Nari ki samasyayen
नारी की समस्याएँ
अधिकार और कर्तब्यों का आपस में एक दूसरे से अन्योनाश्रय संबंध है। चाहे कोई भी स्थान हो , कर्तब्यों का पालन करने वालों को सारे अधिकार स्वयमेव मिल जाते हैं। पर सिर्फ अच्छे खाते पीते परिवार की कुछ बेटियों या कुछ प्रतिशत दुलारी बहुओं की बात छोडकर हम समाज के अधिकांश नारियों की बात करें , तो यहां तो बात ही उल्टी है , बचपन से बूढे होने तक और मौत को गले लगाने तक ये सारे कर्तब्यों का पालन करती हैं , पर फिर भी इन्हें अधिकार से वंचित किया जाता रहा है। बहुत सारे परिवार और ऑफिसों में महिलाएं शोषण और प्रताडना की शिकार बनीं सबकुछ सहने को बाध्य हैं। इनकी स्थिति को सुधारने की कोशिश में स्त्रियां अक्सरहा पुरूष वर्ग से अपने अधिकार के लिए गुहार लगाती हैं , जो कि बिल्कुल अनुचित है। इस सृष्टि को आगे बढाने में स्त्री और पुरूष दोनो की ही बराबर भूमिका है , महिलाओं की खुशी के बिना पुरूष खुश नहीं रह सकते , फिर महिलाओं को अपने को कमजोर समझने की क्या आवश्यकता ?? उनसे अधिकारों की भीख क्यूं मांगने की क्या आवश्यकता ??
प्राचीन काल में बालिकाओं का विवाह बहुत ही छोटी उम्र में होता था , संयुक्त परिवार में पालन पोषण होने से कई प्रकार के माहौल से उनका दिलो दिमाग गुजरता था , पर होश संभालते ही ससुराल का माहौल सामने होता था। उनपर अपने मायके का कोई प्रभाव नहीं होता था , सुसराल के माहौल में , चाहे वहां जो भी अच्छाइयां हों , जो भी बुराइयां हों , वे आराम से अपना समायोजन कर लिया करती थी। पर आज स्थिति बिल्कुल भिन्न है , एकल परिवारों और देर से विवाह होने के कारण बौद्धिक विकास में मायके का माहौल गहरा असर रखता है , उसे एक सिरे से भुलाया नहीं जा सकता , इस कारण नारी के लचीलेपन में कमी आयी है। अब जहां वह खुद को थोडा परिवर्तित करना चाहती है , तो ससुराल वालों से भी थोडे परिवर्तन की उम्मीद रखती है। वो पढी लिखी और समझदार आज के जमाने से कदम से कदम मिलाकर चलना चाहती है , उसकी इस मानसिकता को ससुराल वालों को सहज ढंग से स्वीकार करना चाहिए, पर ऐसा नहीं हो पाता। समय के साथ हर क्षेत्र में परिवर्तन हुआ है , तो भला नारी के रहन सहन , सोंच विचार में परिवर्तन क्यूं नहीं होगा ?
आज पति या ससुराल वालों से समायोजन न हो पाने से वैवाहिक संबंधों के टूटने और बिखरने की दर में निरंतर बढोत्तरी हो रही है। ऐय्याश और लालची कुछ पतियों को छोड दिया जाए , तो बाकी मामलों में जितना दोष पतियों का नहीं होता , उससे अधिक उन्हें बरगलाने वाली नारी शक्ति का ही होता है। यहां तक की दहेज के लिए भी महिलाएं सास और ननदों के सहयोग से भी जलायी जाती हैं। इसके अतिरिक्त सिर्फ ससुराल पक्ष की माताजी ,बहनें और भाभियां निरंतर पीडिताओं को जलील करती हैं , पूरे समाज की महिलाएं भी उनके पीछे हाथ धोकर पड जाती हैं।
इस कारण परित्यक्ताओं का जीना दूभर हो जाता है और समाज में इस प्रकार की घटनाओं को देखते हुए कोई भी नारी किसी बात का विरोध नहीं कर पाती , इसे अपनी नियति मानते हुए ससुराल में अत्याचारों को बर्दाश्त करती रहती है , विरोध की बात वह सोंच भी नहीं पाती। इस तरह अपनी बेटियों को पालने में भले ही माता पिता का नजरिया कुछ बदला हो , पर दूसरे की बेटियों के मामले में मानसिकता अभी तक थोडी भी नहीं बदली है। इस महिला दिवस पर महिलाएं प्रण लें कि दूसरों की बेटियों के कष्ट को भी अपना समझेंगे , उसे ताने उलाहने न देंगे , कोई महिला प्रताडित की जाए , तो उसके विरूद्ध आवाज उठाएंगे , तो ही महिला दिवस सार्थक हो सकता है। महिलाओं का साथ देकर अपना अधिकार वे स्वयं प्राप्त कर सकते हैं , भला वो पुरूषों से अपने अधिकार क्यूं मांगे ??