मेरे घर में पहली गाडी मेरे होश संभालने से पूर्व से ही थी , पर दूसरी गाडी के खरीदे जाने की खुशी की धुधली तस्वीर अभी भी है। क्यूं न हो , उस वक्त मैं छह वर्ष की थी और माना जाता है कि इस उम्र की खास घटनाओं के प्रभाव से मस्तिष्क जीवनभर अछूता नहीं होता। इन दोनो एम्बेसडर गाडियों के बाद हमारे परिवार की गिनती गांव के खास परिवारों में होने लगी थी। जिस तरह आज के बच्चों को घर के सभी फोन और मोबाइल नं याद रहते हैं , हम बचपन में खुद भी अपनी गाडी के नंबर रटा और भाई बहनों को रटाया करते। बाबूजी की गाडी का नंबर ‘BRW 1016’ पापाजी के गाडी का नंबर ‘BRW 1658’। भले ही पापाजी से छोटे तीनो भाइयों को हमलोग चाचा और उनके अपने बच्चे पापा कहा करते हों , पर बडे दोनो भाई अभी तक पूरे घर के ‘बाबूजी’ और ‘पापाजी’ ही हैं। कहीं किसी प्रकार के धार्मिक आयोजन होने पर दादी जी और फिल्मों या अन्य कार्यक्रम के सिलसिले में मम्मी या चाची कहीं बाहर जाती। हम बच्चों को तो प्रत्येक में शामिल रहना ही था।
पूरे परिवार के सदस्यों को गाडी में बैठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर सुरक्षित ढंग से ले जाने में ड्राइवर की भूमिका मनोमस्तिष्क पर बचपन से ही प्रभाव डाला करती। पूरे ध्यान संकेन्द्रण से गाडी की गति को तेज और धीमा करना और समयानुसार स्टेयरिंग को बाये और दायें घुमाना हमें बच्चों का ही खेल लगता। कोई गाडी आगे निकलती तो हम आगे बढने के लिए ड्राइवर अंकल को परेशान करते और जब हमारी गाडी किसी से आगे बढती तो खास विजयी अंदाज में चिल्लाते। ऐसे में दस बारह वर्ष की उम्र में ही गाडी चलाने का शौक मुझपर हावी होता जा रहा था। यूं तो सरकारी नियम के हिसाब से गाडी चलाने के लिए मेरी उम्र बहुत कम थी , इसलिए लाइसेंस मिलने का कोई सवाल ही न था , पर घरवालों ने मेरे मैट्रिक की परीक्षा ठीक ढंग से पास कर लेने पर गाडी चलाना सिखाने का वादा कर दिया था।
पर वाह रे भाग्य का खेल , मेरे मैट्रिक पास करने से पूर्व ही गाडी खुद असहाय होकर दरवाजे पर लग गयी थी, वो गाडी सीखने में मेरी मदद क्या करती ? परिवार वालों के अति विश्वास और ड्राइवरों के विश्वासघात ने मात्र 8 और 10 वर्ष पुरानी गाडी के कल पुर्जो में ऐसी गडबडी कर दी थी कि 1977 के बिहार विधान सभा चुनाव में कांग्रेस की टिकट पर खडे मेरे चाचाजी के चुनाव प्रचार तक तो किसी तरह गाडी ने साथ दिया , पर उसके बाद वह सडक पर चलने लायक नहीं रही। मैं मन लगाकर पढाई करती हुई 1978 में फर्स्ट डिविजन से मैट्रिक पास भी कर लिया था , आशा और विश्वास के साथ विश्वकर्मा पूजा और दीपावली में दोनो कार की साफ सफाई और पूजा भी करती रही कि किसी दिन यह फिर जीवित होगी। पर कुछ दिनों तक यूं ही पडी हुई उस कार परिवारवालों के द्वारा औने पौने मूल्य में यह सोंचकर बेच दिया गया कि उन्हें ठीक करने में होनवाले खर्च की जगह एक नई गाडी आ जाएगी , पर मेरे विवाह के वक्त तक नई गाडी नहीं आ सकी और मेरा गाडी सीखने का सपना चूर चूर हो गया।
मेरे विवाह के वक्त ससुराल में सिर्फ स्कूटर और मोटरसाइकिल था , घर में कई बार गाडी लेने का कार्यक्रम अवश्य बना , पर वो खरीदा तब गया , जब मैं अपने बच्चों को लेकर बोकारो आ चुकी थी। वहां कभी दो चार दिनों के लिए जाना होता था , इसलिए हाथ आजमाने से भी कोई फायदा नहीं था। कभी पारिवारिक कार्यक्रम में उसका उपयोग भले ही मैने कर लिया हो , पर मेरे अपने व्यक्तिगत कार्यक्रम में बस , ट्रेन या टैक्सी ही सहयोगी बनी रही। बोकारो स्टील सिटी में जहां खुद के रहने की इतनी समस्या हो , एक गाडी लेकर अपना जंजाल बढाने का ख्याल कभी दिल में नहीं आया , इसलिए बैंको या अन्य फायनांस कंपनियों द्वारा दी जा रही सुविधाओं का लाभ उठाने से भी परहेज करती रही।
बचपन का शौक तब पूरा हुआ जब मैने कंप्यूटर खरीदा , कंप्यूटर में तरह तरह के कार वाले गेम इंस्टॉल कर घंटों चलाती। हाल के वर्षों में कंप्यूटर पर कार चलाना बंद कर दिया था। इच्छा थी कि घर वापस लौटने से पहले बोकारो स्टील में कार चलाना सीख लूं, पर घर के लोग इस पक्ष में नहीं। दरअसल मैं जिस कॉलोनी में रहने जा रही हूं , उसका फैलाव मात्र दो तीन किलोमीटर के अंदर है, कॉलोनी के अंदर कार की आवश्यकता पडती नहीं। कॉलोनी से बाहर जाने वाला रास्ता कोयला ढोने वाले ट्रकों के कारण इतना खराब है कि बिना अच्छे ड्राइवर के उसमें चला नहीं जा सकता। ऐसे में मेरे ड्राइविंग सीखने से का कुछ भी उपयोग नहीं है, इसलिए मैने ड्राइविंग सीखने का अपना कार्यक्रम रद्द कर दिया है। अब मेरे ड्राइविंग के शौक को जीवनभर कंप्यूटर ही पूरा कर सकता है , इसलिए दो चार कार गेम और इंस्टॉल करने जा रही हूं।
16 comments:
संगीता जी, बहुत अच्छे। कम्प्यूटर पर ही लगे रहो वैसे भी आजकल ट्रेफिक इतना बढ़ गया है कि गाड़ी चलाना दूभर होता जा रहा है। मैंने भी बहुत दिनों से गाडी को हाथ नहीं लगाया है, भीड को देखते हुए।
कम्प्युटर पर ही गाड़ी चलाने के शौक को पूरा करने का आपका निर्णय सही है।
लेकिन गाड़ी चलाना भी सीखना जरुरी है। अब कैसे भी करके सीख ही लीजिए।
भीड़ से नहीं डरना, जब स्टेयरिंग आपके हाथ में होगा तो भीड़ खुद ही रास्ता छोड़ देगी :)
चलिए कंप्यूटर में आपका मन रम गया.Now look forward.
मेरा एक दोहा हाज़िर है:-
गई सदी तो दे गई, कंप्यूटर उपहार.
नई सदी में देखिये,क्या हो अविष्कार.
कुँवर कुसुमेश
kunwarkusumesh.blogspot.com
चलिए जी शौक कैसे भी पूरा हो ..कम से कम हो तो रहा है ...अब तो मुझे भी गाड़ी चलाये १० साल हो गए हैं ...कार चलाना कभी मेरे लिए जुनून हुआ करता था ...और कार को ऐसे चमका कर रखती थी जैसे कि बच्चे को ...खुद ही सफाई और फिर पोलिश करना ...आपने भी किन दिनों कि याद दिला दी आज ...
अक्सर यही होता है,जो शौक पूरा नहीं हो पाता उसका विक्ल्प इंसान ढूढ लेता है,परन्तु साहस रखिये और गाड़ी चलाना सीख ही लीजिये ।
Achha hai... :) khoob enjoy kijiye yeh drive....
मेरा गाडी सीखने का सपना चूर चूर हो गया।
कम्प्यूटर है ना अब हर मर्ज की दवा।
कुछ भी हो... आपने तो होसला बनाये रखा कभी आप निरास नहीं हुई. जिंदगी में आगे बदने का जूनून कायम रखा...
सुन्दर पोस्ट , सादगी और खुश मिज़ाज़ी से लबरेज़।
कालोनी के अन्दर तो कार चलाई जा सकती है ! इसे बंद न करें !
इस ब्लाग पर लेखन की आवृत्ति कम है ! आपने काफी दिन से कुछ लिखा ही नहीं
अच्छा है आपका गत्यात्मक चिंतन, ज्योतिष पर मेरी आस्था ज्यादा नहीं है, खुदा पर ज्यादा है !
beautifully presented.Thanx for visiting my blog. I am Following , pl follow me. me
मैं तो कहती हूँ कम्प्यूटर ही सही है आपके लिये। तभी तो हमे इतनी ग्यानवर्द्धक पोस्ट्स पडःाने को मिलेंगी। मैने भी आज कल गाडी चलानी छोड रखी है बस कम्प्यूटर ही ठीक है। तो नंगल कब आ रही है? शुभकामनायें।
गाड़ी-कथा अच्छी रही,पर मेरे भाग्य में तो शायद कोई वाहन-सुख लिखा ही नहीं.अभी तक इन चीज़ों से दूर हूँ और शहर के ट्रैफिक(टेरेफिक)को देखकर तो और मन नहीं करता !
गाड़ी लेनी की अपनी हैसियत नही है इसलिए आपकी तरह कभी कभी कम्पुटर पर चला लेते है| कभी किसी गाड़ी चालक के हाथ में कम्पुटर का की बोर्ड दे के देखिये वो बिलकुल अनाडी की तरह चलाएगा हा.. हा.. हा..|
टाइम पास का अच्छा जरिया है गेम।
लगी रहें।
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आपका सुनहरा भविष्यफल, सिर्फ आपके लिए।
खूबसूरत क्लियोपेट्रा के बारे में आप क्या जानते हैं?
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