों पर चलकर ,
बिना आहट के आती है।
निष्पक्षता की झोली लेकर ,
दरवाजा खटखटाती है।
न्याय, उदारता की इस मूरत को ,
इस कर्तब्य का क्या न मिला ?
हर युग में पूजी जाती है ,
हर वर्ग में इसे सम्मान मिला !!
सत्य पर कदम रखने वालों को,
कठिन पथ पे चलना ही पडेगा।
विघ्न बाधाओं पर चल चल कर,
मार्ग प्रशस्त करना ही पडेगा।
राम , कृष्ण , बुद्ध और गांधी को,
बता जीवन में क्या न मिला ?
आत्मिक सुख, शांति नहीं बस,
जीवन को अमरत्व भी मिला !!
Tuesday 20 April 2010
आखिर 'वेद अमृत' जैसी स्वच्छ धार्मिक पत्रिकाएं क्यूं नहीं चलती हैं ??
वर्ष 2002 तक या उसके बाद भी मैं कुछ घरेलू पत्रिकाएं पढा करती थी। 2002 के दिसंबर माह में एक पत्रिका 'मेरी सहेली' के साथ 'वेद अमृत' नाम की पत्रिका का लघु संस्करण प्राप्त किया था। उस छोटे संस्करण में नाम मात्र के कई लेख और कहानियां होने के बावजूद मैं इस पत्रिका के लक्ष्य को समझ गयी थी और अगले ही महीने इसका प्रवेशांक बाजार से मंगवा लिया था। प्रवेशांक पढने के बाद मेरी प्रतिक्रिया इन शब्दों में संपादक जी के पास पहुंची थी , जिसे उन्होने 'वेद अमृत' के फरवरी माह के अंक में 'आपके विचार' में प्रकाशित भी किया था .....
पिछले महीने मेरी सहेली के साथ वेद अमृत का लघु संस्करण प्राप्त किया उसे पढने के बाद वेद अमृत के प्रवेशांक को खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर पायी। आज बाजार में फैली अधिकांश पत्रिकाएं धर्म , ज्ञान , ज्योतिष और वास्तु के नाम पर कुछ भी छापती जा रही है और कुछ पत्रिकाएं तो पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर धर्म की टांग ही तोड देने को उद्दत हैं। ऐसी परिस्थितियों में आपके संपादकीय के समन्वयवादी दृष्टिकोण ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। शायद आपकी पत्रिका का लक्ष्य उन पुराने मोतियों को चुनकर पिरोकर वह माला तैयार करनी है , जो नयी पीढी के नए दृष्टिकोण के अनुरूप हों। सभी लेख संपादकीय में कहे गए लक्ष्य को पूरा करने में समर्थ हैं। शास्त्र को शस्त्र न बनाओ , सत्य की रक्षा , अभिशाप या वरदान जैसी कहानियां जहां कम उम्र के पाठकों तक को प्राचीन कथाओं के माध्यम से संदश देने में समर्थ हैं , वहीं जीवन पथ जैसी कहानी आज के युग की जरूरत। अन्य लेख भी जितने सहज ढंग से ज्ञान का भंडार मस्तिष्क में उंडेलते हैं , उसे देखकर आपकी पूरी टीम के लेखन और संपादन पर गर्व होता है।
सृष्टि निर्माता ,प्रकृति , अल्लाह या भगवान ... जो भी कह दिया जाए , पर एक नियम या व्यवस्था के आगे हम सब नतमस्तक हैं। कितने ही तरह की प्राकृतिक आपदाओं को हम आज के युग में भी नहीं रोक पाए हैं और जब भी किसी घटना पर हमारा वश नहीं चलता , उसे प्रकृति की इच्छा मान लेते हैं। आखिर यह कमजोरी हर मनुष्य के पास कभी कभी क्यूं उपस्थित होती हैं , जब किसी संयोग की कमी से उसका काम नहीं होता और कभी वहीं संयोग दूसरों को काम कर डालता है।
धर्म की उत्पत्ति कभी भी सार्वदेशिक और सार्वकालिक नहीं हुई। इसलिए दूसरे देश या काल में भले ही वह अनुपयोगी हो , पर जिस युग और देश में इसकी संहिताएं तैयार की जाती हैं , यह काफी लोकप्रिय होता है। यह बात अलग है कि धर्म हमेशा मध्यमवर्गीय लोगों की जरूरतों को घ्यान में रखकर बनाया जाता है , क्यूंकि उच्चवर्गीय लोगों की संख्या और निम्नवर्गीय लोगों की भी समस्याएं नाममात्र की होती हैं। सभ्यता और संस्कृति मध्यमवर्गीय लोगों से अधिक प्रभावित होती हैं, इसी कारण मध्यम वर्ग ही हमेशा दबाब में होता है और इस दबाब से बचाने के लिए कोई भी विकल्प तैयार किया जाए , तो उसे अपनाने के लिए पूर्ण तौर पर तैयार होता है। कालांतर में इसे ही उनका धर्म मान लिया जाता है।
धर्माचरण का नकल करनेवाले कुछ पाखंडियों , धोखेबाजों और कपटी लोगों की पोल कुछ ही दिनों में खुल जाती है , जबकि महात्मा गांधी , मदर टेरेसा , ईसा मसीह , दयानंद सरस्वती , स्वामी विवेकानंद , गौतम बुद्ध , महावीर , गुरू नानक , चैतन्य महाप्रभु आदि अनेकानेक लोग धर्माचरण द्वारा युगों युगो तक पूजे जाते हैं। यदि उनके विचारों में अच्छाई नहीं होती , समाज के लिए सोंचने का संदेश नहीं होता , तो ऐसा क्यूं होता ??
आज कुछ पुस्तको को व्यवस्थित करने के क्रम में मुझे वेद अमृत के सभी पुराने अंक मिले। फरवरी 2006 तक का अंक मेरे पास मौजूद है , जिसमें से प्रत्येक की कीमत मात्र 15 रूपए लिखी गयी है। उसके बाद के अंक भी कहीं पर छुपे हो सकते हैं , जो बाद में मिल जाए। पर इसके कुछ ही दिनों बाद वेद अमृत का प्रकाशन बंद हो गया, जाहिर सी बात है कि पत्रिकाएं बिक नहीं पा रही होंगी। इतने कम कीमत में बडों के लिए यह पत्रिका तो लाभप्रद थी ही , इसमें बाल जगत के अंतर्गत आनेवाली कहानी को मैं बच्चों को अवश्य पढाया करती थी , प्रत्येक में कुछ न कुछ संदेश छुपा होता था। समाज में कोई अच्छी शुरूआत हो और विद्वान लोगों द्वारा उसका यही हश्र हो , तो हमारे समाज के लोग तो भटकेंगे ही ।
आज के आर्थिक युग में लोगों की सोंच बिल्कुल बदल गयी है , विज्ञान के बडे बडे आविष्कारों का उपयोग करना मात्र उनका लक्ष्य हो गया है , साधन ही साध्य बन गया है। वे न तो खुद अच्छा साहित्य पढना चाहते हैं और न ही बच्चों को पढाना चाहते हैं।बाद में आनेवाली पीढी को दोष देते हम नहीं थकते। बस प्रोफेशनल सफलता ही हर बात का मापदंड बन गया है , लोगों ने अपने को इतना सिमटा लिया है कि जीवन के अंतिम चरणों में भी बिल्कुल अनुभवहीन दिखते हैं। आज धर्म को भले ही गलत मान लिया जाए और इसकी आवश्यकता को नकारा जाए , पर आज के युग में भी एक धर्मगुरू की आवश्यकता है ही , जो लोगों के भटकते दिलोदिमाग को शांत करने की कोशिश करे , ताकि पूरी दुनिया चैन से जी सके। सही कहा गया है , गुरू के बिना ज्ञान मुश्किल ही होता है।
पिछले महीने मेरी सहेली के साथ वेद अमृत का लघु संस्करण प्राप्त किया उसे पढने के बाद वेद अमृत के प्रवेशांक को खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर पायी। आज बाजार में फैली अधिकांश पत्रिकाएं धर्म , ज्ञान , ज्योतिष और वास्तु के नाम पर कुछ भी छापती जा रही है और कुछ पत्रिकाएं तो पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर धर्म की टांग ही तोड देने को उद्दत हैं। ऐसी परिस्थितियों में आपके संपादकीय के समन्वयवादी दृष्टिकोण ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। शायद आपकी पत्रिका का लक्ष्य उन पुराने मोतियों को चुनकर पिरोकर वह माला तैयार करनी है , जो नयी पीढी के नए दृष्टिकोण के अनुरूप हों। सभी लेख संपादकीय में कहे गए लक्ष्य को पूरा करने में समर्थ हैं। शास्त्र को शस्त्र न बनाओ , सत्य की रक्षा , अभिशाप या वरदान जैसी कहानियां जहां कम उम्र के पाठकों तक को प्राचीन कथाओं के माध्यम से संदश देने में समर्थ हैं , वहीं जीवन पथ जैसी कहानी आज के युग की जरूरत। अन्य लेख भी जितने सहज ढंग से ज्ञान का भंडार मस्तिष्क में उंडेलते हैं , उसे देखकर आपकी पूरी टीम के लेखन और संपादन पर गर्व होता है।
सृष्टि निर्माता ,प्रकृति , अल्लाह या भगवान ... जो भी कह दिया जाए , पर एक नियम या व्यवस्था के आगे हम सब नतमस्तक हैं। कितने ही तरह की प्राकृतिक आपदाओं को हम आज के युग में भी नहीं रोक पाए हैं और जब भी किसी घटना पर हमारा वश नहीं चलता , उसे प्रकृति की इच्छा मान लेते हैं। आखिर यह कमजोरी हर मनुष्य के पास कभी कभी क्यूं उपस्थित होती हैं , जब किसी संयोग की कमी से उसका काम नहीं होता और कभी वहीं संयोग दूसरों को काम कर डालता है।
धर्म की उत्पत्ति कभी भी सार्वदेशिक और सार्वकालिक नहीं हुई। इसलिए दूसरे देश या काल में भले ही वह अनुपयोगी हो , पर जिस युग और देश में इसकी संहिताएं तैयार की जाती हैं , यह काफी लोकप्रिय होता है। यह बात अलग है कि धर्म हमेशा मध्यमवर्गीय लोगों की जरूरतों को घ्यान में रखकर बनाया जाता है , क्यूंकि उच्चवर्गीय लोगों की संख्या और निम्नवर्गीय लोगों की भी समस्याएं नाममात्र की होती हैं। सभ्यता और संस्कृति मध्यमवर्गीय लोगों से अधिक प्रभावित होती हैं, इसी कारण मध्यम वर्ग ही हमेशा दबाब में होता है और इस दबाब से बचाने के लिए कोई भी विकल्प तैयार किया जाए , तो उसे अपनाने के लिए पूर्ण तौर पर तैयार होता है। कालांतर में इसे ही उनका धर्म मान लिया जाता है।
धर्माचरण का नकल करनेवाले कुछ पाखंडियों , धोखेबाजों और कपटी लोगों की पोल कुछ ही दिनों में खुल जाती है , जबकि महात्मा गांधी , मदर टेरेसा , ईसा मसीह , दयानंद सरस्वती , स्वामी विवेकानंद , गौतम बुद्ध , महावीर , गुरू नानक , चैतन्य महाप्रभु आदि अनेकानेक लोग धर्माचरण द्वारा युगों युगो तक पूजे जाते हैं। यदि उनके विचारों में अच्छाई नहीं होती , समाज के लिए सोंचने का संदेश नहीं होता , तो ऐसा क्यूं होता ??
आज कुछ पुस्तको को व्यवस्थित करने के क्रम में मुझे वेद अमृत के सभी पुराने अंक मिले। फरवरी 2006 तक का अंक मेरे पास मौजूद है , जिसमें से प्रत्येक की कीमत मात्र 15 रूपए लिखी गयी है। उसके बाद के अंक भी कहीं पर छुपे हो सकते हैं , जो बाद में मिल जाए। पर इसके कुछ ही दिनों बाद वेद अमृत का प्रकाशन बंद हो गया, जाहिर सी बात है कि पत्रिकाएं बिक नहीं पा रही होंगी। इतने कम कीमत में बडों के लिए यह पत्रिका तो लाभप्रद थी ही , इसमें बाल जगत के अंतर्गत आनेवाली कहानी को मैं बच्चों को अवश्य पढाया करती थी , प्रत्येक में कुछ न कुछ संदेश छुपा होता था। समाज में कोई अच्छी शुरूआत हो और विद्वान लोगों द्वारा उसका यही हश्र हो , तो हमारे समाज के लोग तो भटकेंगे ही ।
आज के आर्थिक युग में लोगों की सोंच बिल्कुल बदल गयी है , विज्ञान के बडे बडे आविष्कारों का उपयोग करना मात्र उनका लक्ष्य हो गया है , साधन ही साध्य बन गया है। वे न तो खुद अच्छा साहित्य पढना चाहते हैं और न ही बच्चों को पढाना चाहते हैं।बाद में आनेवाली पीढी को दोष देते हम नहीं थकते। बस प्रोफेशनल सफलता ही हर बात का मापदंड बन गया है , लोगों ने अपने को इतना सिमटा लिया है कि जीवन के अंतिम चरणों में भी बिल्कुल अनुभवहीन दिखते हैं। आज धर्म को भले ही गलत मान लिया जाए और इसकी आवश्यकता को नकारा जाए , पर आज के युग में भी एक धर्मगुरू की आवश्यकता है ही , जो लोगों के भटकते दिलोदिमाग को शांत करने की कोशिश करे , ताकि पूरी दुनिया चैन से जी सके। सही कहा गया है , गुरू के बिना ज्ञान मुश्किल ही होता है।
Sunday 18 April 2010
मान्यताएं कब अंधविश्वास बन जाती हैं ??
सुपाच्य होने के कारण लोग यात्रा में दही खाकर निकला करते थे , माना जाने लगा कि दही की यात्रा अच्छी होती है।
देर से पचने के कारण यात्रा में कटहल की सब्जी का बहिष्कार किया जाता था , माना जाने लगा कि कटहल की यात्रा खराब होती है।
समय के साथ दही को शुभ माना जाने लगा और मान्यता बन गयी कि कुछ भी खाकर निकलो , यात्रा के वक्त छोटे से चम्मच से भी दही अवश्य खा लिया जाए तो यात्रा शुभ होगी।
यहां तक तो ठीक था , पर मान्यता धीरे धीरे अंधविश्वास बन गयी , जब गाडीवान् ने अपनी गाडी में कटहल को रखने से भी मना कर दिया , क्यूंकि इसकी यात्रा खराब होती है , कहीं गाडी का एक्सीडेंट न हो जाए !!
देर से पचने के कारण यात्रा में कटहल की सब्जी का बहिष्कार किया जाता था , माना जाने लगा कि कटहल की यात्रा खराब होती है।
समय के साथ दही को शुभ माना जाने लगा और मान्यता बन गयी कि कुछ भी खाकर निकलो , यात्रा के वक्त छोटे से चम्मच से भी दही अवश्य खा लिया जाए तो यात्रा शुभ होगी।
यहां तक तो ठीक था , पर मान्यता धीरे धीरे अंधविश्वास बन गयी , जब गाडीवान् ने अपनी गाडी में कटहल को रखने से भी मना कर दिया , क्यूंकि इसकी यात्रा खराब होती है , कहीं गाडी का एक्सीडेंट न हो जाए !!
Tuesday 6 April 2010
पूरे महीने दिलो दिमाग में दुर्घटनाओं का खौफ छाया रहा !!
पिछले आलेख में मैने बताया कि इस बार की दिल्ली यात्रा मेरे लिए बहुत ही सुखद रही, पर पूरे महीने दिलो दिमाग में दुर्घटनाओं का खौफ छाया रहा। 5 मई को बोकारो से प्रस्थान की तैयारी में व्यस्त 4 मई को मिली एक भयावह दुर्घटना की खबर ने मन मे जो भय बनाया , वह पूरे महीने दूर न हो सका। 25 मई को बेटे के बंगलौर से दिल्ली प्रस्थान करने से पहले मंगलौर में हुई विमान दुर्घटना और बोकारो आने से पूर्व स्टेशन में हुई भगदड से हुई मौत और बोकारो पहुंचने से पहले ज्ञानेश्वरी ट्रेन हादसे की खबर यह अहसास दिलाने में समर्थ हो गयी कि यात्रा के दौरान हम भाग्य और भगवान के भरोसे ही सुरक्षित हैं।
यात्रा के दौरान खासकर लौटते वक्त कहीं कहीं परिस्थितियां गडबड बनीं , पर ईश्वर की कृपा है कि उसका कोई दुष्परिणाम देखने को नहीं मिला। 29 मई को पुरूषोत्तम एक्सप्रेस से बोकारो लौटना था , ट्रेन की टाइमिंग थी .. 10 :20 रात्रि , चूंकि हम तीन मां बेटे पूरे सामान के साथ थे , इसलिए दो ऑटो वाले को 8 बजे रात्रि को आने को कहा गया था। आठ की जगह साढे आठ बज गए , पर ऑटो नहीं आया। हमने तुरंत दो रिक्शे से नांगलोई के लिए प्रस्थान किया। रात के नौ बजे हम नांगलोई से चले , ऑटो वाले से बार बार पूछते हुए कि दस बजे तक हमलोग पहुंच पाएंगे या नहीं ? 'यदि कहीं पर जाम न हो तो पहुंच जाएंगे , पर इस वक्त जाम रहती है' , ऑटोवाले का जबाब सुनकर हमलोग परेशान हो जाते थे , पर रास्ते में जाम क्या , कहीं लाल बत्ती भी नहीं मिली और हम पौने दस बजे स्टेशन पहुच चुके थे।
बिल्कुल शांत दिमाग से पूछ ताछ कर हम उस प्लेटफार्म पर उस स्थान पर पहुंचे , जहां पुरूषोत्तम की वह बोगी आने वाली थी , जिससे हमें जाना था । पर ट्रेन तो देर से आयी ही , बोगियां भी सूचना के विपरीत लगी हुई थी । अब प्लेटफार्म पर अफरातफरी का माहौल बन गया , इधर के यात्री उधर और उधर के यात्री इधर जाते दिखाई दे रहे थे। ट्रेन यदि देर से न खुलती , तो यहां भी एक दुर्घटना के होने की संभावना थी , पर सबों के आराम से बैठने के बाद ही ट्रेन खुली , जिससे राहत मिली। पर सुबह उठते ही ज्ञानेश्वरी ट्रेन हादसे की खबर मिली , जिससे पुन: एक बार मन:स्थिति पर बुरा प्रभाव पडा।
शाम 5 बजे के बाद बोकारो से काफी निकट गोमो स्टेशन से ट्रेन के चलने के बाद घर पहुंचने की खुशी में बडा खलल उस वक्त पहुंचा , जब हमें यह मालूम हुआ कि ज्ञानेश्वरी हादसे के बाद सुरक्षा कारणों से ट्रेन बोकारो से नहीं , वरन् दूसरे रास्ते से बंगाल की दिशा में चल चुकी है। गोमो में हो रहे इस एनाउंसमेंट के वक्त हमारा ध्यान बेटे के ए आई ट्रिपल ई के रिजल्ट की ओर था , जिसकी सूचना हमें तुरंत मिली थी। एनाउंसमेंट न सुन पाने के कारण आयी इस विकट परिस्थिति से लगभग आधे घंटे हम सब हैरान परेशान रहे , पर खैरियत थी कि एक छोटे से स्टेशन 'मोहदा' में गाडी रूकी , दो मिनट के इस स्टॉपेज में गाडी रूकने का अंदाजा होने से हम अपने सामान के साथ गेट पर तैयार ही थे , इसलिए हमने सारा सामान जल्दी जल्दी उतार लिया। वहां से हम बाहर आए , एक टैक्सी ली और पौने सात बजे हम बोकारो में थे। इस तरह इस यात्रा के दौरान कुछ कुछ असमान्य घटनाएं होती रहीं , पर कुशल मंगल अपने घर पहुंच गयी।
यात्रा के दौरान खासकर लौटते वक्त कहीं कहीं परिस्थितियां गडबड बनीं , पर ईश्वर की कृपा है कि उसका कोई दुष्परिणाम देखने को नहीं मिला। 29 मई को पुरूषोत्तम एक्सप्रेस से बोकारो लौटना था , ट्रेन की टाइमिंग थी .. 10 :20 रात्रि , चूंकि हम तीन मां बेटे पूरे सामान के साथ थे , इसलिए दो ऑटो वाले को 8 बजे रात्रि को आने को कहा गया था। आठ की जगह साढे आठ बज गए , पर ऑटो नहीं आया। हमने तुरंत दो रिक्शे से नांगलोई के लिए प्रस्थान किया। रात के नौ बजे हम नांगलोई से चले , ऑटो वाले से बार बार पूछते हुए कि दस बजे तक हमलोग पहुंच पाएंगे या नहीं ? 'यदि कहीं पर जाम न हो तो पहुंच जाएंगे , पर इस वक्त जाम रहती है' , ऑटोवाले का जबाब सुनकर हमलोग परेशान हो जाते थे , पर रास्ते में जाम क्या , कहीं लाल बत्ती भी नहीं मिली और हम पौने दस बजे स्टेशन पहुच चुके थे।
बिल्कुल शांत दिमाग से पूछ ताछ कर हम उस प्लेटफार्म पर उस स्थान पर पहुंचे , जहां पुरूषोत्तम की वह बोगी आने वाली थी , जिससे हमें जाना था । पर ट्रेन तो देर से आयी ही , बोगियां भी सूचना के विपरीत लगी हुई थी । अब प्लेटफार्म पर अफरातफरी का माहौल बन गया , इधर के यात्री उधर और उधर के यात्री इधर जाते दिखाई दे रहे थे। ट्रेन यदि देर से न खुलती , तो यहां भी एक दुर्घटना के होने की संभावना थी , पर सबों के आराम से बैठने के बाद ही ट्रेन खुली , जिससे राहत मिली। पर सुबह उठते ही ज्ञानेश्वरी ट्रेन हादसे की खबर मिली , जिससे पुन: एक बार मन:स्थिति पर बुरा प्रभाव पडा।
शाम 5 बजे के बाद बोकारो से काफी निकट गोमो स्टेशन से ट्रेन के चलने के बाद घर पहुंचने की खुशी में बडा खलल उस वक्त पहुंचा , जब हमें यह मालूम हुआ कि ज्ञानेश्वरी हादसे के बाद सुरक्षा कारणों से ट्रेन बोकारो से नहीं , वरन् दूसरे रास्ते से बंगाल की दिशा में चल चुकी है। गोमो में हो रहे इस एनाउंसमेंट के वक्त हमारा ध्यान बेटे के ए आई ट्रिपल ई के रिजल्ट की ओर था , जिसकी सूचना हमें तुरंत मिली थी। एनाउंसमेंट न सुन पाने के कारण आयी इस विकट परिस्थिति से लगभग आधे घंटे हम सब हैरान परेशान रहे , पर खैरियत थी कि एक छोटे से स्टेशन 'मोहदा' में गाडी रूकी , दो मिनट के इस स्टॉपेज में गाडी रूकने का अंदाजा होने से हम अपने सामान के साथ गेट पर तैयार ही थे , इसलिए हमने सारा सामान जल्दी जल्दी उतार लिया। वहां से हम बाहर आए , एक टैक्सी ली और पौने सात बजे हम बोकारो में थे। इस तरह इस यात्रा के दौरान कुछ कुछ असमान्य घटनाएं होती रहीं , पर कुशल मंगल अपने घर पहुंच गयी।
Friday 2 April 2010
भावी पीढी के सही विकास के लिए आवश्यक मोह ममता की अति ने ही उनका विकास बाधित किया है !!
इस विविधता भरी दुनिया में प्रत्येक जीव जंतु के विकास के लिए प्रकृति की व्यवस्था बहुत सटीक है। प्राकृतिक व्यवस्था के हम जितने ही निकट होते हैं , हर चीज में संतुलन बना होता है। प्रकृति से हमारी दूरी जैसे ही बढने लगती है , सारा संतुलन डगमग होता जाता है। सभी जीव जंतुओं की तुलना में मानव जीवन अधिक जटिल है, एक बच्चे के जन्म से लेकर इसके पूर्ण विकास के देने और इसे सुसंस्कृत करने के क्रम में माता पिता को काफी समय देना होता है। यही कारण है कि मनुष्यों को अपने बच्चों से मोह ममता बनाए रखने की बहुत अधिक आवश्यकता होती है। बच्चों से मोह ममता के कारण ही हम पारिवारिक , सामाजिक यहां तक की राष्ट्रीय नियमों तक का नियमों तक का पालन करते हैं, ताकि हमारी आनेवाली पीढी को पारिवारिक , सामाजिक और राजनीतिक सहयोग प्राप्त हो सके।
पाषाण युग से आई टी के युग में प्रवेश और गुफाओं और खंडहरों से लेकर विशाल विशाल भवनों में रहने तक हमने एक लंबी यात्रा की है। हर युग में और हर स्तर में माता पिता के द्वारा बच्चों के लालन पालन में बडा अंतर देखा जाता है। मेरे ख्याल से बच्चों का शारीरिक , मानसिक और नैतिक विकास में माता, पिता , समाज या गुरू की बहुत बडी भूमिका होती है। प्रत्येक युग और स्तर में बच्चों को अलग अलग ढंग की शिक्षा भले ही मिलनी चाहिए, पर उसका लक्ष्य एक होना चाहिए। बच्चों को हर उम्र में इतना लायक बना दिया जाना चाहिए कि वे माता पिता की अनुपस्थिति में भी खुद की जिम्मेदारी संभाल सके। जहां एक मजदूर अपने बच्चों को दिनभर धूप में तपाकर उसे अपनी रोजी रोटी के लायक बनाता है , वहीं एक अमीर व्यक्ति अपने बच्चों को स्कूल कॉलेजों की शिक्षा देकर सरकारी नौकरी या व्यवसाय के लायक बनाता है। बच्चों के स्वावलंबी होने तक माता पिता को लंबा इंतजार करना होता है, बच्चों के प्रति मोह और ममता ही उन्हें इतना त्याग करने में समर्थ बनाती है।
पर आज अपने बच्चों के प्रति हमारी अधिक मोह और ममता उन्हें गलत दिशा में ले जा रही है। बच्चों के मानसिक विकास में कोई बाधा न पहुंचे , उनका मन ना टूटे , इसका अधिक ध्यान रखते हुए उनके जायज नाजायज मांगों को भी हम सही ठहरा देते हैं । ऐसे में बच्चे जिद्दी होने लगते हैं और उनके व्यक्तित्व में संतुलन का अभाव होता है। हम गलत ढग से कमाए गए रूपए पैसों की बदौलत अच्छे स्कूलों और कॉलेजों में उनके एडमिशन के लिए रिश्वत देते हैं , अपनी ऊंची पहुंच का फायदा उठाते हैं , इससे बच्चों की आगे बढने की स्वाभाविक प्रवृत्ति खत्म होती है। उनका चरित्र निर्माण सही नहीं हो पाता , वे कभी स्वावलंबी नहीं बन पाते। युग और समाज की स्थिति अच्छी हो , तो माता पिता के सहयोग से उनका काम भले ही बन पाए , जीवन भले ही कट जाए , पर किसी भी विपरीत स्थिति के आने पर वो हताशा और निराशा के शिकार हो जाते हैं। पिता के जमाने में हमेशा सफल रहनेवाले अपने को असफल देख ही नहीं पाते , समाज में झूठी पहचान बनाए रखने के लिए झूठ का सहारा लेना उनकी नियति बन जाती है। इस तरह उनके विकास के लिए बनी मोह ममता ही उन्हें अंधकार में ले जाती है।
पाषाण युग से आई टी के युग में प्रवेश और गुफाओं और खंडहरों से लेकर विशाल विशाल भवनों में रहने तक हमने एक लंबी यात्रा की है। हर युग में और हर स्तर में माता पिता के द्वारा बच्चों के लालन पालन में बडा अंतर देखा जाता है। मेरे ख्याल से बच्चों का शारीरिक , मानसिक और नैतिक विकास में माता, पिता , समाज या गुरू की बहुत बडी भूमिका होती है। प्रत्येक युग और स्तर में बच्चों को अलग अलग ढंग की शिक्षा भले ही मिलनी चाहिए, पर उसका लक्ष्य एक होना चाहिए। बच्चों को हर उम्र में इतना लायक बना दिया जाना चाहिए कि वे माता पिता की अनुपस्थिति में भी खुद की जिम्मेदारी संभाल सके। जहां एक मजदूर अपने बच्चों को दिनभर धूप में तपाकर उसे अपनी रोजी रोटी के लायक बनाता है , वहीं एक अमीर व्यक्ति अपने बच्चों को स्कूल कॉलेजों की शिक्षा देकर सरकारी नौकरी या व्यवसाय के लायक बनाता है। बच्चों के स्वावलंबी होने तक माता पिता को लंबा इंतजार करना होता है, बच्चों के प्रति मोह और ममता ही उन्हें इतना त्याग करने में समर्थ बनाती है।
पर आज अपने बच्चों के प्रति हमारी अधिक मोह और ममता उन्हें गलत दिशा में ले जा रही है। बच्चों के मानसिक विकास में कोई बाधा न पहुंचे , उनका मन ना टूटे , इसका अधिक ध्यान रखते हुए उनके जायज नाजायज मांगों को भी हम सही ठहरा देते हैं । ऐसे में बच्चे जिद्दी होने लगते हैं और उनके व्यक्तित्व में संतुलन का अभाव होता है। हम गलत ढग से कमाए गए रूपए पैसों की बदौलत अच्छे स्कूलों और कॉलेजों में उनके एडमिशन के लिए रिश्वत देते हैं , अपनी ऊंची पहुंच का फायदा उठाते हैं , इससे बच्चों की आगे बढने की स्वाभाविक प्रवृत्ति खत्म होती है। उनका चरित्र निर्माण सही नहीं हो पाता , वे कभी स्वावलंबी नहीं बन पाते। युग और समाज की स्थिति अच्छी हो , तो माता पिता के सहयोग से उनका काम भले ही बन पाए , जीवन भले ही कट जाए , पर किसी भी विपरीत स्थिति के आने पर वो हताशा और निराशा के शिकार हो जाते हैं। पिता के जमाने में हमेशा सफल रहनेवाले अपने को असफल देख ही नहीं पाते , समाज में झूठी पहचान बनाए रखने के लिए झूठ का सहारा लेना उनकी नियति बन जाती है। इस तरह उनके विकास के लिए बनी मोह ममता ही उन्हें अंधकार में ले जाती है।
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