Monday 27 December 2010

इतने सारे चिट्ठाकारों से मुलाकात का वह दिन भुलाया जा सकता है ??

मेरे द्वारा रोहतक के तिलयार झील की यात्रा पर एक विस्‍तृत रिपोर्ट का इंतजार न सिर्फ ब्‍लॉगर बंधुओं को , वरन् ज्‍योतिषीय रूचि के कारण मेरे ब्‍लॉग को पढने वाले अन्‍य पाठकों और मित्रों को भी है। जब एक फोन पर इस रिपोर्ट का इंतजार कर रहे अपने पाठक को बताया कि व्‍यस्‍तता के कारण इस रिपोर्ट को प्रकाशित करने में कुछ देर हो रही है , तो उन्‍होने कहा कि इतनी देर भी मत कीजिए कि आप बहुत कुछ भूल ही जाएं। मैने उन्‍हे कहा कि एक सुखद यात्रा वर्षों भूली नहीं जा सकती , वैसी ही यात्राओं में तिलयार यात्रा भी एक है , भला इतने सारे ब्‍लोगरों से मुलाकात का वह दिन इतनी जल्‍द भुलाया जा सकता है ??

पहली बार सुनने पर रोहतक में होने वाली इस ब्‍लॉगर मीट की तिथि 21 नवंबर मुझे जंची नहीं थी , क्‍यूंकि ज्‍योतिषीय दृष्टि से उससे पहले ग्रहों की स्थिति मनोनुकूल नहीं थी , आसमान में ग्रहों की क्रियाशीलता कुछ इस ढंग की थी कि लोगों को किसी न किसी कार्यक्रम में व्‍यस्‍त रखने का यह एक बहाना बन सकती थी। बहुत प्रकार के कार्यों के उपस्थित हो जाने से इस प्रकार की तिथियों के कार्यक्रमों में इच्‍छा के बावजूद आमंत्रित कम संख्‍या में ही पहुंच पाते हैं। हां , 21 नवंबर को पूर्णिमा होने के कारण कार्यक्रम की सफलता पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता था , इसलिए मुझे वहां पहुंचने की इच्‍छा तो थी ।

जब निर्मला कपिला जी से मैने रोहतक ब्‍लॉगर मीट के बारे में बात की , तो उन्‍होने कहा कि यदि मेरा कार्यक्रम निश्चित हो , तभी वो चलेंगी। इतने ब्‍लॉगरों के साथ साथ उनसे मिलने का बहाना बडी मुश्किल से मिल रहा था , मैं इंकार नहीं कर सकती थी।  पर तिथि को देखते हुए मन में अंदेशा अवश्‍य बना हुआ था कि कोई आवश्‍यक पारिवारिक या अन्‍य कार्य न उपस्थित हो जाए , छोटे मोटे कार्यक्रमों को तो अपने पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम से टाला जा सकता है , यह सोंचकर मैने मित्रों और परिवारवालों के मध्‍य अपनी रोहतक यात्रा की खबर सबसे पहले प्रचारित प्रसारित कर दी। इससे एक फायदा हुआ कि बंगाल में एक दीदी के लडके का विवाह 22 नवंबर को था , दीदी के फोन आने पर मैने उन्‍हें तत्‍काल कह दिया कि मैं विवाह में न पहुंचकर 24 को 'बहू भात' में वहां पहुंचुंगी। मेरे कार्यक्रम की जानकारी मिलने पर दिल्‍ली से मेरे पास आ रहे पापाजी ने भी 20 नवंबर का रिजर्वेशन रद्द करवाकर मेरे साथ ही दिल्‍ली से आने का कार्यक्रम बनाया।

बोकारो से दिल्‍ली और दिल्‍ली से रोहतक जाने का मेरा कार्यक्रम निश्चित हो चुका था , पर 12 नवंबर को होनेवाले छठ के बाद बिहार झारखंड से लौटने वालों की भीड में मेरे लिए रिजर्वेशन मिलना कठिन था। मैने रेलवे की वेबसाइट पर एक एक कर सभी ट्रेनों की स्थिति देखी , कहीं भी व्‍यवस्‍था नहीं दिखाई पडी। 12 नवंबर को छठ होने के कारण बर्थ अवश्‍य उपलब्‍ध थे , पर छठ के मौके पर ट्रेन में बैठे रहना मुझे जंच नहीं रहा था। दूसरे दिनों में निकलने के लिए धनबाद से किसी प्रकार व्‍यवस्‍था जरूर हो सकती थी , पर उतनी दूर जाकर ट्रेन पकडना मुझे पसंद नहीं था। इसलिए मैने दिल्‍ली के लिए 12 नवंबर का ही रिजर्वेशन करवा लिया। रिजर्वेशन के वक्‍त लोअर बर्थ की उपलब्‍धता नहीं थी , इसलिए मैने मिडिल बर्थ में ही अपना रिजर्वेशन कराया। पर रेलवे की व्‍यवस्‍था की पोल इसी से खुल जाती है कि रातभर मेरे नीचे वाली बर्थ बिल्‍कुल खाली पडी रही।

कुछ दिन पूर्व से ही खराब चल रही मेरी तबियत ऐन दिल्‍ली प्रस्‍थान के वक्‍त ही खराब हो गयी। पर दवा वगैरह लेकर अपनी तबियत को सामान्‍य बनाया और दिल्‍ली के लिए निकल पडी। चलते समय तक यह मालूम हो चुका था कि 13 नवंबर को शाम के वक्‍त कनॉट प्‍लेस में भी एक ब्‍लॉगर मीट का आयोजन है। मेरी गाडी का समय 1 बजे दिन में ही दिल्‍ली में था , पर देर होने की वजह से शाम 4 बजे ही वहां पहुंच सकी। मेट्रो से आते वक्‍त राजीव चौक में उतरकर कनॉट प्‍लेस जाने और सबसे मिलने की इच्‍छा थी , पर पहले से ही गडबड तबियत 22 घंटे के सफर के बाद और खराब हो गयी थी। रही सही कसर दूसरे दिन रेलवे वालों ने एसी ऑफ करके पूरी कर दी थी, कई यात्रियों के शिकायत दर्ज कराने पर भी एसी ऑन नहीं हुआ। स्‍लीपर बॉगी में होती तो कम से कम खिडकी खुले होने से ताजी हवा तो मिलती , बंद बॉगी में एसी बंद होने से चक्‍कर आ रहा था। कुछ दिन पूर्व ऐसी स्थिति में कुछ यात्रियों में डेंगू या स्‍वाइन फ्लू फैलने के समाचार पढने को मिला था , इससे दिमाग तनावग्रस्‍त था , ऐसे में घर पहुंचकर ही राहत मिल सकती थी ।

दिल्‍ली में भी मुझे कई काम निबटाने थे , पर तबियत बिगडी होने की वजह से कुछ भी न हो पाया। ललेकि तीन भतीजे भतीजियों की मासूम शैतानियों के कारण सप्‍ताह भर का समय व्‍यतीत होते देर न लगी।  पर जैसा संदेह था , इन दिनों ब्‍लॉग जगत से कुछ ऐसी घटनाएं सुनने को मिली , जिससे स्‍पष्‍ट हुआ कि कार्यक्रम में सम्मिलित हो रहे लोगों में से कुछ वहां नहीं पहुंच सकेंगे। इससे मन में काफी असंतोष बना रहा , पर दिल्‍ली तक आ चुकी थी , तो रोहतक तो पहुंचना ही था। रोहतक में तिलियार झील में ब्‍लॉगर मीट रखी गयी थी , निर्मला कपिला जी से संपर्क किया तो उन्‍होने बताया कि वे राजीव तनेजा जी के साथ आ रही हैं। मैने भी राजीव तनेजा जी को ही संपर्क किया , माता जी के स्‍वास्‍थ्‍य को लेकर तनेजा दंपत्ति अस्‍पताल के चक्‍कर काट रहे थे। पापाजी तैयार नहीं थे कि मैं अकेली अनजान रास्‍ते पर जाऊं , मैने अपने एक भाई का गुडगांव का कार्यक्रम रद्द करवाकर उसे अपने साथ चलने को तैयार किया , पर 20 की शाम को तनेजा जी ने कहा कि वे चलते वक्‍त मुझे ले लेंगे।

21 नवंबर को सुबह नांगलोई में मेट्रो स्‍टेशन के पास राजीव तनेजा जी , संजू तनेजा जी और निर्मला कपिला जी से मिलने का मौका मिला। तनेजा दंपत्ति से तो मैं पहले भी मिल चुकी थी , पर निर्मला कपिला जी से यह पहली मुलाकात थी। उनकी कहानियों लेखों , कविताओं और खासकर टिप्‍पणियों ने मेरे हृदय पर एक छाप छोड दी थी , इसलिए उनसे मिलने की मेरी दिली तमन्‍ना थी , कार से उतरकर उन्‍होने मुझे गले लगा लिया। इस सुखद अहसास को मैं जीवनभर नहीं भूल सकती। हमलोगों ने ब्‍लॉग जगत से जुडी बाते करते हुए ही एक डेढ घंटे का सफर तय किया और थोडी ही देर में मंजिल आ गयी। क्‍या हुआ तिलियार ब्‍लॉगर मीट में , यह जानिए अगली कडी में , इसके लिए आपलोगों को कितना इंतजार करना पड सकता है , नहीं बता सकती।

Friday 12 November 2010

अब कंप्‍यूटर ही मेरे बचपन के शौक को पूरा करेगा !!

मेरे घर में पहली गाडी मेरे होश संभालने से पूर्व से ही थी , पर दूसरी गाडी के खरीदे जाने की खुशी की धुधली तस्‍वीर अभी भी है। क्‍यूं न हो , उस वक्‍त मैं छह वर्ष की थी और माना जाता है कि इस उम्र की खास घटनाओं के प्रभाव से मस्तिष्‍क जीवनभर अछूता नहीं होता। इन दोनो एम्‍बेसडर गाडियों के बाद हमारे परिवार की गिनती गांव के खास परिवारों में होने लगी थी। जिस तरह आज के बच्‍चों को घर के सभी फोन और मोबाइल नं याद रहते हैं , हम बचपन में खुद भी अपनी गाडी के नंबर रटा और भाई बहनों को रटाया करते। बाबूजी की गाडी का नंबर ‘BRW 1016’ पापाजी के गाडी का नंबर ‘BRW 1658’ भले ही पापाजी से छोटे तीनो भाइयों को हमलोग चाचा और उनके अपने बच्‍चे पापा कहा करते हों , पर बडे दोनो भाई अभी तक पूरे घर के बाबूजी और पापाजी ही हैं। कहीं किसी प्रकार के धार्मिक आयोजन होने पर दादी जी और फिल्‍मों या अन्‍य कार्यक्रम के सिलसिले में मम्‍मी या चाची कहीं बाहर जाती। हम बच्‍चों को तो प्रत्‍येक में शामिल रहना ही था।

पूरे परिवार के सदस्‍यों को गाडी में बैठाकर एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान की ओर सुरक्षित ढंग से ले जाने में ड्राइवर की भूमिका मनोमस्तिष्‍क पर बचपन से ही प्रभाव डाला करती। पूरे ध्‍यान संकेन्‍द्रण से गाडी की गति को तेज और धीमा करना और समयानुसार स्‍टेयरिंग को बाये और दायें घुमाना हमें बच्‍चों का ही खेल लगता। कोई गाडी आगे निकलती तो हम आगे बढने के लिए ड्राइवर अंकल को परेशान करते और जब हमारी गाडी किसी से आगे बढती तो खास विजयी अंदाज में चिल्‍लाते। ऐसे में दस बारह वर्ष की उम्र में ही गाडी चलाने का शौक मुझपर हावी होता जा रहा था। यूं तो सरकारी नियम के हिसाब से गाडी चलाने के लिए मेरी उम्र बहुत कम थी , इसलिए लाइसेंस मिलने का कोई सवाल ही न था , पर घरवालों ने मेरे मैट्रिक की परीक्षा ठीक ढंग से पास कर लेने पर गाडी चलाना सिखाने का वादा कर दिया था।

पर वाह रे भाग्‍य का खेल , मेरे मैट्रिक पास करने से पूर्व ही गाडी खुद असहाय होकर दरवाजे पर लग गयी थी, वो गाडी सीखने में मेरी मदद क्‍या करती ?  परिवार वालों के अति विश्‍वास और ड्राइवरों के विश्‍वासघात ने मात्र 8 और 10 वर्ष पुरानी गाडी के कल पुर्जो में ऐसी गडबडी कर दी थी कि 1977 के बिहार विधान सभा चुनाव में कांग्रेस की टिकट पर खडे मेरे चाचाजी के चुनाव प्रचार तक तो किसी तरह गाडी ने साथ दिया , पर उसके बाद वह सडक पर चलने लायक नहीं रही। मैं मन लगाकर पढाई करती हुई 1978 में फर्स्‍ट डिविजन से मैट्रिक पास भी कर लिया था , आशा और विश्‍वास के साथ विश्‍वकर्मा पूजा और दीपावली में दोनो कार की साफ सफाई और पूजा भी करती रही कि किसी दिन यह फिर जीवित होगी। पर कुछ दिनों तक यूं ही पडी हुई उस कार परिवारवालों के द्वारा औने पौने मूल्‍य में यह सोंचकर बेच दिया गया कि उन्‍हें ठीक करने में होनवाले खर्च की जगह एक नई गाडी आ जाएगी , पर मेरे विवाह के वक्‍त तक नई गाडी नहीं आ सकी और मेरा गाडी सीखने का सपना चूर चूर हो गया।

मेरे विवाह के वक्‍त ससुराल में सिर्फ स्‍कूटर और मोटरसाइकिल था , घर में कई बार गाडी लेने का कार्यक्रम अवश्‍य बना , पर वो खरीदा तब गया , जब मैं अपने बच्‍चों को लेकर बोकारो आ चुकी थी। वहां कभी दो चार दिनों के लिए जाना होता था , इसलिए हाथ आजमाने से भी कोई फायदा नहीं था। कभी पारिवारिक कार्यक्रम में उसका उपयोग भले ही मैने कर लिया हो , पर मेरे अपने व्‍यक्तिगत कार्यक्रम में बस , ट्रेन या टैक्‍सी ही सहयोगी बनी रही। बोकारो स्‍टील सिटी में जहां खुद के रहने की इतनी समस्‍या हो , एक गाडी लेकर अपना जंजाल बढाने का ख्‍याल कभी दिल में नहीं आया , इसलिए बैंको या अन्‍य फायनांस कंपनियों द्वारा दी जा रही सुविधाओं का लाभ उठाने से भी परहेज करती रही।

बचपन का शौक तब पूरा हुआ जब मैने कंप्‍यूटर खरीदा , कंप्‍यूटर में तरह तरह के कार वाले गेम इंस्‍टॉल कर घंटों चलाती। हाल के वर्षों में कंप्‍यूटर पर कार चलाना बंद कर दिया था। इच्‍छा थी कि घर वापस लौटने से पहले बोकारो स्‍टील में कार चलाना सीख लूं, पर घर के लोग इस पक्ष में नहीं। दरअसल मैं जिस कॉलोनी में रहने जा रही हूं , उसका फैलाव मात्र दो तीन किलोमीटर के अंदर है, कॉलोनी के अंदर कार की आवश्‍यकता पडती नहीं। कॉलोनी से बाहर जाने वाला रास्‍ता कोयला ढोने वाले ट्रकों के कारण इतना खराब है कि बिना अच्‍छे ड्राइवर के उसमें चला नहीं जा सकता। ऐसे में मेरे ड्राइविंग सीखने से का कुछ भी उपयोग नहीं है, इसलिए मैने ड्राइविंग सीखने का अपना कार्यक्रम रद्द कर दिया है। अब मेरे ड्राइविंग के शौक को जीवनभर कंप्‍यूटर ही पूरा कर सकता है , इसलिए दो चार कार गेम और इंस्‍टॉल करने जा रही हूं।

Wednesday 10 November 2010

छठ सिर्फ श्रद्धा और आस्‍था का त्‍यौहार है .. इसमें दिखावटीपना कुछ भी नहीं !!

बिहार और झारखंड का मुख्‍य त्‍यौहार है छठ , अभी चारो ओर इसकी धूम मची है। ब्‍लॉग में भी दो चार पोस्‍ट पढने को मिल ही जा रहे हैं।  लोग छठ की खरीदारी में व्‍यस्‍त है , पडोस में मेहमानों की आवाजाही शुरू हो गयी है।  दूर दूर से इसके खास धुन पर बने गीत सुनने को मिल ही रहे हैं , फिर भी वर्ष में एक बार इसकी सीडी निकालकर दो तीन बार अवश्‍य चला लिया करती हूं। छठ के बाद फिर सालभर  इस गाने को नहीं बजाया जाता है , पडे पडे सीडी खराब भी तो हो जाएगी। गीत सुनते हुए न जाने कब मन बचपन में छठ की पुरानी यादों में खो जाता है।

कहते हैं , हमारे पूर्वज 150 वर्ष पूर्व ही पंजाब से आकर बोकारो जिले के पेटरवार नाम के गांव में बस गए थे।  इनके नाम से गांव में एक 'खत्री महल्‍ला' कहलाने लगा था। आर्सेलर मित्‍तल ने अब अपने स्‍टील प्रोजेक्‍ट के लिए इस स्‍थान को चुनकर अब इसका नाम औद्योगिक शहरों में शुमार कर दिया है! हमलोगों के जन्‍म तक तो कई पीढियां यहां रह चुकी थी , इसलिए यहां की सभ्‍यता और संस्‍कृति में ये पूरे रच बस चुके थे। पर छठ का त्‍यौहार कम घरों में होता था और कुछ क्षेत्रीय लोगों तक ही सीमित था , खासकर उस समय तक हममें से किसी के घर में नहीं मनाया जाता था। सब लोग छठ मैय्या के नाम पर एक सूप या जोडे सूप के मन्‍नत जरूर रखते थे , उसकी खरीदारी या तैयारी भी करते , पर अर्घ्‍य देने या दिलवाने के लिए हमें किसी व्रती पर निर्भर रहना पडता था।

हमारे मुहल्‍ले में दूसरी जाति के एक दो परिवार में यह व्रत होता था , खरना में तो हमलोग निश्चित ही खीर और पूडी या रोटी का प्रसाद खाने वहीं पहुंचते थे। माना जाता है कि खरना का प्रसाद जितना बंटे , उतना शुभ होता है , इसलिए बच्‍चों के लिए रखकर बाकी पूरे मुहल्‍ले का गाय का दूध व्रती के घर चला जाता था । कभी कभार हमारा मन्‍नत वहां से भी पूरा होता। पर अधिकांश वर्ष हमलोग दादी जी के साथ अपनी एक दीदी के दोस्‍त के घर जाया करते थे। एक दिन पहले ही वहां हमलोग चढावे के लिए खरीदे हुए सामान और पैसे दे देते। दूसरे दिन शाम के अर्घ्‍य के दिन नहा धोकर घर के गाय का ताजा दूध लेकर अर्घ्‍य देने जाते थे।

वहां सभी लोग प्रसाद के रख रखाव और पूजा की तैयारी में लगे होते थे। थोडी देर में सब घाट की ओर निकलते। कुछ महिलाएं और बच्‍चे दंडवत करते जाते , तो कुछ मर्द और बच्‍चे माथा पर प्रसाद की टोकरी लिए हुए । प्रसाद के सूप में इस मौसम में होने वाले एक एक फल मौजूद होते हैं , साथ में गेहूं के आटे का ठेकुआ और चावल के आटे का कसार भी।  बाकी सभी लोग पूरी आस्‍था में तथा औरते छठ का विशेष गीत गाती हुई साथ साथ चलती। हमारे गांव में कोई नदी नहीं , इसलिए पोखर पर ही छठ मनाया जाता। घाट पर पहुंचते ही नई सूती साडी में व्रती तालाबों में डुबकी लगाती , फिर हाथ जोडकर खडी रहती। सूर्यास्‍त के ठीक पहले व्रती और अन्‍य लोग भगवान को अर्घ्‍य देते। हमारे यहो सभी मर्द लडके भी उस वक्‍त तालाब में नहाकर अर्घ्‍य देते थे। महीने या सप्‍ताह भर की तैयारी के बाद कार्यक्रम थोडी ही देर में समाप्‍त हो जाता था। पर आधी पूजा तो सुबह के लिए शेष ही रह जाती थी।

पहले ठंड भी बहुत पडती थी , सूर्योदय के दो घंटे पहले घाट में पहुंचना होता है , क्‍यूंकि वहां पूरी तैयारी करने के बाद आधे घंटे या एक घंटे व्रती को जल में खडा रहना पडता है। इसलिए सूर्योदय के ढाई घंटे पहले हमें अपने घर से निकलना होता। वहां जाने का उत्‍साह इतना अधिक होता कि हमलोग अंधेरे में ही उठकर स्‍नान वगैरह करके वहां पहुंच जाते। वहां तैयारी पूरी होती , दो तीन दिन के व्रत और मेहनत के बाद भी व्रती के चेहरे पर एक खास चमक होती थी। शाम की तरह ही सारा कार्यक्रम फिर से दुहराया जाता , उसके बाद प्रसाद का वितरण होता , फिर हमलोग घर वापस आते।

विवाह के दस वर्ष बाद तक संतान न होने की स्थिति में खत्री परिवार की दो महिलाओं ने पडोसी के घरों में जाकर इस व्रत को शुरू किया और सूर्य भगवान की कृपा कहें या छठी मैय्या की या फिर संयोग ... दोनो के ही बच्‍चे हुए , और बाद में हमारे मुहल्‍ले में भी कई परिवारों में धूमधाम से यह व्रत होने लगा। इसलिए अब हमारे मुहल्‍ले के लोगों को इस व्रत के लिए गांव के दूसरे छोर पर नहीं जाना पडता है,  उन्‍हे पूरे मुहल्‍ले की हर संभव मदद मिलती है। बचपन के बाद अभी तक कई जगहों की छठ पूजा देखने को मिली ,  हर स्‍थान पर इस व्रत और पूजा का बिल्‍कुल एक सा परंपरागत स्‍वरूप है , यह सिर्फ श्रद्धा और आस्‍था का त्‍यौहार है .. इसमें दिखावटीपना कुछ भी नहीं।

Sunday 7 November 2010

काली पूजा के कुछ चित्र देखिए ..........

कार्तिक अमावस्या की शाम को घर घर होने वाली लक्ष्‍मी पूजा के साथ ही रात्रि में काली पूजा की भी बहुत महत्ता है। एंसी मान्‍यता है कि देवों में सबसे पराक्रमी और शक्तिशाली मां काली देवी दुर्गा का ही एक रूप हैं। मां काली की पूजा से वे सभी सभी नकारात्मक प्रवृतियां दूर होती हैं ,  जो धार्मिक प्रगति और यश प्राप्ति में बाधक हैं। बोकारो में हमारी कॉलोनी मे हुए काली पूजा के कुछ चित्र देखिए .....................




Tuesday 2 November 2010

कौन सा व्‍यवसाय किया जाए ??

अभी हाल में एक भाई ने बहुत खुश होकर बताया कि उसने कई प्रोडक्‍टों की एजेंसी ले रखी है , बाजार में उन वस्‍तुओं की अच्‍छी खपत है और अब भविष्‍य के लिए उसे सोंचने की आवश्‍यकता नहीं। उत्‍सुकता वश मैने उसे पूछा कि‍ वे कौन कौन से प्रोडक्‍ट हैं ?? शायद उसे सबसे अधिक फायदा शायद कोल्‍ड ड्रिंक्‍स और पानी की बोतलों से आ रहा था , उसके मुहं से इन्‍हीं दोनो का नाम पहले निकला । सुनते ही मैं ऐसे सोंच में पड गयी कि बाद में उसने और कई प्रोडक्‍टों का क्‍या नाम बताया , वो भी सुन न पायी और उसके चुप्‍प होते ही उसे जीवन में नैतिक मूल्‍यों को धारण करने का लेक्‍चर देने लगी।

वो तर्क करने में मुझसे बीस ही निकला। उसने बताया कि पानी और कोल्‍ड ड्रिंक्‍स की बोतल को बेचना तो वह एक मिनट में छोड सकता है , जब मैं उसे बताऊं कि बाजार में कौन सा प्रोडक्‍ट सही है। दूध में केमिकल की क्‍या बात की जाए , पेण्‍ट का घोल तक मिलाया जाता है। मधु , च्‍यवणप्राश तक में एंटीबायोटिक और पेस्टिसाइड की बात सुनने में आ ही गयी है। जितनी सब्जियों है , उसमें आक्सीटोसीन के इंजेक्‍शन दिए जाते हैं , जिससे सब्जियां जहरीली हो जाती हैं। गाय तक को तेज इंजेक्‍शन देकर उसके सारे शरीर का दूध निचोड लिया जाता है , नकली मावा , नकली मिठाई , नकली घी। पैकिंग के चाकलेटों और अन्‍य सामानों में कीडे मकोडे , किस चीज का व्‍यवसाय किया जाए ??

सुनकर उसकी मां यानि चाची खेतों के ऊपज तक के शुद्ध नहीं रहने की चर्चा करने लगी। गांव के परंपरागत सारे बीज समाप्‍त हो गए हैं और हर वर्ष किसान को सरकारी बीज खरीदने को बाध्‍य होना पडता है। विशेष ढंग से विकसित किए गए उस बीज में प्राकृतिक कुछ भी नहीं , उसमें गोबर की खाद नहीं चल सकती , रसायनिक खाद का ही इस्‍तेमाल करना पउता है , सिंचाई की सुविधा हो तो ठीक है , नहीं तो पौधों में प्रतिरोधक क्षमता बिल्‍कुल भी नहीं होती , देखभाल में थोडी कमी हो तो मर जाते हैं। हां, सबकुछ ठीक रहा तो ऊपज अवश्‍य होती है , पर न तो पुराना स्‍वाद है और न ही पौष्टिकता।

 इस तरह के बातचीत से लोगों को कितनी निराशा होती होगी , इसका अनुमान आप लगा सकते हैं। शरीर को कमजोर कर , प्रकृति को कमजोर कर हम यदि विकसित होने का दावा करते हैं , तो वह हमारा भ्रम ही तो है। पाश्‍चात्‍य की नकल करते हुए इस अंधे विकास की दौड में किसी को कुछ भी हासिल नहीं हो सकता। एलोपैथी दवाओं का तो और बुरा हाल है , एक बार किसी बीमारी की दवा लेना शुरू करो , भाग्‍य अच्‍छा होगा , तभी उस दवा के कुप्रभाव से आप बच सकते हैं। इन दवाओं और जीवनशैली की इन्‍हीं खामियों के कारण 40 वर्ष की उम्र का प्रत्‍येक व्‍यक्ति दवाइयों पर निर्भर हो जाता है। हमारी सभ्‍यता और संस्‍कृति तथा ज्ञान ने अपने स्‍वास्‍थ्‍य के साथ साथ प्रकृति के कण कण के बारे में सोंचने को बाध्‍य करती है। इसलिए जितनी जल्‍द हमलोग परंपरागत जीवनशैली की ओर लौट जाएं , उतना ही अच्‍छा है।

Monday 1 November 2010

भूल सुधार .. LOCKED BY HINDI BLOG TIPS

आशीष खंडेलवाल जी ने अपनी एक पोस्‍ट में रचनाओं को चोरी से बचाने के लिए कुछ टिप्‍स दिए थे , जिससे टेक्‍सट कॉपी नहीं किया जा सकता था। इसका प्रयोग कुछ दिन मैने भी किया था , फिर किसी सज्‍जन के अनुरोध पर अपने लेखों के प्रयोग करने की सुविधा देने के लिए हटाना पडा । पर कुछ दिनों से मैने कई ब्‍लॉग्‍स पर जब भी कुछ शब्‍दों को सेलेक्‍ट करने की कोशिश की है , ऐसा दृश्‍य पाया है ......



मतलब कि वह स्‍वामी जी के तोते की तरह अपनी कहता भी है और आपको कॉपी करने भी दे देता है। आपको नहीं मालूम तो सुन लीजिए , स्‍वामी जी का तोता शिकारी के बिछाए गए जाल में फंसकर स्‍वामी जी द्वारा रटाए गए पाठों को कैसे दोहरा रहा था ....

शिकारी आएगा , जाल बिछाएगा . लोभ से उसमें फंसना मत !!

भूल सुधार कर लें आशीष खंडेलवाल जी !!

Saturday 30 October 2010

बच्‍चों के पालन पोषण की परंपरागत पद्धतियां ही अधिक अच्‍छी थी !!

बचपन की गल्तियों में मार पडने की बात तो लोग भूल चुके होंगे , आज के बच्‍चों को डांट फटकार भी नहीं की जाती। माता पिता या अन्‍य बडे किसी काम के लिए मना कर दिया करते हैं , तो बच्‍चों का नाराज होना स्‍वाभाविक है। पर यदि शुरूआती दौर में ही उनको गल्तियों में नहीं टोका जाए और उनकी आदतों पर ध्‍यान नहीं दिया जाए , तो आगे वे अनुशासन में नहीं रह पाते। भले ही बचपन में लाड प्‍यार अधिक पाने वाले बच्‍चे अपने आत्‍मविश्‍वास के कारण हमें सहज आकर्षित कर लेते हों , तथा डांट फटकार में जीने वाले बच्‍चे सहमे सकुचाए होने से हमें थोडा निराश करते हों, पर वह बचपन का तात्‍कालिक प्रभाव है। कहावत है 'आती बहू जन्‍मता बच्‍चा' जैसी आदत रखोगे , वैसे ही रहेंगे वो। सही ढंग से यदि अनुशासित रखने के क्रम में जिन बच्‍चों को जितनी अधिक रोक टोक होती है , उसके व्‍यक्तित्‍व का उतना ही बढिया विकास होता है और वह जीवन में उतना ही सफल होता है।

आरंभिक दौर में हर आनेवाली पीढी पिछले पीढी को विचारों में कहीं न कहीं कमजोर मानती है, क्‍यूंकि उसका ज्ञान अल्‍प होता है। जैसे जैसे उम्र और ज्ञान का दौर बढता जाता है , पुरानी पीढी द्वारा कही गयी बातों में खासियत दिखाई देने लगती है। जब मैं रोटी बेलना सीख रही थी , तो गोल न बेलने पर मम्‍मी टोका करती , जब गोल बेलना सीख गयी , तो रोटी के न सिंकने को लेकर टोकाटोकी करती। रोटी के न फूलने पर उन्‍हें संतुष्टि नहीं होती , चाहे सेंकने के क्रम में दोनो ओर से रोटी को जला भी क्‍यूं न डालूं। उनका डांटने का क्रम तबतक जारी रहा , जबतक मैं बिल्‍कुल मुलायम रोटियां न बनाने लगी। मुझे मम्‍मी का टोकना बहुत बुरा लगता, मुझे लगता कि वे जानबूझकर टोका टोकी करती हैं , इतना सेंकने पर रोटी कच्‍चा कैसे रह सकता है ? बाद में समझ में आया कि भाप का तापमान खौलते पानी से भी बहुत अधिक होता है , इसलिए रोटी फूलने पर वह बाहर के साथ साथ अंदर से भी सिंकती होगी। सिर्फ रोटी बनाने में ही नहीं अन्‍य कामों को वे जितनी सफाई से किया करती , मुझसे ही वैसी ही उम्‍मीद रखती।इसका फायदा यह हुआ कि जिम्‍मेदारी के साथ हर काम को सफाई से करना तो सीखा ही , आगे भी सीखने की ललक बनी रही। मुझे किसी भी परिस्थिति में कहीं भी समायोजन करने में दिक्‍कत नहीं आती।

आज कुछ स्‍कूलों की अच्‍छी पढाई की वजह से भले ही शिक्षा और कैरियर को युवा गंभीरता से लेते हैं , पर बाकी मामलों में आज की पीढी अपने अभिभावकों से सिर्फ प्‍यार पाकर बहुत बिगड गयी है। माता पिता अपने कैरियर की चिंता में व्‍यस्‍त बच्‍चों को स्‍वास्‍थ्‍य तक का ख्‍याल नहीं रख रहे , लेकिन उसकी उल्‍टी सीधी जिद जरूर पूरी कर रहहे हैं। उन्‍हें कभी डांट फटकार नहीं पडती , उनका पक्ष लेकर दूसरे के बच्‍चों और पडोसी तक को डांट देते हैं। अपने बच्‍चों पर गजब का विश्‍वास होता है उनका , उनकी गल्‍ती स्‍वीकारने को कतई तैयार नहीं होते। आज के अभिभावक बिल्‍कुल नहीं चाहते कि बच्‍चें के आसपास के वातावरण में ऐसी कोई बात हो , जिससे उनके दिमाग पर बुरा प्रभाव पडे। अपने को कष्‍ट में रखकर भी बच्‍चों के सुख की ही चिंता करते हैं। वैसे बच्‍चे जब युवा बनते हैं , अपने सुख के आगे किसी के कष्‍ट की उन्‍हें कोई फिक्र नहीं होती , यहां तक कि अपने माता पिता के प्रति जिम्‍मेदारी का भी उन्‍हें कोई ख्‍याल नहीं रहता। इसके अतिरिक्‍त समस्‍याओं से जूझने की युवाओं की प्रतिरोधक क्षमता समाप्‍त होती जा रही है और जिस दिन भी उसके सम्‍मुख समस्‍याएं आती हैं , वो इसे नहीं झेल पाते हैं। ज्‍योतिषियों और मनोचिकित्‍सक के पास मरीजों की बढती हुई संख्‍या इसकी गवाह है।  

अपने पालन पोषण की गलत नीतियों के कारण ही आज के सभी अभिभावक अपने बाल बच्‍चों के द्वारा अपनी देख रेख की उम्‍मीद ही छोड चुके हैं। यदि किसी ने बच्‍चों को अपनी जिम्‍मेदारी का अहसास कराते हुए अपने बच्‍चों का पालन पोषण किया भी है , तो वैवाहिक संबंध बनाते वक्‍त उनसे चूक हो जाती है। जिम्‍मेदारी के प्रति पार्टनर के गंभीर न होने से भी आज के समझदार युवा के समक्ष एक अलग मुसीबत खडी हो जाती है। माता पिता या अपने सुख में से एक को चुनने की उसकी विवशता होती है , उसे आंखे मूंदकर किसी एक को स्‍वीकार करना है। अपना सुख चुने या माता पिता का , कोई भी सबको सं‍तुष्टि नहीं दे पाता , स्थिति वैसी की वैसी ही बनी रह जाती है। यदि तबतक बच्‍चे हो गए हों , तो माता पिता को छोडकर मजबूरन उन्‍हें स्‍वार्थी बनना पडता है। आनेवाले समय में रिश्‍तों की और भयावह स्थिति उपस्थित होनेवाली है , ऐसी दशा में सभी अभिभावको से निवेदन है कि वे बच्‍चे को अपने स्‍वास्‍थ्‍य के प्रति ,परिवार और समाज के प्रति जिम्‍मेदार बनने की सीख दें। हममें से कोई भी समाज से अलग नहीं है , हम जैसा बोएंगे , वैसा ही तो काटेंगे और बोने और काटने का यह सिलसिला लगातार चलता रहेगा, जो आनेवाले युग के लिए बहुत बुरा होगा।

Tuesday 26 October 2010

ऐसे संयोग सबके जीवन में आते है क्‍या ??



प्रकृति में जो घटनाएं निरंतर नियमित तौर पर देखी जाती है , उसमें तो हम सहज विश्‍वास कर लेते हैं। चूकि घटनाएं किसी न किसी नियम के हिसाब से होती हैं , इसलिए इन नियमों को ढूंढ पाने की दिशा में हमं सफलता भी मिलती जाती है और इसी के कारण आज विज्ञान इतना विकसित है। पर कभी कभी कुछ घटनाएं बहुत ही विरल होती हैं , पूरे एक जीवन में किसी को एकाधिक बार दिखाई भी देती हैं , तो उसपर किसी का गंभीरता से ध्‍यान ही नहीं जाता। यदि उसका ध्‍यान गया भी तो बाकी लोग जिन्‍होने ऐसा कुछ होते नहीं देखा है , वे सहज विश्‍वास भी नहीं कर पाते हैं। इसलिए ऐसी घटनाओं की चर्चा भी नहीं हो पाती और उसके रहस्‍य का पर्दाफाश भी नहीं हो पाता , वे रहस्‍य रहस्‍य ही बने रह जाते है।

मेरे मम्‍मी , पापा और तीनों भाई काफी दिनों से दिल्‍ली में ही रह रहे हैं , इसलिए आजकल दिल्‍ली ही मायके बन गया है। गांव में कभी कभी किसी शादी विवाह या अन्‍य सिलसिले में जाने की आवश्‍यकता पडती है। तीन वर्ष पूर्व जब एक विवाह के सिलसिले में गांव गयी तो चाचाजी की लडकी गांव में ही थी , ढाई महीने के पुत्र को लेकर वह बाहर आयी , तो उसे देखकर मैं चौंकी। मुझे लगा , मैने पहले भी अपने जीवन में बिल्‍कुल उसी रंग रूप का वैसा ही एक बच्‍चा देख चुकी हूं। बच्‍चे की मां यानि मेरी वो बहन बचपन में बिल्‍कुल वैसी थी , चाची ने इस बात की पुष्टि की। बहुत देर बाद मुझे याद आया कि अगस्‍त में जन्‍म लेने वाली उस बहन को ढाई महीने की उम्र में ऊनी कपडों में लेकर नवंबर में चाची मायके से पहली बार आयी थी , तब मैने खुद से 15 वर्ष छोटी उस बहन को पहली बार देखा था , वह लडके के जैसी दिख रही थी। इस संयोग पर वहां बैठे हम सब लोग थोडी देर हंसे , फिर इस बात को भूल गए।

Tuesday 19 October 2010

आज हर स्‍तर पर अधिकारों का दुरूपयोग हो रहा है !!

दुर्गापूजा में शहर से बाहर थी , कई दिनों बाद बोकारो लौटना हुआ , इस वर्ष देशभर में दुर्गापूजा के साथ साथ कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स की भी धूम रही। इस कार्यक्रम की सफलता ने जहां पूरी दुनिया के समक्ष भारत का सर ऊंचा किया , वहीं इस आयोजन की आड में पैसों का बडा हेर फेर मन को सालता रहा। भ्रष्‍टाचार के मामलों में हमारा देश दिन ब दिन आगे बढता जा रहा है और कोई इसे सुधारने की कोशिश न‍हीं कर रहा , बस हर कोई एक दूसरे को गाली ही दे रहे हैं। किसी की समस्‍या से दूसरे को कोई मतलब नहीं , क्‍या छोटे और क्‍या बडे , सब अपने अधिकारों का दुरूपयोग ही कर रहे हैं।

अभी हाल में ही एक काम के सिलसिले में अचानक रांची हजारीबाग जानेवाले एन एच पर ही बोकारो से 30 किमी दूर के गांव में जाने की आवश्‍कता पड गयी । परेशानी की कोई बात नहीं थी , मेरे निवासस्‍थान से आधे किमी से भी कम दूरी पर बस स्‍टॉप है , धनबाद और अन्‍य स्‍थानों से आधे आधे घंटे में अच्‍छी आरामदेह बसें रांची की ओर जाया करती हैं , मैं बिना किसी को कहे सुने आराम से तैयार होकर घर से निकल पडी। संयोग से एक बस हजारीबाग के लिए बोकारो से ही खुल रही थी , मैने कंडक्‍टर से एक टिकट बुक करने को कहा , पर जगह का नाम सुनते ही उसने कहा कि आपको सीट नहीं मिलेगी , केबिन में बैठकर जाओ, जबकि‍ उस समय बस पूरी खाली थी।

बसवाले पहले पूरी दूरी तक के यात्री को ही सीट देना चाहते थे और छोटे छोटे दूरी तक के यात्री को इधर उधर बैठाकर, खडे करके भी किराया ले लेते हैं। क्‍यूंकि यदि पूरी दूरी के यात्री न मिले , तो इनसे लाभ कमाया जा सके। मतलब दोनो हाथ में लड्डू , जबकि मालिक को सिर्फ सीट के पैसेंजर के ही किराये दिए जाते हैं , वो भी पूरे नहीं। मैने कहा,'ये क्‍या बात हुई , या तो आप वहां स्‍टॉपेज ही न रखें या फिर यात्रियों को सीट दें। यदि आपको नुकसान पहुंच रहा हो , तो स्‍पष्‍ट कहें कि अगले स्‍टॉपेज तक का किराया देने पर सीट दी जाएगी। आज के आरामपसंद युग में थोडा अधिक किराया देना मुश्किल भी नहीं।' पर उन्‍हें मेरी बात सुनने में कोई दिलचस्‍पी नहीं थी। उन्‍होने न मुझसे अधिक किराया लिया और न ही मुझे मेरा पसंदीदा आगे का सीट मिला, यह कहते हुए कि वह सीट बुक है और आपका तो मैडम बस आधे घंटे का सवाल है। उनके कहने के स्‍टाइल से लगा कि वे मजबूर हैं , पर यह देखकर आश्‍चर्य हुआ कि मेरे उतरने उतरने तक उस सीट पर कोई भी पैसेंजर नहीं बैठा।

वहां पहुंचने पर जिस सरकारी ऑफिस में मेरा काम था , वहां मुझे कुछ पुराने कागजात निकलवाने थे। मैने एक सज्‍जन से पहले ही इस बात से ऑफिसवालों को आगाह करवा चुकी थी , इसलिए वे तैयार थे। मेरे पहुंचते ही उन्‍होने पुराने फाइलों को खंगाला और बीस से पच्‍चीस मिनट के अंदर मेरे कागजात मुझे सौंप दिए। मेरे लिए कोई दो नंबर का कार्य उन्‍होने नहीं किया था , इस काम को करना उनका कर्तब्‍य था , क्‍यूंकि इसके लिए सरकार उन्‍हें हमारे ही द्वारा दिए गए कर से वेतन दिया करती है। पर मुझे यह देखकर आश्‍चर्य हुआ कि काम के होते ही वे स्‍टाफों को मिठाई खिलाने के बहाने से इशारे से कुछ पैसों की मांग करने लगें। आप सभी पाठक समझदार हैं , मौके की नजाकत को देखते हुए मैने क्‍या किया , यह बताने की तो आवश्‍यकता नहीं।

पर मेरे मन को जो बात कचोटती रही , वह यह कि जिन्‍हें भी जो अधिकार मिल रहे हैं , वह उसी का दुरूपयोग कर रहा है और ऊपरवाले को गाली दे रहा है। मगर यदि वो ऊपर होता , तो वो भी ऐसा ही करता। वे सरकारी कर्मचारी हैं , हर महीने मासिक तनख्‍वाह मिलती है , पर जो उनके सामने होते हैं , वे कभी कभी लाचार भी होते होंगे। क्‍या ही अच्‍छा होता कि हम सामनेवाले की समस्‍याओं को भी समझते , ईमानदारी हममें कूट कूट कर भरी होती, हर स्‍तर पर जिम्‍मेदारियों का सही ढंग से पालन किया जाता। आज हम किसी को गाली देने से नहीं चूकते  , पर जब मुझे कोई अधिकार मिलता है , उसका दुरूपयोग करने लगते हैं।

Tuesday 5 October 2010

आस्‍था और प्रेम किस हद तक अतिशयोक्ति को जन्‍म देते हैं ??

1999 तक पूरे मनोयोग से ज्‍योतिष का अध्‍ययन करने के बाद  बोकारो में रहते हुए मैने लोगों को ज्‍योतिषीय सलाह देने का काम शुरू कर दिया था। मैने पहले भी अपने एक आलेख में लिखा है कि 1998 से 2000 के समय में आसमान में शनि की स्थिति किशोरों को बुरी तरह प्रभावित करने वाली थी और उस दौरान अधिकांशत: टीन एजर बहुत ही परेशानी में अपने मम्‍मी पापा के साथ मेरे पास आते रहें। तब वे इतने परेशान थे कि मेरे समझाने बुझाने का भी उनपर कोई खास असर नहीं होता था। सामान्‍य तौर पर होनेवाले बुरे ग्रहों के प्रभाव को भी मैं सर्दी खांसी की तरह ही लेती हूं , जो जीवन की लडाई के लिए प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने में मदद करता है।

एक दिन एक अभिभावक मेरे पास आए , उनका टीन एजर बेटा घर छोडकर कहीं चला गया था। मैने उसके जन्‍म विवरण के आधार पर उसकी जन्‍मकुंडली बनायी , और आवश्‍यक गणनाएं की और बताया कि अप्रैल के बाद ही उसके घर लौटने की संभावना है। उस समय दिसंबर ही चल रहा था और अप्रैल आने में काफी समय बचे हुए था , मात्र 16 वर्ष का हर सुख सुविधा में पलने वाला बच्‍चा 4 महीने घर , शहर के बाहर कैसे काट सकता है , माता पिता उसकी आस ही छोड चुके थे। पर मैं जानती थी कि दो ढाई वर्षों तक चलनेवाला शनि भी लोगों को वर्ष पांच महीने अधिक परेशान किया करता है।

मई माह में एक दिन अचानक वो सिन्‍हा दंपत्ति हमसे बाजार में मिले , उनकी पत्‍नी बहुत परेशान थी , मुझसे कहा कि आपका कहा समय भी समाप्‍त हो गया , बेटा तो नहीं आया। मैने कहा कि नहीं , मेरा दिया समय समाप्‍त नहीं हुआ है , मैने अप्रैल के बाद कहा है , जून तक आने की उम्‍मीद है , जून में न लौटे तब कुछ गडबड माना जा सकता है। उसके दो चार दिनों बाद ही उ प्र से सूचना मिली कि उनका बेटा सुरक्षित किसी चीनी के मिल में काम कर रहा है। अभी उसकी तबियत खराब है , मिल के मालिक ने पहले उन्‍हें फोन किया और फिर अपने एक कर्मचारी के साथ उसे बोकारो वापस भेज दिया।

उस समय से उक्‍त दंपत्ति हर समस्‍या में नियमित तौर पर मेरी सलाह लेने लगे। धीरे धीरे मुझपर उनका विश्‍वास जमता चला गया। कभी‍ कभी उनके रेफरेंस से भी मेरे पास किसी और तरह की समस्‍या से जूझते लोग आते रहें। उसमें से कुछ लोग मेरे संपर्क में अभी भी हैं , कुछ नहीं भी , पर सिन्‍हा दंपत्ति का मुझपर अतिशय आस्‍था और प्रेम हैं , जिसका परिणाम अभी दो चार दिन पूर्व उनकी अतिशयोक्ति में देखने को मिला।  मेरे पास एक दंपत्ति आए , उनका बेटा खो गया है। उन्‍होने बताया "सिन्‍हा दंपत्ति ने हमें भेजा है , क्‍यूंकि उनके बेटे के खोने पर आपने उन्‍हें बता दिया था कि उनका बेटा ईख पेर रहा है। अब हमें भी बताइए कि मेरा बेटा कहां क्‍या कर रहा है ??"

मैं तो चौंक पडी , इस तरह की बातें मैं न तो बताती हूं और न ही बताने का दावा करती हूं। किसी प्रकार के तंत्र मंत्र की सिद्धि करने वाले , जो भविष्‍य को नहीं , सिर्फ भूत को स्‍पष्‍ट देखा करते हैं , उनके लिए शायद यहां पर जबाब देना आसान हो , जैसा वे दावा करते हैं , पर ज्‍योतिष जो मूलत: समय की जानकारी देने वाला विषय है , भूत और वर्तमान को भी संकेत में देखा करता है और भविष्‍य को भी , अपनी विद्या के आधार पर इसका स्‍पष्‍ट जबाब मेरे पास न था । प्राचीन ऋषि महर्षियों की तरह दिव्‍य ज्ञान भी मेरे पास नहीं , इसलिए मैं लोगों में ग्रहों के प्रभाव का वैज्ञानिक सोच भरना चाहती हूं ,पर ऐसा नहीं हो पाता है । उस वक्‍त मैं सिर्फ यही सोंच रही थी कि आस्‍था और प्रेम किस हद तक अतिशयोक्ति को जन्‍म देते हैं ??

Tuesday 28 September 2010

लंबाई बढते वक्‍त बच्‍चों के कपडे जूत्‍ते खरीदना बहुत बडी समस्‍या होती है !!

बोकारो के बारे में अबतक आपने पढा .... बोकारो में दोनो बच्‍चों के साथ परिवार के किसी अन्‍य सदस्‍य के न होने से मुझे पढाई के साथ ही साथ बच्‍चों के शारीरिक और चारित्रिक विकास पर भी मैने पूरा ध्‍यान देना पडा। बहुत बचपन में तो बच्‍चें की लंबाई तेज गति से बढती नहीं है , यदि बढती भी हो , तो अधिकांशत: हाफ शर्ट और हाफ पैण्‍ट में मालूम भी नहीं चलता। पर किशोरावस्‍था के दो चार वर्ष लंबाई में बहुत तेज गति से वृद्धि होती है , खासकर हमारे घर के सभी बच्‍चे 13 की उम्र तक अपनी पूरी लंबाई छह फीट पूरे कर लेते हैं , इस दौरान इनकी पीठ , बगल और जांघों में वो स्‍क्रैच पड जाता है , जो महिलाओं के शरीर में गर्भावस्‍था के दौरान पडता है। इसलिए 9 से 13 की उम्र के चार पोंच वर्ष जहां एक ओर पौष्टिक खाना खिलाने पर इनपर पूरा ध्‍यान देना आवश्‍यक होता हैं , वहीं फैशन के इस दौर में कपडे , जूते खरीदने में साइज को लेकर खासी मशक्‍कत होती है। कपडे जूत्‍ते तुरंत छोटे हो जाते , इसको ध्‍यान में रखते हुए बडे कपडे जूत्‍ते खरीदने की मजबूरी होती ।

कक्षा आठवीं तक ही पूरी लंबाई प्राप्‍त कर लेने से उसके बाद कपडों के छोटे होने को लेकर अधिक समस्‍या नहीं रह गयी थी। यह बात मुझे इसलिए याद है , क्‍यूंकि स्‍कूल की ओर से इस कक्षा में उनके नाप के अनुरूप जो नीले स्‍कोलर ब्‍लेजर मिले , वो दुबारा हमें नहीं बनवाने पडे थे। लंबाई पूरी होने के बाद फिर कमर की साइज बढने से समस्‍या आती रही। हां जब से हॉस्‍टल में रहने लगे हैं , बाहर के अस्‍वास्‍थ्‍यकारी और अरूचिकर खाने ने उनकी कमर भी कम कर दी है। अभी तक जिन पैण्‍टों के कमर छोटे हो गए थे , वो भी अब फिट हो रहे हैं। पर एक समय था , जब कपडे के कारण अच्‍छी मुसीबत हो जाया करती थी , खासकर एक प्रसंग तो हमेशा याद रखने लायक है।

बोकारो में दुर्गापूजा बहुत धूमधाम से मनायी जाती है , पूजा के कारण अधिकांश घरों में लोग नए कपडे खरीदते ही हैं , पर हमलोग कपडे का बाजार जरूरत के मुताबिक ही करते हैं । एक वर्ष दोनो भाइयों के सारे कपडे छोटे मिले , खासकर पैरों और हाथों की लंबाई बढने से फुल पैण्‍ट , फुल शर्ट और पार्टी के जूत्‍तों पर अधिक असर पडता है , क्‍यूंकि स्‍कूल के जूत्‍ते तो एक वर्ष में पहनने लायक नहीं होते। चार छह महीने के दौरान कहीं जाना हो , तो दिक्‍कत हो जाएगी , यह सोंचकर दोनो के तीन तीन सेट अच्‍छे कपडे बनवाए। दिसंबर में ही चाचाजी की लडकी का विवाह तय हुआ , वे फरवरी में विवाह कर सकते थे , पर घर के बच्‍चों की परीक्षा को देखते हुए 5 मार्च कर दिया ।

छह माह पहले पूजा में ही कपडे बनवाए थे , तैयारी की कोई आवश्‍यकता नहीं थी , इसलिए मैं बच्‍चों की परीक्षा की तैयारी में ही व्‍यस्‍त रही। 5 मार्च को मेरे बच्‍चों की अंतिम परीक्षा थी , परीक्षा देकर उन्‍हें 12 बजे तक स्‍कूल से लौटना था। मेरा मायका 30 किमी की दूरी पर है , मैने 1 बजे तक चलने का कार्यक्रम बनाया । दोनो को स्‍कूल भेजकर मैने जल्‍दी जल्‍दी सारी पैकिंग शुरू कर दी , एक एक सेट कपडे बच्‍चें के रास्‍ते के लिए भी रख लिए। स्‍कूल से बच्‍चे आए तो खा पीकर तैयार होने लगे। घर से कहीं निकलना हो , तो अंत अंत में कई तरह के काम होते हैं , मैं उसी में व्‍यस्‍त थी कि छोटे बेटे ने आकर दिखाया कि मैने उसके लिए जो पैंट निकालकर रखी थी , वह छोटा हो गया है। रास्‍ते की ही तो बात थी , मैने उसे बडे बेटे की वह पैण्‍ट दे दी , जो उसने एकाध दिन पहनकर हैंगर में टांग दिया था।

विवाह के घर में रिश्‍तेदारों की भीड , आजकल महिलाओं को काम तो कुछ रहता नहीं है , गप्‍पें मारते दोपहर से कैसे शाम हो गयी , पता भी न चला। बरात आने वाली थी , आठ या साढे आठ बजे हमलोग तैयार होने अपने पापा के घर आए , क्‍यूंकि हमारी अटैची वहीं थी। सब अपने अपने कपडे पहनने लगे , पर यह क्‍या ?? बडे ने तो पिछले वर्ष ही अपनी लंबाई पूरी कर ली थी , इसलिए इन छह महीनों में उसके कपडे छोटे नहीं हुए थे , पर छोटे बेटे की पैंट तो मेरे बढाकर खरीदे हुए दो तीन इंच अधिक का मेकअप करते हुए उसके पैरो से दो इंच ऊपर आ गयी थी यानि छह महीने के अंदर उसके कमर के नीचे का हिस्‍सा 5 इंच से अधिक बढ गया था। मेरे पास उसके और कपडे थे नहीं और मेरे घर में कोई उसका हमउम्र भी नहीं था । पुरानी पैंट, जो वह पहनकर गया था , उसमें रसगुल्‍ले के रस गिर चुके थे , बाजार भी बंद हो गया था , बडे ने पिछले वर्ष ही अपनी लंबाई पूरी कर ली थी , इसलिए उसके कपडे काफी लंबे थे , किसी तरह मोडकर उससे ही काम चलाना पडा।

Monday 6 September 2010

मेरी पहली प्राथमिकता ज्‍योतिष का विकास करने की थी !!

अभी तक आपने पढा .... दूसरे ही दिन से टी वी पर ज्‍योतिष के उस विज्ञापन की स्‍क्रॉलिंग शुरू हो गयी थी , जो मैने पिछली पोस्‍ट में लिखा है....

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पर नई नई पिक्‍चर देखने में व्‍यस्‍त लोगों का अधिक ध्‍यान इस ओर जाता नहीं है , यदि ध्‍यान जाता भी है तो लोगों को यह भ्रम है कि एक ज्‍योतिषी के पास हमें मुसीबत पडने पर ही जाना चाहिए। मुसीबत के वक्‍त भी बहुत दूर तक लोग स्‍वयं संभालना चाहते हैं , क्‍यूंकि एक ज्‍योतिषी को ठग मानते हुए लोग उससे संपर्क करना नहीं चाहते। यदि एक ज्‍योतिषी के पास जाने से समस्‍याएं सुलझने की बजाए उलझ जाती हों , तो उसके पास जाने का क्‍या औचित्‍य ??  पर फिर भी कुछ लोग तो समस्‍याओं के अति से गुजरते ही होते हैं , जिनके पास समस्‍या के समाधान को कोई रास्‍ता नहीं होता , उनका ध्‍यान बरबस इस ओर आकृष्‍ट हो जाता है। वैसे ही लोगों में से कुछ के फोन मेरे पास आने लगे थे ।

भले ही टोने टोटके , तंत्र मंत्र या झाडफूंक की समाज के निम्‍न स्‍तरीय लोगों और समाज में गहरी पैठ हो , पर ज्‍योतिष से हमेशा उच्‍च वर्ग की ही दिलचस्‍पी रही है। राजा , सेनापति ,मंत्री  , बडे नेता और बडे से छोटे हर स्‍तर तक के व्‍यवसायियों को बिना ज्‍योतिषी के काम शुरू करते नहीं देखा जाता। यह भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ऊंची सामाजिक और आर्थिक स्थिति के होते हुए भी ये ग्रहों के प्रभाव को लेकर अंधविश्‍वास में होते हैं। पर मैने उनके मध्‍य विज्ञापन न कर बोकारो स्‍टील सिटी के सेक्‍टरों  में प्रसारित होते चैनल में विज्ञापन किया था , जहां आमतौर पर व्‍यवसायी नहीं , अच्‍छे पढे लिखे नौकरीपेशा निवास करते हैं , जो स्‍थायित्‍व के संकट से नहीं गुजरते होते हैं और जिनमें तर्क करने की पूरी शक्ति होती है।  एप्‍वाइंटमेंट लेने के बाद वे हमारे पास आते , अपना जन्‍म विवरण दे देते और चुपचाप रहते , कोई प्रश्‍न तक न करते। अपने ज्‍योतिष में विश्‍वास दिलाने की पूरी जबाबदेही मुझपर होती।

मैं तबतक एक गृहिणी के तौर पर घर के अंदर रह रही थी , एक प्रोफेशनल के तौर पर बातें करने में बिल्‍कुल अयोग्‍य। लंबे जीवनयात्रा से गुजरनेवाले अधेड उम्र के लोगों को तो उनके अच्‍छी और बुरी जीवनयात्रा के बारे में जानकारी देकर विश्‍वास में लिया जा सकता था , पर अधिकांश लोग खुद की परेशानी को लेकर मेरे पास नहीं आया करते थे। वे अपने बेटे बेटियों की समस्‍याएं , मुख्‍य तौर पर कैरियर या विवाह की समस्‍याएं लेकर आते , उन बच्‍चों की जन्‍मकुंडली के अनुसार छोटी सी जीवनयात्रा में कोई बडा उतार चढाव मुझे नहीं दिखता , जिसको बताकर मैं उन्‍हें विश्‍वास में लेती। दस पंद्रह मिनट तक पूरी शांति का माहौल बनता , पर इसके बाद मुझे कई विंदू मिल ही जाते , जिससे मैं उन्‍हें विश्‍वास में ले पाती । मैं साफ कर देती कि समय के साथ कह रही भूतकाल की बातों से यदि उन्‍हें विश्‍वास न हो , तो वे वापस जा सकते हैं , उन्‍हे फी देने की कोई जरूरत नहीं। पर छह महीने तक स्‍क्रॉलिंग चली , हर दिन एक दो लोग आते रहें , पर भूतकाल की बातें सुनकर कोई भी बिना भविष्‍य की जानकारी के नहीं लौटे। हां, इन छह महीनों में दो बार ऐसा वाकया हुआ , जानबूझकर प्‍लानिंग बनाकर दो युवा भाई बहन आए , सबकुछ पूछ भी लिया और कहा कि वे संतुष्‍ट नहीं हुए , मैने कहा कि आपने मेरा इतना समय क्‍यूं लिया , तो उन्‍होने कहा कि मुझसे अधिक उनका समय बर्वाद हुआ है।

धीरे धीरे चार महीने व्‍यतीत हो चुके थे , इस मध्‍य मैं बहुतों को प्रभावित कर चुकी थी , इसलिए उनके परिचय से भी कुछ लोग आने लगे थे। चूंकि मेरी पहली प्राथमिकता ज्‍योतिष का विकास करने की थी , पैसे कमाने की नहीं , इसलिए मैने विज्ञापन बंद कर दिया था। एक ज्‍योतिषी के पास आनेवाले तो बहुत अपेक्षा से मेरे पास आते , पर मेरे पास आने के बाद उन्‍हें मालूम होता कि ज्‍योतिषी भगवान नहीं होता। एक डॉक्‍टर , एक वकील , एक शिक्षक की तरह ही ज्‍योतिष भी कुछ सीमाओं के मध्‍य स्थित होता है , यहां सबकुछ स्‍पष्‍ट नहीं दिखाई देता और हमलोग ग्रहों की सांकेतिक स्थिति को देखकर भविष्‍यवाणियां करते हैं। इसके अलावे ग्रह के प्रभाव को कम या अधिक कर पाना तो संभव है , पर दूर कर पाना प्रकृति को वश में करना है , जो कदापि संभव नहीं , हमारे विश्‍लेषण से वे पूर्णत: संतुष्‍ट होते। पर बहुत दिनों तक मैं इस ज्ञान को न बांट सकी , क्‍यूंकि मेरे सामने अन्‍य काम भी बिखरे पडे थे , इसे जानने के लिए फिर अगली कडी ....

Monday 30 August 2010

ज्‍योतिष के व्‍यावहारिक पक्ष को मजबूत बनाने के लिए लोगों से मिलना जुलना जरूरी होता है !!

अभी तक आपने पढा ... इस तरह घर गृहस्‍थी में उलझने के बाद अपने कैरियर की ओर मेरा ध्‍यान नहीं रह गया था। भले ही स्‍वयं की संतुष्टि के लिए मै कुछ रचनाएं लिख लिया करती थी , पर मुझे अपनी इस योग्‍यता पर इतना विश्‍वास नहीं था कि इसकी बदौलत मैं अपनी पहचान बना सकती हूं। जबकि ज्‍योतिष में पापाजी के पूरे जीवन का रिसर्च आमजन के लिए बिल्‍कुल नया और बहुत उपयोगी था , जिसपर लिखने के ज्‍योतिष के क्षेत्र में इतनी जल्‍द मैने पहचान बना ली थी। इधर पापाजी की उम्र भी बढती जा रही थी और उनके वृद्धावस्‍था में प्रवेश करते देख उनके मित्र , चेले , जो कि उनसे धार्मिक , ज्‍योतिषीय और अन्‍य प्रकार के वैचारिक सहयोग लिया करते थे , अक्‍सर उनसे पूछा करते कि वे अपने जीवनभर के अनुभवों से जुटाए गए ज्ञान को किसके पास छोडकर जाएंगे ??

आरंभ में तो मुझे ज्‍योतिष सिखलाने की पापाजी की बिल्‍कुल भी इच्‍छा नहीं थी , पर मनुष्‍य के सोंचने से होता ही क्‍या है ?? पढाई के बाद के कुछ दिन और विवाह के बाद के कुछ दिनों में ही मैने ज्‍योतिष का सामान्‍य ज्ञान प्राप्‍त कर लिया था। इसके बाद हर वक्‍त पापाजी से कुछ न कुछ प्रश्‍न करती , जबाब देने के बाद पापाजी चौंकते कि अनजाने ही एक और रहस्‍य मैने जान लिया है। 1980 के बाद पापाजी ने पत्र पत्रिकाओं में लिखना बंद कर दिया था , इसलिए ज्‍योतिष के क्षेत्र में आ रही नई पीढी पापाजी से परिचित नहीं थी , इसलिए 1992 से मैने उनके खोज को 'गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष' के नाम से पत्र पत्रिकाओं में भेजना शुरू किया। 1996 में मेरी पुस्‍तक भी छपकर आ गयी थी।

पर उस समय तक पापाजी को इतना विश्‍वास नहीं था कि अपने उत्‍तराधिकारी के तौर पर वे उनलोगों से मेरा परिचय करवाते। पर मेरे तर्क वितर्क को देखकर तथा कुछ रचनाओं को खासकर ज्‍योतिष का समयानुसार बदलाव पढने के बाद उन्‍हें मुझपर भरोसा हो गया था । फिर तो वे धीरे धीरे मुझे सबसे मिलवाना शुरू किया। लोगों से मिलने के बाद , उनके प्रश्‍नों को सुनने के बाद मुझे महसूस होने लगा कि ज्‍योतिष की मात्र सैद्धांतिक जानकारी से लोगों का कल्‍याण नहीं किया जा सकता है। इसके लिए ज्‍योतिष के व्‍यावहारिक पक्ष को मजबूत बनाए जाने की आवश्‍यकता है। महीने में एक दो व्‍यक्ति या परिवार की समस्‍या को सुनकर ज्‍योतिष को पूरा गत्‍यात्‍मक नहीं बनाया जा सकता , जैसा कि पापाजी का लक्ष्‍य है। मुझे महीने भर लोगों से मिलते जुलते रहना चाहिए। पर नए जगह में , जहां एक ज्‍योतिषी के तौर पर मुझे कोई नहीं जानता , लोगों से मिलना जुलना संभव नहीं था।

10 बजे से 1 बजे तक खाली समय में एक दिन टी वी खोलने पर मैने उसमें एक नई फिल्‍म को चलता पाया । बोकारो में उस समय कोई स्‍थानीय चैनल तो था नहीं , केबल वाले तीन घंटे किसी खास चैनल का प्रसारण रोककर उसमें नई पिक्‍चर दिखलाया करते थे , चूंकि उस वक्‍त आज की तरह घर घर सीडी या डीवीडी प्‍लेयर नहीं होते थे , इसलिए पूरी कॉलोनी के दर्शकों का इसपर ध्‍यान बना होता था। दर्शकों की भीड को देखते हुए उन्‍हें स्‍थानीय विज्ञापन मिलते , जिसकी उन तीन घंटे में स्‍क्रालिंग की जाती थी , महीनेभर पिक्‍चर के नीचे चलनेवाली स्‍क्रालिंग के लिए केबलवाले 800 रूपए चार्ज करते थे। मैने उनको फोन लगाया और अपना पहला विज्ञापन स्‍क्रॉलिंग में चलवाया , जो निम्‍न था .....

FOR ACCURATE TIME BOUND PREDICTION AND PROPER COUNSELLING BASED ON NEW GRAPHICAL TECHNIQUE CONTACT SANGITA PURI , PH No ******** , TIME .. 10AM to 2 PM , FEE .. 100 RS , NO SATISFACTION: NO FEE

दूसरे दिन से ही टी वी पर स्‍क्रालिंग शुरू हो गयी थी , पर आलेख लंबा होता जा रहा है , इसलिए इसके परिणाम की बातें अगले पोस्‍ट में  ........

Saturday 28 August 2010

आज जनकपुर में डंका बजाया जाएगा ........!!

अभी तक आपने पढा .... बच्‍चे अपनी पढाई में व्‍यस्‍त हो गए थे और धीरे धीरे बोकारो में हमारा मन लगता जा रहा था , पर स्‍कूल के कारण सुबह जल्‍दी उठना पडता , इसलिए दस बजे तक प्रतिदिन के सारे कामों से निवृत्‍त हो जाती तथा उसके बाद दो बजे बच्‍चों के आने तक यूं ही अकेले बैठी रहती। आरंभ से ही टी वी देखने की मेरी आदत नहीं , इसलिए मेरे सामने एक बडी समस्‍या उपस्थित हो गयी थी , प्रतिदिन दिन के दस बजे से लेकर दो बजे तक का समय काटने को दौडता। ये तो सप्‍ताहांत में एक दो दिन ही यहां आ पाते , और यहां हमारे पर‍िचित अधिक नहीं। जिस मुहल्‍ले में मैं रह रही थी , वहां की महिलाओं की बातचीत भी टेलीवीजन के सीरियलों या दूसरों के घरों की झांक ताक तक ही सीमित थी , जिसमें बचपन से आज तक मेरा मन बिल्‍कुल ही नहीं लगा।

वैसे तो ज्‍योतिषीय पत्र पत्रिकाओं में मेरे लेख काफी दिनों से प्रकाशित हो रहे थे और 1996 के अंत में मेरी पुस्‍तक भी प्रकाशित होकर बाजार में  आ गयी थी। पर मुझे यही महसूस होता रहा कि ज्‍योतिष में विषय वस्‍तु की अधिकता के कारण ही मैं भले ही लिख लेती हूं , पर बाकी मामलों में मुझमें लेखन क्षमता नहीं है। कुछ पत्र पत्रिकाएं मंगवाया करती थी मैं , उन्‍हें पढने के बाद प्रतिक्रियास्‍वरूप कुछ न कुछ मन में आता , जिसे पन्‍नों पर उतारने की कोशिश करती। कभी कादंबिनी की किसी समस्‍या को हल करते हुए कुछ पंक्तियां लिख लेती .....

सख्‍ती कठोरता , वरदान प्रकृति का ,
हर्षित हो अंगीकार कर।
दृढ अचल चरित्र देगी तुम्‍हें,
क्रमबद्ध ढंग से वो सजकर।।
जैसे बनती है भव्‍य अट्टालिकाएं,
जुडकर पत्‍थरों में पत्‍थर ।। 


तो कभी किसी बहस में भी भाग लेते हुए क्‍या भारतीय नेता अंधविश्‍वासी हैं ?? जैसे एक आलेख तैयार कर लेती। कभी कभी जीवन के कुछ अनुभवों को चंद पंक्तियों में सहेजने की कोशिश भी करती । बच्‍चों के स्‍कूल के कार्यक्रम के लिए लिखने के क्रम मे उत्‍पादकता से प्रकृति महत्‍वपूर्ण  जैसी कविताएं लिखती तो कभी चिंतन में आकर कैसा हो कलियुग का धर्म ?? पर भी दो चार पंक्तियां लिख लेती। इसके अतिरिक्‍त न चाहते हुए भी स्‍वयमेव कुछ गीत कुछ भजन , अक्‍सर मेरे द्वारा लिखे जाते। यहां तक कि इसी दौरान मैने कई कहानियां भी लिख ली थी , जो साहित्‍य शिल्‍पी में प्रकाशित हो चुकी हैं। एक दिन यूं ही बैठे बिठाए सीता जी के स्‍वयंवर की घोषणा के बाद राजा जनक , रानी और सीताजी के शंकाग्रस्‍त मनस्थिति  का चित्रण करने बैठी तो एक कविता बन पडी थी , कल डायरी में मिली , आज प्रस्‍तुत है ......

आज जनकपुर में डंका बजाया जाएगा।
जनकजी के वचन को दुहराया जाएगा।।

राजा , राजकुमार या हो प्रधान।
बूढा , बुजुर्ग या हो जवान।।
देशी , परदेशी या हो भगवान।
दैत्‍य , दानव या हो शैतान।

शिव के धनुष को जो तोडेगा उसी से ,
सीता का ब्‍याह रचाया जाएगा।।

आज जनकपुर में डंका बजाया जाएगा  ........

आज राजा का मन बडा घबडाएगा।
अपने वचन पे पछतावा आएगा।।

राजा , राजुकमार या होगा प्रधान ?
बूढा बुजुर्ग या होगा जवान ??
देशी , परदेशी या भगवान ?
दैत्‍य , दानव या फिर शैतान ??

शिव के धनुष को कौन तोडेगा किससे ,
सीता का ब्‍याह रचाया जाएगा ??

आज जनकपुर में डंका बजाया जाएगा  ......

आज रानी का मन बडा घबडाएगा।
आज देवता पितृ मनाया जाएगा।।

चाहे हों राजा, राजकुमार या प्रधान।
ना हो वो बूढा, बुजुर्ग , हो जवान।।
चाहे हो देशी , परदेशी या भगवान।
ना हो वो दैत्‍य , दानव ना शैतान !!

शिव के धनुष को जो तोडे , जिससे,
सीता का ब्‍याह रचाया जाएगा।।

आज जनकपुर में डंका बजाया जाएगा ........

आज सीता को मंदिर ले जाया जाएगा।
वहां राम जी के दर्शन पाया जाएगा।।

ना होंगे राजा , राजकुमार ना प्रधान।
ना होंगे बूढे , बुजुर्ग  ना जवान।।
ना होंगे दैत्‍य , दानव ना शैतान।
ना देशी , परदेशी , होंगे भगवान।।

शिव के धनुष को वही तोडेंगे उन्‍हीं से ,
मेरा  ब्‍याह रचाया जाएगा।।

फिर तो राम जी को वरमाला पहनाया जाएगा।
फिर तो सखियों द्वारा मंगलगान गाया जाएगा।।
फिर तो जनकपुर में उत्‍सव मनाया जाएगा।
फिर तो  'राम संग सीता ब्‍याह' रचाया जाएगा।।

Wednesday 25 August 2010

आज थोडी जानकारी बच्‍चों की पढाई के बारे में भी .......

अभी तक आपने पढा .... खासकर बच्‍चों के पढाई के लिए ही तो हमलोग अपना नया जीवन बोकारो में शुरू करने आए थे , इसलिए बच्‍चों के पढाई के बारे में चर्चा करना सबसे आवश्‍यक था , जिसमें ही देर हो गयी। बचपन से जिन बच्‍चों की कॉपी में कभी गल्‍ती से एक दो भूल रह जाती हो , स्‍कूल के पहले ही दिन उन बच्‍चों की कॉपी के पहले ही पन्‍ने पर चार छह गल्तियां देखकर हमें तो झटका ही लग गया था , वो भी जब उन्‍हें मात्र स्‍वर और व्‍यंजन के सारे वर्ण लिखने को दिया गया हो। पर जब ध्‍यान से कॉपी देखने को मिला , तो राहत मिली कि यहां पे मैं भी होती तो हमारी भी चार छह गलतियां अवश्‍य निकलती। हमने तो सरकारी विद्यालय में पढाई की थी और हमें ये तो कभी नहीं बताया गया था कि वर्णों को वैसे लिखते हैं , जैसा टाइपिंग मशीनें टाइप करती हैं। और जैसा हमने सीखा था , वैसा ही बच्‍चों को सिखाया था और उनके पुराने स्‍कूल में भी इसमें काट छांट नहीं की गयी थी। इसका ही फल ही था कि पहली और तीसरी कक्षा के इन बच्‍चों के द्वारा लिखे स्‍वर और व्‍यंजन वर्ण में भी इतनी गल्तियां निकल गयी थी। पर बहुत जल्‍द स्‍कूल के नए वातावरण में दोनो प्रतिदिन कुछ न कुछ सीखते चले गए और पहले ही वर्ष दोनो कक्षा में स्‍थान बनाने में कामयाब रहे। खासकर छोटे ने तो  पांच विषयों में मात्र एक नंबर खोकर 99.8 प्रतिशत नंबर प्राप्‍त कर न सिर्फ अपनी कक्षा में , वरन् पूरी कक्षा में यानि सभी सेक्‍शन में टॉप किया था।

धीरे धीरे नए नए बच्‍चों से दोस्‍ती और उनके मध्‍य स्‍वस्‍थ प्रतिस्‍पर्धा के जन्‍म लेने से  बच्‍चे अपने विद्यालय के वातावरण में आराम से एडजस्‍ट करने लगे थे। विद्यालय में पढाई की व्‍यवस्‍था तो बहुत अच्‍छी थी , अच्‍छी पढाई के लिए उन्‍हें प्रोत्‍साहित भी बहुत किया जाता था। हर सप्‍ताह पढाए गए पाठ के अंदर से किसी एक विषय का टेस्‍ट सोमवार को होता , इसके अलावे अर्द्धवार्षिक और वार्षिक परीक्षाएं होती , तीनों को मिलाकर रिजल्‍ट तैयार किए जाते। पांचवी कक्षा से ही कुल प्राप्‍तांक को देखकर नहीं , हर विषय में विद्यार्थियों को मजबूत बनाने के लिए प्रत्‍येक विषय में 80 प्रतिशत नंबर लानेवाले को स्‍कोलर माना जाता और उन्‍हें स्‍कोलर बैज दिए जाते। तीन वर्षों तक नियमित तौर पर स्‍कोलर बैज लानेवाले बच्‍चों को स्‍कूल से ही नीले कलर की स्‍कोलर ब्‍लेजर के साथ स्‍कोलर बैज मिलती और छह वर्षों तक नियमित तौर पर स्‍कोलर बैज पाने वाले बच्‍चों को फिर से एक नीले स्‍कोलर ब्‍लेजर और नीली स्‍कोलर टाई के साथ स्‍कोलर बैज , इसके लिए बच्‍चे पूरी लगन से प्रत्‍येक वर्ष मेहनत करते।

डी पी एस , बोकारो के स्‍कूल की पढाई ही बच्‍चें के लिए पर्याप्‍त थी , उन्‍हें मेरी कभी भी जरूरत नहीं पडी , मैं सिर्फ उनके रिविजन के लिए प्रतिदिन कुछ प्रश्‍न दे दिया करती थी। कभी कभी किसी विषय में समस्‍या होने पर कॉपी लेकर मेरे पास आते भी , तो मेरे द्वारा हल किए जानेवाले पहले ही स्‍टेप के बाद उन्‍हें सबकुछ समझ में आ जाता। तुरंत वे कॉपी छीनकर भागते , तो मुझे खीझ भी हो जाती , अरे पूरा देख तो लो । स्‍कूल में स्‍कोलर बैज , ब्‍लेजर तो प्रत्‍येक विषय में 80 प्रतिशत मार्क्‍स में ही मिल जाते थे , पर ईश्‍वर की कृपा है कि दोनो बच्‍चों को कभी भी किसी विषय में 90 प्रतिशत से नीचे जाने का मौका नहीं मिला , इसलिए स्‍कोलर बैज कभी भी अनिश्चित नहीं रहा , लगातार तीसरे वर्ष स्‍कोलर बैज लेने के कारण 8 वीं कक्षा में उन्‍हें नीला स्‍कोलर ब्‍लेजर भी मिल चुका था। दोनो न सिर्फ पढाई में , वरन् कुछ खेल और क्विज से संबंधित क्रियाकलापों में भी अपनी अपनी कक्षाओं में अच्‍छे स्‍थान में बनें रहें। स्‍कूली मामलों में तो इनकी सफलता से हमलोग संतुष्‍ट थे ही , 8 वीं कक्षा में भारत सरकार द्वारा राष्‍ट्रीय प्रतिभा खोज परीक्षा में भी दोनो के चयन होने पर उन्‍हें  प्रमाण पत्र दिया गया और उन्‍हें प्रतिवर्ष छात्रवृत्ति भी मिलने लगी।

पर हमारे देश की स्‍कूली व्‍यवस्‍था का प्रकोप ऐसा कि इन सब उपलब्धियों के बावजूद हमारा ध्‍यान इस ओर था कि वे दसवीं के बोर्ड की रिजल्‍ट अच्‍छा करें , ताकि इनके अपने स्‍कूल में इन्‍हें अपनी पसंद का विषय मिल सके। हालांकि डी पी एस बोकारो में ग्‍यारहवीं में दाखिला मिलने में अपने स्‍कूल के विद्यार्थियों को थोडी प्राथमिकता दी जाती है , फिर भी दाखिला नए सिरे से दसवीं बोर्ड के रिजल्‍ट से होता है। यदि इनका रिजल्‍ट गडबड हो जाता , तो इन्‍हें अपनी पसंद के विषय यानि गणित और विज्ञान पढने को नहीं मिलेंगे , जिसका कैरियर पर बुरा असर पडेगा। ग्‍यारहवीं में दूसरे स्‍कूल में पढने का अर्थ है , सारे माहौल के साथ एक बार फिर से समायोजन करना , जिसका भी पढाई पर कुछ बुरा असर पडेगा। और डी पी एस की पढाई खासकर 12वीं के साथ साथ अन्‍य प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए अच्‍छी मानी जाती है , उसी के लिए हमलोग यहां आए थे , और ग्‍यारहवीं में ही यहां से निकलना पडे , तो क्‍या फायदा ?? इसलिए हमलोग 10वीं बोर्ड में बढिया रिजल्‍ट के लिए ही बच्‍चें को प्रेरित करते। आगे की यात्रा अगली कडी में ....

Monday 23 August 2010

दो वर्षों तक स्‍कूल में होनेवाली छुट्टियों का हमलोगों ने जमकर फायदा उठाया था !!

अभी तक आपने पढा .......  हर प्रकार के सुख सुविधायुक्‍त वातावरण होने के कारण हमलोग कुछ ही दिनों में आसानी से बोकारो में और बच्‍चे अपने नए स्‍कूल में एडजस्‍ट करने लगे थे। पर यहां रिश्‍तेदारों या परिचितों की संख्‍या बहुत कम थी , इसलिए कुछ ही दिनों में बोरियत सी महसूस होती। बच्‍चे अभी नीचली कक्षाओं में थे , इसलिए उनपर पढाई लिखाई का दबाब भी अधिक नहीं था , इसलिए समय काटना कुछ अधिक ही मुश्किल होता । खासकर सप्‍ताहांत में तो पुरानी यादें हमारा पीछा न छोडती और कुछ ही दिन व्‍यतीत होने पर ही हमलोग छुट्टियों का इंतजार करने लगते। एक दो वर्षों तक तो हमलोग स्‍कूल में दस बीस दिन की छुट्टियां होने पर भी कहीं न कहीं भागते , स्‍कूल खुलने से एक दिन पहले शाम को यहां पहुंचते।

डी पी एस  बोकारो में होनेवाली स्‍कूल की लंबी लंबी छुट्टियां भी हमारा काफी मदद कर देती थी। चाहे सत्रांत की छुट्टियां हो या गर्मियों की , चाहे दुर्गापूजा की छुट्टियां हो या दीपावली और छठ की या फिर बडे दिन की , डी पी एस में बडे ढंग से दी जाती। इस बात का ख्‍याल रखा जाता कि शुक्रवार को पढाई के बाद छुट्टियां हो और सोमवार को स्‍कूल खुले , इस तरह पांच दिन की छुट्टियों में भी बाहर जाने के लिए नौ दिन मिल जाते। वहां जूनियर से लेकर सीनियरों तक की सप्‍ताह में पांच दिन यानि सोमवार से शुक्रवार तक ही कक्षाएं होती थी और शनिवार रविवार को छुट्टियां हुआ करती थी। पूरे वर्ष के दौरान सप्‍ताह के मध्‍य किसी त्‍यौहार की छुट्टियां हो जाती तो शनिवार को कक्षा रखकर से समायोजित कर लिया जाता था। लेकिन लंबी छुट्टियों में कोई कटौती नहीं की जाती थी , हमें सत्रांत के पचीस दिन , गर्मी की छुट्टियों के चालीस दिन , दुर्गापूजा के नौ दिन और ठंड के चौदह दिनों की छुट्टियां मिल जाती थी।

वैसे तो हर सप्‍ताह में दो दिन छुट्टियों हो ही जाती थी , हालांकि उसका उपयोग शहर के अंदर ही किया जा सकता था। इसके अलावे वर्षभर में उपयोग में आनेवाली कुल 88 दिन की छुट्टियां कम तो नहीं थी। भले ही स्‍कूल के शिक्षकों ने अपनी सुविधा के लिए इस प्रकार की छुट्टी की व्‍यवस्‍था रखी हो , पर इसका हमलोगों ने  जमकर फायदा उठाया। छुट्टियों के पहले ही हमलोग कहीं न कहीं बाहर जाने की तैयारी करते , और बच्‍चों के स्‍कूल से आते ही निकल पडते। पर संयुक्‍त परिवार से तुरंत निकलकर यहां आने के बाद , और खासकर भतीजी के विवाह के बाद हम पर खर्च का इतना दबाब बढ गया था कि दूर दराज की यात्रा का कार्यक्रम नहीं बना पाते थे । पर बच्‍चों को दादी , नानी और अन्‍य रिश्‍तेदारों के घरो में घुमाते हुए हमने आसानी से दो तीन वर्ष बिता दिए।

Sunday 22 August 2010

बोकारो में भयमुक्‍त होकर जीने में मुझे बहुत समय लग गए !!

अभी तक आपने पढा .... वैसे तो बोकारो बहुत ही शांत जगह है और यहां आपराधिक माहौल भी न के बराबर , कभी कभार चोरी वगैरह की घटनाएं अवश्‍य हुआ करती हैं , जिसके लिए आवश्‍यक सावधानी बरतना आवश्‍यक है। यहां किसी क्‍वार्टर को खाली छोडकर छुट्टियां मनाने जाना खतरे से खाली नहीं। जबतक आप लौटेंगे , ताला तोडकर सारा सामान ढोया जा चुका होगा। भले ही ऐसी घटनाएं एक दो के साथ ही घटी हो , पर सावधान सबको रहना आवश्‍यक हो जाता है। इसलिए छुट्टियों में पूरे परिवार एक साथ कहीं जाते हैं , तो क्‍वार्टर में किसी को रखकर जाना आवश्‍यक होता है , खासकर रात्रि में तो घर में किसी का सोना बेहद जरूरी है। स्‍कूल बंद होने पर हम तीनों मां बंटे अक्‍सर कहीं न कहीं चले जाते। वैसे में घर की चाबी अपने सामने रह रहे पडोसी को देकर जाते , उनलोगों ने पूरी जिम्‍मेदारी से अपना दायित्‍व निभाया और कभी भी हमारे घर से कोई वस्‍तु गायब नहीं हुई। इसके अलावे अखबार में कभी कभार कुछ घटनाएं देखने या सुनने को मिलती भी तो उसकी अधिक चिंता नहीं होती।

पर कुछ  घटनाओं का प्रभाव हमारे सामने स्‍पष्‍ट दिखाई पडा , इसलिए वहां रहते हुए जीवन जीने के प्रति हम निश्चिंत नहीं रह सके। खासकर यहां आने के बाद पहले ही वर्ष यानि 1998 के बडे दिन की छुट्टियों में बडे बेटे के कक्षा में साथ साथ बैठनेवाले दोस्‍त के अपहरण और हत्‍या के बाद हमलोग बहुत ही दुखी हो गए थे। बेटे के दिलोदिमाग से ये घटना भूली नहीं जाती , और मैं स्‍कूल से लौटने पर प्रतिदिन उस बच्‍चे के बारे में जानकारी लेती , तो वह और दुखी हो जाता। उस समय तक उसकी हत्‍या के बारे में हमने कल्‍पना भी न की थी । उसके न लौटने की खबर से ही हम मां बेटे थोडी देर अवश्‍य रोते। प्रतिदिन मुझे रोते देख बेटे ने ही एक दिन हिम्‍मत दिखायी और मुझसे झूठमूठ ही कह दिया कि उसका वह दोस्‍त लौट आया है। पुलिस ने अपहरणकर्ताओं को गिरफ्तार कर उसे छुडा लिया है। बाद में मुहल्‍ले के अन्‍य लोगों से मालूम हुआ कि ऐसी बात नहीं है , कल उस लडके की लाश मिली है। मैं समझ गयी , मुझे खुश रखने के लिए बेटे ने अपने दोस्‍त के जाने का गम झेलते हुए मुझसे झूठ बोला था।

कुछ ही दिनों में यानि अप्रैल 1999 में एक बच्‍ची के साथ हुए हादसे ने बोकारो में कर्फ्यू लगाने तक की नौबत ला दी थी।  आजतक समाचार पत्रों और न्‍यूज चैनलों में पढे और सुने शब्‍द 'कर्फ्यू' का पहली बार झेलने का मौका मिला था। ऐसे में डर स्‍वाभाविक तौर पर उत्‍पन्‍न हो गया था , कर्फ्यू में ढील के बावजूद भी मैं भय से कोई भी सामन लेने बाहर न निकलती। जो भी घर में मौजूद होता , उसे बनाकर खिला देती। यहां तक कि इस घटना के बाद मैं बच्‍चों का जरूरत से अधिक ख्‍याल रखने लगी थी। खुद से स्‍कूल बस तक बच्‍चों को पहुंचाना और लाना तो हर अभिभावक का फर्ज ही है , पर मैं शाम को खेलने वक्‍त भी इनके साथ जाती , ये जबतक खेलते , तबतक टहलती और इनके साथ ही दूध लेते हुए वापस आती। दो चार वर्षों तक खेलते वक्‍त , साइकिल सीखते वक्‍त हमेशा मैं इनके साथ होती , इस तरह बोकारो में भयमुक्‍त होकर जीने में मुझे बहुत समय लग गए। हां , सुरक्षा की दृष्टि से कॉपरेटिव कॉलोनी आने के बाद अच्‍छा लगा , यह बहुत ही अच्‍छी जगह है ,यहां मैने बाहर में रखी साइकिल और अन्‍य कपडों को उठाकर ले जाने से आगे बढने की किसी भी चोर को हिम्‍मत करते नहीं देखा।

Saturday 21 August 2010

अपने एकाधिकार का पूरा फायदा उठाती थी उस वक्‍त बी एस एन एल !!

अभी तक आपने पढा .... 20 वीं सदी का अंत संचार के मामलों में बहुत ही प्रगति पर था और भारतवर्ष के शहरों की बात क्‍या ग्रामीण अंचल भी इससे अछूते नहीं थे।  भले ही हम शहरी क्षेत्र में थे , पर पूरे परिवार में सबसे पहले 1990 में हमारे गांव में ही मेरे श्‍वसुर जी ने ही फोन का कनेक्‍शन लिया था। तब वे DVC के सुरक्षा पदाधिकारी के पद से सेवानिवृत्‍त होकर बिहार के दरभंगा जिले के एक गांव जाले में निवास कर रहे थे। इससे पहले वे बिहार मिलिटरी पुलिस में पु‍लिस अफसर भी रह चुके थे , जिसके कारण गांव में होनेवाले महत्‍वपूर्ण आयोजनों में उन्‍हें निमंत्रित किया जाता था। इसी कारण फोन की सुविधा दिए जाने से पूर्व बी एस एन एल द्वारा हुए उद्घाटन समारोह में उन्‍हें भी निमंत्रित किया गया था। उसी मीटिंग में उन्‍होने बात रखी कि‍ जिस परिवार के अधिकांश सदस्‍य दूर रहते हों , उन्‍हें फोन की सुविधा सबसे पहले मिलनी चाहिए। रिटायर होने के बाद 20 वर्षों से वे अपने तीनों बेटों से दूर रहते हुए 80 वर्ष की उम्र में पहुंच चुके थे , इसलिए दूसरे ही दिन उन्‍हें फोन की सुविधा मिल गयी थी , शहरी क्षेत्र में होते हुए भी तबतक हमलोगों को भी कनेक्‍शन नहीं मिल सका था , पर टेलीफोन बूथ से हमलोग समय पर हाल चाल लेने में अवश्‍य समर्थ हो गए थे। दो चार वर्ष के अंदर ही बिहार के छोटे बडे हर गांव में टेलीफोन के जाल ही बिछ गए थे और कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं रह गया था। उसी फोन ने इन्‍हे अंतिम समय में उनके बडे बेटे से मिला भी दिया था। भले ही 1993 में ही वे हमें छोडकर इस दुनिया से चल दिए हों , पर उससे पहले 1992 से ही रिश्‍तेदारों का हाल चाल लेने के लिए हमलोगों को पूर्ण तौर पर टेलीफोन पर निर्भर कर दिया था।

यही कारण था कि बोकारो में स्‍थायित्‍व की समस्‍या हल होने पर एक टेलीफोन का कनेक्‍शन लेना हमारे लिए जरूरत बन चुका था , पर इसमें बहुत सारी समस्‍याएं थी। क्‍वार्टर किसी और का हो , उसे किराए में लगाने की छूट भी न हो । एक मित्र के तौर पर हम वहां रह सकते थे और इसी आधार पर कनेक्‍शन ले सकते थे। इसके लिए अदालत में भी कुछ फार्मलिटिज की जरूरत थी। छोटे शहरों में लैंडलाइन लेने के लिए अभी तक सिर्फ सरकारी कंपनियां ही हैं ,  जिनके पास उस समय कनेक्‍शन देने की सुविधाएं सीमित थी और फोन कनेक्‍शन लेने के मामलों में मध्‍यमवर्गीय परिवारों में एक होड सी लगी थी। ऐसे में आपका नंबर आने में दो तीन वर्षों तक का इंतजार करना पडता था , अन्‍य लोगों की तरह ही इतना इंतजार करने को हमलोग भी तैयार नहीं थे। इस कारण विभाग में भ्रष्‍टाचार का भी बोलबाला था , नंबर में देर होने के बावजूद पैसे लेकर फोन कनेक्‍शन दिए जा रहे थे। पर हमारे द्वारा फोन के लिए एप्‍लाई किए जाने के दो तीन महीने बाद ही बी एस एन एल में आधिकारिक तौर पर घोषणा की गयी कि इंतजार कर रहे सभी लोगों को अक्‍तूबर तक फोन लगा दिए जाएंगे। भले ही एक वर्ष तक हमने बिना फोन के व्‍यतीत किए हों , पर इस घोषणा के होते ही हमारी यह समस्‍या भी हल हो गयी। तबतक हमलोगों ने सामने वाले पडोसी को बहुत कष्‍ट दिए।

पर फोन का कनेक्‍शन मिलने के बाद भी यहां समस्‍याएं कम न थी। उस समय खुले केबल के माध्‍यम से फोन का कनेक्‍शन किया जाता था , इस कारण हमेशा फोन को लॉक करने का झंझट था। बरसात में अक्‍सर फोन कट जाता , दस बारह दिन बाद ही उसके ठीक होने की उम्‍मीद रहती। हालांकि कुछ ही वर्षों में पूरी कॉलोनी में अंडरग्राउंड केबिल लग गए और असुविधाएं कम हो गयी थी। पर बिल की मनमानी की तो पूछिए ही मत , अपने एकाधिकार का पूरा फायदा उठाती थी उस वक्‍त बी एस एन एल । बिल के डिटेल्‍स निकालने की कोई सुविधा नहीं थी , सिर्फ एस टी डी के बिल निकलते थे , हमने एक दो बार निकलवाया , पर क्‍या फायदा ?? एस टी डी का बिल 160 रूपए , पर कुल बिल 1600।  अब हम उन्‍हें कैसे समझाएं कि लोकल में हमारे इतने परिचित भी नहीं कि इतना बिल आ जाए , चुपचाप बिल भरने को बाध्‍य थे। कितने तो अपनी पत्नियों और बच्‍चों पर शक की निगाह रखते , मजबूरी में फोन कटवा देते। एक बार तो गरमी की छुट्टियों के दो महीने दिल्‍ली में व्‍यतीत करने के बाद भी हमें टेलीफोन बिल के रूप में 1800 रूपए भरने पडे थे।पर धीरे धीरे कई कंपनियों के इस क्षेत्र में आने से उनका एकाधिकार समाप्‍त हुआ और सुविधाओं में बढोत्‍तरी होती गयी। पर आज हर प्रकार के प्‍लान और सुविधाओं के कारण इसी बी एस एन एल से हमें कोई शिकायत नहीं।

Friday 20 August 2010

क्‍या आपके शहर में भी एक गैस कनेक्‍शन लेने का यही हाल है ??

पिछले पोस्‍टों में आप पढ ही चुके हैं ... बच्‍चों के एडमिशन के बाद हमलोगों को बिना किसी तैयारी के ही एक महीने के अंदर बोकारो में शिफ्ट करना पड गया था। शहर के कई कॉलोनी में दौडते भागते अंत में सेक्‍टर 4 में एक क्‍वार्टर मिलने के बाद हमलोग निश्चिंत हो गए थे। इसके साथ ही स्‍थायित्‍व के लिए आवश्‍यक अन्‍य सुविधाओं पर हमारा ध्‍यान चला गया था।  दो तीन महीने किरासन तेल के स्‍टोव पर खाना बनाते हुए हमने काट दिए थे , इस तरह के स्‍टोव का उपयोग मैं जीवन में पहली बार कर रही थी , इसलिए मुझे किन समस्‍याओं का सामना करना पडा होगा , आप पाठक जन उम्‍मीद कर सकते हैं। इस स्‍टोव की तुलना में खाना बनाने के लिए लकडी या कोयले के चूल्‍हे का उपयोग मेरे लिए अधिक आसान था , पर दोमंजिले के छोटे से क्‍वार्टर में इसका उपयोग नहीं किया जा सकता था , इसलिए  एक गैस कनेक्‍शन तो हमारे लिए बहुत आवश्‍यक था ।

बोकारो के विभिन्‍न सेक्‍टरों में इंडियन ऑयल गैस की जितनी भी एजेंसियां थी , हमलोग सबमें भटकते रहे , पर सबने हमें एक कनेक्‍शन देने से इंकार कर दिया था। उन दिनों गैस कनेक्‍शन की मांग की तुलना में पूर्ति का कम होना एक मुख्‍य वजह हो सकती है , पर हमारे पास बोकारो में कनेक्‍शन लेने के लिए आवश्‍यक कागजात भी नहीं थे कि हम वहां नंबर भी लगा सकते। वैसे आवश्‍यक कागजातों के बाद भी सरकारी दर से किसी को गैस नहीं मिला करता था। एक कनेक्‍शन के लिए दुगुने तीगुने पैसे देने होते। पडोस में पूछती , तो मालूम होता कि उन्‍होने गैस का कनेक्‍शन भी नहीं लिया है। बाजार से ही एक चूल्‍हा , कहीं से एक सिलिंडर और रेगुलेटर और पाइप का इंतजाम करते और ब्‍लैक से सिलिंडर चेंज करते। बिजली की सुविधा मुफ्त थी , इसलिए अधिकांश लोग हीटर का भी उपयोग करते।

प्राइवेट मकानों में तो इसकी सुविधा नहीं थी , पर सरकारी क्‍वार्टर में आने के बाद हमलोगों ने भी एक हीटर रख लिया था , पर हीटर और स्‍टोव में खाना बनाने में समय काफी जाया होता।  हमारी इच्‍छा इंडियन ऑयल के गैस के कनेक्‍शन लेने की थी  , लेकिन बोकारो मे कोई व्‍यवस्‍था नहीं हो रही थी। मरता क्‍या न करता , आखिरकार हमें हार मानकर यहां से 30 किमी दूर के एक शहर फुसरो से एक एच पी का गैस कनेक्‍शन लेना पडा । वो भी आसानी से नहीं , हमें उन्‍हें कमीशन देने के लिए एक गैस चूल्‍हा भी साथ खरीदना पडा , डबल सिलिंडर का कनेक्‍शन और उन्‍हें मनमाने पैसे , तब यानि 1998 में सरकार के द्वारा तय किए गए मात्र 1800 रूपए खर्च करने की जगह हमें 5500 रूपए खर्च करने पडे थे। फिर जबतक उस कनेक्‍शन का बोकारो ट्रांसफर नहीं हुआ , हमें ब्‍लैक में ही गैस भरवाने यानि हर महीने 100 रूपए अधिक देने को बाध्‍य होना पडा। इस मामले में काफी दिनों बाद हम निश्चिंत हो सके थे । आज घर घर तक गैस के पहुंचने के बाद भी यह समस्‍या वैसे ही बनी हुई है , बोकारो में इंडियन ऑयल या एच पी का कनेक्‍शन लेना आज भी मुश्किल कार्य है। क्‍या आपके शहर में भी एक गैस कनेक्‍शन लेने में इतनी समस्‍याओं का सामना करना पडता है ??

Tuesday 17 August 2010

10,000 रूपए की बजट में सबसे अच्‍छा डिजिटल कैमरा कौन सा होगा ??

घर में दो कैमरे वाले मोबाइल थे , दोनो बेटे लेकर चले गए। इच्‍छा है  , एक डिजिटल कैमरा ही ले लिया जाए ।  पर उपयुक्‍त जानकारी के अभाव में निर्णय नहीं ले पा रही। मेरा बजट लगभग 10,000 रूपए का है , ज्ञानी पाठक जन सटीक राय देने की कृपा करें , घरेलू उपयोग के लिए कौन सा कैमरा लेना अच्‍छा रहेगा ??

Saturday 14 August 2010

बोकारो में बच्‍चों को एंटीबॉयटिक दवाओं का सेवन कम करना पडा !!

अभी तक आपने पढा .. बोकारो में कक्षा 1 और 3 में पढने वाले दो छोटे छोटे बच्‍चों को लेकर अकेले रहना आसान न था , स्‍वास्‍थ्‍य के प्रति काफी सचेत रहती। पर बच्‍चों को कभी सर्दी , कभी खांसी तो कभी बुखार आ ही जाते थे , मेरी परेशानी तो जरूर बढती थी , पर यहां बगल में ही एक डॉक्‍टर के होने से तुरंत समाधान निकल जाता। यहां आने का एक फायदा हुआ कि हमारे यहां के डॉक्‍टर जितने एंटीबायटिक खिलाते थे , उससे ये दोनो जरूर बच गए , इससे दोनो की रोग प्रतिरोधक शक्ति को तो फायदा पहुंचा ही होगा। वहां भले ही इलाज में हमारे पैसे खर्च नहीं होते थे , पर दोनो ने बचपन से ही एलोपैथी की बहुत दवाइयां खा ली थी । यहां के डॉक्‍टर की फी मात्र 35 रूपए थी और अधिक से अधिक 25 रूपए की दवा लिखते , आश्‍चर्य कि कभी उनके पास दुबारा जाने की जरूरत भी नहीं होती।

हां , बाद में बच्‍चों के 10-11 वर्ष की उम्र के आसपास पहुंचने पर दोनो के अच्‍छे शारीरिक विकास के कारण उनके द्वारा दिया जानेवाला डोज जरूर कम होने लगा था , जिसे मैं समझ नहीं सकी थी , दवा खिलाने के बाद भी कई बार बुखार न उतरने पर रात भर मुझे पट्टी बदलते हुए काटने पडे थे। डोज के कम होने से दवा के असर नहीं करने से एक बार तो तबियत थोडी अधिक ही बिगड गयी । एक दूसरे डॉक्‍टर ने जब मैने दवा का नाम और डोज सुनाया तो बच्‍चों का वेट देखते हुए वे डॉक्‍टर की गल्‍ती को समझ गए और मुझसे डोज बढाने को कहा। तब मेरी समझ में सारी बाते आयी। डॉक्‍टर ने चुटकी भी ली कि मम्‍मी तुमलोगों को बच्‍चा समझकर आम और अन्‍य फल भी कम देती है क्‍या ??

आए हुए दो महीने भी नहीं हुए थे , बरसात के दिन में बडे बेटे को कुत्‍ते ने काट लिया, तब मै उन्‍हें  अकेले निकलने भी नहीं देती थी। चार बजे वे खेलने जाते तो मैं उनके साथ होती,  उस दिन भी किसी काम के सिलसिले में बस पांच मिनट इंतजार करने को कहा और इतनी ही देर में दरवाजा खोलकर दोनो निकल भी गए , अभी मेरा काम भी समाप्‍त नहीं हुआ था कि छोटे ने दौडते हुए आकर बताया कि भैया को कुत्‍ते ने काट लिया है। पडोसी का घरेलू कुत्‍ता था , पर कुत्‍ते के नाम से ही मन कांप जाता है। तुरंत डॉक्‍टर को दिखाया , टेटवेक के इंजेक्‍शन पडे। घाव तो था नहीं , सिर्फ एक दांत चुभ गया था , हल्‍की सी एंटीबायटिक पडी। कुत्‍ते का इंतजार किया गया , कुत्‍ता बिल्‍कुल ठीक था , इसलिए एंटीरैबिज के इंजेक्‍शन की आवश्‍यकता नहीं पडी, पर काफी दिनों तक हमलोग भयभीत रहे।

पता नहीं दवा कंपनी के द्वारा दिए जाने वाला कमीशन का लालच था या और कुछ बातें , बाद में हमें यहां कुछ डॉक्‍टर ऐसे भी दिखें , जो जमकर एंटीबॉयटिक देते थे। बात बात में खून पेशाब की जांच और अधिक से अधिक दवाइयां , हालांकि उनका कहना था कि मरीजों द्वारा कचहरी में घसीटे जाने के भय से वे ऐसा किया करते हैं। खाने पीने और जीवनशैली में सावधानी बरतने के कारण हमलोगों को डॉक्‍टर की जरूरत बहुत कम पडी , इसलिए इसका कोई प्रभाव हमपर नहीं पडा !!

Friday 13 August 2010

बोकारो में दूध की व्‍यवस्‍था भी खुश कर देनेवाली है !!

अभी तक आपने पढा .. जब बच्‍चे छोटे थे , तो जिस कॉलोनी में उनका पालन पोषण हुआ , वहां दूध की व्‍यवस्‍था बिल्‍कुल अच्‍छी नहीं थी। दूधवालों की संख्‍या की कमी के कारण उनका एकाधिकार होता था और दूध खरीदने वाले मजबूरी में सबकुछ झेलने को तैयार थे , और उनके मुनाफे की तो पूछिए मत। हमारे पडोस में ही एक व्‍यक्ति मोतीलाल और उसका पुत्र जवाहरलाल मिलकर सालों से सरकारी जमीन पर खटाल चला रहे थे। जमीन छीने जाने पर दूसरे स्‍थान में वे लोग दूसरी जगह खटाल की व्‍यवस्‍था न कर सके और सभी गाय भैंसों की बिक्री कर देनी पडी। जमीन की व्‍यवस्‍था में ही उन्‍हें कई वर्ष लग गए , हमलोगों को शक था कि इतने दिनों से आपलोगों का व्‍यवसाय बंद है , महीने के खर्च में तो पूंजी कम हो गयी होगी। पर हमें यह जानकर ताज्‍जुब हुआ कि कि उन्‍होने पूंजी को हाथ भी नहीं लगाया है, अभी तक जहां तहां पडे उधार से अपना काम चला रहे हैं। 

दूध का व्‍यवसाय करने वाले घर घर पानी मिला दूध पहुंचाना पसंद करते थे , पर कुछ जागरूक लोगो ने सामने दुहवाकर दूध लेने की व्‍यवस्‍था की। इसके लिए वह दूध की दर अधिक रखते थे , फिर भी उन्‍हें संतोष नहीं होता था। कभी नाप के लिए रखे बरतन को वे अंदर से चिपका देते , तो कभी दूध निकालते वक्‍त बरतन को टेढा कर फेनों से उस बरतन को भर देते। चूंकि हमलोग संयुक्‍त परिवार में थे और दूध की अच्‍छी खासी खपत थी , सो हमने रोज रोज की परेशानी से तंग आकर हारकर एक गाय ही पाल लिया था और शुद्ध दूध की व्‍यवस्‍था कर ली थी। यहां आने पर दूध को लेकर चिंता बनी हुई थी।



पर बोकारो में दूधविक्रेताओं की व्‍यवस्‍था को देखकर काफी खुशी हुई , अन्‍य जगहों की तुलना में साफ सुथरे खटाल , मानक दर पर मानक माप और दूध की शुद्धता भी। भले ही चारे में अंतर के कारण दूध के स्‍वाद में कुछ कमी होती हो, साथ ही बछडे के न होने से दूध दूहने के लिए इंजेक्‍शन दिया करते हों। पर जमाने के अनुसार इसे अनदेखा किया जाए , तो बाकी और कोई शिकायत नहीं थी। पूरी सफाई के साथ ग्राहक के सामने बरतन को धोकर पूरा खाली कर गाय या भैंस के दूध दूहते। बहुत से नौकरी पेशा भी अलग से दूध का व्‍यवसाय करते थे , उनके यहां सफाई कुछ अधिक रहती थी।

अपनी जरूरत के हिसाब से ग्राहक आधे , एक या दो किलो के हॉर्लिक्‍स के बोतल लेकर आते , जिसमें दूधवाले निशान तक दूध अच्‍छी तरह भर देते। सही नाप के लिए यदि दूध में फेन होता , तो वह निशान के ऊपर आता।  इतना ही नहीं , कॉपरेटिव कॉलोनी में तो वे गायें लेकर सबके दरवाजे पर जाते और आवश्‍यकता के अनुसार दूध दूहकर आपको दे दिया करते और फिर गायें लेकर आगे बढ जाते। यहां के दूधवाले हर महीने हिसाब भी नहीं करते , वे कई कई महीनों के पैसे एक साथ ही लेते। हां , हमारा दूधवाला एडवांस में जरूर पैसे लेता था।

अखबार वालों की ऐसी व्‍यवस्‍था भी होती है !!

अभी तक आपने पढा ...बोकारो में आने के तुरंत हमलोगों को अखबार की जरूरत पड गयी थी , ताकि रोज की खबरों पर नजर रखी जा सके , क्‍यूंकि उस समय हमारे पास टी वी नहीं था। रेडियो का तो तब शहरों में समय ही समाप्‍त ही हो चुका था। पडोस में अखबार डालते अखबार वाले को बुलवाकर हमने उसी दिन से अपने पसंद का अखबार लेना शुरू कर दिया था। ट्रेन के देर होने से या अन्‍य किसी कारण से शहर में अखबार के आने में देर भले ही हो जाती , पर शहर के अंदर समाचार पत्रों को वितरित करने में बहुत चुस्‍त दुरूस्‍त लगे ये अखबार वाले , फटाफट अपनी जिम्‍मेदारी को समझते हुए हर जगह पहुंचा देते। हमने तीन मकान बदल लिए , पर हर जगह इन्‍हें ऐसा ही पाया।

जब हमलोग पहली बार मकान बदल रहे थे , तो अखबार वाले को बुलाकर उसका हिसाब करना चाहा। पर उसने हिसाब करने से इंकार कर दिया , उसने सिर्फ हमसे वह पता मांगा , जहां हम जा रहे थे। हम जब वहां पहुंचे तो दूसरे ही दिन से वहां मेरा पसंदीदा अखबार आने लगा। लगभग छह किलोमीटर की दूरी तक यानि दूसरी बार भी मकान बदलने पर ऐसा ही देखने को मिला। यह भी मालूम हुआ कि यदि हम पुराने अखबार वाले को अपना नया पता नहीं देकर आते तो भी दूसरे किसी अखबारवाले से अखबार ले सकते थे और हमें अपना अखबार मिलने लगता और सारे बिल एक साथ मिलते। नए महीने के पहले सप्‍ताह में ही पिछले महीने के बिल आते रहे , चाहे कितनी भी दूरी में और किसी से भी हमने समाचार पत्र क्‍यूं न लिए हों। पता नहीं , ऐसी व्‍यवस्‍था वे कैसे कर पाते थे ??

पूरे बोकारो शहर में भले ही सभी समाचार पत्रों का यहां एक ही एजेंट हो , उसे महाएजेंट माना जा सकता हो और उसके अंदर पुन: कई एजेंट कमीशन पर काम करते हैं , उनसे लेकर अखबार वितरित करनेवाले भी अपना काम करते हैं , जो अलग अलग क्षेत्रों के होते हैं । भले ही एजेंट पूर्ण रूप से अखबार के व्‍यवसाय से ही जुडे हो , पर अखबार वितरित करनेवालों का यह अतिरिक्‍त पेशा होता है , ये किसी अन्‍य काम से भी जुडे होते हैं , क्‍यूंकि उनकी आमदनी कम होती है। लेकिन सब‍ मिलकर हिसाब किताब एक साथ रखते हैं और आप बोकारो में जहां भी रहें और जिससे भी पेपर लें , बीच में हिसाब करने की कोई जरूरत नहीं ,उनका अपना हिसाब होता है। हो सकता है , सभी शहरों में ऐसी व्‍यवस्‍था हो , पर मैं नहीं जानती थी , इसलिए मुझे बडा आश्‍चर्य हुआ। 


Wednesday 11 August 2010

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर , जय कपीश तिंहू लोक उजागर .. संगीता पुरी

पिछले तीन आलेखों में आपने पढा कि किन परिस्थितियों में हमें तीन चार महीनों में तीन घर बदलने पडे थे , सेक्‍टर 4 के छोटे से क्‍वार्टर में पहुंच चुके थे। यहां आने के बाद हमलोग यहां के माहौल के अनुरूप धीरे धीरे ढलते जा रहे थ। यहां आने से पूर्व के दो वर्षों में भी हमलोग तीन क्‍वार्टर बदल चुके थे , उसकी चर्चा भी कभी अवश्‍य करूंगी। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी हमलोग तनिक भी विचलित नहीं थे। अपने जेठ के उस क्‍वार्टर को जहां मैं विवाह के बाद पहुंची थी और अपने जीवन के आरंभिक 8 वर्ष व्‍यतीत किए थे , दोनो बच्‍चों ने जन्‍म लिया था और अपना बचपन जीया था , भी जोडा जाए तो हमारे  बच्‍चे 8 और 6 वर्ष की उम्र में ही अभी तक सात मकान देख चुके थे।

कहा जाता है कि बिल्‍ली जबतक अपने अपने बच्‍चों को सात घर में न घुमाए , तबतक उसके आंख नहीं खुलते। हमारे बच्‍चों के साथ भी ऐसा ही हो रहा था , ये सातवां घर था , इसलिए हम कुछ निश्चिंत थे कि अब शायद इन्‍हें लेकर कहीं और न जाना पडे। पर मनुष्‍य के जीवन के अनुरूप आंख खुलने तक , आज की सरकार के अनुसार बालिग होने तक इन्‍होने पूरे 10 मकान देख लिया। इनके 12वीं पास होने तक बोकारो स्‍टील सिटी में हमें और तीन मकान बदलने पडे, जिनके बारे में कुछ दिन बाद चर्चा करूंगी । अभी आनेवाले कुछ आलेखों में अन्‍य पहलुओं की चर्चा , क्‍यूंकि सेक्‍टर 4 के उस छोटे से आरामदायक क्‍वार्टर में हमने 4 वर्ष आराम से व्‍यतीत किए थे ।

वैसे तो हमारे यहां प्रथा है कि हम जब भी नए घर में रहने को जाएं , तो वहां मौजूद बुरे शक्तियों से बचने के लिए एक हवन अवश्‍य कराएं। मकान पुराना हो , तो इसकी आवश्‍यकता नहीं पडती है , पर नए में तो यह आवश्‍यक है। अधिकांश लोग स्‍वामी सत्‍य नारायण भगवान की ही कथा करवाते हैं, पर हम पुराने मकानों में शिफ्ट करते थे , इतनी जल्‍दबाजी में हर जगह अस्‍थायी तौर पर क्‍वार्टर बदलते थे कि हर वक्‍त इतना खर्च कर पाना आवश्‍यक नहीं लगा। और इसी क्रम में जब स्‍थायी तौर पर किसी क्‍वार्टर में निवास करने की बारी आयी तो भी पूजा करवाने का ध्‍यान न रहा। इस बात की वजह ये भी हो सकती है कि ईश्‍वर को मानते हुए भी विभिन्‍न प्रकार के कर्मकांडों पर हमारा कम विश्‍वास है।

पहली बार क्‍वार्टर बदलते समय हमलोगों ने स्‍वामी बजरंग बली की एक फोटो रख ली थी , बस जिस नए मकान में शिफ्ट करते ,  एक दो किलो लड्डू से ही उनका भोग लगाते और पडोसियों में प्रसाद के बहाने बांटकर सबके परिचय भी ले लिया करते। वास्‍तव में , बचपन से मेरी प्रवृत्ति रही है कि किसी भी प्रकार के घबराहट में मैं प्रार्थना अवश्‍य ईश्‍वर से किया करती हूं , पर जब भी पूजा , पाठ ,कर्मकांड , व्रत , मन्‍नत की बारी आती है , मुझे बजरंग बली ही याद आ जाते हैं और हमेशा हमें संकट से मुक्ति भी मिल जाती है। भले ही समाज मं चलती आ रही प्रथा केअनुरूप मैं संकट में घबडाकर कभी कोई मन्‍नत मान लिया करती हूं , पर वास्‍तव में मेरी सोंच है कि पूजा के तरीके से ईश्‍वर को कोई मतलब नहीं , दिल में भक्ति होनी चाहिए। ऐसी मानसिकता विकसित किए जाने में मेरे पिताजी का मुझपर प्रभाव रहा ,  मेरे पति की मानसिकता भी लगभग ऐसी ही है , यही कारण है कि जीवन में हर मौके पर हमलोग समाज और पंडितों के हिसाब से नहीं , अपनी मानसिकता के अनुसार काम करते रहें।

Monday 9 August 2010

जहां चाह वहां राह .. आखिरकार मुझे एक क्‍वार्टर प्राप्‍त करने में सफलता मिल ही गयी !!

बोकारो स्‍टील सिटी के मेरे अपने अनुभव की पिछली तीनों कडियां पढने के लिए आप यहां यहां और यहां चटका लगाएं , अब आगे बढते हैं। कॉपरेटिव कॉलोनी के प्‍लाट नं 420 में अभी साफ सफाई और सेटिंग में व्‍यस्‍त ही थे कि बोकारो के निकट के एक गांव बालीडीह में रहनेवाले मेरे पापाजी के एक मित्र ठाकुर साहब को संदेश मिल गया कि हमलोग दो तीन माह से एक क्‍वार्टर के लिए परेशान हैं। सुनते ही उन्‍होने पापाजी से संपर्क किया , बोकारो में स्‍टील प्‍लांट के निर्माण के वक्‍त बी एस एल को उन्‍होने सैकडो एकड जमीन दी थी , पर मुआवजे की रकम उन्‍हें 30 वर्ष बाद भी नहीं मिल पायी थे। इतने जमीन देने के बाद बोकारो स्‍टील सिटी में वे एक इंच जमीन के भी हकदार नहीं थे। अपनी बाकी जमा पूंजी से वे केस लड रहे थे , तबतक उनका केस चल ही रहा था। अपने परिवार की गरिमा को देखते हुए वे कंपनी की ओर से दिए जानेवाले चतुर्थ श्रेणी की नौकरी को अस्‍वीकार कर चुके थे, परिवार की कमजोर होती स्थिति को देखते हुए उनके एक छोटे भाई ने अवश्‍य बोकारो में नौकरी करना स्‍वीकार कर लिया था। उनको सेक्‍टर 4 में क्‍वार्टर एलॉट किया गया था , जो तबतक खाली ही पडा था , क्‍यूंकि नौकरी के लिए वे बोकारो से 10 कि मी दूर अपने गांव बालीडीह से ही आना जाना करते थे।

शहर में क्‍वार्टर की इतनी दिक्‍कत के बावजूद उस समय तक बोकारो के विस्‍थापित कर्मचारी इस शर्त पर अपने क्‍वार्टर दूसरों को आराम से दे दिया करते थे कि किरायेदार उसे वह पैसे दे दे , जो क्‍वार्टर के एवज में कंपनी उससे काटती है। हां , विस्‍थापितों को एक सुविधा अवश्‍य होती थी कि उसे सालभर या दो साल के पैसे एडवांस में मिल जाते थे। आज तो सब लोग व्‍यवसायिक बुद्धि के होते जा रहे हैं , इतने कम में शायद न सौदा न हो। हां , तो दोनो मित्रों में तय हुआ कि कंपनी से क्‍वार्टर के लिए जो पैसे काटे जाएंगे , वो हमें उनके भाई को दे देना होगा। उन्‍हें भी सुविधा हो , इसके लिए हमलोगों ने एडवांस में ही उन्‍हें 25,000 रूपए दे दिए और 2 जुलाई को हमें क्‍वार्टर की चाबी मिल गयी। कॉलोनी में इतने सस्‍ते दर पर बिजली और पानी की मुफ्त सुविधा के साथ एक क्‍वार्टर मिल जाना हमारे लिए बहुत बडी उपलब्धि थी। तीन महीनों से चल रहा सर से एक बडा बोझ हट गया था , पर कॉपरेटिव कॉलोनी के मकान मालिक हमारे दो महीने के एडवांस लौटाने को तैयार न थे।

लगातार खर्चे बढते देख हम भी कम परेशान न थे , पैसे को वसूल करने के लिए हम यदि दो महीने यहां रहते , तो एक महीने का पानी और डेढ महीने के बिजली के भी अतिरिक्‍त पैसे लगते। सेक्‍टर 4 का क्‍वार्टर तो हम ले ही चुके थे , इसलिए अब यहां मन भी नहीं लग रहा था , हमने पांच जुलाई को वहीं शिफ्ट करने का निश्‍चय किया। बहुत ही छोटे छोटे दो कमरो का सरकारी क्‍वार्टर , पर हम तीन मां बेटे तो रह ही सकते थे। मेरी आवश्‍यकता के अनुरूप रसोई अपेक्षाकृत बडी थी , क्‍यूंकि मैं एक साथ सबकुछ बनाने के फेर में सारा सामान फैला देती हूं , फिर खाना बन जाने के बाद ही सबको एक साथ समेटती हूं। दिक्‍कत इतनी ही दिखी कि स्‍लैब नहीं था , कुछ दिनों तक बैठकर खाना बनाना पडा। शिफ्ट करने के बाद बारिश का मौसम शुरू हुआ , रसोईघर के सीपेज वाले दीवाल में से , नालियों में से रंग बिरंगे कीडे निकलने का दौर शुरू हुआ , तो हमने स्‍वयं से ही इस रसोई की दीवालों पर प्‍लास्‍टर करने का मन बनाया। लेकिन यह काम बारिश के बाद ही हो सकता था , तबतक मैं इस छोटी सी समस्‍या को झेलने को मजबूर थी।

कुछ दिनों तक पानी के लाइन में काम होने की वजह से पानी भी 4 बजे से 7 बजे सुबह तक चला करता था। इतनी सुबह क्‍या काम हो , जब काम के लिए तैयार होते , नल में पानी ही नहीं होती। तब हमलोगों ने स्‍टोर करने के लिए एक बडा ड्रम रख लिया और सुबह सुबह ही कपडे धुल जाएं , इसलिए वाशिंग मशीन भी ले ली थी , भले ही तबतक घर में टी वी और फ्रिज तक नहीं थे। घर में वाशिंग मशीन रखने के लिए भी जगह नहीं थी , पर बडा किचन इस काम आया और उसके एक किनारे मैने इसे रख दिया। बरसात के बाद कंपनी का खुद ही टेंडर निकला , दीवाल के प्‍लास्‍टर के लिए कुछ मिस्‍त्री काम करने आए , लगे हाथ हमलोगों ने अलग से एक स्‍लैब बनवाया, सिंक खरीदा , रसोई में ये सब भी लगवा दिए। कंपनी की ओर से ऊपर की टंकी को भी ठीक किया गया , जिससे 24 घंटे पानी की सप्‍लाई होने लगी। कुछ ही दिनों में चूना भी हो गया और अक्‍तूबर 1998 से घर बिल्‍कुल मेरे रहने लायक था , बस कमी थी तो एक कि वह बहुत छोटा था , पर उस वक्‍त आदमी और सामान कम थे , सो दिक्‍कत नहीं हुई।

कुछ ही दिनों में सेक्‍टर 4 का यह छोटा सा क्‍वार्टर हमारे लिए पूरा सुविधाजनक बन गया था। यहां से मात्र 500 मीटर की दूरी पर एक ओर बोकारो का मुख्‍य बाजार , जिसमें हर प्रकार का बाजार किया जा सकता था , डॉक्‍टर भी बैठा करते , छोटे मोटे कई नर्सिंग होम भी थे। और इतनी ही दूरी पर दूसरी ओर बडा हॉस्पिटल भी , जहां किसी इमरजेंसी में जाया जा सकता था , वहीं बगल में छोटा सा हाट भी था , जहां से फल सब्जियां खरीदा जा सकता था। बच्‍चों के जूनियर स्‍कूल भले ही थोडी दूरी पर थे , वे बस से जाते। पर सीनियर स्‍कूल बगल में होने और उसी में सारा ऑफिशियल काम होने से मुझे बहुत सुविधा होती। आधे किलोमीटर के अंदर मेरा हर काम हो सकता था। कुल मिलाकर यह क्‍वार्टर बहुत ही अच्‍छी जगह था , जहां परिवार को छोडकर ये निश्चिंत रह सकते थे। इतने दिनों के झंझट में सारी छुट्टियां जो समाप्‍त हो गयी थी। धीरे धीरे कुछ परिचितों का भी पता चलने लगा था और हमलोग संडे वगैरह को वहां घूम भी लेते। अभी चलती ही रहेगी ये बोकारो गाथा !!

Saturday 7 August 2010

कुछ दिनों तक तो हमें चार सौ बीस में रहने को बाध्‍य होना पडा !!

पिछले इस और इस आलेख के माध्‍यम से क्रमश: आपको जानकारी हुई कि किन परिस्थितियों में हमने अपने बच्‍चों का बोकारो के स्‍कूल में एडमिशन कराया और हमें एक महीने तक चास में विपरीत परिस्थितियों में रहने को बाध्‍य होना पडा। घर लौटने पर गर्मी की छुट्टियों के 45 दिनों में से एक महीने हमने पूरी निश्चिंति से गुजारे , पर 31 वें दिन से पुन: तनाव ने घेरना शुरू कर दिया था , क्‍यूंकि कहीं भी बात बनती नहीं दिख रही थी। लेकिन उसके बाद काफी गंभीरता से पुन: मकान के लिए दौड धूप करने की शुरूआत की। पर देखते ही देखते 42वां दिन भी पहुंच गया और हमारी बात कहीं भी न बनी।

दो तीन दिन बाद स्‍कूल खुलने थे और इतनी जल्‍दी तो हम हार नहीं मान सकते थे , पर चास के गुजरात कॉलोनी जाने के लिए हम बिल्‍कुल तैयार न थे। ऐसी हालत में हमने मजबूरी में बी एस एल कॉलोनी में किसी मकान का जुगाड होने तक अपने बजट के बाहर कॉपरेटिव कॉलोनी में घर लेना चाहा, जहां बी एस एल की ओर से नियमित पानी और बिजली की सप्‍लाई की जाती है। पर यहां भी मकान खाली हो तब तो मिले।  घूमते घूमते सिर्फ एक जगह 'TO LET' का बोर्ड टंगा मिला , हमने उस फ्लैट की किसी खामी पर ध्‍यान न देते हुए हां कर दी। बिजली और पानी की सुविधा के बाद बाकी असुविधाएं गौण होती हैं, इसका हमें पता चल गया था। हां , 1998 में 2500 रूपए का किराया , पानी के लिए दो सौ रूपए और 4 रू प्रति यूनिट की दर से बिजली का भुगतान हमारे बजट से बाहर था और इसे लंबे समय तक चलाने के लिए कुछ अतिरिक्‍त आय की व्‍यवस्‍था करनी पडती। हमने अपने पुराने मकान मालिक को एक महीने रहने का तीन महीने का किराया सौंपा और वहां से सामान यहां ले आए।  

18 जून से हमलोगों ने उस फ्लैट में रहना और 20 जून से बच्‍चों ने स्‍कूल जाना शुरू कर दिया। दो कमरे बडे बडे थे , पर डाइनिंग रूम को सभी कमरो , रसोई और बाथरूम को जोडनेवाला गलियारा मात्र कहा जा सकता था। गंदगी हद से अधिक , खासकर किचन की खिडकियों का तो पूछे ही मत। नए किरायेदार के आने से पूर्व मकानमालिक दीवालों पर तो रंगरोगन करवाते हैं , पर खिडकियों को यूंही छोड देते हैं , जिसका फल हमें भुगतना पड रहा था। पूरे घर की साफ सफाई में हमें 10 दिन लग गए , इस बार हमलोग कुछ और सामान लेकर आए थे , घर धीरे धीरे व्‍यवस्थित होने लगा था। बाथरूम का पानी कभी कभी डाइनिंग में अवश्‍य चला जाता था , पर इसे अनदेखा करके हम चैन की सांस लेने लगे थे।

हमें बाद में मालूम हुआ कि यह फ्लैट मुझे इतनी जल्‍दी सामान्‍य परिस्थितियों में नहीं मिला था , वो इसलिए मिला था , क्‍यूंकि लोग इसमें रहना पसंद नहीं करते थे ,  इसका नंबर 420 जो था। मकानमालिक ने बाद में स्‍पष्‍ट किया कि प्‍लॉट एलॉट होने के वक्‍त भी कम प्‍वाइंट होने के बाद भी उन्‍हें यह प्‍लॉट आसानी से मिल गया था , क्‍यूंकि अधिक प्‍वाइंटवाले लोग प्‍लॉट नं 420 को लेकर अपनी छवि को खराब नहीं करना चाहते थे। भला हो उन कुछ नंबरों का , जिसे आमतौर पर लोग प्रयोग नहीं करना चाहते और वह नंबर मुसीबत में पडे लोगों की मदद कर देता है। ऐसी परिस्थिति में ही मुझे भी 420 में रहने का मौका मिल गया , पर मात्र 18 दिनों तक ही वहां रह पायी , आखिर क्‍या हुआ आगे ?? इसे जानने के लिए अगली कडी को पढना न भूलें।

Friday 6 August 2010

इतने निकट रहते हुए भी हमें मालूम न था .. बोकारो में मकान की इतनी किल्‍लत है !!

पिछले अंक में आपने पढा कि कितनी माथापच्‍ची के बाद हमने आखिरकार बच्‍चों का बोकारो में एडमिशन करवा ही लिया। 1998 के फरवरी के अंत में बच्‍चों के दाखिले से लेकर स्‍कूल के लिए अन्‍य आवश्‍यक सामानों की खरीदारी , जो आजकल आमतौर पर स्‍कूलों के द्वारा ही दी जाती है , सब हो गयी थी और 2 अप्रैल से क्‍लासेज शुरू होने थे , जिससे पहले हमें मार्च के अंत में बोकारो में किराये का मकान लेकर शिफ्ट कर जाना था। हमने अपने सारे परिचितों को बोकारो में एक किराए के मकान के लिए कह दिया था , पर पूरा बोकारो शहर SAIL के अंदर आता है , वहां उनके अपने कर्मचारियों के लिए क्‍वार्टर्स बने हैं , जिसमें वो रहते हैं। शहर के एक किनारे बी एस एल के द्वारा ही एकमात्र प्राइवेट कॉलोनी 'कॉपरेटिव कॉलोनी' बनायी गयी है , जिसमें बिजली और पानी की सप्‍लाई बी एस एल के द्वारा की जाती है , पर मांग की तुलना में मकान की कमी होने से ये भी सर्वसुलभ नहीं। बैंक , एल आई सी या अन्‍य छोटी बडी कंपनियों के कर्मचारी वहां रहा करते है। बडे बडे व्‍यवसायियों के रहने के लिए मार्केट कांप्‍लेक्‍स में उनके अपने मकान हैं।

यहां के छोटे व्‍यवसायी या बाहरी लोग विस्‍थापित चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को एलॉट किए गए छोटे छोटे क्‍वार्टर्स को किराये में ले लेते हैं , जरूरत हो तो उसी कैम्‍पस में एक दो कमरे बना लेते हैं , क्‍यूंकि ऐसे कर्मचारी अपने गांव में रहते हैं और उनके क्‍वार्टर्स खाली पडे होते हें। BSL के अनुसार यह गैरकानूनी तो है , पर आम जनों के लिए इसके सिवा कोई विकल्‍प नहीं। मुझे अकेले ही दोनो बच्‍चों को लेकर रहना था , इसलिए मैने वैसे ही किसी कर्मचारी की खोज आरंभ कर दी। जान पहचान के लोगों को फोन करने पर जबाब मिलता ... बोकारो में जीने खाने के लिए नौकरी मिल जाती है , विवाह करने के लिए छोकरी भी मिल जाती है , पर घर बसाने के लिए कोठरी क्‍या , झोपडी भी नहीं मिलती , सुनकर मन परेशान हो जाया करता था। देखते देखते मार्च का अंतिम सप्‍ताह आ गया , दो चार दिनों में क्‍लासेज शुरू होने थे और रहने के लिए मकान का अता पता भी नहीं था।  वास्‍तव में बोकारो के इर्द गिर्द के शहर या अन्‍य कॉलोनी में पानी की व्‍यवस्‍था मकानमालिकों को खुद करनी पडती है , जबकि बिजली के लिए वे राज्‍य सरकार पर निर्भर रहते हैं , दोनो असुविधाजनक है , किराएदार वहां रहना पसंद नहीं करते , इसलिए बोकारो के सभी सेक्‍टरों की मुख्‍य कॉलोनी पर पूरा दबाब बना होता है।

हारकर हमने बोकारो से बिल्‍कुल सटे शहर चास में डेरा लेने का निश्‍चय किया । बोकारो और चास के मध्‍य एक छोटी सी नदी बहती है और दोनो के मध्‍य दो चार सौ मीटर की एक पुल का ही फासला है। स्‍कूल की बस वहां तक आती थी , इसलिए अधिक चिंता नहीं थी , कुछ लोगों ने वहां के पीने के पानी की शिकायत कर हमें भयभीत जरूर कर दिया था। चास में डेरा मिलने में देर नहीं लगी और 1 अप्रैल को हमलोग कामचलाऊ सामान के साथ इसके गुजरात कॉलोनी के एक मकान में शिफ्ट कर गए। पता नहीं , किसने घर का नक्‍शा तैयार किया था , इस घर के एक कमरे में एक भी खिडकी नहीं थी , जबकि दूसरे में चारो ओर खिडकियां ही खिडकियां , वो भी बिना ग्रिल या रॉड की अनफिट दरवाजे वाली। कम सामान के कारण दो चार घंटे में ही घर व्‍यवस्थित हो गया , पर पहले ही दिन खाना खाने से भी पहले हुई बारिश ने न सिर्फ इस घर का पूरा पोल खोलकर रख दिया , वरन् हमें अप्रैलफूल भी बना दिया। थोडी ही देर में पूरा कमरा बारिश के पानी से भरा था और भीगने से बचाने के क्रम में सारा सामान कमरे के बीचोबीच। 'मैं इस घर में नहीं रह सकती , बरसात से पहले पहले दूसरा घर देखना होगा' मैने निश्‍चय कर लिया था , पर बाद में अन्‍य कठिनाइयों को देखते हुए महसूस हुआ कि इस कॉलोनी मे मकान बदलने से भी कोई फायदा नहीं होनेवाला।

दूसरे दिन से बच्‍चों ने स्‍कूल जाना शुरू कर दिया था , पर शाम को चार घंटे बिजली गुल , न तो होमवर्क करना संभव था और न ही खाना बनाना। कई दिन तो बच्‍चे बिना होमवर्क के भूखे सो गए , सुबह जल्‍दी उठाकर उन्‍हें होमवर्क कराने पडते। फिर मैने एक उपाय निकाला , उन्‍हे दिन में सुलाना बंद कर दिया , स्‍कूल से आने के बाद खिलाकर होमवर्क करवाती , शाम को फिर से नाश्‍ता और नींद आने के वक्‍त हॉर्लिक्‍स पिलाकर सुला देती , दूध तो तब लेना भी नहीं शुरू किया था।  पर समस्‍या एक नहीं थी , शाम बिजली के जाते ही जेनरेटरों की आवाज से जीना  मुश्किल लगने लगता। कुछ दिनों तक एक छोटा भाई मेरे साथ था ,  छोटी सी बालकनी में मुश्किल से दो कुर्सियां डालकर हम दोनो बैठे रहते , कुर्सियों के हत्‍थे पर थोडी देर बच्‍चे बैठते , फिर थककर सो जाते।10 बजे रात में लाइट आने से पहले तक हमलोग दोनो सोए बच्‍चों को पंखा झलते , लाइट आने के बाद खाना बनाते , तब खाते। अंधेरे , गर्मी और होहल्‍ले की वजह से मेरे सर मे दर्द रहने लगा था।

परेशान हो गए थे हमलोग इस रूटीन से , हमलोग समझ चुके थे कि चास में रहकर बच्‍चों को पढा पाना मुश्किल है , इसलिए प्रतिदिन बोकारो आकर अपने परिचितों के माध्‍यम से क्‍वार्टर्स के बारे में पता करते। इतने आसपास में बसे दो शहर और दोनो में इतना फर्क , हमें ऐसा महसूस होता , मानो दोनो शहरों के मध्‍य बहती नदी पर बना वह पुल स्‍वर्ग और नरक को जोडता हो। ऐसे ही तनावपूर्ण वातावरण में एक महीने व्‍यतीत हो गए और 4 मई का दिन आ गया , जहां से 45 दिनों की गर्मियों की छुट्टियां थी , हमलोग वापस अपने घर आ गए। हमें 45 दिन पुन: मकान ढूंढने के लिए मिल गए थे , जिससे काफी राहत हो गयी थी। तबतक हमने फर्नीचर भले ही यहां छोड दिए हों , पर मन ही मन तैयार थी कि यदि बोकारो मे घर नहीं मिला तो यहां दुबारा नहीं आऊंगी , क्‍यूंकि मुझे बच्‍चों को पढाने के लिए ही यहां रहना था और ऐसे वातावरण्‍ा में जब बच्‍चे पढ ही नहीं पाएंगे , तो फिर यहां रहने का क्‍या फायदा ?? बोकारो के खट्टे मीठे अनुभवों से संबंधित पोस्‍ट आगे भी चलती ही रहेगी।

Wednesday 4 August 2010

किसी प्रकार के रिस्‍क से भय कैसा .. अपने घर लौटने के लिए तो रास्‍ता हमेशा खुला होता है !!

बेटे के एडमिशन के सिलसिले में एक सप्‍ताह से नेट से , ब्‍लॉग जगत से दूर थी , कुछ भी लिखना पढना नहीं हो पाया। दो वर्ष पहले जब बडे बेटे ने अपनी पढाई के लिए घर से बाहर कदम बढाया था , छोटे की घर में मौजूदगी के कारण बनी व्‍यस्‍तता ने इसका अहसास भी नहीं होने दिया था। पर इस बार छोटे का कॉलेज में दाखिले के बाद घर लौटना हुआ तो घर इतना खाली लग रहा है कि यहां रहने की इच्‍छा नहीं हो रही। वैसे रहने की बाध्‍यता भी इस घर में , इस शहर में नहीं है , क्‍यूंकि ये शहर तो मैने बच्‍चों की 12वीं तक की पढाई लिखाई के लिए ही चुना था , जो पूरा हो चुका। पर जहां की मिट्टी में एक बार घुलना मिलना हो जाता है , तुरंत पीछा छुडा पाना इतना आसान भी तो नहीं होता। 12 वर्षों का समय कम भी तो नहीं होता , शहर के एक एक गली से ,घर के एक एक कोने से ऐसा जुडाव हो जाता है कि उससे दूर होने का जी भी नहीं करता। किसी नई जगह जाना हो , तो एक उत्‍सुकता भी मन में होती है , पर उसी पुरानी छोटी सी जगह में लौटना , जिसे 12 वर्षों पहले छोडकर आयी थी , मन में कोई उत्‍साह नहीं पैदा करता है। वैसे तो उस छोटी सी कॉलोनी के अंदर भी सुख सुविधा की तो कोई कमी नहीं , पर जो बात इस शहर में है , वो भला कहीं और कहां ??

12 वर्ष पहले की एक एक बात हमें याद है , सभी जागरूक अभिभावकों की तरह ही हमें भी यह अ‍हसास होने लगा था कि बच्‍चों को पढाई लिखाई का अच्‍छा माहौल दिया जाए , तो उनके कैरियर को मजबूती दी जा सकती है। बच्‍चों को लकर हमारी महत्‍वाकांक्षा बढती जा रही थी और हमारी कॉलोनी के जिस स्‍कूल में बच्‍चे पढ रहे थे , उसमें पढाई लिखाई के वातावरण का ह्रास होता जा रहा था। राज्‍य सरकार के विद्यालयों को तो छोड ही दें , बिहार और झारखंड के केन्‍द्रीय विद्यालय का तो हाल भी किसी से छुपा न होगा। पढाई के ऐसे वातावरण से ऊबकर हमलोग अच्‍छे अच्‍छे अवासीय स्‍कूलों का पता करने लगें। पर उनमें दो बच्‍चों की पढाई का बजट हमारी क्षमता से अधिक था। कुछ दिनों तक दौड धूप करने के बाद हम निराश बैठे थे कि अचानक बोकारो के 'दिल्‍ली पब्लिक स्‍कूल' में हर कक्षा में एक नए सेक्‍शन के शुरूआत की घोषणा की खबर हमें मिली। हमने स्‍कूल से दो फार्म मंगवा तो लिए , पर स्‍कूल में होस्‍टल की व्‍यवस्‍था नहीं थी , बच्‍चे छोटे थे , इसलिए कोई वैकल्पिक व्‍यवस्‍था भी नहीं की जा सकती थी , यह सोंचकर हमलोग दाखिले के लिए अधिक गंभीर नहीं थे।

पर बोकारो के इस स्‍कूल की सबने इतनी प्रशंसा सुनी थी कि फॉर्म जमा करने के ठीक एक दिन पहले परिवार के अन्‍य सदस्‍यों के बातचीत के बाद निर्णय हुआ कि फार्म भर ही दिया जाए , रिजल्‍ट से ये तो पता चलेगा कि बच्‍चे कितने पानी में हैं। जहां तक एडमिशन कराने की बात है , कोई बाध्‍यता तो नहीं है , रिजल्‍ट के बाद ही कुछ सोंचा समझा जाएगा। पर दूसरे दिन दिसंबर का अंतिम दिन था , कंपकंपाती ठंड महीने में लगातार बारिश , मौसम के बारे में सब अंदाजा लगा सकते हैं, फार्म जमा करने की हमलोगों की इच्‍छा समाप्‍त हो गयी थी ,  पर अपने भांजे के बेहतर भविष्‍य के लिए वैसे मौसम में भी बस से लंबी सफर करते हुए दिनभर क्‍यू मे खडा रहकर मेरा भाई फॉर्म जमा करके आ ही गया , साथ में परीक्षा की तिथि लेकर भी। बच्‍चों को हमने एक सप्‍ताह तक परीक्षा की तैयारी करायी , परीक्षाभवन में भीड की तो पूछिए मत , बोकारो के अभिभावकों के लिए डी पी एस पहला विकल्‍प हुआ करता है । पर दोनो भाइयों ने लिखित के साथ साथ मौखिक परीक्षा और इंटरव्‍यू तक में अच्‍छा प्रदर्शन किया और क्रमश: तीसरी और पहली कक्षा में एडमिशन के लिए दोनो का चयन कर लिया गया।

दोनो में से किसी एक के चयन न होने से हमारे सामने बोकारो न जाने का अच्‍छा बहाना हो जाता , पर दोनो के चयन के बाद हमारी मुश्किल और भी बढ गयी। एडमिशन तक के दस दिनों का समय हमलोगों ने किंकर्तब्‍यविमूढता में गुजारे। ये नौकरी छोडकर बोकारो आ नहीं सकते थे , बच्‍चों को दूसरी जगह छोडा नहीं जा सकता था , एकमात्र विकल्‍प था , मैं उनको लेकर यहां रहूं , एक दो वर्ष नहीं , लगातार 12 वर्षों तक । पर बडे होने पर बच्‍चे मेरी आज्ञा की अवहेलना करें , पिता के घर में नहीं होने से पढाई न करें , बिगड जाएं तो सारी जबाब देही मेरे माथे पर ही आएगी , सोंचकर मैं परेशान थी। लेकिन एडमिशन के डेट के ठीक दो दिन पहले यहां भी निर्णय हुआ।

इनके एक मित्र के भाई बोकारो में रहते थे , डी पी एस की पढाई और व्‍यवस्‍था के बारे में उन्‍हें जानकारी थी। वो संयोग से हमारे यहां आए , जब सारी बातों की उन्‍हें जानकारी हुई , तो उन्‍होने तुरंत एडमिशन कराने को कहा। भविष्‍य के प्रति हमारी आशंका को देखते हुए उन्‍होने कहा .. 'अपने घर लौटने के लिए तो आपका रास्‍ता हमेशा खुला होता है , किसी प्रकार के रिस्‍क लेने में भय कैसा ?? दूसरी जगह जाने के लिए मौका कभी कभार ही मिलता है , वहां कोई परेशानी हो , उसी दिन वापस लौट जाइए।  हां , इसमें कुछ पैसे भले ही बर्वाद होंगे , पर इसे अनदेखा किया जाना चाहिए।' उनका इतना कहना हमें बहुत कुछ समझा गया । पुरानी व्‍यवस्‍था को बिना डगमग किए सफलता की ओर जाने का कोई चांस मिले तो वैसे रिस्‍क लेने में भला क्‍या गडबडी ?? हमलोगों ने तुरंत एडमिशन का मन बना लिया और दूसरे ही दिन बोकारो आ गए। आगे की पोस्‍टों में भी चलता ही रहेगा .. बोकारो के 12 वर्षों के सफर के खट्टे मीठे अनुभव !!